सामूहिक चेतना का ही प्रतिबिम्ब है स्त्रीविरोध का अनफेयर गेम



ज्योति प्रसाद


इसी बेसर्दी के महीने दिसंबर में द इक्नॉमिक्स टाइम्स ने एक सूचना छापी है कि विनी कॉस्मेटिक्स जो फॉग सेंट भी बनाती है अब एक प्रिटी 24 क्रीम बाज़ार में लेकर आई है।कंपनी के मैनिजिंग डायरेक्टर का मानना है कि अब बाज़ार में उपलब्ध उन ब्राण्ड्स का पर्दाफाश होगा जो कथित रूप से गोरापन बेचते हैं। कंपनी के मुताबिक प्रिटी 24 क्रीम भारतीय महिलाओं को उनके त्वचा के रंग के आधार पर हो रहे भेदभाव से मुक्त करेगी। दिलचस्प यह भी है कि यही कंपनी एक अन्य उत्पाद व्हाइट टोन फेस पाउडर भी बनाती है जिसको लगा लेने के बाद चेहरा निखरा निखरा, ईवन टोन और ऑइल फ्री दिखने लगता है। खैर आप उत्पाद के नाम पर ध्यान ज़रूर दें।



बाज़ार और रंगभेद


मेरे एक बहुत अच्छे मित्र ने एक बार एक पंक्ति कही थी जिसके द्वारा बाज़ार की वास्तविक मंशा समझी जा सकती है। उसने कहा था ‘गंजे को कंघी बेचना ही सेल करना होता है।’ बाज़ार एक वह जगह मानी जाती थी जहां से आपको अपना ज़रूरत का सामान लेना होता था। लेकिन भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बहुत आगे निकल चुके हम लोग अब किसी दूसरे माहौल में रह रहे हैं। बहु-राष्ट्रीय कंपनियाँ सामान खरीदने की हर संभव
सुविधा देकर मनुष्य को उस उपभोक्ता में तब्दील कर चुकी हैं जो केवल मुंह से उपभोग न कर के हर अंग से उपभोग कर रहा है। सेवाएँ और वस्तु घर तक पहुंचा दिये जा रहे हैं। एक तरह से आप सामान खरीदने को बाध्य हैं। इस बाध्यता का ग्राहकों को रत्ती भर एहसास भी नहीं है। अमेज़ोन कंपनी का भारतीयकरण का लिबास पहना हुआ विज्ञापन हर तीसरे मिनट पर आ रहा है। अब टीवी देखने वाला और वाली इसके प्रभाव से कैसे बच सकते हैं? बाज़ार उत्पादन करता है और लोग उसके मुख्य उपभोक्ता हैं। वह अपने सामान को बेचेगा और मुनाफा कमाएगा। बाज़ार एक भीड़ जैसा हैं जिसमें कई कंपनियाँ अस्तित्व में होती हैं। भीड़ को समझना है तब उसके मिजाज को समझना होगा और बाज़ार को समझना है तो कंपनियों की रणनीतियों को समझना होगा। कंपनियाँ अपने उत्पाद के रंग से लेकर उसे बाज़ार में उतारने तक की रणनीति बनाती हैं। कंपनियाँ किसी भी क्षेत्र और जनता का अध्ययन करने के बाद विज्ञापन के मैदान में उतरती हैं और छा जाती हैं। इसलिए अब अगर कोई कंपनी गहरे या साँवले या फिर काले रंग के भेदभाव के मद्देनजर अपना एक उत्पाद ला रही है तो इसका दूसरा मतलब क्रीम को रंग के सहारे बेचने के पीछे एक सोची समझी रणनीति का होना है। उदाहरण के लिए फेयर एंड लवली क्रीम की ट्यूब गुलाबी और सफ़ेद रंग का इस्तेमाल करती हैं। गुलाबी का रंग सीधे महिलाओं और युवा लड़कियों को टारगेट करता है और सफ़ेद रंग त्वचा के रंग को। यह उत्पाद की सहज पहचान और पहुँच बनाने की रणनीति है।

