महिला पत्रकारों पर बढ़ रहे हमले, जेएनयू प्रदर्शन के दौरान भी पुलिस की बदसुलूकी

श्वेता यादव

सामाजिक कार्यकर्ता, समसामयिक विषयों पर लिखती हैं. संपर्क :yasweta@gmail.com



पिछले दिनों जेएनएयू प्रोटेस्ट के दौरान दिल्ली पुलिस ने न सिर्फ विद्यार्थियों को बुरी तरह से पीटा अपितु पत्रकारों के साथ भी बुरा बर्ताव किया जिसमें से दो महिला पत्रकार हैं, उनमें से एक ने अपने साथ शारीरिक रूप से भी दुर्व्यवहार का आरोप दिल्ली पुलिस पर लगाया है| दिल्ली पुलिस ने एक महिला फोटोपत्रकार को न सिर्फ पीटा बल्कि उसका कैमरा भी तोड़ दिया जबकि वह बार-बार कहती रहीं कि वह पत्रकार है, स्टूडेंट नहीं| इन सबके खिलाफ प्रदर्शन के बाद दिल्ली पुलिस ने सफाई दी कि यह सब धोखे से हुआ सवाल उठाता है कि जब पत्रकार चीख-चीख कर कह रही थी कि वह जनर्लिस्ट हैं तो पुलिसकर्मियों ने उन्हें सुनकर भी अनसुना क्यों किया?

देश दुनिया में दिलचस्पी है तो अखबार उठाइये और देखिये सारे अखबार, मीडिया घराने, वेब पोर्टल्स आपको इस खबर से भरे पड़े मिलेंगे कि जेएनयू के छात्रों द्वारा किये जा रहे आन्दोलन पर पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया सिर्फ लाठी ही चार्ज नहीं किया है, सोशल मीडिया पर तैरती तस्वीरों को नज़्म करें तो पुलिस वालों ने छात्रों को इतनी बुरी तरीके से मारा है जैसे वे छात्र नहीं अपराधी हों! सवाल है क्यों? आखिर वह छात्र किस बात के लिए लड़ रहे हैं कि फीस कम हो जाए? कि एक ऐसा व्यक्ति जो यौनिकता को लेकर कुंठित हो वह एक प्रतिष्ठित संस्थान में प्रोफेसर के पद पर न रहे? इससे नुकसान किसका है? इसमें गलत क्या है? और अगर इसे कोई पत्रकार कवर कर रहा है तो गलत क्या है आखिर वह तो अपना काम कर रहा है? वह तो अपनी ड्यूटी ही कर रहा या रही है न… ठीक उसी तरह जैसे पुलिस वाले कर रहे हैं| फिर पत्रकारों के प्रति इतना बुरा व्यवहार क्यों?


यूँ तो पिछले कुछ दिनों में पत्रकारों पर हमले बढ़े हैं जिसके तमाम डेटा भी हैं हमारे पास| लेकिन आज हम सिर्फ महिला पत्रकारों पर हुए हमले पर बात करेंगे और समझने की कोशिश करेंगे कि अगर यह रूका नहीं तो इसका क्या प्रभाव पड़ेगा| बात शुरू करने से पहले नीचे कुछ आंकड़े जो यह दर्शाते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में कितने पत्रकारों पर हमले हुए हैं और उनमें महिला पत्रकारों का प्रतिशत क्या है?

साल-         पीड़ित पत्रकारों की संख्या –      महिला पत्रकारों का प्रतिशत
2011-             86                                             2%
2012-           106                                             4%
1013-           141                                             7%
2014-             92                                             8%
2015-             99                                         10%
Source – कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़ों की (NCRB) की माने तो 2015 से लेकर पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या तक लगभग 142 पत्रकारों पर हमले हुए हैं इससे भी मजेदार बात यह है कि इनमें अभी भी लगभग सारे केस अनसुलझे ही हैं|
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2015 में भारत पत्रकारों के लिए दुनिया का तीसरा सबसे खतरनाक देश था।
नीचे कुछ आंकड़ें हैं जिनमें पहला आंकड़ा 2014 -2015 का है कि किस राज्य में कितने पत्रकारों पर हमले हुए हैं और दूसरा मामलों में एफआई आर  रेट को दर्शाता है|

