कविता में स्त्री और स्त्रियों की कविता

प्रकाश चंद्र

महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में शोधार्थी हैं. संपर्क :9657062744
Prakashupretti@gmail.com

कविता में स्त्री की उपस्थिति के बारे में चर्चा करना कोई नई बात नहीं है । आदिकाल से लेकर आज तक की कविता में स्त्री की उपस्थिति तो दर्ज़ है लेकिन उसका स्वरूप भिन्न-भिन्न है । इसलिए महत्वपूर्ण प्रश्न भी यही है कि पहले की कविताओं में स्त्री की उपस्थिति किस रूप में है और आज जब स्वयं स्त्रियाँ लिख रही हैं तो उनकी उपस्थिति किस रूप में है ? आदिकालीन कविता में स्त्री का चित्रण युद्ध की प्रेरक तथा जीतने और भोग की वस्तु के रूप में है तो वहीं भक्तिकालीन कविता में वह प्रेमिका व दैवीय रूप में नज़र आती है । कविता में स्त्री की उपस्थिति के लिहाज़ से रीतिकाल की बड़ी निर्मम आलोचना हुई है । रीतिकाल में स्त्री को भोग विलास और सौंदर्य की प्रतिमा के रूप चित्रित किया गया । बिहारी की नायिका से लेकर घनानंद की सुजान तक में स्त्री का अपना अस्तित्व कहीं नज़र नहीं आता है । लेकिन स्त्री का ऐसा चित्रण करने वाले सभी पुरुष रचनाकार थे ।

आदिकाल में किसी स्त्री रचनाकार का पता नहीं चलता है लेकिन मध्यकाल में मीरा और अंडाल के अतिरिक्त कुछ लेखिकाओं की सूची भक्तमाल (नाभादास) में मिलती है पर साहित्य में उनका अस्तित्व नदारद है । वहीं रीतिकाल में भी स्त्री लेखन सिरे से गायब है जबकि सावित्री सिन्हा ने अपने शोध ‘मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ’ में इस काल की कवयित्रियों की लंबी सूची दी है । लेकिन साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में इनका उल्लेख कहीं-कहीं ‘फिलर’ के तौर पर दिखाई देता है । इसलिए साहित्य में स्त्री की उपस्थिति और उसमें भी कविता में स्त्री की उपस्थिति पर विचार करते हुए साहित्य के इतिहास ग्रन्थों की पड़ताल करना और उनके मर्दवादी नज़रिए को भी देखना समीचीन होगा ।अनुराधा अपने एक लेख ‘हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन पर एक स्त्री के नोट्स’ में लिखती हैं कि- “रामचन्द्र शुक्ल से पहले के इतिहास ग्रंथ भले ही तथ्यों के संकलन भर हों, पर ‘स्त्री’ के नजरिए से सोचते समय ये ग्रंथ भी महत्व रखते हैं, क्योंकि स्त्री भी एक तथ्य है। आचार्य द्विवेदी तक के अधिकतर इतिहास ग्रंथ स्त्री को पहचानने के सम्बन्ध में एक साफ-सुथरा-सा गणित रखते हैं।


वे जब किसी पुरुष कवि या लेखक को पहचानते हैं तो उसकी जाति और उपजातियों में बात करते दिखते हैं, वहीं एक स्त्री लेखक को पहचानते समय पुरुषों के साथ उसके सम्बन्धों में बात करते हैं : अमुक लेखिका अमुक की पत्नी थी, अमुक की उपपत्नी थी, अमुक की बेटी या बहन या शिष्या थी (और अपने आप में कुछ नहीं थी)। जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के जटिल समीकरण का यह खेल बहुत गहरे पैठ कर खेला गया जिसने आधी आबादी की प्रतिभा, ज्ञान, अनुभव और क्षमता को या तो हड़प कर लिया या नष्ट होने के लिए अँधेरे में छोड़ दिया। गार्सां द तासी अकेले इतिहासकार हैं जो इन मामलों में सजग हैं। अपने ‘इस्त्वार’ की भूमिका में ही वे रजिया सुल्तान को भारत के देशवासियों की प्रिय सुल्ताना कहकर स्त्री की भूमिका और इतिहास लेखन में उसके स्थान की जरूरत को रेखांकित कर जाते हैं। इन्होंने ‘इस्त्वार’ में अच्छी संख्या में स्त्रियों को जगह दी है, जबकि अधिकतर इतिहासकारों ने स्त्रियों को अधिक से अधिक किसी काल की अन्य प्रवृत्तियों में स्थान दिया है” । हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की इन जटिलताओं और चतुराइयों से भी स्त्री की उपस्थिति को समझा जा सकता है । वैसे हिंदी में मृदुवाणी (1905) शीर्षक से मुंशी देवी प्रसाद ने आरंभिक 35 कवयित्रियों की कविताओं का संकलन निकाला था । इन कवयित्रियों की कविताओं को देखें तो उसमें सामाजिक रूढ़ियों पर गहरी चोट और पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति की आकांक्षा दिखाई देती है ।