साल 2015 में एक महत्वपूर्ण घटना घटी थी, जिसे बहुत जल्दी भुला दिया गया। कल्याण ज्वेलर्स ने ऐश्वर्या राय को लेते हुए एक विज्ञापन जारी किया था जिसमें वह गहनों से लदकर रानी के रूप में बैठी हुई हैं और एक अश्वेत लड़के ने जो गुलाम भी है, उनके ऊपर छाता लगा रखा है। बाद में लोगों की गहरी नाराजगी के चलते कंपनी ने माफी मांगते हुए विज्ञापन वापस ले लिया। इसके पीछे की मानसिकता को समझने के लिए आपको उस युग की
मानसिक और ऐतिहासिक सैर करनी होगी जब दुनिया में अश्वेत लोगों को गुलाम बनाया जाता था। उनकी खरीद फरोख्त होती थी। उन्हें प्रताड़ित किया जाता था। उन्हें जंजीरों से बांधा जाता था ताकि कहीं वे गुलाम(मनुष्य) भाग न जाये। भारत में जाति के नाम पर भेदभाव का पुराना इतिहास रहा है। चार वर्णों की व्यवस्था इसका सबूत है। आर्य जाति से अपने को जोड़ने वाले लोगों की कमी भी नहीं है। आर्य शब्द का एक अन्य अर्थ गोरा रंग भी
बताया जाता है। अतः जो आर्य नहीं है उन्हें कमतर अथवा निम्न माना जाता है, अभी भी। हाल ही में सोशल मीडिया पर आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास ‘शर्मा’ का एक वीडियो फैल रहा है जिसमें वे आरक्षण, एक बंदे और मेहतरानी जैसे शब्दों का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। आज जब यह पोस्ट लिख रही हूँ यह सन् 2017 है और आज तक कुमार विश्वास ‘शर्मा’ जैसे लोगों के दिमाग में से चार वर्ण व्यवस्था नहीं निकल पाई है। इनके लिए
आदर्श आज भी मनु ही है। एक बहुत बड़े मनुष्य तबके को गुलाम बनाए रखने की मानसिक कीड़े ने दम नहीं तोड़ा है। यह वही मानसिकता है जो एश्वर्या राय के विज्ञापन में दिखी थी। गुलाम काले होते हैं और गोरे राज करने वाले, क्या इस विज्ञापन को देखकर आसानी से इस भयानक असमानता को नहीं समझा जा सकता?



अभिनेत्री तनिष्ठा चटर्जी जब अपनी फिल्म ‘पार्च्ड’ का प्रमोशन करने एक टीवी चैनल के कॉमेडी शॉ में पहुंची थीं तब उनके रंग को लेकर शॉ में भद्दी पंक्तियों का इस्तेमाल किया गया और वे तुरंत ही शॉ को छोड़कर चली गईं। तनिष्ठा के वक्तव्यों पर यदि नज़र डालें तो वे कहती हैं कि कई लोग उन्हें इस बात का उलाहना देते हैं कि ब्राह्मण होकर भी आपका रंग गहरा क्यों हैं? मतलब यह है कि ब्राह्मण होने का एक और मतलब गोरा रंग होना है।


