बलात्कार पीड़िताओं पर मुकदमे वापस लेने का दवाब बनाती है पुलिस: रिपोर्ट

स्मिता शर्मा


पिछले दिनों मध्यप्रदेश  में पुलिस महकमे में कार्यरत दम्पति की बेटी के साथ बलात्कार की शिकायत दर्ज करने के मामले में खुद पुलिस जितनी असंवेदनशील दिखी वह सिर्फ एक घटना की हकीकत नहीं है बल्कि यह भारतीय समाज की हकीकत से बना सामान्य व्यवहार है. यौन हिंसा की शिकार उत्तरजीवियों के साथ पुलिस, क़ानून, चिकित्सा और समाज के व्यवहार को लेकर ह्यूमन राइट्स वाच का एक अधययन सामने आया है. 


सारांश: 


मई 2017 में हरियाणा राज्य के रोहतक जिले में एक 23 वर्षीय महिला की हत्या कर दी गई.  पीड़िता का शव दो लोगों द्वारा उनके कथित अपहरण के चार दिन बाद मिला, जिन्होंने उनके साथ बलात्कार किया, सिर ईंट से कुचल दिया और उसके बाद शरीर पर कार चढ़ा दी. शव परीक्षण से पता चला कि अंदरूनी चोटें नृशंस और क्रूर यौन उत्पीड़न का नतीज़ा थीं.


पीड़िता के परिवार ने आरोप लगाया कि घटना से एक महीने पहले उन्होंने मुख्य आरोपी के नाम का जिक्र करते हुए  पुलिस को शिकायत की थी. आरोपी शादी करने से इंकार करने के कारण पीड़िता को परेशान कर रहा था. परिवार के सदस्यों ने कहा कि पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की.


दिसंबर 2012 में दिल्ली में एक युवा छात्रा के सामूहिक बलात्कार और मौत के पांच साल बाद, जिसने कानूनी और अन्य सुधारों की राह दिखाई, भारत में यौन हिंसा और बलात्कार की उत्तरजीवी लड़कियों और महिलाओं को न्याय और स्वास्थ्य देखभाल, परामर्श और कानूनी सहायता जैसी सहायता सेवाएं पाने में भारी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है. अप्रैल 2013 में, भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से कानून में संशोधन किया, महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध हिंसा से सम्बंधित अपराधों की नई श्रेणियों को शामिल किया और सजा को और अधिक कठोर बना दिया. विधेयक पारित होने के बाद तत्कालीन गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा था, “भारत में ऐसा कानून पहली बार अस्तित्व में आया है और संसद ने इसकी मंजूरी दी है. यह देश में क्रांति का आगाज़ करेगा.”

हालांकि सकारात्मक कदम उठाए गए हैं, जिसमें भारतीय राजनेताओं और अधिकारियों की महती  राजनीतिक इच्छाशक्ति का संकेत दिखाई देता है, मगर जिन परिवर्तनों का वादा किया गया था वे हकीकत से बहुत दूर रह गए हैं. मई 2017 के रोहतक मामले में, पुलिस ने यह दावा करते हुए अपना बचाव किया कि परिवार ने केवल मौखिक शिकायत की थी और बाद में इसे वापस ले लिया. इस बलात्कार और हत्या पर सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन के बाद ही राज्य सरकार ने मामला निपटाने में लापरवाही के लिए दो पुलिस अधिकारियों को निलंबित और एक अन्य को स्थानांतरित कर दिया. ह्यूमन राइट्स वॉच ने यह भी पाया कि भारत में महिलाओं और लड़कियों को अक्सर कलंकित होने के डर के कारण हमलों की रिपोर्ट दर्ज कराने से डर लगता है, और क्योंकि पीड़ितों या गवाहों को कोई सुरक्षा प्रदान नहीं करनेवाली आपराधिक न्याय प्रणाली में वे संस्थागत बाधाओं को पार करने में असमर्थ महसूस करती हैं.

