‘विजय संकेत’ के रूप में स्त्री शरीर

आकांक्षा 

स्त्री अध्ययन के शोधार्थी ।
संपर्क : ई मेल-akanksha3105@gmail.com

मनुष्य के विकास क्रम का इतिहास काफी परिवर्तनशील रहा है । आदिम युग से आगे बढ़ने पर मनुष्य ने जब सांगठनिक स्तर पर अपना जीवन यापन शुरू किया तभी से वास्तविक रूप में समाज का निर्माण शुरू होना माना जा सकता है । पूर्व में हम यह जान चुके हैं कि मनुष्य ने सांगठनिक स्तर पर कबीलों में रहना शुरू किया था और इस समाज को कबीलाई समाज के नाम से जाना जाता था । इस समाज का अस्तित्व काफी लंबे समय तक था और इतिहास में इसे कबीलाई युग के नाम से भी जाना गया ।

इस समाज की विशिष्टता यह थी कि इसमें स्त्री को केवल इस रूप में महत्त्व प्राप्त था कि वह एक ऐसा साधन थी जिस पर उस पूरे समाज का अस्तित्व टिका हुआ था । चूँकि कबीलाई समाज में श्रम करने के लिए अधिक से अधिक व्यक्तियों की संख्या ही उस समाज की संपत्ति समझी जाती थी । छोटे-छोटे कबीले अपनी संख्या में वृद्धि करने के लिए प्रयास करते रहते थे और कई बार कई छोटे-छोटे कबीले एक बड़े कबीले द्वारा जीत लिए जाते थे । इस प्रक्रिया में छोटे कबीलों की स्त्रियों को ही सबसे पहले निशाना बनाया जाता था । जब स्त्रियाँ बड़े कबीलों में आकार रहने लग जाती थीं तब उन कबीलों के पुरुष भी स्वयं ही हार स्वीकार कर उस बड़े कबीले में शामिल हो जाते थे और उनके अनुसार कार्य करने लग जाते थे । कबीले के स्त्री-पुरुष के बीच किस तरह के संबंध होते थे, इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि किस प्रकार पुरुष पर आधिपत्य जमाने के लिए स्त्री और स्त्री शरीर का उपयोग किया जाता था ।
प्रसिद्ध विदुषी लीला दुबे ने अपने महत्त्वपूर्ण आलेख ‘धरती और बीज’ में स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार व्यक्ति द्वारा खेती करने के लिए खेत में बीज बोया जाता है तथा उसकी फसल और जमीन पर उसका ही अधिकार होता है, ठीक वैसी ही स्थिति स्त्री शरीर की भी है । स्त्री शरीर की स्थिति खेती करने योग्य भूमि के जैसे ही है और उस पर उस पुरुष का अधिकार हो जाता है जिसका बच्चा पैदा करके वह उसके वंश को आगे बढ़ाती है । भारतीय समाज में माँ को सबसे ऊँचा दर्जा प्राप्त है । इसीलिए धरती और स्त्री की तुलना की जाती रही है और धरती को माँ के रूप में स्थापित किया जाता रहा है, क्योंकि धरती अनाज पैदा करती है और स्त्री, बच्चे । सीमा क्षेत्र पर भी सैनिकों को माँ (धरती) की रक्षा के लिए तैनात किया जाता है और यह प्रशिक्षित भी किया जाता है कि उन्हें माँ की रक्षा के लिए हर प्रकार से सदैव तत्पर रहना चाहिए । एक तरह से इस काम की जिम्मेदारी केवल पुरुषों पर ही होती है क्योंकि अभी सेना में महिलाओं के प्रवेश के बावजूद यह जिम्मेदारी पुरुष ही निभाते हैं, क्योंकि यह माना जाता है कि पुरुष ही स्त्री (धरती रूपी स्त्री या माँ) की रक्षा कर सकता है ।