अखबारों में शादी के विज्ञापन साफ तौर पर गोरी, टॉल और वेल एजुकटेड लड़की/लड़के की मांग रखते हैं।इतना ही नहीं वे ब्राह्मण, बनिया, खत्री, अग्रवाल, जाट, चमार आदि खंडों में बंटे होते हैं। इसलिए भारत में जाति और रंग को पूरी तरह से अलग कर के नहीं देखा जा सकता। हिन्दी सिनेमा द्वारा किया जाने वाला रंगभेद
रुकिए बात यहीं खत्म नहीं हुई। निर्देशक शेखर कपूर की अति प्रसिद्ध फिल्म मि. इंडिया सन् 1987 में आई थी और बहुत बड़ी हिट भी रही थी। उसमें हवा हवाई गीत में एक ऐसा पड़ाव भी आता है जिसमें गोरी श्री देवी बीच में(आगे भी) नाच रही हैं और उनके पीछे कई युवक अपने ऊपर काला रंग पोत कर नाच रहे हैं। लेकिन भारतीय दर्शकों का ध्यान गाने और नाच पर कुछ इस तरह से टिका दिया जाता है कि वे इसको किसी भी तरह से
हिंसात्मक नहीं लेते। बल्कि वे भी श्री देवी के साथ गाने लगते हैं, कहते हैं मुझको हवा हवाई! जी हाँ, आप ठीक समझे कि फिल्में भी रंगभेद को जाने अनजाने बढ़ावा देती आई हैं। यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तब अधिक से अधिक सिने तारिकाएँ गोरे रंग की ही हैं। जिन अभिनेत्रियों ने सांवले रंग के साथ अपने करीयर की शुरुआत की थी वे भी बाद में ट्रीटमेंट लेते लेते गोरी हो चुकी हैं। ठीक यही दशा अभिनेताओं की भी है। गीतकार शैलेंद्र ने 1967 में तीसरी कसम फिल्म का निर्माण किया था। फिल्म फणीशवरनाथ रेणु की चर्चित कहानी तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम पर आधारित थी। फिल्म का मुख्य पात्र हीरामन कथा साहित्य में काले रंग का है पर सिल्वर स्क्रीन पर वह गोरे शॉमैन राजकपूर में बदल जाता है। यह फिल्मों का वह पक्ष है जो बड़ी बारीकी से घातक खेल, खेल जाता है और फिल्मों के दीवाने पागल बन जाते हैं।


प्रियंका चोपड़ा को अपनी फैशन फिल्म के लिए बहुत तारीफ़ें मिली थीं पर उसी फिल्म में उस दृश्य के बारे में उन्हें अभी तक अफसोस नहीं हुआ जब वे एक अफ्रीकी मूल के व्यक्ति के साथ एक रात अंतरंग होती हैं और सुबह उठकर ग्लानि महसूस करती हैं। आधुनिक भारत कुमार यानि अक्षय कुमार अपनी फिल्म कमबख़्त इश्क़ में एक दृश्य में अफ्रीकी मूल की महिला के चेकिंग करवाने के दृश्य में दुखी दिखते हैं। फिल्म में यह दृश्य कॉमेडी दृश्य के रूप में पेश किया गया है। ऐसी रंगभेद फिल्मों और दृश्यों की हिन्दी सिनेमा में भरमार है और आज तक वे इस पर शर्मिंदा भी नहीं हैं।



आगे बढ़ते हैं और अन्य उदाहरणों की बात करते हैं। बॉलीवुड के एक अभिनेता हैं जिनका नाम है अभय देओल। उन्होने इसी साल सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखी थी जिसे पढ़कर बहुत से लोगों को बिजली का करंट लग गया था। उन्होने शाहरुख खान, सोनम कपूर, जॉन अब्राहम, दीपिका पादुकोण, विद्या बालन, सिद्धार्थ मल्होत्रा, इलियाना डिक्रूज़ कलाकारों केगोरा बनाने वाली क्रीम के प्रचार करने को लेकर अच्छी क्लास लगाई थी।शाहरुख खान इसी दिसंबर में टेड टॉक्स लेकर आ रहे हैं जिसमें वे प्रेरणा की बात करते नज़र आ रहे हैं तो दूसरी तरफ विद्या बालन महिला सशक्तिकरण पर आधारित फिल्में बेगम जान और तुम्हारी सुलू जैसी फिल्में कर रही हैं। यही नहीं शौच से जुड़े विज्ञापन पर भी वे देश को बता रही हैं कि शौचालय का इस्तेमाल क्या है? दीपिका पादुकोण और शाहिद कपूर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात करते नज़र आ रहे हैं। जब अभय देओल ने अपनी पोस्ट के द्वारा रंगभेद पर निशाना लगाया था तब श्री लंका की सुंदरी जैकलीन फर्नांडीस ने उनका साथ दिया था और कहा था कि रंगभेद करना गलत है। लेकिन वे इस बात को न जाने कैसे भूल गईं कि खुद उनकी फिल्म ‘रॉय’ में वे चिल्ला-चिल्लाकर चिट्टियाँ कलाइयाँ पर नाच रही हैं। इस पूरे बोझिल वर्णन का तात्पर्य यह है कि ये सभी फिल्मी सितारे कला को कला की नज़र से कम बल्कि आय की नज़र से अधिक देखते हैं। युवा जमात को इन बातों को ध्यान से समझना चाहिए और आँख बंद कर के इनके पीछे नहीं जाना चाहिए।