यौन उत्पीड़न के शिकार वे सब: वे कोई भी हैं, वे जिन्हें हम जानते हैं



यौन हिंसा और बलात्कार की उत्तरजीवियों, विशेषकर हाशिए के समुदायों के लोग, पुलिस में शिकायतें दर्ज कराना मुश्किल पाते हैं. वे अक्सर पुलिस थानों और अस्पतालों में अपमान का सामना करते हैं, उन्हें अब भी चिकित्सा पेशेवरों द्वारा अपमानजनक परीक्षणों के लिए मजबूर किया जाता है, और जब मामला अदालत पहुँचता है तो उन्हें उन्हें डर लगता है. मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में स्कूल ऑफ जेंडर स्टडीज की अंजली दवे ने कहा, “बलात्कार को अब भी महिलाओं की शर्मिंदगी के बतौर पेश किया जाता है और इसपर बात करने में महिलाओं के सामने कई सामाजिक बाधाएं खड़ी रहती हैं.”


भारत में अब लैंगिक हिंसा से निपटने के लिए कई कानून हैं जैसे कि आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013, यौन अपराधों से बाल सुरक्षा अधिनियम, और अगर पीड़ित दलित (पूर्व में “अस्पृश्य”) या आदिवासी समुदाय से हैं तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम. समय के साथ कानूनी बदलाव प्रभावी हुए और 2015 (सबसे हालिया साल जिसके लिए आंकड़े उपलब्ध है) के अंत तक पुलिस के पास दर्ज हुए बलात्कार की शिकायतों की संख्या में 39 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई. 2012 में 24,923 मामलों के मुकाबले 2015 में 34,651 मामले दर्ज हुए. यह संभवतः अपने मामलों को अदालत तक ले जाने की उत्तरजीवियों की बढ़ती तत्परता को दिखाता है.


हालांकि, ह्यूमन राइट्स वॉच का अध्ययन यौन हिंसा के शिकार लोगों को न्याय दिलाने के उद्देश्य से बने कानूनों, प्रासंगिक नीतियों और दिशानिर्देशों को लागू करने में लगातार सामने आ रही कमियों को सामने रखता है. इस रिपोर्ट में 21 मामलों में- जिनमें 10 में घटना के समय लड़कियों की उम्र 18 साल से कम थी- गहन शोध, भारतीय संगठनों के शोध और ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा पीडितों, उनके परिवार के सदस्यों, अधिवक्ताओं, नागरिक समाज कार्यकर्ताओं, वकालत करनेवालों, डॉक्टरों, फॉरेंसिक विशेषज्ञों और सरकारी व पुलिस अधिकारियों के 65 साक्षात्कारों का इस्तेमाल करते हुए समस्या की व्यापकता का वर्णन किया गया है. साथ ही इस रिपोर्ट में पीड़ितों, उनके परिवार के सदस्यों, वकीलों, नागरिक समाज कार्यकर्ताओं, अधिवक्ताओं, डॉक्टरों, फॉरेंसिक विशेषज्ञों और सरकारी व पुलिस अधिकारियों से ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा किए गए 65 से अधिक साक्षात्कार शामिल हैं. रिपोर्ट में इन मामलों का इस्तेमाल करते हुए विस्तृत सिफारिश की गई है कि किसप्रकार अधिकारी यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि आपराधिक न्याय प्रणाली में पीड़ितों और उनके परिवारों से संवेदनशीलता, गरिमा के साथ और बिना भेदभाव के व्यवहार हो.

अपर्याप्त पुलिस कार्रवाई


भारतीय कानून में यह प्रावधान है कि यौन उत्पीड़न या यौन उत्पीड़न के प्रयास के मामलों में,  प्रशिक्षित महिला पुलिस अधिकारी उत्तरजीवी की गवाही दर्ज करे, उसके बयान का वीडियो टेप तैयार करे और यथाशीघ्र न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दर्ज कराए. आपराधिक दंड संहिता में 2013 हुए संशोधनों ने पुलिस अधिकारियों द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज करना अनिवार्य बना दिया है, जो ऐसा करने में विफल रहते हैं उन्हें दो साल तक जेल की सजा हो सकती है.


ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि पुलिस हमेशा इन नियमों का पालन नहीं करती है. वे प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने में बाधा डालते हैं, जबकि पुलिस जांच शुरू करने के लिए यह पहला कदम है, खासकर यदि पीड़िता आर्थिक या सामाजिक रूप से हाशिए वाले समुदाय से आती हो. पुलिस जब-तब पीड़िता के परिवार पर “मामला निपटाने” या “समझौता” करने का दबाव डालती है, खासकर यदि अपराधी शक्तिशाली समुदाय का हो.


उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश राज्य के ललितपुर जिले में 22 वर्षीय बरखा और उसके पति पर 30 जनवरी, 2016 को उनके घर पर आधी रात के करीब उनके गांव के तीन लोगों ने हमला किया, पुलिस ने इसकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया. बरखा ने कहा कि दो लोगों ने उसके पति को पीटा और उन्हें उठा कर ले गए और तीसरा, जो एक प्रभावशाली जाति से आता है,  ने उसके साथ बलात्कार किया, उसे जातिसूचक गलियां दीं और पुलिस के पास जाने पर उसे  जान से मारने की धमकी दी. बरखा बताती है कि पुलिस कार्रवाई करने में अनिच्छुक रही क्योंकि मुख्य आरोपी सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का स्थानीय नेता था. आखिरकार, जब 2 मार्च को बरखा अदालत पहुंची तो अदालत ने पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने और उचित कार्रवाई करने का आदेश दिया. हालांकि, एफआईआर दर्ज करने के लिए पुलिस ने और आठ महीने का समय लिया. इस बीच, बरखा और उसके पति को आरोपी और गांव के अन्य लोगों से लगातार मिल रही धमकियों और उत्पीड़न के बाद गांव से पलायन कर सैकड़ों मील दूर चले जाना पड़ा. बरखा कहती है कि उसने न्याय की आस छोड़ दी है:
हम इस तरह कब तक भागते रहेंगे? हम अपना परिवार, घर और गांव देखने में सक्षम नहीं हैं? पूरा परिवार बिखर गया है. पुलिस मामले की जांच नहीं करना चाहती. हम गांव में नहीं रह पाए क्योंकि वे [आरोपी] हमें मारने के लिए तैयार बैठे हैं और पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है. हम गांव के मुखिया के पास भी गए लेकिन उन्होंने भी हमारी नहीं सुनी. हमारा कोई नहीं है.

विवाह नाबालिग लड़की से बलात्कार का लाइसेंस नहीं है

हालाँकि 2013 का संशोधन पुलिस द्वारा बलात्कार की शिकायत दर्ज करने में विफलता को अपराध करार देता है, लेकिन बरखा का मामला दर्ज करने से इनकार करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक दंड संहिता की धारा 66ए के तहत कोई कार्रवाई नहीं की गई. मजिस्ट्रेट भी पुलिस को जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मामला दायर करने का निर्देश देने में नाकाम रहे.


एक दूसरे मामले में, पुलिस ने बलात्कार की एक उत्तरजीवी और उसके पिता को अपने बयानों को बदलने के लिए कथित रूप से मनमाने ढंग से हिरासत में रखा, मारा- पीटा और धमकी दी. 23 वर्षीय काजल द्वारा 14 सितंबर, 2015 को सामूहिक बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने के बाद मध्य प्रदेश राज्य की पुलिस ने उसे एफआईआर की प्रति देने से इनकार कर दिया और अगले दिन वापस आने के लिए कहा ताकि मजिस्ट्रेट के समक्ष उसका बयान दर्ज कराया जा सके. काजल ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि जब वे पुलिस स्टेशन पहुंचे, तो पुलिस ने उसके पिता को हवालात में डाल दिया और उसे अदालत से यह कहने के लिए कहा कि अपने पिता के कहने पर उसने बलात्कार की झूठी शिकायत दायर की थी. काजल ने कहा कि पुलिस ने कई सादे पन्नों पर उससे हस्ताक्षर भी कराए, उसे थप्पड़ मारा और डंडे से पिटाई की. पुलिस ने कथित तौर पर काजल के पिता को धमकी दी थी कि अगर उन्होंने इस बयान पर हस्ताक्षर नहीं किया कि उनकी बेटी ने झूठी शिकायत दर्ज की तो उन्हें  झूठे आरोपों में गिरफ्तार कर लिया जाएगा. काजल ने बताया कि डर से उसने अदालत में झूठा बयान दिया. पुलिस ने दिसंबर 2015 में एक अंतिम जांच रिपोर्ट दायर की, जिसमें कहा गया कि काजल और उसके पिता ने मुख्य आरोपी के साथ जमीन विवाद के कारण झूठा मामला दायर किया. इसके बाद, काजल ने धमकी का जिक्र करते हुए एक अपील दायर की.

