वासना नाजायज नहीं होती: लिपिस्टिक अंडर बुर्का बनाम बुर्के का सच

कुमारी ज्योति गुप्ता


कुमारी ज्योति गुप्ता भारत रत्न डा.अम्बेडकर विश्वविद्यालय ,दिल्ली में हिन्दी विभाग में शोधरत हैं सम्पर्क: jyotigupta1999@rediffmail.com

‘लिपिस्टिक अंडर माय बुर्का’ स्त्री जीवन की सच्चाइयों को कई पर्तों में हमारे सामने रखती है। यह फिल्म परंपरा और आधुनिकता की उलझन में उलझी स्त्रियों की ज़िंदगी की दासतान है। जो न तो पूरी तरह से आधुनिक बन पाती हैं और न ही पूरी तरह से परंपरा को खारिज कर पाती हैं। ‘लिपिस्टिक’ आधुनिकता,रंगीन ख्वाइश और बाज़ार का प्रतीक है जबकि ‘बुर्का’ परंपरा और स्त्रियों पर लगाए गए पितृसत्तात्मक पहरे का। यहां अपने सपनों को पूरा करने की लालसा में परंपरा और आधुनिकता का मिलन दिखता है पर चोरी-चोरी। चोरी-चोरी इसलिए क्योंकि हमारे समाज को खुलापन पसंद है लेकिन स्त्रियों के संदर्भ में नहीं। चार स्त्रियों की ज़िदगी बुर्के के अंदर कैद है जिससे बाहर निकलने की छटपटाहट उन्हें चोरी छिपे वह सबकुछ करने को मजबूर करती है जो समाज के नज़र में गलत है।

बुआजी (रत्ना साह) की कहानी फिल्म में ऐसी औरत के रूप में सामने आई है जो परिवार की मुखिया है। साहसी है लेकिन साहस उसके व्यापार और परिवार तक है जहां वह हवाई महल की मालकिन के रूप में सामने आती है। उसकी बौद्धिकता और परिपक्वता के सामने बड़े-बड़े बिल्डर भी खुद को हारा हुआ मानते हैं। चौकाने वाली बात यह है कि बात जब उनके सपने की आती है तो वे खुद को इतना कमजोर क्यों समझती हैं। एक लड़का सामने से उनकी इज्जत उछाल कर चला जाता है और बदले में वे उसे कुछ नहीं कहती। क्या बड़े उम्र की औरत का मन भी बूढ़ा हो जाता है? उम्र तो शरीर की बढ़ती है मन की नहीं। जवानी में विधवा हो गई बुआजी  का कसूर क्या था कि उनसे उनके सपने देखने का अधिकार छीन लिया जाता है। कृष्णा सेबती ने ‘मत्रों मरजानी’ में भी इस अहम प्रश्न को उठाया था। गौर करने वाली बात यह है कि बुआजी को स्वीमिंग सिखाने वाले उस लड़के में ऐसा क्या दिखता है कि वे उम्र का लिहाज भूल जाती हैं। क्या वे व्यभिचारी थीं, क्या उन्होंने कभी किसी और के साथ संबंध स्थापित किया था , नहीं बिल्कूल नहीं। वे अपनी उम्र और कायदे को जानती थीं। उन्हें सभी (बच्चे, बूढ़े,जवान) बुआजी के नाम से ही बुलाते थे जिसमें सिर्फ बड़ा हाने का अहसास और रिश्ता है। पर जब वे स्वीमिंग पूल में डूबती हैं और बचाने वाला युवक उनका नाम पूछता है तो थोड़ी देर वे सोचने लगती हैं फिर अचानक कहती हैं ‘बुआजी’ जबकि यह उनका नाम नहीं । युवक के फिर से पूछने पर वे अपना नाम बताती हैं ‘उषा’। उषा नाम में पहली बार उन्हें अपनी पहचान का अहसास होता है। यह नाम एक महिला का है जो कि सिर्फ एक स्त्री है किसी की बुआ नहीं। इसलिए सिर्फ एक स्त्री के रूप में वह अपने अरमानों के अहसास में बहने लगती हैं। एक स्त्री मन जिसे सपने देखने की आज़ादी नहीं वह बुर्के के अंदर लिपिस्टिक लगा कर रंगीन जीवन के सपने देखने लगती है। उसने सामने से उस लड़के को कभी अपनी सच्चाई नहीं बताई क्योंकि अपनी उम्र का लिहाज उसे है। लेकिन क्या करे उस मन का जो बिन पानी सफरी सी छटपटाता है। ऊपर से परंपराओं का इतना सख्त पहरा। इसमें बुआजी परंपरा नहीं तोड़ती न ही युवक के सामने कोई अपील करती हैं। परंपरा से बिना टकराए अपने रंगीन पंख से ख्वाइशों  की दुनियां में उड़ना चाहती हैं।