राजनीति में रंगभेद के उदाहरण


पिछले साल 8 नवंबर को भारतीय इतिहास में एक असंभव राजनीतिक और आर्थिक घटनाको अंजाम दिया गया। नोटबंदी हुई और भारत में एक अफरा-तफरी का माहौल रहा। इसघटनाक्रम के दौरान ‘काला धन’ जैसे शब्द-जोड़े ने अपनी जगह हर किसी की जुबान पर बना ली थी। आमफहम बोलचाल में अगर शब्द बिना समझे इस्तेमाल होते हैं तब कुछ हद तकउसे समझा जा सकता है पर राजनीतिक स्तर पर भी इस शब्द का खूब प्रयोग हुआ वह भी बिना सोचे समझे। वह आगत जो गैर-जिम्मेदाराना तरीके से कमाई जाती है, जिसके पीछे लालच का बड़ा हाथ होता है, जो नैतिकता को दरकिनार करके कमाई जाती है वह कमाई और आगत गैर लोकतान्त्रिक, गैर-संवैधानिक होती है। अंग्रेज़ी में इसे ईल-लीगल मनी से समझा जा सकता है। लेकिन भारतीय सरकार और विपक्ष ने इसे काला धन कहकर संबोधित किया जो कि निहायती असमानता वादी लफ़्फ़ाज़ी है। राजनीतिक रूप से हमारे पास दुनिया का शानदार संविधान है और इस महान भाषाओं के देश में बार बार काला धन जैसे शब्दों
का इस्तेमाल यह दर्शाता है कि हमारे राजनेता अभी भी सोच नहीं पा रहे हैं।


इससे पहले बीजेपी सांसद तरुण विजय ने अलजजीरा को दिये इंटरव्यू में दक्षिण भारत के लोगों को लेते हुए विवादित रंगभेद टिप्पणी की थी। इस बयान के बाद बहुत से लोगों कीतीखी प्रक्रियाएँ सामने आई थीं। लेकिन कुछ ऐसे नेता भी हैं जो मुद्दों को काफी हदटक गंभीरता से लेते हैं। सयुंक्त राष्ट्र अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति ने ट्विटर पर अपनी एक तस्वीर साझा की थी जिसमें वे खिड़की के पास खड़े हैं और खिड़की में चार बच्चे दिखाई दे रहे हैं।
उनमें एक बच्चा अश्वेत भी है। वे दिवंगत दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला की उक्ति को लेते हुए लिखते हैं- “कोई भी किसी दूसरे व्यक्ति के लिए त्वचा के रंग, पृष्ठभूमि और धर्म के आधार पर नफ़रत लेकर जन्म नहीं लेता…” (No one is born hating another person because of the color of his skin or his background or his religion…) इसलिए भारत में जब इस तरह की सुलझी हुई मानसिकता के शब्द नहीं दिखते तब चिंता होना लाजिमी हो जाता है।



