बीएचयू में लड़कियों के आंदोलन को हड़पने की रस्साकशी

अनिता भारती 

बीएचयू में लड़कियों के स्वतःस्फूर्त आन्दोलन को एबीवीपी और एनएसयूआई द्वारा हड़पने की कोशिश के बारे में बता रही हैं आन्दोलन की एक भागीदार अनिता भारती. 

मैं व्यक्तिगत रूप से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के इस आन्दोलन में 22 सितम्बर 2017 की रात 11.20 बजे से सक्रिय रूप से शामिल हुई थी. बी.एच.यू. में एक विद्यार्थी के रूप में मेरा जीवन सन 2007-08 से शुरू होकर 2016 में एल.एल.एम. की उपाधि लेने के साथ ख़त्म हुआ. विश्वविद्यालय में इन आठ सालों में मुझे हमेशा यही महसूस हुआ कि यह परिसर आलोचनात्मक दृष्टिकोण पैदा करने लायक और स्वस्थ राजनीतिक गतिविधियों के के लिए कभी भी अनुकूल नहीं रहा. परिसर के अन्दर महिला छात्राओं एवं पुरुष छात्रों के लिए हमेशा ही दोहरा मापदंड अपनाया गया. जैसा कि विगत तीन सालों से संघी कुलपति की सरकारी नियुक्ति होने के बाद महिला, छात्राओं के अधिकारों के हनन की दर तेजी से बढ़ी है. उनपर संघी प्रकोप भी बढ़ा है. इस परिसर में छात्राओं को सुविधा के नाम पर वी.सी. की तरफ से केवल वाहियात किस्म के संघी फरमान सुनाये गए. छात्राओं के संवैधानिक अधिकारों का हनन किया गया जिसमे समानता का महत्वपूर्ण अधिकार भी है. उदाहरण के लिए छात्राओं को रात के समय में कहीं आने-जाने में पाबन्दी, महिला छात्रावासों में वाई-फाई सुविधा का न होना. मेस में मांसाहारी भोजन न देना. इत्यादि. हालांकि ये सभी मामले न्यायपालिका के समक्ष विचाराधीन हैं.

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लेकिन महिला छात्राओं के लिए इन सभी में भी सर्वोपरि मामला उनकी सुरक्षा का रहा है. हालांकि परिसर में सुरक्षा की समस्या हमेशा ही रही है. किन्तु पहले ऐसी वारदात होने के बाद सुनवायी होती थी. किन्तु 2014 से एक ख़ास तरीके की विचारधारा से पोषित कुलपति को विश्वविद्यालय पर थोप दिया गया. यह इन्सान ऐसा बयान देता रहता है कि “लड़कियों को रात में नहीं पढ़ना चाहिए.” इक्कीसवीं सदी में ऐसी विचारधारा का स्थान कहाँ पर है. वी.सी. महिला छात्रावासों की मेस में मांसाहारी खाने पर इसलिए रोक लगाने के फैसले करते हैं कि उनके अनुसार “मांसाहारी भोजन से काम उत्तेजना बढ़ती है.” सवाल यह कि इस दौर में ऐसी सोच रखने वाला कुलपति विश्वविद्यालय और देश निर्माण में क्या सहयोग और योगदान करेगा? और विश्वविद्यालय ऐसी सोच के साथ किस ओर जायेगा? विगत तीन वर्षों में छात्राओं के साथ छेड़खानी और शारीरिक शोषण से सम्बंधित कई घटनायें हुईं जिनकी शिकायत बीएचयू  प्रशासन से की भी गयी. लेकिन सुरक्षा के नाम पर वीसी से केवल आश्वासन मिला और कभी-कभी तो कमिटी भी बनायी गईं  जो वस्तुतः निष्प्रयोज्य ही रहीं. इनका कोई निष्कर्ष नहीं मिला. इतने सालों के दबे आक्रोश में 21 सितम्बर की घटना ने एक चिंगारी दे दी और इसने 24 सितम्बर तक ‘शोले’ का रूप ले लिया. जिसने इस देशव्यापी आन्दोलन को जन्म दिया.
पूरे तीन दिन तक यह आन्दोलन स्वतन्त्र और सफल रूप से चला. इसमें महिला छात्राओं के साथ पुरुष छात्रों की समान भागीदारी रही. उम्मीद की सकती है कि यह आन्दोलन ऐतिहासिक होगा. क्योंकि महिला छात्राओं द्वारा प्रारंभ किया गया यह आन्दोलन बिना किसी राजनीतिक सहयोग के वृहत रूप लिया है. इस आन्दोलन से पूरे भारत में यह सन्देश गया है कि बी.एच.यू. में महिला छात्राओं के साथ कितना उच्चस्तर का भेदभाव होता है. इस आन्दोलन ने बी.एच.यू. को लेकर कई पहेलियों पर से पर्दा उठाया है.