2013 के आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम में यौन अपराधों की परिभाषा का विस्तार करके ताक-झांक और पीछा करने जैसे नए अपराधों को शामिल कर लिया गया. हालांकि, 2014 में कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव द्वारा दिल्ली और मुंबई में किये अध्ययन से पता चलता है कि पुलिस के पास ऐसे अपराध बहुत कम दर्ज कराए जाते हैं और यहां तक कि जहां रिपोर्ट दर्ज भी की गई है, वहां भी ऐसे मामलों में पुलिस अक्सर एफआईआर दर्ज करने या इन अपराधों की ठीक से जांच करने में नाकाम रही है. कई माता-पिता ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि पुलिस शिकायत दर्ज करने के बाद उन्हें अपनी बेटियों की सुरक्षा की चिंता थी क्योंकि आरोपी को जमानत मिल गई और फिर उसने लड़कियों को धमकी दी. अक्सर, लड़कियां  घर से बाहर की अपनी गतिविधियों पर खुद रोक लगा लेती हैं या माता-पिता उनकी  गतिविधियों पर और ज्यादा प्रतिबंध लगा देते हैं.


अक्टूबर 2016 में, 16 वर्षीय मीना ने उत्तर प्रदेश राज्य के झांसी के एक गांव में उस पर हमला करने वाले तीन लोगों के खिलाफ पुलिस शिकायत दर्ज कराई, आरोपियों के परिवार ने मीना के परिवार को जान से मारने की धमकी देना शुरू कर दिया. मीना के माता-पिता ने सुरक्षा मांगते हुए पुलिस से अपील की. उन्होंने पुलिस अधीक्षक से भी गुहार लगाई. लेकिन पुलिस धमकी पर कोई कार्रवाई करने में विफल रही है और अभी तक मामला दर्ज नहीं किया है. इस बीच, मीना के माता-पिता उसकी सुरक्षा को लेकर इतने चिंतित हैं कि वे उसे घर से बाहर नहीं निकलने देते हैं, यहां तक कि स्कूल भी नहीं जाने देते हैं. उसकी मां ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया: हमने अपनी बेटी की पढ़ाई रोक दी क्योंकि हमले के बाद हम उसे स्कूल भेजने से डर गए थे. यदि अभियुक्त जेल में हों, तो हमें उसे स्कूल में भेजने में डर नहीं लगेगा. लेकिन तब तक, हमें उसे अपने साथ सुरक्षित रखना होगा. हमने इस घटना की रिपोर्ट दर्ज कराई थी लेकिन अब हम अपना सम्मान खो चुके हैं.