सुंदरता- एक मिथ


घर में बच्चे के जन्म से लेकर उसकी समझ बनने तक की प्रक्रिया में सुंदरता से जुड़े कितने ही प्रतिमान जाने अनजाने प्रदर्शित किए जाते हैं। उसे काजल लगाया जाता है। बच्चे के रंग को लेकर कितने ही शब्द बोले जाते हैं। कन्हैया का मिथक उठाकर लाया जाता है। संगीत से पता चलता है कि राधा क्यों गोरी मैं क्यों काला! धीरे धीरे  बाहर की दुनिया में (स्कूल) जाकर वह तरह तरह के रंग देखता है। सांवला और गहरा और गोरा आदि आदि। मज़ाक-मज़ाक में उसे चिढ़ाया जाता है…ओ काली, ओ काले कौवे..! हमारे यहाँ सुंदरता के प्रतिमान बहुत ही दकियानूस रहे हैं। गोरा रंग इसमें बहुत महत्वपूर्ण होता है। बाज़ार इस बात को अच्छे से अध्ययन करता है और इसलिए वह विश्व सुंदरी प्रतियोगिता करवा देता है। आप घर में बैठे बैठे गौरव करते रह जाते हैं और आपको पता भी नहीं चलने दिया जाता कि आप को रद्दी माना जा रहा है। इसमें मीडिया की कंपनियों के संग मिलीभगत वाले एंगल कोनज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।


सुंदरता वह समझी जाती है जो बाहर के पक्षों द्वारा सरासर आरोपित की जाती है। जबकि व्यक्ति को यह समझने का मौका ही नहीं दिया जाता है कि वास्तव में उसके स्वयं के लिए सुंदरता का वास्तविक अर्थ क्या है? व्यक्ति को बताया गया कि फलां महिला चूंकि विश्व सुंदरी है तो वह दुनिया की सबसे सुंदर औरत है। बताए जाने और आपको वह समझ पूरी तरह से ग्रहण करने के बीच बेहद उत्तेजक साधनों का प्रयोग होता है इसलिए आप खुद की सुंदरता की एक स्व-निर्मित समझ विकसित ही नहीं कर पाते। सुंदरता को आपके आँखों की देखने की क्रिया से ही जोड़ा जाता है, इसमें बाकी इंद्रियों को गौण बना दिया जाता है।

हर स्तर पर रंग को लेकर भेदभाव दिख जाता है। समझदार पाठक खुद मुझसे अधिक उदाहरण रोजाना देखते होंगे और उनका संज्ञान भी लेते होंगे। सारांश में कहूँ तो समानता की राह बहुत कठिन है। अगर वास्तव में हर तरह का भेदभाव मिटाना है तो एक प्रबुद्ध जनता का निर्माण करना होगा जो नैतिक मूल्य को आत्मसात किए हो। जहां एक बराबरी का माहौल हर किसी के लिए हो। यह सब ऐसे ही नहीं हो जाएगा। इसके लिए बेहतर समझ कीआवश्यकता होगी। इसके लिए राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक इच्छा शक्ति की जरूरत है। हमें एक ग्राहक और उपभोक्ता के नज़रिये से यह समझना होगा कि हमारी जरूरतें क्या हैं और क्या नहीं हैं। कोई क्रीम यदि हमारे चेहरे को सफ़ेदकर भी दे तो उससे क्या फर्क पड़ जाएगा। हम भोजन खाते हैं न कि क्रीम। नन्दिता दास की फोटो वाला अभियान स्टे अनफेयर तब तक कोई मायने नहीं रखता जब तक हम अपनी सोच में भेदभाव को ढोते हैं।

बाज़ार को अपना सामान बेचना है इसलिए उपभोक्ता को यह समझना होगा कि यदि आप गोरा बनाने वाली क्रीम खरीद रहे हैं तो भी कंपनी का फायदा है और यदि आप साँवले रंग की त्वचा की चमक के लिए उत्पाद खरीद रहे तो भी यह कंपनी का फायदा है आपका नहीं। (अगर साल 2018 की शुरुआत करनी ही है और इस लेख को पढ़कर यदि कोई प्रभावित होता है तब, मेरे जैसे अश्वेत लोग किसी भी तरह की गोरापन वाली क्रीम खरीदना बंद करदें। यह बहुत मुश्किल काम भी नहीं है।)

परिचय :-ज्योति जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा अध्ययन विभाग में शोधरत हैं. 
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