इस्मत आपा को पढ़ते हुए

निवेदिता

पेशे से पत्रकार. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय .एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’. भी दर्ज कराई है. सम्पर्क : niveditashakeel@gamai



इस्मत आपा को पढ़ते हुए मैं आग, बारिश और तूफानों से घिर गयी हूँ.अचानक जैसे भीतर कोई बांध बिना सूचना दिए टूट गया और मैं बहने लगी,गहरे जल में. उनसे मेरी इस कदर दोस्ती हो गयी कि मैं  हाथ बढ़ाकर उनकी हरारत महसूस कर रही हूँ सारे अफसाने मेरे सिराहने बैठ गए हैं.मैंने मुस्कुराने की कोशिश की, मेरे हलख सूख गए जैसे किसी ने मेरे जबड़े और होठ भींचकर बंद कर दिए हों.कहानियों के सारे किरेदार बाहर निकल आये हैं और मुझ से पूछने लगे हलक में तीर क्यों मारा? मैंने हकलाते हुए कहा नहीं तो हमने तो तीर नहीं मारा. इस्मत आपा मुस्कुराने लगी, उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और हमदोनों उनके बचपन की यादों में डूबते उतरते रहे गुब्बारे.. कारवां..क्या लिखा है आपा ने. पाठकों की रूह में उतर गयीं हैं. मजाल है आपकी गिरफ्त से कोई अफसाना निकल जाये ! एक दिन एक मुहर्रम की शोकसभा में पहली बार  उन्हें मर्सिया और नौहें का मतलब समझ आया और जब अली असगर के हलक में तीर पैवस्त होने का जिक्र आया तो खौफ से उनकी घिग्धी बांध गयी. उन्होंने दहाड़े मारकर रोना शुरू किया. मातम करने वाली बीबियाँ एकदम चुप हो गयीं.बड़ी हैरत से उन्हें देखने लगी.वो थी कि जारो.कतार रोये  जा रही थीं. क्यों मारा हलक में तीर क्यों मारा मचल मचल कर पूछने लगीं.तीर क्यों मारा? हाथ में मार दिया होता. बेचारे के हलक में क्यों मारा. रोते हुए शेखानी बुआ की बगल में सिसककर पूछा?
“ऊ अजिद हरामी रहे !उन्होंने समझाया
‘तो उसके पास  बच्चे को क्यों ले गए?’
“बच्चा पियासा रहे”
“तो उसे दूध दिया होता?
“दूध माँ का  खुश्क होई गवा रहे”
“तो पानी ही दे दिया होता”
“पानी कहाँ रहे? नहर पे  तो ओकी फौज का पहरा रहे’
“क्यों” अब हम ई का जाने रहे. कुछ गडबड”
“फिर”
“बच्चा का पानी पियाय खातिर नाहर पा ले के गए तो उतार दिहिस तीर”
“हलक में”
“हाँ”
और मेरे हलक में बड़े बड़े काटेदार डोले फंसने लगे…..

ओह इस्मत आपा ! आपकी स्याही में ज़हर है और अमृत भी ! शब्द ऐसे जैसे आसमान पर सुलगते सितारे कहानियाँ जब हमारे दिलो में उतरती हैं तो नस्तर बन चुभती  हैं. आपा से  ज्यादा साफबयानी, गहरी तनकीदी और तहज़ीबी कौन हो सकता है. उनकी  बातें बड़ी वाजेह होती हैं. पूरे सब्र और तहम्मुल से बात करतीं हैं.किसी को बख्श नहीं देती अपनी माँ को भी नहीं… “हम इतने सारे बच्चे थे कि हमारी माँ को हमारी सूरत से कै आती थी, एक के बाद एक हम उनकी कोख को रौंदते – कुचलते चले आये थे उल्टियां सह.सह कर वह हमें एक सज़ा से ज्यादा अहमियत नहीं देती थीं. कम उम्र में ही फैलकर चबूतरा हो गयी थीं”मैं नहीं जानती उनको पढ़ते हुए कब मैंने उनके साथ यारी कर ली. उनके आजाद ख्याल और मेरी आवारागर्दी में कुछ तो ताल्लुक है सच को बिना किसी मिलावट के कहने की कला तो कोई आपा  से सीखे. रगों के भीतर कहानियां दौड़ने लगतीं हैं. मानवीय सच को पूरी प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत करती हैं. उनकी कहानियों से हमारे दिमाग की नसें चटकने लगती हैं समाज के कितने फोड़े,मवाद,  पीप बहने लगते हैं.  उसके भीतर से  मुकम्मल कहानियां निकलती है. उन्होंने वैसी. वैसी जगह अपनी कलम चलायी जहाँ आज भी किसी लेखक को जाने की हिम्मत नहीं होती. उनकी कहानियों की तरह उनकी जिन्दगी भी कम दिलचस्प नहीं है. अपनी कहानियों पर लगे अश्लीलता के आरोप में आपा और मंटो मुकदमा के लिए लाहौर गये वहां भी उन्होंने किसी कि नहीं बक्शा शाहिद साहब के साथ मैं भी एम असलम साहब के यहाँ ठहरी थी. सलाम और दुआ भी ठीक से नहीं हुई थी कि उन्होंने झाड़ना शुरू कर दिया मेरे अश्लील लेखन पर बरसने लगे.मुझ पर भी भूत सवार शाहिद साहब ने बहुत रोका.मगर मैं उलझ पड़ी,और आपने जो गुनाह की रातें में इतनी गन्दी गन्दी पंक्तियाँ लिखी हैं. सेक्स एक्ट का वर्णन किया है. सिर्फ चटकारे के लिए  “मेरी बात और है मैं मर्द हूँ ” तो इसमें मेरा क्या कसूर क्या मतलब वह गुस्से से लाल हो गए. मतलब ये कि आपको खुदा ने मर्द बनाया है इसमें मेरा कोई दखल नहीं मुझे औरत बनाया है उसमें आपका कोई दखल नहीं. मैं आजादी से लिखने का हक़ आपसे मांगने कि जरुरत नहीं समझती. आप एक शरीफ मुसलमान खानदान की पढ़ी लिखी लड़की हैं और आप भी पढ़े. और शरीफ खानदान से हैं. इस्मत आपा को पढ़ती रहीं हूँ और उनपर मरती रही हूँ, मेरे जैसे लाखों.लाख पाठक उनके मुरीद रहे होंगे. मुझे लगता है वे लोग जो जिन्दगी से मुहब्बत करते हैं. जो अपनी आजादी से मुहब्बत  करते हैं जो पाठकों की नब्ज़ पर पकड़ रखते हैं. उनके बुखार में  तपते रहते हैं और ताप के ताए ये हुए दिन में जो  लिखते हुए कभी थकते नहीं वही तो हैं हमारी आपा. मेरे  हाथों में उनकी किताब है और बाहर आसमान सूर्ख है. जर्द तितलियाँ उड़ रहीं हैं.दूर दूर तक अमलताश के दहकते हुए फूल हवा में लहरा रहे हैं रंग बिरंगी कागजी चरखियां हवा में तेजी से घूम रही हैं मैंने कहा आपा नींद आ रही है अपनी कहानियों से कह दो मेरी नीद में आकर मुझे ६ डिग्री के बुखार का एहसास न कराएँ. आपा तुम और मंटो अफ़सानानिगारी के हर्फे आखिर हो !

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