सोर्स- इण्डिया स्पेंड


पिछले दिनों मध्यप्रदेश में एक ही दिन तीन पत्रकारों की हत्या हुई| आइए कुछ  केस देखते हैं जिनमें महिला पत्रकारों पर हमले हुए हैं|

फरवरी 2016 लगभग 20 आदमियों की भीड़ स्क्रॉल.इन की पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम के घर के सामने अचानक ही जमा होती है और भीड़ मालिनी सुब्रमण्यम मुर्दाबाद, ‘नक्सली समर्थक बस्तर छोड़ो’ के नारे लगाते हुए उनके घर और गाड़ी पर पत्थर मारती है| आप कुछ भी कहिए लेकिन भीड़ का भी अपना  एक समाजशास्त्र होता है इस पर बात थोड़ी देर बाद पहले महिला पत्रकारों पर हुए हमले और कारणों की कुछ छोटी-छोटी कहानियां .. सच्ची कहानियाँ .. मनोहर कहानियाँ नहीं .. अप्रैल 2017 शाम के समय, जगह दिल्ली का अशोक विहार पार्क 45 वर्षीय महिला पत्रकार अपर्णा कालरा खून से लथपथ बेहोशी की हालत में मिली| डॉ. ने अपर्णा की हालत को गंभीर बताते हुए यह भी साफ़ किया था कि  अपर्णा के दिमाग की नसों को काफी नुकसान पहुंचा था.. पुलिस की जांच से यह बात साफ़ हुई कि अपर्णा पर हमला उनका यौन शोषण करने के इरादे से हुई थी|
जगह असम माना जाता है कि सेवन सिस्टर्स राज्य में महिलाओं की स्थिति सबसे अच्छी है वहां की नामी पत्रकार और महिला कार्यकर्ता बोंदिता आचार्य पर हमला सिर्फ इसलिए हुआ कि उन्होंने अपनी राय दर्ज की। बोंदिता ने अपने फेसबुक पर ये कहा कि असम राज्य में गाय का मांस खाना आम बात है। इसके बाद ही उनको बलात्कार, तेज़ाब से हमले, और मौत की धमकियाँ मिलने लगी। यह स्पष्ट है कि धमकियां देने वाले लोग कट्टर हिन्दुत्व विचारधारा वाले संगठनों से जुड़े हुए थे। यहां तक कि बजरंग दल ने एक प्रेसज्ञापन भी जारी किया था जिसमें उन्होंने बोंदिता से सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगने के लिए कहा।


5 सितंबर 2017 जगह बंगलूरू में वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या उनके अपने ही घर में गोली मारकर कर दी गई| वजह वह खुल कर उन चीजों के खिलाफ लिख रही थी जो समाज के विरूद्ध हैं| और जिनके नाम पर समाज को बांटने का काम तेजी से किया जा रहा है| विरोध की कीमत गौरी लंकेश को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी|



फरवरी 2017 जगह रामजस कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय में एक सेमीनार के दौरान दक्षिणपंथी समर्थकों ने हंगामा कर दिया उन्होंने न सिर्फ स्टूडेंट्स को मारा अपितु पत्रकार भी उनके निशाने पर रहे उस हंगामें में कई पत्रकारों पर हमला हुआ जिनमें तीन महिला पत्रकार भी थी जिसमें दो पत्रकारों ने अपने नाम सहित अपने ऊपर हुए हमले को लेकर मीडिया के सामने अपनी बात रखी तो एक पत्रकार ने अपना नाम नहीं लेने की शर्त पर बात की| द क्विंट की रिपोर्टर तरुणि कुमार के ऊपर उस वक्त हमला हुआ जब वो पूरे मामले की क्विंट के हैंडल पर फेसबुक लाइव कर रही थीं जो अचानक बंद हो गया| फेसबुक लाइव के दौरान ही एक महिला बीच में आ गईं और उन्होंने बाल खींचना शुरू कर दिया| तरुणी के अनुसार ‘मेरा सिर झुका हुआ था और मुझे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं कि कितने लोग मुझे पंच कर रहे थे| मुझे पुलिस ने आकर बचाया, तब तक मेरा लेपल माइक और चश्मा टूट चुका था| हमलावरों ने मेरा फोन छीन लिया था, जो मुझे महिला कांस्टेबल के ज़रिए मिला लेकिन उसकी स्क्रीन टूटी हुई थी| इस मारपीट में मेरा चश्मा गुम हो गया|’