आधुनिक काल की कविता में स्त्री का एक स्वरूप बनता हुआ दिखाई देता है । स्त्री को उसके अंग-प्रत्यंग से हटकर संपूर्णता में देखने की कोशिश की जाती है । इसलिए आधुनिक कविता ने स्त्री की मध्यकालीन छवि को भी तोड़ा । स्त्री ‘कविता का by product’ नहीं है बल्कि उसकी अपनी स्वतंत्र छवि है । मैथिलीशरण गुप्त की ‘यशोधरा’ , दिनकर की ‘उर्वशी’  निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ आदि कविताओं  में स्त्री का अस्तित्व दिखाई देता है । स्त्री इन कविताओं  में ‘मैं’  के साथ है । यही ‘मैं’ या ‘सेल्फ’ आधुनिक हिंदी कविता में स्त्री की पहचान है । आधुनिक काल की कविता में स्त्री ‘केवल श्रद्धा’, ‘अबला’ और ‘नीर भरी दुख की बदली’ नहीं है, अब वह पितृसत्ता के ‘दुर्ग द्वार पर दस्तक’ देती हुई अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही है। अब उसे पुरुषों की कविताओं में से झाँकने की जरूरत नहीं है बल्कि वह अब स्वयं रच  रही हैं । अनामिका ने  ‘कहती हैं औरतें’ किताब की भूमिका में लिखा है कि “एक जमाना था जब पुरुष कविताएँ लिखते थे और औरतें उन कविताओं के अनंत छिद्रों से अच्छी बच्ची की तरह झाँकती मंद-मंद मुस्काया करती थीं । उन औरतों के खास लक्षण होते थे – 1.वे सर्वदा सुंदर होती थीं, सर्वांग सुंदर, पर उन्हें डर बना रहता था कि उनसे उनका यौवन और सौंदर्य छिन न जाए, 2. अक्सर वे असमय ही भगवान को प्यारी हो जाती थीं और 3. आजीवन, जीवन के बाद भी उनका इकलौता काम होता था अपने प्रिय में प्रेरणा पम्प करना किंतु अपनी सुध-बुध बिसराए रखना” । स्त्री स्वयं को रच रही हैं और साहित्य में बराबरी का दख़ल दे रही हैं साथ ही सवाल भी कर रही हैं – मैं किसकी औरत हूँ / कौन है मेरा परमेश्वर/ किसके पाँव दबाती हूँ / किसका दिया खाती हूँ / किसकी मार सहती हूँ  । ये पंक्तियाँ हमसे इतनी सरल भाषा में वे प्रश्न पूछती हैं जो पहले कभी नहीं पूछे गए । क्या पितृसत्तात्मक समाज के पास इन ‘अबोध’ सवालों का कोई जवाब है? यदि बात समकालीन हिंदी कविता की कि जाए तो उसमें स्त्री न बिहारी की नायिका है न छायावादियों की एकान्त प्रणयिनी है बल्कि अपनी पूरी साधारणता, कमजोरियों और विशिष्टताओं के साथ विद्यमान है। वह न अब ‘अबला’ और न ही ‘प्रेयसी’  है वह अपने अस्तित्व के साथ नज़र आती है । समकालीन कविता के फलक को देखें तो कई कवयित्रियाँ कविता लेखन में सक्रिय रूप से दिखलाई पड़ती हैं । स्त्रियाँ अपनी कविताओं में स्वयं को रच रही हैं और पुंसवादी समाज के द्वारा स्त्रियों का जो मिथ गढ़ा गया था उसे भी तोड़ रही हैं । गगन गिल का कविता संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ में पुराने मिथ को तोड़कर उस नई लड़की की तस्वीर है जो न तो मात्र देह है और न देवी बल्कि अपनी पूरी इयत्ता और चेतना के साथ मौजूद है।