जिस प्रकार धरती (क्षेत्र) किसी राष्ट्र की इज्जत का प्रतीक मानी जाती है उसी प्रकार स्त्री किसी एक समुदाय, परिवार, जाति और धर्म की इज्जत से जोड़कर देखी जाती है । जिस प्रकार किसी राष्ट्र की सेना या व्यक्ति द्वारा दूसरे राष्ट्र की धरती पर कब्जा या वर्चस्व स्थापित करने के जरिए उसे परास्त किया जाता है ठीक उसी प्रकार किसी समुदाय, जाति, परिवार और धर्म की स्त्री को अपहृत, प्रताड़ित, बलात्कार और अन्य तरह की हिंसा करके उस पूरे समुदाय को परास्त करने का प्रयास किया जाता है । इस प्रकार स्त्री शरीर युद्ध भूमि का वह क्षेत्र बना दिया गया है जहाँ समुदायों, जातियों, परिवारों और धर्मों के बीच युद्ध लड़ा जाता है । इस तरह के युद्ध में सबसे ज्यादा पीड़ित और प्रभावित स्त्री ही होती है ।

जहां तक कबीलाई समाज की बात है तो इस समाज में स्त्री का इस्तेमाल तो किया ही जाता था लेकिन, स्त्री शरीर पर हिंसा नहीं की जाती थी । पुरुषों को अपने वश में करने के लिए स्त्री को अपने अधीन करने की प्रथा थी ताकि उस स्त्री से जुड़े हुए पुरुष स्वतः ही उनके अधीन आ जाएँ । ऐसे में धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ती जाती थी और कबीला बड़ा रूप धारण करता चला जाता था । कबीले को श्रम के लिए पुरुष और घरेलू कार्यों के लिए स्त्रियाँ दोनों ही मिल जाते थे । स्त्री को अपने अधीन करने का प्रमुख कारण यह भी था क्योंकि वे ही बच्चे पैदा कर सकती थीं । उनका मानना था कि यदि स्त्री की संख्या अधिक रहेगी और वे बच्चे पैदा करती रहेंगी तो काम करने के लिए आवश्यक मजदूरों की पूर्ति होती रहेगी ।  इसके इतर सामंती समाज में भी ज्यादातर पुरुष को ही बँधुआ मजदूर की तरह रखने का चलन था । जमींदार निचले तबके के पुरुषों से कठोर काम लिया करते थे और बदले में उसके घर-परिवार के भरण-पोषण के लिए अनाज इत्यादि दिया करते थे । इस व्यवस्था में भी सीधे स्त्री पर हिंसा जैसा कोई स्वरुप नहीं दिखाई देता है । सामंत वर्ग स्वयं इतना सक्षम हुआ करता था कि उसे दूसरे वर्ग के लोगों पर अधिकार और वर्चस्व हासिल करने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती थी ।