शीरीन अस्लम(कोनकोना सेन) के माध्यम से ऐसी स्त्री चरित्र को सामने लाया गया है जो हमारे समाज में भरी पड़ी हैं। जिन्हाने अपने शरीर का मालिक अपने शौहर कों बना रखा है। धूमिल की एक प्रसिद्ध पंति इस संदर्भ में याद आती है कि ‘हर तीसरे गर्भपात के बाद , औरत धर्मशाला हो जाती है।’ शीरीन अस्लम एक सेल्स गर्ल होते हुए भी बच्चा पैदा करने की मशीन के रूप में जानी जाती है। वह सिर्फ शरीर बनकर पति के साथ रहती है। छिप कर काम करती है। नौकरी करना कोई बुरी बात नहीं लेकिन पति की पितृसत्तात्मक सोंच के आगे वह मजबूर है। नौकरी करके वह अपनी ख्वाइश और सपने तो पूरी करती है लेकिन पति को पता चलते ही हार मान लेती है। ये एक ऐसी औरत है जो पितृसत्ता और परंपरा का विरोध नहीं करती, ज़िंदगी तो जीती है लेकिन अपनी शर्तों पर नहीं। हमारे समाज की सच्चाई यही है क्योंकि शर्तों की ज़िंदगी जीने के लिए जो अधिकार उसे चाहिए वो उसके पास नहीं है।



लीला (अहाना कुमरा) परंपराओं को चुनौती देकर अपने सपनों को पूरा करना चाहती है लेकिन सपनों तक पहुंचने के लिए जो सीढ़ी वह चुनती है वह बीच में ही उसे गिरा देता है। वह परंपरा की नहीं परिस्थिति की गुलाम बन कर रह जाती हैं। दो नांव पर सवार यात्री की तरह वह बीच भंवर में ही फंस जाती है।

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का : क़त्ल किए गए सपनों का एक झरोखा

रेहाना अबीदी (प्लाबिता बोर्थाकुर) एक ऐसी नौजवान लड़की है जो निहायत परंपरावादी परिवार से है। इसके परिवार में पढ़ने की छूट है पर विाचारों में बदलाव की कोई गुंजाइश  नहीं। आधुनिकता से इस परिवार का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं इसलिए शीरीन बुर्का पहनकर कॉलेज के लिए निकलती है जबकि बुर्के के अंदर की सच्चाई कुछ और है। संगीत में रचा बसा  उनका मन उसे वो सबकुछ करने की इजाजत देता है जो उसकी परंपरा के खिलाफ है। वह अपने को आधुनिक भी दिखाती है और अपने सपनों को भी पूरा करना चाहती है इसलिए वह सिगरेट, शराब भी पीती है। म्यूजिक बैंड में षामिल होने के लिए खुद को मार्डन लड़की के रूप में पेश भी करती है और सारी हदे पार करके चोरी तक करती है। आज कल स्कूल-कॉलेज में भी कई छात्र-छात्राएं आधुनिकता की चकाचौंध  में शामिल होने के लिए गलत रास्ता अपना लेते हैं जैसा कि रेहाना अबीदी करती है। इसके पीछे उसका कोई गलत इरादा नहीं होता क्योंकि उसे सिर्फ अपने सपने दिखते हैं जो उसके अब्बू-अम्मी कभी पूरे नहीं होने देते।

अतः हम कह सकते हैं कि ये चारों स्त्रियां बिना परंपरा से पंगा लिए अपनी-अपनी सपनों की दुनियां में निकल पड़ती हैं लेकिन सपना टूटते ही जब वे हकीकत की दुनियां में आती हैं तो इस समाज की जिल्लत झेलती हैं। बंद कमरे में जीने के लिए बेबस सिगरेट के धूएं में अपनी परेशानियां उड़ाती नज़र आती हैं। कहीं न कहीं पितृसत्तात्मक समाज मुंह उठाए उन्हें चुनौती देता है कि हमारी बनाई दुनियां में तुम्हें बुर्के में ही जीना होगा। तुम्हारी कामना, तुम्हारा लस्ट, तुम्हारी वासना नाजायज है. यह सच है कि वासना नाजायज नहीं एक व्यक्ति की देह का जायज सच है, लेकिन जीना हकीकत  की दुनियां में है जहां परंपरा, आदर्श और नैतिकता का दावेदार पुरुष है। हां ये सच है कि ये औरतें खुला विद्रोह नहीं करती लेकिन औरत और उसके जीवन की जमीनी सच्चाई को पूरी ईमानदारी के साथ प्रस्तूत करती हैं। फिल्में समाज का आइना होती हैं वे हमें आइना दिखाती हैं। निर्णय हमें करना होता है। इस अर्थ में ये स्त्रियां स्त्री संसार की सच्चाइयों का आइना प्रस्तुत  करती हैं।

सावधान ! यहाँ बुर्के में लिपस्टिक भी है और जन्नत के लिप्स का आनंद लेती उषा की अधेड़ जवानी भी

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह ‘द मार्जिनलाइज्ड’ नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. ‘द मार्जिनलाइज्ड’ मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
लिंक  पर  जाकर सहयोग करें    :  डोनेशन/ सदस्यता 

‘द मार्जिनलाइज्ड’ के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें :  फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें  उपलब्ध हैं. ई बुक : दलित स्त्रीवाद 

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles