लघुकथाएं

संध्या तिवारी

हिन्दी की प्राध्यापिका, कवयित्री और कहानीकार.. संपर्क : 9810201120
sandhyat70@gmail.com

सांकल

पिछले दो सालो से साथ पढ़ती पायल और पूर्वी अब तक फास्ट फ्रैन्ड बन चुकी थी,  लेकिन पायल घर कम ही आती और आती तो बाहर बाले कमरे तक।

मम्मी ईशान कोण में बने पूजा गृह के समक्ष ऊन से बने धवल आसन पर बैठ चुकी थी। कितनी पवित्र लग रही थी खुले गीले बालो में। मानो केशो से पानी के मोती टपक रहे हो।

मम्मी आदित्य हृदय स्तोत्र पाठ के लिये आचमन कर चुकी थी अब तो बह बोलेगी नहीं जब तक “ऊं अस्य श्री बाल्मीके  रामायणे आदित्य हृदय स्तोत्र ऊं तत्सत” नहीं कह लेती।

मन ही मन सोचती पूर्वी ने धीरे से कार्ड  मम्मी के पास रख दिया और खुद काम में लग गयी।

“किसका कार्ड है यह,  और  यहां किसने रखा ?? ”
कार्ड पर नजरे गडाये मम्मी गुस्से से उबल रहीं थी

मम्मी पायल के भाई की शादी है,  और बही कार्ड दे गयी। आप पूजा से उठते ही देख लो,  इसलिये मैने ही रख दिया। क्या कुछ गलत हुआ ?? पूर्वी ने सहमते हुये पूंछा।


हे भगवान!!! धरम भ्रष्ट कर दिया पूर्वी तूने। एक ब्राह्मण के यहां जन्म ले के एक वाल्मीकि से दोस्ती? तुझे कोई और सहेली नहीं मिली। देख कार्ड पर बाकायदा पायल के भाई के नाम के आगे वाल्मीकि लिखा है। ये लड़की न……….. आगे से तुम्हारी पायल से दोस्ती खत्म और हां कार्ड कूड़ेदान में डालकर नहाओ!… और मैने भी तो कार्ड छू लिया है मुझे भी अब दोबारा नहाना पड़ेगा।“
“ऊंहूं…………… लेकिन मम्मी  आप तो रोज ही वाल्मीकि  का लिखा स्तोत्र पढ़ कर पुण्यार्जन करती हो और पवित्र होती हो।” पूर्वी ने डरते डरते कहा

“चोऽऽऽप्प।“ मम्मी की धारदार आवाज रीढ़ की हड्डी चीर गयी।

 चिमटी

आत्मा पर बडा बोझ था,  जो रातों में सपना बन कर डराता था और दिन में सोच।

अब क्या करूं,  मैं तो था ही कायर,  लेकिन वह तो समझदार थी,  उसे अपनी जान देने की क्या जरूरत थी। वह मरकर मुक्त हो सकी भला क्या? और मै जीकर भी मुक्त हो पाया भला क्या उसकी यादों से। क्या करूं? कहां जाऊं ?कैसे इस अपराध बोध से मुक्ति होगी ?

न्हीं बातो की सोच में डूबता उतरता विपुल बान की खरखटी खटिया पर बैठा  कभी एक छेद मे हाथ डालता कभी अदबाइन के सहारे सहारे अंगुलियां किसी और छेद में जा ठहरती। जैसे सोच के कई खाने बने हो और उनमें से किस खाने में ग्लानि की भरपाई का मल्हम मिलेगा  अंगुलिया टोहकर ढूंढ़ना चाह रही हों।
“आऊच…” कहकर उसने हाथ खींच लिया बान की फांस अंगुली के मांस में धंस चुकी थी। वह नाखूनों की चिमटी बनाकर फांस निकालने का भरसक प्रयत्न कर रहा था लेकिन फांस थी कि अन्दर ही अन्दर टूटती जा रही थी। फांस मांस मे धंस चुकी थी  बहुत दर्द और चीसन बढ गयी थी। “अब तो इसके लिये बाजार से चिमटी ही लानी पडेगी तब  कहीं जाकर”… कहकर विपुल तर्पण के लिये जल,  काले तिल,  जौ,  फूल की थाली,  कुश की पैंती और सफेद फूल अंजुली में भर कर बैठा।


“आप पिछले कई सालो से किसका तर्पण कर रहे है? भगवान की कृपा से मां बाऊ जी सभी कुशल मंगल से है,  तो…?”

पत्नी जिज्ञासा और प्रश्न चिन्ह की प्रतिमूर्ति सी बनी खडी थी।

विपुल अपनी फांस लगी अंगुली की चीसन दबाते हुए बोला, “तर्पण कहां है यह,  यह तो मन की फांस की चिमटी है…”  और अंजुली भरे पानी में दो आंसु  टपक गये।

हूटर

मुझे  फैक्ट्री के सारे मुलाजिम हमेशा ही फैक्ट्री में बजने बाले हूटर के गुलाम सरीखे दिखते थे।   हालांकि ये सब नियम से नहाते-धोते, खाते-पीते थे,  लेकिन इनके  जीवन में स्फूर्ति न थी।
एक यन्त्रवत जीवन यापन था। एक अनकही यन्त्रणा थी।

सबेरे पांच बजे के हूटर पर मन हो या न हो बिस्तर छोड़ देना। सात बजे के हूटर पर टिफिन का झोला साइकिल में लगाये,  साढ़े सात के हूटर पर फैक्ट्री गेट के अन्दर आई कर्ड पंच करने से लेकर,  इस कैद खाने से छूटने की शाम सात बजे तक के हूटर की थका देने बाली अविराम प्रतीक्षा,  फैक्ट्री में काम करने बाले हर कर्मचारी के हिस्से की दिनचर्या थी।