जमींदारी और साहूकारी व्यवस्था में स्त्री को भी निशाना बनाया जाता था । किसान और निम्न तबके के लोग विभिन्न कार्यों के लिए जमीदारों और साहूकारों से क़र्ज़ लिया करते थे । बदले में वे अपनी जमीन या कीमती वस्तुएँ जैसे जेवर इत्यादि गिरवी रखा करते थे । मजदूर तबके के वे लोग जिनके पास गिरवी रखने के लिए कोई वस्तु नहीं होती थी उन्हें भी ऊँचे ब्याज पर क़र्ज़ दे दिया जाता था । कई बार क़र्ज़ इसलिए आसानी से मिल जाता था क्योंकि क़र्ज़ माँगने वाले मजदूर या किसान के घर की स्त्रियों पर सीधी नज़र रहती थी । जिन मजदूरों-किसानों के घरों की स्त्रियों पर साहूकारों-जमीदारों की नज़र रहती थी उन्हें बिना वजह क़र्ज़ लेने के लिए प्रोत्साहित भी किया जाता था और कहा जाता था कि वे “ब्याज भी नहीं लेंगे और जब मर्जी हो लौटा देना” । लेकिन जब मिला हुआ पैसा खर्च हो जाता और किसान या मजदूर लंबे समय तक क़र्ज़ नहीं चुका पाता तब उस पर पैसे वापस करने का तरह-तरह से दबाव बनाया जाता था । ऐसी स्थिति में वे मजदूर-किसान के घरों की स्त्रियों को अपने घरों में काम करने के लिए बुलाते थे । वे काम तो करवाते ही थे और साथ ही उसका शारीरिक शोषण भी किया करते थे । यह प्रक्रिया काफी लंबे समय तक चलती रहती और मजदूर-किसान सब कुछ जानकार भी चुप रहते । न उनके पास कभी पैसा जुटता और न ही वे क़र्ज़ से मुक्त हो पाते । आज भी बहुत पिछड़े इलाकों में इस तरह की घटनाएँ होती रहती हैं जो सामने नहीं आ पाती । इस तरह की घटनाओं पर आधारित कई हिंदी फ़िल्में भी बनीं है जो साहूकारी और जमींदारी  प्रथा में व्याप्त अनेकों प्रकार के शोषण और उत्पीड़न को बयान करते हैं ।
आधुनिक समाज में जैसे-जैसे शिक्षा, समाज-सुधार, जागरूकता, अधिकार और इसी तरह के अन्य उपायों के जरिए समाज में चेतना फैलनी शुरू हुई तो लोगों पर वर्चस्व और अधिकार बनाए रखना कठिन सा होने लगा । इस कारण से नए-नए तौर तरीके खोजे जाने लगे । जातीय संघर्ष इसका एक बड़ा उदाहरण है । जाति के आधार पर पहले समाज को बाँटना और फिर उस जातीय पहचान के वर्चस्व को स्थापित करने के लिए विभिन्न जातियों के बीच हिंसा को जन्म देना और हिंसा करना शुरू कर दिया गया । लेकिन यह तरीका बेहद जटिल और कठिन होता है । वर्चस्व के लिए धर्म को भी एक बड़े आवरण की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है । सांप्रदायिक हिंसा भी उसी का प्रतिफल है । अलग-अलग संस्कृतियों को मानने वाले समुदायों के बीच भी हिंसा अक्सर जन्म लेती रहती है और कई बार भयानक स्वरुप में हमारे सामने उपस्थित होती है ।

इन सारी स्थितियों में एक प्रवृत्ति जो समान रूप से मौजूद है वह है हिंसा । हिंसा की मौजूदगी तो है लेकिन उसके स्वरुप में कई स्तरों पर विभिन्नताएँ भी हैं । वर्तमान में हो रही हिंसा पर यदि दृष्टिपात की जाए तो हम पाते हैं कि पहले के समाजों में स्त्री पर बिना हिंसा किए वर्चस्व बनाए रखने की प्रवृत्ति थी वहीं आज स्त्री शरीर पर हिंसा करते हुए उस समाज पर वर्चस्व कायम करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । यह स्थिति आज इतना विकराल रूप ले चुकी है कि स्त्री शरीर को निशाना बनाए बगैर किसी भी तरह की हिंसा को अंजाम नहीं दिया जा रहा है और स्त्री शरीर के जरिए स्त्री से जुड़े समाज पर वर्चस्व प्राप्त किया जा रहा है । इस प्रकार स्त्री शरीर न केवल वर्चस्व प्राप्त करने का एक साधन या जरिया है बल्कि ‘विजय संकेत’ के रूप में स्थापित होती जा रही है ।

आम तौर पर जब भी दो गुटों, जातियों, समुदायों के बीच तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है तब सबसे ज्यादा ख़तरा स्त्री के लिए पैदा हो उठता है । कारण यह है कि कोई भी गुट, समुदाय या जाति समूह हो, उसकी नजर में स्त्री एक ऐसे साधन के रूप में दिखाई देती है जिसको प्रताड़ित या अपमानित करके उस गुट, समुदाय या जाति को नीचा दिखाया जा सकता है । यह एक सामाजिक मानसिकता को दृश्यांकित करता है । स्त्री का शरीर एक ऐसा संकेत है जो जीत और वर्चस्व को स्थापित करता है जबकि उस वर्चस्व को हासिल करने की प्रक्रिया में स्त्री की कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती है । उसे तो यह पता भी नहीं होता है कि गुटों, जातियों और समुदायों के बीच के तनाव में उसका भी इस्तेमाल किया जा सकता है ।  यह कार्य कई बार तब किया जाता है जब किसी एक पक्ष को या दोनों पक्ष को प्रतीत होने लगता है कि अब उनके पास एक दूसरे को नीचा दिखाने, उस पर अपना वर्चस्व कायम करने, उसको अपमानित करने आदि को लेकर कोई और तरीका नहीं बचा है । स्त्री को प्रताड़ित करना और उस पर हिंसा करना एक आसान तरीके के रूप में दिखाई देने लगता है और उसे निशाना बनाया जाता है ।

