देवी से देवदासी तक संकट ही संकट: मानवाधिकार आयोग हुआ सख्त

स्त्रीकाल डेस्क 


भारत में लोकतंत्र अपना काम कर रहा है. एक ओर  छतीसगढ़ में देवी पूजा के नाम पर दूसरों की आस्थाओं पर हमले पर न्यायालय  और न्याय व्यवस्था सख्त है वहीं दो राज्यों से मानवाधिकार आयोग ने दक्षिण भारत में प्रचलित देवदासी जैसी कुप्रथा पर सवाल पूछे हैं. यह एक तरह से राज्य की स्वीकृति है देवदासी जैसी कुप्रथा के अस्तित्व पर.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने दक्षिण भारत में प्रचलित देवदासी जैसी कुप्रथा पर संज्ञान लेते हुए तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किया है। आयोग ने माना है कि इस तरह की परंपराओं के तहत लड़कियों व महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है, और ये प्रथा आज भी कई राज्यों में जारी है।
आयोग ने  पिछले दिनों कहा कि तमिलनाडु के तिरूवलूर ज़िले और आसपास की जगहों में लड़कियों और महिलाओं को देवी मातम्मा के मंदिरों में ले जाया जाता है। आयोग ने इस परंपरा के जारी रहने संबंधी शिकायतों और मीडिया रिपोर्ट के अधार पर मामले में स्वत: संज्ञान लिया है।

जयभीम वाला दूल्हा चाहिए

आयोग ने तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों व आंध्र प्रदेश के तिरूवलूर और चितूर के ज़िलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों को भी नोटिस जारी कर चार सप्ताह में रिपोर्ट तलब की है।

आयोग ने कहा, ‘कथित रूप से परंपरा के तहत लड़कियों को दुल्हन की तरह सजाया जाता है और समारोह समाप्त होने के बाद उनके वस्त्रों को पांच लड़के हटाते हैं| वे निर्वस्त्र रह जाती हैं। उन्हें उनके परिवारों के साथ नहीं रहने दिया जाता और शिक्षा ग्रहण नहीं करने दिया जाता। उन्हें मातम्मा मंदिर में रहने के लिए मजबूर किया जाता है जहां उन्हें यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।’

आयोग ने कहा कि यदि आरोप सही हैं तो ये मानवाधिकारों का उल्लंघन है। आयोग ने एक बयान में कहा कि यह कथित रूप से देवदासी प्रथा का ही अन्य रूप है जो कि अभी भी तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में प्रचलन में है।


मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था , देना होता था स्तन टैक्स

क्या है देवदासी प्रथा ?

देवदासी या देवारदियार का मतलब होता है ‘सर्वेंट ऑफ गॉड’, यानी देव की दासी। देवदासी बनने का मतलब होता था भगवान या देव की शरण में चला जाना। उन्हें भगवान की पत्नी समझा जाता था। इसके बाद वे किसी जीवित इंसान से शादी नहीं कर सकती थीं। पहले देवदासियां मंदिर में पूजा-पाठ और उसकी देखरेख के लिए होती थीं। वे नाचने गाने जैसी 64 कलाएं सीखती थीं, लेकिन बदलते वक्त के साथ-साथ उसे उपभोग की वस्तु बना दिया गया।


इतिहासकारों का मानना है कि देवदासी प्रथा की शुरुआत छठी और सातवीं शताब्दी के आसपास हुई थी। इस प्रथा का प्रचलन मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र में बढ़ा। दक्षिण भारत में खासतौर पर चोल, चेला और पांड्याओं के शासन काल में ये प्रथा खूब फली फूली।

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आजादी के पहले और बाद की सरकारों ने भी देवदासी प्रथा पर पाबंदी लगाने के लिए कानून बनाए। पिछले 20 सालों से पूरे देश में इस प्रथा पर पूरी तरह पाबंदी है। कर्नाटक सरकार ने 1982 में और आंध्र प्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2013 में बताया था कि अभी भी देश में लगभग 4,50,000 देवदासियां हैं। जस्टिस रघुनाथ राव की अध्यक्षता में बने एक और कमीशन के आंकड़े के मुताबिक सिर्फ तेलंगाना और आँध्र प्रदेश में लगभग 80,000 देवदासिया हैं।

खबर  की भाषा और इनपुट पड़ताल पोर्टल से 

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