स्त्री कविता में स्त्री 

समकालीन स्त्री कविता में स्त्री की
उपस्थिति देखें तो उसके कई आयाम दिखाई देते हैं । सदियों के दासत्व से मुक्ति की झटपटाहट, मैं भी हूँ का भाव और सामाजिक रूढ़ियों से टकराती हुई स्त्री दिखाई देती है । स्त्री ने जब स्वयं को रचा तो उस मध्यकालीन स्त्री की छवि को तोड़ा जो उसे भोग की वस्तु और शृंगार की प्रतिमा के रूप में चित्रित कर रहा था । रीतिकालीन कवियों ने जो नायिकाओं के कई भेद बतलाए और श्रेष्ठ स्त्री के गुणों को निर्धारित किया स्त्री कवयित्रियों ने उस पर भी चोट की । हमारे रीतिकालीन कवियों ने स्त्री यानि नायिका के कई भेद और उभेद बताए । नायिका भेद पर लगभग दो सौ ग्रंथ हमारे आचार्यों ने लिख डाले । मतिराम का ‘रसराज’ या फिर पद्माकर के ग्रन्थों में नायिका की आयु, गंध , सौंदर्य आदि के हिसाब से कई भेद हैं । एक सम्पूर्ण स्त्री जो अपने अस्तित्व और चेतना के साथ हो वह कहीं नज़र नहीं आती है । अनामिका स्त्री की इस छवि के खिलाफ लिखती हैं कि -आचार्य, हम इनमें कोई नहीं-/कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं-/मुग्धा, प्रगल्भा, विदग्धा या सुरतिगर्विता/परकीया भी नहीं, न स्वकीया ही!/मुग्धाएं जब थीं हम/देनी थी हमको परीक्षाएं/बोर्ड के सिवा भी कई,/संस्थानों में प्रवेश की परीक्षाएं देते हुए/हमें फुर्सत ही नहीं मिली / मध्यकाल में स्त्री एक ‘ऑब्जेक्ट’ के रूप में चित्रित है जो कविता का ‘बाय प्रॉडक्ट’ भी है जिसका काम अपनी यौनिकता, सुंदरता से पुरुष यानि नायक को रिझाना है । अनामिका और अन्य कवयित्रियों ने स्त्री की इसी छवि को तोड़ा है । यही नई स्त्री गगन गिल के वहाँ भी है । स्त्री की जो विरहव्याप्त छवि गढ़ी गई है दरअसल वह स्त्री है ही नहीं । स्त्री को कविता में विरहिणी के रूप में ज्यादा चित्रित किया वह राधा से लेकर बिहारी की नायिकाओं तक में देखा जा सकता है । बिहारी की नायिका विरह में इतनी दुबली हो गई है कि साँस छोड़ने में छ: सात हाथ पीछे चली जाती है और सांस लेने में आगे आ जाती है – इत आवति चलि जात उत चली छः सातक हाथ/ चढ़ी हिंडोरे सी रहै लगी उसासन हाथ । दरअसल स्त्री की जो ये आरोपित छवि है इसे कवयित्रियों ने चुनौती दी । साथ ही संस्कृति के गौरव के नाम पर जो स्त्री शोषण सदियों से चला आ रहा है उसकी भी पहचान की । शुभा अपनी कविता ‘गौरवमय संस्कृति’ में स्त्री की इसी छवि पर चोट करती हैं – हमने ही लिखे हैं / स्त्रियों के विरह गीत / खंडिताओं और पतिकाओं के चित्र / कितने मनमोहक !/ …युद्धों के बीच / पिता और पुत्र के लिए विलाप करती स्त्रियाँ / कैसी नदी बहाती हैं करुण रस की / हमें आदत है इनमें स्नान करने की / हमारी भुजाएँ जब फड़कती हैं / वीर रस के ज्वालामुखी फूटते हैं / और स्त्रियाँ करुण रस की / आलंबन बनती हैं।