कई उत्तर भारतीय राज्यों, जैसे हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब और राजस्थान में अनधिकृत ग्रामीण जातीय परिषद, जिसे खाप पंचायत कहा जाता है, यदि अभियुक्त प्रभावशाली जाति का हो, तो  दलित या अन्य तथाकथित “निम्न जाति” के परिवारों पर आपराधिक मामला आगे नहीं बढ़ाने का दवाब डालते हैं. स्थानीय राजनेता और पुलिस अक्सर इन पंचायतों के फरमानों से सहानुभूति रखते हैं या उनसे आँखें मूँद लेते हैं, इस तरह वे अप्रत्यक्ष तौर पर हिंसा का समर्थन करते हैं. भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अप्रैल 2011 में उनके कार्यों को “पूर्णतः अवैध” करार दिए जाने के बावजूद ऐसा हो रहा है. हरियाणा के सभी जाट जातीय परिषदों के शक्तिशाली छतरी संगठन सर्व खाप पंचायत के प्रवक्ता  सूबे सिंह समैन ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि बलात्कार के विरुद्ध बने कानूनों का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा है: “एक आदमी बिना सहमति के कभी महिला का बलात्कार नहीं कर सकता है. कभी-कभी सहमति से बने संबंध में चीजें बिगड़ जाती हैं और फिर उसे बलात्कार का नाम दे दिया जाता है.”


देश में रेप कल्चर- एक हकीकत


हरियाणा की 30 वर्षीय दलित कल्पना ने 10 मार्च, 2015 को एफआईआर दर्ज करायी कि  प्रभुत्वशाली जाट जाति के छह लोगों ने उसका सामूहिक बलात्कार किया. 28 मार्च को पुलिस ने अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत बलात्कार सहित अपहरण और हमले का आरोप दर्ज किया. हालांकि, फॉरेंसिक नतीजों के इंतजार में सुनवाई में देर हुई जो कि अपर्याप्त फॉरेंसिक प्रयोगशाला के कारण होने वाली आम समस्या है. कल्पना के परिवार ने कहा कि उन्हें खाप पंचायत द्वारा परेशान किया जाने लगा और धमकी दी जाने लगी. कल्पना अंततः अदालत में प्रतिपक्षी गवाह बन गई और सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया गया. वह और उसका परिवार गांव छोड़कर चले गए.



पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ करने में विफलता


भारत में डॉक्टर कानूनी तौर पर ऐसी महिलाओं और लड़कियों को प्राथमिक उपचार या चिकित्सीय इलाज़ मुहैया कराने के लिए बाध्य हैं, जो उनसे संपर्क करते हैं और बलात्कार की बात जाहिर करते हैं. मेडिकल जांच न केवल चिकित्सीय जरूरतें पूरा करती है, बल्कि संभावित फॉरेंसिक सबूत इकट्ठा करने में भी मदद करती है. भारतीय आपराधिक कानून के तहत, अभियोजन पक्ष केवल बलात्कार की उत्तरजीवी की गवाही पर बलात्कार के लिए दोषसिद्धि सुनिश्चित कर सकता है, जहां वह तथाकथित भौतिक विवरणों में अकाट्य और सुसंगत है. फॉरेंसिक पुष्टिकरण कानूनी रूप से प्रासंगिक माना जाता है लेकिन आवश्यक नहीं है. लेकिन व्यवहार में, चूँकि न्यायाधीश और पुलिस फॉरेंसिक साक्ष्य को बहुत महत्व देते हैं, इसीलिए मानकीकृत चिकित्सीय-कानूनी सबूत संग्रह और इसकी सीमाओं के बारे में जागरूकता आवश्यक हो जाता है.

2014 में, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने यौन हिंसा उत्तरजीवियों के लिए चिकित्सीय-कानूनी सेवा हेतु दिशानिर्देश जारी किए जिससे कि स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों द्वारा यौन उत्पीड़न उत्तरजीवियों की जांच और इलाज को मानकीकृत किया जा सके. ये दिशानिर्देश गोपनीयता, गरिमा, भयमुक्त माहौल बनाने और ज्ञात सहमति सम्बन्धी महिलाओं और बच्चों के अधिकार का सम्मान करने के लिए तैयार की गई प्रक्रियाओं को एकीकृत करते हैं.