हिंदू महाकाव्यों में भी इस तरह के उदाहरण मौजूद हैं । जैसे, महाभारत में द्रोपदी का चीरहरण होना और रामचरित मानस में सीता का हरण लगभग इसी तरह के कृत्य को उजागर करता है । कई बार वर्चस्व प्राप्त करने के क्रम में यदि स्त्री को निशाना नहीं भी बनाया गया होता है लेकिन वर्चस्व प्राप्त हो चुका हो, उसके बावजूद इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जाता है । कई बार इसे ‘सबक’ के रूप में स्थापित किया जाता है कि ताकि इसके बाद दूसरा पक्ष अपने शक्ति प्रदर्शन की कभी हिम्मत भी न कर सके । कई बार तनाव शांत हो चुकने के काफी लंबे समय बाद एक दूसरे पक्ष की स्त्री को निशाना बनाया जाता है ताकि पूर्व में हुई घटनाओं का बदला लिया जा सके । समाज में इस तरह की घटनाएँ आम हो चुकी हैं जिनकी ख़बरों से अखबार अटे पड़े रहते हैं ।
भारतीय समाज में विवाह एक ‘पवित्र संस्था’ के रूप में स्थापित है । आम तौर पर सजातीय विवाहों का चलन उत्तर भारतीय समाजों में है और दहेज प्रथा भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है । विवाह होने से पहले लड़की अपने पिता के घर की संपत्ति और इज्जत के रूप में देखी जाती है और विवाह होने के बाद वह ससुराल पक्ष की संपत्ति और इज्जत के रूप में देखी जाती है । सामान्य तौर पर यह एक आदर्श स्थिति दिखाई देती है लेकिन वास्तविक और व्यावहारिक तौर पर यह स्थिति समग्रता में एक व्यक्ति के मानवाधिकारों का हनन है । क्योंकि इन सबके इतर स्त्री के अपने अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह उपस्थित होता है । दोनों पक्षों की संपत्ति और इज्जत को संजोने की भूमिका के अलावा एक मनुष्य के नाते उसकी अपनी कोई इच्छा या भूमिका नहीं दिखाई देती है । विवाह को एक आदर्श स्थिति, बराबरी पर आधारित रिश्ता, पवित्र बंधन इत्यादि मानने का चलन होने के बावजूद वर पक्ष हमेशा स्त्री पक्ष पर अपना वर्चस्व बनाए रखता है । यह वर्चस्व आम तौर पर स्त्री पक्ष द्वारा मौन स्वीकार्य भी होता है । अलग-अलग तरीकों से जैसे दहेज, विवाह के बाद ससुराल में लड़की की सुविधाओं के नाम पर माँगी जाने वाली महँगी वस्तुएँ, ससुराल से मायके ले जाने और ‘सुरक्षित’ पहुँचाने की जिम्मेदारी आदि के तले स्त्री पक्ष हमेशा दबी स्थिति में होता है । इसके इतर यदि स्त्री की कोख से बेटी का जन्म लेना भी एक बहुत बड़े वर्चस्व संकेत के रूप में उपस्थित होता है जबकि बेटी या बेटा पैदा करना स्त्री पर निर्भर नहीं करता ।