नापसंदगी ही कभी-कभी जीवन का अभिन्न अंग बन जाती है।
शादी के बाद मेरा जीवन भी हूटराधीन था।
“हूटर के दास पति की दासी अर्थात् दासनुदासी।”


एक दिन हूटर की आवाज पर वह उठा,  उस दिन उसका चेहरा जल्दी में नहीं लग रहा था,  हां कुछ-कुछ चोर निगाहों से मुझे जरूर देख रहा था।

मैने टिफिन दिया। उसने टिफिन लेते हुये अपनी अंगुली मुझसे न छू जाये इसका भरसक प्रयत्न किया।

मैने नोटिस किया,  लेकिन किसी अशुभ विचार से कहीं “पल्ला न छू जाये इस डर से पल्ला झाड लिया।”

वह किसी स्वामिनी का हाथ पकड़े इस हूटर की परिधि से कहीं बाहर चला गया था।

और मैं,  दासानुदासी हूटर की गुलामी करती,  आज भी सुबह के पांच बजे के हूटर पर बिस्तर छोडकर शाम के सात बजे के हूटर पर दरबाजे की कुंडी खोल हर आहट पर ऐसे कान लगाये रहती हूं जैसे पूरे शरीर में कान ही कान उग आये हो।

लेकिन सुनाई पड़ती है तो, केवल सात,  सवा सात,  साढे सात के हूटर की आवाज। जो रोज मुझे हूट करती है,  और मैं इसका कुछ नहीं कर पाती।

उफ्फ!!!

किराये का ड्राम खाली कर के देना था दुकान मालिक को। उसमें रखे वर्फ के पानी को किसमें लौटा जाय इतना बड़ा कोई बर्तन न मिलने के कारण पानी नाली में बहाया जा रहा था।

वह झुलसा देने बाली गर्मी में खड़ा ये सब देख रहा था। उसे लगा उसका गला भी प्यास से चटक  जायेगा। क्यों न वह भी अपनी बोतल ठंडे पानी से भर ले? लेकिन कल जब वह भाभी से पानी मांगने गया था,  तो भाभी ने उसे कितनी गालियां दीं थीं, और बिना पानी के ही भगा दिया था। अगर मां जिन्दा होती तो क्या कोई उसे पानी के लिये मना कर सकता था।

कमरे में घुसते ही वह प्यास के मारे बेहोश हो गया था। आज अगर भाभी के घर गया तो क्या भाभी भतीजे फ्रिज का पानी लेने देंगें। कल तो डांटा ही था आज हो न हो मारने ही लगें।

लेकिन प्यास थी,  कि अपने को जोर मार रही है। जो होगा देखा जायेगा। सोचकर वह घर की तरफ बढ़ा।

खूब सारे लोग है आज घर में। भाई भाभी कैसे चुपचाप है। कोई मुझे गाली क्यों नहीं नहीं दे रहा। आज अचानक क्या बदल गया? कोई मुझसे कुछ कहता ही नहीं। सब मेरी माला चढ़ी फोटो को घेर कर कितने मेवा मिष्ठान लिये बैठे है।

लेकिन मुझे तो बिल्कुल भूख नहीं है। मुझे तो प्यास लगी है बहुत तेज प्यास।

 क्षेपक

रात्रि भोज के लिये खाने की मेज पर बैठे बैंक मैनेजर मिस्टर एस लाल पचास साल पीछे की सीढ़ियां उतर गये, जब वह सुखिया हुआ करते था। बस जब गाँव की पाठशाला में हाजिरी होती थी तब सुखलाल नाम सुनाई पड़ता था। नहीं तो ये सुख्खी, ये सुखिया ऐसे सम्बोधन ही अन्तरमन पर गुदे हुये थे।

उसे अच्छी तरह याद है गाँव का नाम,  सौंखिया था। लेकिन गांव में जाति के आधार पर टोले बंटे थे जैसे पसिया टोला,  कुम्हारनटोला और उसका वाला था चमारन टोला।

उफ्फ !! झुरझुरी आ गई एस लाल को। पूरी खाल में चामरौधे की सडान्ध भिद गई।

खाना लगा दिया है “पत्नी माया की आवाज से वह वर्तमान में लौटे
“कुसुम कहां है? खाना नहीं खायेगी क्या?” एस लाल ने पूछा
“अपने कमरे में है आती होगी। आज ऑफिस से देर से आयी थी। कह रही थी,  ऑडिट है,  थोडा काम करना है।”
“हूंऽऽऊं। अरे वाह ! आज तो पनीर और खीर दोनो मेरी मनपसन्द चीजें बनायीं हैं क्या बात है,  कुछ कहना है क्या?
“जी” माया कुछ सकुचाते हुये बोली “कुसुम के साथ एक लडका काम करता है.. अच्छी पोस्ट पर है… और दोनों एक दूसरे को पसन्द भी करते है,  आप कहें तो……..?”
“ठीक हैऽ, ठीक हैऽ, भाई। हमें क्या आपत्ति हो सकती है।” खीर गटकते हुये उन्होने
पत्नी को प्यार से देखा।
“लेकिन वह………….” पत्नी हकलायी
“लेकिन क्या ? ” एस लाल विराम चिह्न से प्रश्नवाचक बन गये थे।
“जी वह….. मु……स……ह….र”
अचानक खीर के बर्तन में सुअरों को अपनी थूथन घुसाने का बिम्ब बना सुखिया से  एस लाल बने सुखलाल अगिया बेताल बन गये।

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