ये दिशानिर्देश वैज्ञानिक चिकित्सीय जानकारी और प्रक्रियाएं भी मुहैया करते हैं जो उन प्रचलित  मिथकों और बलात्कार से जुड़े अपमानजनक व्यवहारों को सुधारने में सहायता करती हैं जिन्हें आम चिकित्सीय-कानूनी व्यवहारों द्वारा बढ़ावा दिया गया है. यह “चिकित्सीय रूप से निर्दिष्ट” पीड़िता की आन्तरिक योनि जाँच तक सीमित करने वाले “टू फिंगर टेस्ट”(दो उँगलियों द्वारा परीक्षण) के प्रचलित तरीके को ख़त्म करता है और कहीं पीड़िता “सेक्स की आदी” तो नहीं, जैसे अवैज्ञानिक तथा अपमानजनक चरित्रहनन वाले चिकित्सीय निष्कर्ष के इस्तेमाल को ख़ारिज करता है.


भारत के संघीय ढांचे के तहत, स्वास्थ्य सेवा राज्य का विषय है,  इसलिए राज्य सरकारें 2014 के दिशानिर्देशों को अपनाने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं हैं. अब तक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र, जहां ह्यूमन राइट्स वॉच ने उत्तरजीवियों और डॉक्टरों का साक्षात्कार किया है, सहित केवल 9 राज्यों ने इन दिशानिर्देशों को अपनाया है. लेकिन ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि चिकित्सीय पेशेवर, यहां तक कि दिशानिर्देश अपनाने वाले राज्यों में भी, हमेशा उनका पालन नहीं करते हैं. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि यौन हमले की  उत्तरजीवियों की जांच करने वाले डॉक्टर उन्हें जाँच के बारे में पर्याप्त जानकारी देने में नाकाम रहे और उनके साथ डॉक्टरों के व्यवहार में संवेदनशीलता की कमी थी. इन राज्यों के छह मामलों में, डॉक्टरों ने जहाँ जांच के दौरान महिला पुलिसकर्मियों को उपस्थित रहने की अनुमति दे रखी थी, वहीँ वे कभी-कभी परिवार के सदस्य को अनुमति देने से मना कर देते थे.


मध्य प्रदेश में 18 वर्षीय दलित महिला पलक का अपहरण और बलात्कार किया गया. इस मामले में स्वास्थ्य पेशेवर ने पीड़िता पर दोष मढ़ा जिससे उसे और भी नुकसान पहुंचा. बेटी की  चिकित्सा जांच के दौरान उसके साथ कमरे में मौजूद पलक की मां ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि डॉक्टर ने यह इंगित किया कि पलक झूठ बोल रही है और कि सेक्स सहमति से हुआ है: डॉक्टर ने मेरी बेटी से कहा “यदि वे आप के साथ जबरदस्ती करते, तो आपके शरीर पर     निशान होना चाहिए था, लेकिन आपके शरीर पर ऐसा कुछ नहीं है. आपने जरूर अपनी इच्छा से ऐसा किया होगा.” जांच के बाद मेरी बेटी और ज्यादा डर गई.


मुंबई में नगरपालिका अस्पताल की एक वरिष्ठ प्रसूति रोग विशेषज्ञ, जिन्हें अक्सर अदालत में बयान देने के लिए बुलाया जाता है, ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि न्यायाधीश विशेष रूप से निचली अदालतों के न्यायाधीश, अक्सर चिकित्सीय-कानूनी दिशानिर्देशों से अनजान होते हैं और पुलिस के माँग-प्रपत्र में भी दिशा निर्देशों की अनदेखी की जाती है. डॉक्टर ने कहा, “पुलिस हमेशा हमसे पूछती है कि क्या जबरन [यौन] हमला हुआ है, क्या वीर्य मौजूद है. उन्हें प्रशिक्षित नहीं किया गया है और यही कारण है कि वे ऐसे प्रश्न पूछते हैं. पुलिस के लिए, यौन हमले का मतलब केवल (लिंग) प्रविष्टि है.”