हमारे समाज और साहित्य ने स्त्री के लिए कुछ खांचे बनाए जिसके तहत ‘आदर्श’ स्त्री और ‘बिगड़ी’ स्त्री जैसे मिथ भी तैयार किए गए । एक स्त्री को कैसा होना चाहिए?  कैसे हँसना, बोलना, बैठना, खाना और क्या पहनना चाहिए वह सब कुछ पितृसत्तात्मक समाज ने निर्धारित कर लिए और कोई स्त्री उन नियमों से बाहर आचरण करती है तो उसके लिए बिगड़ी, बदचलन जैसे कई विशेषण भी गढ़ डाले गए । स्त्री हो / कम बोलना /कम काटना बात औरों की / मत उलझना / मत हँसना पेट पकड़ / चुप चुप गुजर जाना / उन शान –मेले से / स्त्री हो / उसी होने को होना । स्त्री की इस आचरण मूलक भूमिका को बनाने में हमारे महान साहित्य ने बड़ा योगदान दिया । समाज के इन सांचों पर साहित्य ने प्रश्न लगाने के बजाए अपनी मुहर लगाई ।  एक स्त्री के लिए इन बेड़ियों को तोड़ना और खुद को रचना कभी भी आसान नहीं रहा । स्त्री को कभी ‘मर्यादा’  (यानि जो मर्द की मर्जी हो) के नाम पर तो कभी इज्जत के नाम पर उसके सपने, उसकी ज़िंदगी, उसकी उड़ान, को कैद करने की कोशिश हमेशा से रही है  । रंजना जयसवाल इस ‘मर्यादा’ रूपी जंज़ीर में जकड़ी स्त्री के बहाने कहती हैं- मैं स्त्री हूँ और जब मैं स्त्री हूँ/तो मुझे दिखना भी चाहिए स्त्री की तरह/मसलन मेरे केश लम्बे,/स्तन पुष्ट और कटि क्षीण हो/देह हो तुली इतनी कि इंच कम न छटाँक ज्यादा/बिल्कुल खूबसूरत डस्टबिन की तरह/जिसमें/डाल सकें वे/देह, मन, दिमाग का सारा कचरा और वह/मुस्कुराता रहे-‘प्लीज यूज मी’।/मैं स्त्री हूँ और जब मैं स्त्री हूँ/तो मेरे वस्त्र भी ड्रेस कोड के/ हिसाब से होने चाहिए जरा भी कम न महीन/भले ही हो कार्यक्षेत्र कोई / आखिर मर्यादा से जरूरी क्या है / स्त्री के लिए और मर्यादा वस्त्रों में होती है ।  जिस मर्यादित और कैद स्त्री की छवि हमारे समाज और साहित्य ने गढ़ी उसे स्त्री कवयित्रियों ने तोड़ा । लेकिन समाज को इस नई स्त्री की छवि आज भी पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं है- गणित पढ़ती है ये लड़की / हिंदी में विवाद करती / अँग्रेजी में लिखती है / मुस्कराती है / जब भी मिलती है /गलत बातों पर / तन कर अड़ती / खुला दिमाग लिए / जिंदगी से निकलती है ये लड़की । यह ‘खुले दिमाग वाली लड़की’ है जो स्त्री कविता में उन पुरानी रूढ़ियों को धत्ता बताते हुए आ धमकती है साथ ही कविता में स्त्री की बनी बनाई छवि को तोड़ती है । कात्यायनी की ‘हॉकी खेलती लड़कियाँ’ कविता भी इस नए बनते समाज में स्त्री संघर्ष की प्रतीक हैं । ये लड़कियाँ ‘स्त्री’ की कमजोर छवि, अबला की छवि विलाप करती हुई छवि, पुरुष संरक्षण की आकांक्षी छवि को तोड़ रही हैं । समकालीन स्त्री कविता की यह एक बड़ी खूबी है।

समकालीन स्त्री कविता में परंपरागत स्त्री छवि को तोड़ने वाली स्त्री है तो वहीं नई राह खोजने, आत्मनिर्भर और स्वतंत्र स्त्री भी है। लेकिन इसी ‘बाइनरी’ के बीच जहाँ ‘हॉकी खेलती लड़कियाँ’ हैं तो वहीं आदिवासी ‘मुर्मू’ और ‘सुगिया’ भी हैं । सुगिया के बहाने जब निर्मला पुतुल इस ‘सभ्य’ और ‘आधुनिक समाज’ से प्रश्न करती हैं कि यहाँ हर पाँचवाँ आदमी उससे/ उसकी देह कि भाषा में क्यों बतियाता है? ।  तो यह समाज मौन हो जाता है । इसलिए कई बार स्त्री की उस स्वतंत्रता पर सोचने के लिए मजबूर हो जाता हूँ जो महानगर की कवयित्रियाँ की कविताओं में दिखाई देती है । सविता सिंह जब यह कहती हैं कि -मैं किसी की औरत नही हूँ,/ मै अपनी औरत हूँ,/ अपना खाती हूँ,/ जब जी चाहता है तब खाती हूँ,/ मैं किसी की मार नहीं सहती / और मेरा परमेश्वर कोई नहीं  । तो एक पल के लिए सुकून मिलता है कि स्त्री अब पुरुष सत्ता को चुनौती दे रही है और वह उसके अधीनस्थ नहीं है । लेकिन दूसरे पल सोचता हूँ की क्या सुगिया कभी ऐसा कह पाएगी ? अच्छा लगता है पढ़कर जब सुधा अरोड़ा अपनी कविता ‘अकेली औरत’ में लिखती हैं कि इक्कीसवी सदी की यह औरत/हांड मास की नहीं रह जाती/ इस्पात में ढल जाती है/ और समाज का सदियों पुराना/शोषण का इतिहास बदल डालती है । लेकिन अगले ही पल ‘मुर्मू’ और ‘सुगिया’ की इक्कीसवी सदी के बारे में सोचने लगता हूँ, वह कब  इस्पात में ढलकर अपने शोषणकारी इतिहास को बदलेगी?



