बीएचयू से लेकर जेएनयू तक लड़कियों को घर बैठाने की संघी साजिश: यौन उत्पीड़न विरोधी समिति को किया भंग



जेएनयू में परचम को आँचल बनाने की संघी साज़िश 


नीतिशा खलखो 

देश भर में महिलाओं की शिक्षा पर हमला हो रहा है, बीएचयू से लेकर जेएनयू तक. जेएनयू देश का पहला संस्थान था जिसने यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक समिति बनाई थी, सुप्रीम कोर्ट के ‘विशाखा निर्देश’ के बाद किसी संस्थानों ने जहां ऐसी समिति बनाने में काफी देर लगाई, वहीं यह विश्वविद्यालय एक मिसाल कायम करने में सफल हुआ था. इसका असर यहाँ पढने वाली छात्राओं के पक्ष में बने माहौल में समझा जा सकता था. इस पर प्रशासन हमला कर रहा है. इस समिति (GSCASH)  का चुनाव लड़ चुकी नीतिशा खलखो इसे संघी साजिश बता रही हैं.

दिन भर की बारिश के बावजूद, जेएनयू छात्रों ने शुक्रवार की रात में आयोजित ‘असाधारण’ जनरल बॉडी मीटिंग में बड़ी संख्या में हिस्सा लिया जिसमें जेंडर-समानता के उद्देश्य के लिए बनायी गयी संस्था जिएसकैश (Gender Sensitization against Sexual Harassment or GSCASH) पर हुए हालिया प्रशासनिक हमले पर विचार-विमर्श हुआ. एकमत से सब ने जिएसकैश को बचाने और संघी जेएनयू प्रशासन के ख़िलाफ़ लड़ाई तेज़ करने की बात कही.

पिछले सप्ताह जेएनयू प्रशासन ने कुलपति के दफ़्तर से सटे जिएसकैश ऑफिस पर ताला-बंदी कर दी और उसकी जगह आईसीसी (Internal Complaint Committee) नाम की एक नई संस्था बना दी है. प्रशासन की इसी मनमानी के ख़िलाफ़ जेएनयू समुदाय में काफी गुस्सा है और छात्र और शिक्षक यूनियन इस मामले को दिल्ली हाई कोर्ट में ले गये  हैं जिसपर कोर्ट ने फ़िलहाल ‘स्टे’ लगा दी है. उपरोक्त मीटिंग प्रशासन के इसी हमले से निपटने के लिए बुलाई गई थी. मेरी राय में जिएसकैश की लड़ाई को राजनैतिक तौर पर भी उठाये जाने की आवश्यकता है.

GSCASH के समर्थन में विद्यार्थी समूह

सवाल है कि जेएनयू कुलपति, आईसीसी के द्वारा जिएसकैश को ख़त्म करने के लिए, हर तरह की मनमानी क्यों कर रहे हैं? क्या “देशद्रोही” विमर्श, “सीट-कट” और “सैनिक टैंक” की तरह आईसीसी भी जेएनयू की प्रगतिशील विरासत के ऊपर एक नई संघी साज़िश है?

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कहने की ज़रुरत नहीं है कि संघ गिरोह की आँखों में जिएसकैश एक लम्बे समय से काँटों की तरह चुभ रही थी क्यूँकि इसने यौन उत्पीड़ित के ख़िलाफ़ उत्पीड़ितों को बोलने का प्लेटफार्म दिया था. यह बात सही है कि जिएसकैश संस्था को और मज़बूत बनाने और इसके दायरे को और अधिक बढ़ाने की ज़रुरत है. मगर इन तमाम कमियों के बावजूद जिएसकैश ‘जेंडर जस्टिस’ की राह में एक जलती हुई मशाल की तरह है जिसे संघी और ब्राह्मणवादी शक्तियों द्वारा  हर हाल में बुझाने की कोशिश कर रही हैं.

जिएसकैश जैसी संस्था जेएनयू, यूनिवर्सिटी ऑफ़ हैदराबाद समेत कई विश्वविद्दालयों में एक लम्बे समय से कार्यरत है. इसकी स्थापना सुप्रीम कोर्ट के द्वारा जारी किये गए विशाखा नीतिनिर्देश की रौशनी में हुई थी.

‘विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य’ केस की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साल 1997 में तारीखी फैसला सुनाया था जिसमें उसने यौन उत्पीड़न के मामले को निपटने के लिए कई सारे नीतिनिर्देश जारी किये. इसके दो साल बाद जेएनयू में जियेसकैश जैसी स्वायत्त संस्था वजूद में आई. यह संस्था अब तक यौन उत्पीड़न से जुडी हुए शिकायत की जाँच और दोषी पाए गए लोगों के खिलाफ सज़ा की सिफारिश करती है.
23-सदस्यों वाली जेएनयू की जिएसकैश संस्था में 10 निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं जो छात्र, शिक्षक, कर्मचारी और अन्य समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं. जब  जियेसकैश किसी शिकायत की जांच करवाती है तो जाँच की प्रक्रिया में सिर्फ निर्वाचित सदस्य ही भाग लेते हैं जो इसकी लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली की खूबसूरती है.
संक्षेप में, जियेसकैश एक स्वायत्त संस्था है जिसके काम-काज में जेएनयू प्रशासन का दख़ल नहीं होता है. इसके प्रतिनिधि जेएनयू समुदाय के सभी वर्गों से आते हैं और यह संस्था बड़े से बड़े ऑफिसर तक के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कर सकती है और और उनके ख़िलाफ़, अगर वह दोषी पाए गए, सज़ा की सिफारिश कर सकती है. कैंपस के अन्दर महिला और पुरुष दोनों की  स्वतंत्रता और समानता के लिए इस तरह की संस्थाओं का होना बेहद आवश्यक है.


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मगर प्रशासन के द्वारा लाई गयी नई संस्था आईसीसी में उपरोक्त बहुत सारी खूबियाँ जानबूझ कर  ख़त्म कर दी गयी हैं. आईसीसी प्रशासन के अधीन कठपुतली की तरह काम करने वाली संस्था होगी क्योंकि उसके सदस्य कुलपति द्वारा मनोनीत होंगे. इसका ज़ोर जेंडर जस्टिस पर नहीं बल्कि यौन-उत्पीडन के मामले को ‘सुलझाने’ पर ज्यादा केन्द्रित होगा. प्रशासन ने अपनी मंशा  ज़ाहिर कर दी है कि वह सुलह के बहाने यौन-उत्पीडन के मामले को दबायेगा और उसके करीब लोगों को ‘इम्पयूनिटी’ मुहैया करेगा. दूसरे शब्दों में कहें तो आईसीसी परचम को आँचल बनाने की एक संघी साजिश है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महिला अधिकार की लड़ाई किसी भी प्रगतिशील अन्दोलन का अभिन्न हिस्सा है. यही वजह है कि भगवा ताक़तें स्त्री- अधिकार के ऊपर निरंतर हमला करते रहे हैं. उन्हें पता है कि अगर स्त्री अपने अधिकार को लेकर बेदार हो गयी तो वह पितृसत्तात्मक अँधेरी कोठरियों से आज़ाद होने के लिए आंदोलित हो जाएँगी. फ़िर शादी, परिवार, धर्म, परंपरा आदि के भगवा बंधन उन्हें ज्यादा दिनों तक जकड़ कर नहीं रख पाएंगे.

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज में हिंदी पढ़ाती हैं और साल 2012 में जेएनयू छात्र प्रतिनिधि के बतौर जिएसकैश का चुनाव लड़ चुकी हैं.




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