कई राज्यों के अपने दिशानिर्देश हैं, लेकिन वे अक्सर पुराने होते हैं और 2014 के केंद्र सरकार के दिशानिर्देशों जैसे विस्तृत और संवेदनशील नहीं होते हैं, इनमें ऐसी प्रक्रियाओं और चिकित्सा जांच की आवश्यकता होती है, जो जरूरी नहीं भी हो सकते हैं. उदाहरण के लिए, राजस्थान के अस्पतालों में इस्तेमाल किए जाने वाले मानक फॉर्म में एक ऐसा कॉलम अभी भी है जो योनिच्छद (हैमेन) की स्थिति के बारे में जानकारी मांगता है और डॉक्टर इसे भरने के लिए फिंगर टेस्ट करते हैं. जयपुर के एक अस्पताल में फॉरेंसिक साक्ष्य विभाग के एक मेडिकल कानूनविद ने कहा, “ये फॉर्म्स मेरे जन्म से पहले के हैं”. हालांकि, हरियाणा राज्य सरकार ने 2014 के बेहतर दिशानिर्देशों से पहले 2012 में अपनी चिकित्सीय-कानूनी नियमावली जारी की थी, मगर अस्पताल हमेशा उन प्रोटोकॉल्स का पालन नहीं करते हैं. हिसार जिले के सरकारी अस्पताल में, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि सरकार द्वारा जारी किए गए 17 पृष्ठों के विस्तृत फॉर्म के बजाय डॉक्टरों ने दो पृष्ठ वाले फॉर्म का इस्तेमाल किया. रेजिडेंट चिकित्सा अधिकारी ने कहा, “सरकारी प्रपत्र विस्तृत है. इंटरनेट हमेशा काम नहीं करता है, फिर कभी-कभी प्रिंटर काम नहीं करता, इसलिए हम ज्यादातर पुराने नियमावली फॉर्म का उपयोग करते हैं.”


एक ओर जहाँ अधिकारी फॉरेंसिक साक्ष्यों के संग्रह को मानकीकृत करने के लिए दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए छोटे-छोटे कदम उठा रहे हैं, वहीँ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली यौन हिंसा की उत्तरजीवियों को चिकित्सीय देखभाल और परामर्श प्रदान करने में काफी हद तक विफल रही है. इसमें सुरक्षित गर्भपात तक पहुँच और यौन संचारित बीमारियों के परीक्षण के लिए सलाह शामिल हैं. 2014 के दिशानिर्देश उत्तरजीवियों के लिए मनोसामाजिक देखभाल का खाका खींचते हुए कहते हैं कि स्वास्थ्य पेशेवरों को स्वयं फर्स्टलाइन (प्राथमिक) सेवाएं प्रदान करनी चाहिए या उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कुछ अन्य प्रशिक्षित व्यक्ति सुविधा केन्द्रों में हों जो ऐसी सेवाएं प्रदान करें. इसमें शामिल हैं- उत्तरजीवी के कल्याण पर ध्यान देना, उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करने और संकटकालीन परामर्श लेने के लिए प्रोत्साहित करना, सुरक्षा मूल्यांकन करना और सुरक्षा योजना बनाना तथा इलाज प्रक्रिया में परिवार और दोस्तों को शामिल करना. ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा दस्तावेजीकरण किए गए बलात्कार के लगभग सभी मामलों में, महिलाओं और लड़कियों ने कहा कि परामर्श सहित उनकी स्वास्थ्य आवश्यकताओं पर लगभग कोई ध्यान नहीं दिया गया, जबकि यह स्पष्ट हो गया था कि उन्हें इसकी बहुत जरूरत थी.

काजल को उसके पति और परिवार ने छोड़ दिया था और सितंबर 2015 में सामूहिक बलात्कार  का मामला दर्ज कराने के महीनों बाद उसे चिकित्सीय सहायता और परामर्श की अविलंब जरूरत थी. वह अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए लौट आई, लेकिन जल्द ही वे अभियुक्तों की धमकियों के बाद जगह बदलने के लिए मजबूर हो गए. हालांकि, जांच करने वाले चिकित्सक ने परामर्श के लिए उसे किसी के पास नहीं भेजा था. काजल ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
मैंने सब कुछ खो दिया और सब मुझे दोषी ठहराते है. घटना के बाद एक महीने तक मैं घर के बाहर नहीं गई. मैं पड़ोसियों के ताने सुन-सुन के थक गई थी. मैंने खाना-पीना छोड़ दिया था, बस घर पर किसी पागल महिला की तरह पड़ी रहती थी. ऐसा लगता था जैसे मैंने अपना मानसिक संतुलन खो दिया हो.