कुल मिलाकर देखें तो स्त्री को गढ़ने का काम हमारा समाज आरंभ से ही करता है । सिमोन की यह उक्ति कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है’ से टकराए बिना सामाजिक जटिलताओं के बीच जूझती स्त्री को समझना थोड़ा मुश्किल है । सिमोन कि यह उक्ति बार-बार सोचने को मजबूर करती है । स्त्री का अपना क्या है? स्त्री ही क्या है ? स्त्री की देह के अतिरिक्त भी, स्त्री का कोई अस्तित्व है ? क्यों आज भी स्त्री एक अदद घर की तलाश में भटक रही है- राम, देख यह तेरा कमरा है !/‘और मेरा ?’/‘ओ पगली,’/लड़कियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं/उनका कोई घर नहीं होता है  । क्यों स्त्री को एक मुकम्मल रूप में समझने की कोशिश नहीं होती है?  क्यों स्त्री पिता और पति रूपी दो छोरों के बीच झूलती रहती है? उसकी अपनी जमीन और ठिकाना कहाँ है ? उसे जाना है आज शाम चार बजे रेलगाड़ी से /  जाना है पति के घर से इस बार पिता के घर / एक घर से दूसरे घर जाते हैं वही / नहीं होता जिनका अपना कोई घर  । क्या विमला की यह यात्रा खत्म होगी?


इस तरह देखें तो कविता में स्त्री की छवि आरंभ से ही दोयम दर्ज़े की रही है । हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों की पड़ताल करने पर यह बात सामने आती है कि कविता में स्त्री की स्थिति आधुनिक काल से पहले चेतना विहीन मात्र एक शरीर के रूप में थी । उन कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि सुंदरता को बचाए रखना और पुरुषों को रिझाना ही स्त्री का काम था । स्त्री के लिए युद्ध होते थे ‘जेहि घर देखी सुंदर नार तिह घर धरी जाए तलवार’ और उन्हें जीतना पौरुष का प्रमाण था । क्योंकि उनके लिए स्त्री मात्र ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ थी । स्त्री की इस छवि को आधुनिक काल की कविता ने कुछ हद तक तोड़ा ।आधुनिक कविता ने स्त्री को ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में देखने की प्रवृति पर चोट की लेकिन यहाँ भी स्त्री एक ‘कमोडिटी’ और पितृसत्ता के कैद में नज़र आती है । यानि स्त्री की  स्वतंत्र छवि यहाँ भी नहीं है, वह पत्नी है, माता है, दासी है, बहन है यानि की देह है लेकिन एक स्वतंत्र चेतनाशील स्त्री नहीं है । स्वतंत्र, चेतनासम्पन, संघर्षरत और मैं यानि ‘सेल्फ’ के साथ मौजूद स्त्री हमें समकालीन स्त्री कविता में दिखाई देती है । स्त्री ने जब स्वयं को रचा तो उन श्र्ंगार की प्रतिमाओं को भी खंडित किया जो मध्यकाल में खड़ी की गई थी । समकालीन स्त्री कविता ने मध्यकालीन जड़ताओं  को तोड़ा, नायिका भेद से लेकर स्त्री के दोयम होने के भाव तक को खंडित किया । अनामिका की एक कविता है ‘मरने की फुर्सत’ जरा सोचिए इसके बारे में और समझिए कविता में स्त्री और ‘स्त्री की कविता’ की ताकत को –
ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक
धर्म ग्यारह बरस की उम्र से
उनको ठिठकाए ही रखता
देवालय के बाहर….. !

संदर्भ सूची
1.http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=720&pageno=1
  2. अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.11 
  3.अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.137 
  4.अनामिका, (2012), पचास कविताएं, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृ.109 
  5.अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.80 
  6.अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.43 
  7.रंजना जयसवाल, (2009), जब मैं स्त्री हूँ, नई किताब प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 5    
  8.अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.55 
  9.निर्मला पुतुल, (2012), नगाड़े की तरह बजते शब्द, ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 81     
 10.अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.137 
 11. सुधा अरोड़ा, अकेली औरत, वागर्थ पत्रिका  
 12.अनामिका, (2012), पचास कविताएं, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 40  
 13. अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 139     
 14.अनामिका, (2012), पचास कविताएं, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 93     

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