वेबसाइट न्यूज़ क्लिक की कैमरामैन अपूर्वा चौधरी भी हमले का शिकार हुईं| उनकी पिटाई हुई और कैमरे का लेंस खींचने की वजह से वह टूटकर अलग हो गया|


पिछले दिनों एबीपी की रिपोर्टर निधी श्री ने न्यू इयर के समय शिमला में रिपोर्टिंग के वक्त लाइव कैमरे के सामने अपने साथ हुई बदतमीजी का वीडियो शेयर किया हालांकि निधी ने उस व्यक्ति को उसी समय थप्पड़ खींच कर जवाब दे दिया जब वह बदतमीजी कर रहा था लेकिन वहां का क्या जब आप बेकाबू हो रही भीड़ से घिरे हुए हों? अपना एक वाकया शेयर करती हूँ| पिछले साल नोटबंदी के दौरान नोयडा में एटीएम के बाहर रिपोर्टिंग करते वक्त ऐसा ही वाकया हुआ| मैं और मेरे तब के कैमरामैन गौतम जी को अचानक ही भीड़ ने घेर लिया| सरल शब्दों में समझाऊं तो ट्रोल्स थे वे लोग| मुझसे बात करते -करते अचानक ही उनमें से कुछ लोग बदसलूकी पर उतर आये और नौबत मारपीट तक पहुँच गई| मेरे पास वहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं था सिवाय इसके कि मैं उनका सामना पूरी मजबूती से करूँ| मैंने बहुत ही गुस्से में उनसे कहा कि “इस गलतफहमी में कत्तई मत रहना कि लड़की हूँ तो डर जाउंगी, ऑन कैमरा अभी यहीं पहले पटक के मारूंगी फिर रिपोर्टिंग भी करुँगी| बेहतर होगा कि हमें शान्ति से हमारा काम करने दो” हालांकि इसके अपने खतरे थे कुछ भी हो सकता था लेकिन इसके अलावा मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था अन्दर का डर दिखाने का मतलब था पता नहीं क्या होता| पर दिन अच्छा था ट्रिक काम कर गई और हमलोगों को रास्ता दिया गया| मैं और गौतम जी वहां से निकल आये, थोड़ी देर शांत रहे फिर गौतम जी ने हंस कर कहा वैसे श्वेता जी डायलॉग अच्छा था …  ‘ऑन कैमरा पटक के मारूंगी’….. मुझे भी सोच कर हंसी आ गई| पर अब जबकि इस तरह की घटनाओं को आम होते हुए देख रही हूँ तो मन में एक अजीब सा डर बैठ रहा है कितना मुश्किल हो गया है रिपोर्टिंग करना पता नहीं कब आपके साथ छेड़खानी हो जायेगी, कब आप पीट दिए जायेंगे कुछ पता नहीं| सड़क पर स्टेट मशीनरी दौड़ा कर आपके कपड़े फाड़ेगी| आपके लगातार चिल्ला चिल्ला कर बताने के बावजूद कि हमें छोड़ों हम पत्रकार हैं स्टूडेंट्स या आन्दोलनकारी नहीं| आपका इंस्ट्रूमेंट तोड़ कर फेंक दिया जाएगा महिला पुलिस की छोड़िये पुरुष पुलिसकर्मी आपको पकड़ेगा, कभी अनजाने तो अधिकतर जानबूझ कर यहाँ वहां हाथ लगाएगा| आपको क्या लगता है भीड़ से भरी जगह पर रिपोर्टिंग करना आसान होता है?  बिलकुल नहीं.. और यह खतरा तब कई गुना और बढ़ जाता है जब रिपोर्टर महिला हो| भीड़ की अपनी एक मानसिकता होती है जिसे आप बदल नहीं सकते वह कब क्या करेगी अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल होता है| लेकिन काम तो काम है अगर डर गए तो काम कैसे करेंगे? फिर तो सबका कहना मानो और घर बैठो बस यही रास्ता बचा है ले देकर|