प्रभावी कानूनी सहायता तक पहुंच का अभाव


दिल्ली की वरिष्ठ आपराधिक वकील रेबेका मैमन जॉन ने कहा कि सुनवाई की प्रक्रिया भयभीत करने वाली और भ्रामक हो सकती है और “पीड़िता को शर्मिंदा करने की कोशिशें अभी भी अदालतों में खूब होती हैं. हमें अदालती भाषा को बदलने के लिए काम करने की आवश्यकता है.” प्रायः भारतीय सुनवाई प्रक्रियाओं में हानिकारक रूढ़ियां कायम हैं. अदालतों में न केवल न्यायाधीशों बल्कि बचाव पक्ष के वकीलों द्वारा भी यौन हमले की उत्तरजीवियों के प्रति अक्सर पक्षपाती और अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया जाता है. उत्तरजीवियों के लिए प्रभावी कानूनी सहायता इस तरह के पूर्वाग्रहों को दूर करने में मदद कर सकती है.

अपर्याप्त कानूनी सहायता विशेषकर उन उत्तरजीवियों के लिए चिंता का विषय है जो गरीब और हाशिए के समुदायों से आते हैं. 1994 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि यौन हमले की  पीड़िताओं को कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिए और सभी पुलिस स्टेशनों को कानूनी सहायता विकल्पों की सूची रखनी चाहिए. दिल्ली में यह सुनिश्चित करने के प्रयास हुए हैं – दिल्ली महिला आयोग एक रेप क्राइसिस सेल का संचालन करता है जो पुलिस स्टेशनों के साथ समन्वय करता है, हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि यह भी तदर्थ व्यवस्था है और पूरी तरह प्रभावी नहीं है – फिर भी देश के अन्य हिस्सों, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी व्यवस्था दुर्लभ है. ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जिन 21 मामलों का दस्तावेजीकरण किया गया है उनमें से किसी में भी पुलिस ने पीड़िता को कानूनी सहायता के उनके अधिकार के बारे में सूचित नहीं किया या कानूनी सहायता प्रदान नहीं की.

ताकि पीड़िताओं को बार –बार बलात्कार से न गुजरना पड़े

केंद्र सरकार ने महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों के तेज निपटारे के लिए पूरे देश में करीब 524 फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना की है. इनकी प्रभावकारिता को निर्धारित करने के लिए अभी तक कोई भी देशव्यापी अध्ययन मौजूद नहीं है. हालांकि,ऐसा प्रतीत होता है कि केवल फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना अपर्याप्त है: पीड़ितों को इस व्यवस्था में मार्गदर्शन  करने में मदद के लिए कानूनी सहायता जैसे अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं पर समान रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए.


बच्चों से जुड़े मामलों में, कानून जांच और सुनवाई की पूरी प्रक्रिया के दौरान बच्चे की मदद करने के लिए सहयोगी व्यक्ति उपलब्ध कराता है. हालांकि, जैसा कि ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि इस संबंध में कार्यान्वयन की कमी है, जबकि बलात्कार की वयस्क उत्तरजीवियों के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है. दिल्ली स्टेट लीगल सर्विसेज अथॉरिटी की विशेष सचिव गीतांजली गोयल ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया, “बलात्कार के मामलों जैसे पोस्को (यौन अपराधों से बाल संरक्षण अधिनियम) में सहयोगी व्यक्ति उपलब्ध कराया जाना चाहिए. यह अनिवार्य नहीं है, लेकिन एक विकल्प होना चाहिए, क्योंकि पीड़ित को मामले की स्थिति, पुलिस जांच, क्या चार्जशीट दर्ज की गई, क्या अभियुक्त ने जमानत के लिए आवेदन कर दिया है जैसी बातों के बारे में भी जानकारी नहीं होती है.”

पूरी रिपोर्ट पढ़ें : “सब मुझे दोष देते हैं”

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