चिकित्सा विज्ञान के अनुसार बेटा या बेटी पैदा होना पुरुषों पर निर्भर करता है क्योंकि स्त्री के शरीर में केवल X क्रोमोजोम ही होता है वहीं पुरुष शरीर में X और Y दो क्रोमोजोम होते हैं । पुरुष के Y क्रोमोजोम कमजोर होने की स्थिति में ही बेटी पैदा होती है और इसकी जिम्मेदारी पुरुषों को लेनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता है । बेटी पैदा होने पर सारी जिम्मेदारी स्त्रियों पर थोप दी जाती है और उसे और उसके मायके वालों को इस बात को लेकर हमेशा प्रताड़ित, शोषित और अपमानित किया जाता है । समाज सब कुछ जानते हुए भी इस स्थिति पर मौन रहता है ।विवाह संबंधों में एक पक्ष यह भी है कि कई बार दो परिवारों के बीच आपसी रंजिश होने के बावजूद यह कहकर दोनों पक्षों के बीच विवाह संबंध कर लिए जाते हैं ताकि दोनों पक्षों के बीच के तनाव को खत्म किया जा सके । पर वास्तविकता इससे अलग होती है । एक राजनीतिक/रणनीतिक प्रक्रिया के तहत ऐसे विवाह संबंध इसलिए स्थापित किए जाते हैं ताकि स्त्री पक्ष पर वर्चस्व स्थापित हो सके । यहाँ पर भी स्त्री का इस्तेमाल ‘विजय संकेत’ के रूप में किया जाता है ।

वर्तमान में अंतरजातीय और  अंतर्धार्मिक विवाहों का चलन तेजी से बढ़ा है ।  यह कई मायनों में प्रगतिशीलता और जागरूकता का परिचायक है क्योंकि इससे धार्मिक और जातीय जकड़न टूटते हैं । यह लड़के और लड़कियों में आत्मनिर्णय लेने की क्षमता को प्रदर्शित करता है, साथ ही लड़के-लड़कियों में आपसी तालमेल और आत्मनिर्भरता जैसे आवश्यक व्यवहारों को बल मिलता है । लेकिन वहीं पर कई बार ऐसे संबंध स्त्री के अनुकूल नहीं होते । अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाहों में सामाजिक रूप से जिस धर्म एवं जाति को ऊँचा दर्ज़ा प्राप्त होता है, वह कहीं न कहीं वर्चस्व की स्थिति में होता है । यदि लड़का ‘निम्न’ जाति  का है और लड़की ‘उच्च’ जाति की होती है तब लड़के के जाति समूह में यह भावना बैठ जाती है कि उसने ‘उच्च’ जाति की ‘इज्जत’ को अपने कब्जे में कर लिया है । दूसरी तरफ यदि लड़की ‘निम्न’ जाति की है तो यह माना ही जाता है कि लड़की तो उसकी संपत्ति है ही, साथ ही उसका पूरा समुदाय ही लड़के के जाति समूह के अधीन है । ऐसे में वर्चस्व की स्थिति को निर्धारित करने में केंद्र में स्त्री ही होती है और जिस तरफ स्त्री होती है वह उसी का ‘विजय संकेत’ होती है । यही स्थिति बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक धर्मों के बीच बने वैवाहिक संबंधों के मामले में देखी जा सकती है । ऐसे ज्यादातर मामले इसलिए होते हैं क्योंकि हर जाति/धर्म अपनी पहचान और वजूद को बनाए रखना चाहती है । केवल इतना ही नहीं, वह स्वयं को श्रेष्ठ भी साबित करना चाहती है और इसे बनाए रखने का एकमात्र आसान जरिया स्त्री को बनना पड़ता है ।

विवाह संबंधों के इतर भी स्त्रियों पर हिंसा के जरिए वर्चस्व और जीत हासिल करने की कोशिश की जाती है । भारत के कई राज्यों (विशेष रूप से उत्तर भारत) में समय-समय पर जातीय संघर्ष होते रहे हैं जिनमे उच्च और निम्न जातियों के बीच अपने वर्चस्व की स्थापना को लेकर लंबे समय से संघर्ष होता चला आ रहा है । इसका संबंध राजनीति से भी है । जब-जब ऐसे राज्यों में राजनीतिक सरगर्मी बढ़ती है, इस तरह की हिंसाओं में तेजी से इज़ाफा होता है और तमाम खूनी संघर्ष होते हैं । ऐसी जातीय हिंसाओं का शिकार पुरुष वर्ग तो होता ही है लेकिन निर्णायक स्थिति स्त्रियों पर हिंसा करने के बाद ही तय होती है । आम तौर पर जातीय संघर्ष में जब हिंसा अपने चरम पर होती है और दोनों पक्षों के पुरुष हिंसा के जरिए एक दूसरे को हराने के लिए प्रयास करते हैं तो कई बार दोनों पक्ष बुरी तरह प्रभावित होते हैं लेकिन यह फैसला नहीं हो पाता कि किस जाति को जीत हासिल हुई । ऐसे में एक दूसरे पक्ष की स्त्री या स्त्रियों पर जघन्यतम हिंसा (बलात्कार, छेड़छाड़) के जरिए यह साबित करने का प्रयास किया जाता है कि जिस पक्ष ने स्त्री को अपमानित किया है वह विजयी हुआ क्योंकि स्त्री पर हिंसा करके स्त्री के पूरे समूह को अपमानित किया जाता है ताकि वह फिर से दूसरे पक्ष पर हिंसा करने की सोच भी न सके । ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि यह माना जाता है कि जिस पक्ष की स्त्री के साथ हिंसा की गई है, वह पूरा समूह ही अपने आप अशुद्ध हो गया है ।