आन्दोलन में शामिल लेखिका, छात्राओं के बीच में

मेरा मानना है कि प्रत्येक आन्दोलन अपने आप में कुछ नवीन सृजन होता है जो लोगों में बदलाव की उम्मीद जगाता है. इस आन्दोलन में भी कई लोगों के अन्दर नेता बनने की उम्मीद जगी है. इसमें कोई खराबी भी नहीं है. किन्तु जो लोग आन्दोलन में शरीक नहीं हुए वो इस तरीके की अनैतिक आकांक्षा को अपने भीतर जन्म लेने देते हैं तो यह कोरी अवसरवादिता ही होगी. इस आन्दोलन में बीस फीसदी के आस-पास वो लोग शामिल रहे जिनकी जिम्मेदारी  केवल फोटो और सेल्फी लेने की थी. यह दौर 23 सितम्बर की शाम तक बढ़ता जा रहा था. ये वो सेल्फियाये हुए लोग थे जिन्हें लगता है कि क्रान्ति फेसबुक से होकर बी.एच.यू. तक आ जाएगी. आन्दोलन में स्वघोषित राष्ट्रवादी और भाजपा का बगलबच्चा संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की एक महिला सदस्य ने आन्दोलन में हस्तक्षेप करके उस पूरे आन्दोलन को हड़पने तथा उसका श्रेय लेने का प्रयास किया किन्तु आन्दोलनरत विद्यार्थियों ने उसे भगा दिया. ये महिला आन्दोलन में तो शरीक नहीं थी किन्तु दिन में दो-तीन बार टी.वी. चैनल वालों को साक्षात्कार देकर हॉस्टल में आराम फरमाने चली जा रही थी. कुलपति  से मिलने वाली छात्राओं में ये भी शामिल थी. जबकि आन्दोलनकारियों की मांग थी कि कुलपति मुख्य गेट पर आकर छात्राओं से मिलें.

इसके बाद बारी आती है कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई का. ये खुद तो प्रत्यक्ष रूप से आ नहीं पा रहे थे. आन्दोलन में इनकी इंट्री ‘जॉइंट एक्शन कमेटी’ (जे.ए.सी.) के माध्यम से हुई. इनसे सम्बंधित विद्यार्थी भी आन्दोलन में पूरे समय मौजूद न रहकर केवल चैनलों पर अपना चेहरा दिखाने को बेकरार दिख रहे थे. एनएसयूआई. ने महिला महा विद्यालय की छात्रा मिनेशी मिश्रा को अपना मोहरा बनाया. ये मोहतरमा पूरी तरह से टी.वी. चैनल को बाइट देती थीं.

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अब मिनेशी मिश्रा 26 सितम्बर को दिल्ली के जंतर-मंतर में खुद को आन्दोलन की नायिका के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं. मीडिया भी उन्हें आन्दोलन की नायिका के रूप में ही प्रस्तुत कर रही है जिसने आन्दोलन को राष्ट्र व्यापी बना दिया. इस बात पर यहाँ जीरो ग्राउंड पर लगे हुए आन्दोलनकारियों में निराशा और भारी नाराजगी है. इस आन्दोलन में जितनी भागीदारी महिला साथियों की रही उसी अनुपात में पुरुष साथियों का साथ और सहयोग भी रहा. सभी ने समान रूप से लाठियों और प्रशासन के तानाशाही रवैये का सामना किया है. इसलिये जो लोग दिल्ली में जाकर नेता बनने की कोशिश  में लगे हुए हैं वो सुधर जायें. इससे उनका और आन्दोलन का दोनों का ही भला होगा. अन्यथा  यदि आन्दोलन 2 अक्टूबर के बाद भी जारी रहा तो इसके बहकने और असफल हो जाने की संभावनाएं अधिक हो जाएँगी.  इतना तो तय है कि जो लोग दिल्ली जाकर नेता बनने की आकांक्षा पाले बैठे हैं वो केवल मोहरे बनेंगे या फिर कि चाटुकार.

लेखिका बीएचयू की विधि संकाय की पूर्व छात्रा है. 
 ईमेल: singhanita254@gmail.com


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