ऐसी ही स्थिति धर्म आधारित हिंसा में देखने को मिलती है । १९९० ई. के बाद से धर्म आधारित हिंसा में स्त्रियों को निशाना बनाने का चलन बढ़ा है । धर्म के नाम पर स्त्री का शोषण तो पहले से ही होता आ रहा है लेकिन दो धर्मों और संप्रदायों के बीच होने वाले तनाव और उससे पनपी हिंसा में भी स्त्री शरीर को निशाना बनाए जाने की प्रक्रिया होती रहती है । सांप्रदायिक दंगों के इतिहास पर यदि हम गौर करें तो हम पाते हैं कि पूर्व में जो सांप्रदायिक हिंसा होती थी उसमे स्त्री प्रभावित तो होती थी लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर नहीं । हिंसा के निशाने पर पुरुष वर्ग ही हुआ करते थे क्योंकि यह आम तौर पर सामाजिक मान्यता थी कि लड़ाई पुरुष-पुरुष के बीच की कार्यवाही है । आज भी जब गाँवों में दो गुटों/ संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच छोटे-मोटे झगड़े होते हैं तो उनसे स्त्रियों को दूर रखा जाता है । उसे किसी भी तरह बीच में बोलने तक का अधिकार नहीं होता चाहे उसके बोलने आदि से झगड़ा तुरंत ही शांत क्यों न हो जाए । यदि उसके बोलने से तुरंत झगड़ा शांत भी हो गया तो भी पुरुष वर्ग शांत नहीं बैठते । उन्हें लगता है कि झगड़ा शांत कैसे हो गया ? उन्हें यह आभास होने लगता है कि उनकी ‘मर्दानगी’ को ठेस पहुँच गई । यह एक तरह से पितृसत्तात्मक मानसिकता की झलक दिखाती है ।

उक्त सभी स्थितियों में केवल स्त्री शरीर ही एक ऐसे ‘ऑब्जेक्ट’ के रूप में सामने आती है जो  प्रत्यक्ष तौर पर हिंसा का शिकार होती है लेकिन आम तौर पर घटना के बाद की स्थितियों में इस तरह के विश्लेषण और आंकड़े नहीं के बराबर प्रस्तुत किए जाते हैं बल्कि ऐसे तथ्यों को छिपाए जाने का भरसक प्रयास किया जाता है ।
संदर्भ-
• सिंह, कंवलजीत (२००८)  जीतेंद्र गुप्ता (अनु.), वैश्वीकरण, संवाद प्रकाशन, मेरठ.
• खेतान, प्रभा (२००४ )  बाजार के बीच: बाजार के खिलाफ, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली.
• जोशी, रामशरण (संपा.) (२०१०)  मीडिया और बाजारवाद, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली.
• चक्रवर्ती, उमा (२०११) विजय कुमार झा (अनु.), जाति समाज में पितृसत्ता, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली.
• जान, ई. मेरी (२००८) अभय कुमार दुबे (अनु.), कामसूत्र से कामसूत्र तक,  वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली.
• जोशी, गोपा (२००६) भारत में स्त्री असमानता, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिली.
• पांडे, ज्ञानेंद्र एवं अमीम, शहीद (२००४) निम्नवर्गीय प्रसंग- भाग दो, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.

तस्वीरें गूगल से साभार 

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