इन सभी घटनाओं को ध्यान से देखे तो सभी महिला पत्रकारों पर अलग-अलग कारणों से हमले हुए हैं किसी की वही राजनीति रही तो किसी कि यौनिकता पर सवाल यह है कि आखिर क्यों? एक पत्रकार कि यह ड्यूटी है कि वह लोगों तक ख़बरें पहुंचाए लेकिन अगर इसी तरह पत्रकारों पर हमले होते रहे तो फिर काम करना कैसे संभव होगा|

इन सब में सबसे ज्यादा जरूरी बात की एक महिला पत्रकार होने के नाते बहुत सारे डर एक साथ आते हैं| पहला डर तो परिवार से ही होता है आज के समय में भले ही माँ-बाप अपनी बच्चियों को पत्रकारिता को कैरियर के रूप में अपनाने की सलाह देने लगे हैं लेकिन हमारे समय तक भी यह थोड़ा मुश्किल था| सबको लगता था कि एक तो पत्रकारिता दूसरे लड़की| कहाँ गली-गली दौड़ती फिरोगी| मेरी एकाध बैचमेट को छोड़ दूँ तो किसी ने भी पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद भी इसे कैरियर के रूप में नहीं अपनाया… ज्यादातर टीचिंग में हैं वह भी दुबारा बीएड करके| सारे हमले छोड़ कर जेएनयू प्रोटेस्ट के दौरान हुए हमले की बात करें तो यह हमला एक फोटो जर्नलिस्ट पर हुआ है| कंधे पर भारी कैमरे का बोझ उठाए फिल्ड में निकलने वाली फोटो जर्नलिस्ट की संख्या आप उँगलियों पर गिन सकते हैं मतलब साफ़ है कि इस फिल्ड में महिलाओं की धनक अभी हो ही रही है ऐसे में अगर शुरुआती दौर में ही उन पर इस तरह के हमले शुरू हो जाएंगे वह भी स्टेट मशीनरी की तरफ से तो आप अंदाजा लगाइए कि क्या इस फिल्ड की तरफ महिलाएं बढ़ेंगी शायद नहीं… मीडिया में वैसे भी ज्यादातर टेक्निकल और नॉन टेक्निकल पदों पर अभी भी पुरुषों का ही वर्चस्व है और अगर हालात ऐसे ही रहे तो आने वाले समय में इसे तोड़ना लगभग मुश्किल ही होगा| आज भी मीडिया में महिलाओं को लेने से लोग हिचकते हैं इसका एक कारण शिफ्टों में काम भी है अक्सर लोग कहते हैं कि अगर महिला हुई तो वह नाईट शिफ्ट में काम नहीं करेगी .. कारण फिर वही महिला सुरक्षा| देश की राजधानी में एक महिला पत्रकार के साथ बदसलूकी वह भी स्टेट रिप्रजेंटेटिव के द्वारा सोच कर देखिये कि यह कितना भयावह है| आप मार रहे हैं, कथित तौर पर  मालेस्ट कर रहे हैं.. वीडियों में साफ़ दिखाई दे रहा की पुलिसकर्मियों ने खिंच कर कपड़े फाड़ दिए| यह कैसा विद्वेष है सिर्फ इसलिए कि आपकी कारगुजारी लोगों के सामने न आ जाए? अगर देश की राजधानी का यह हाल है तो बाकी जगहों का क्या हाल होगा?

मिडिया स्टडीज ग्रुप द्वारा किये गए एक शोध की माने तो मीडिया में महिलाओं का प्रतिशत बहुत ही कम है यह लगभग 2.7 है जो कि वास्तव में बेहद कम है इसमें भी अगर ध्यान देंगे तो फिल्ड रिपोर्टिंग में तो बहुत ही कम है|



पिछले कुछ दिनों में पत्रकारों पर हमले बहुत तेजी से बढ़े हैं और उनमें भी अगर हम ऊपर दिए गए आंकड़ों पर गौर करें तो हम पाएंगे कि महिला पत्रकारों के प्रति होने वाले हमले में साल दर साल बढ़ोत्तरी हुई है| अगर इसी तरह से महिला पत्रकारों पर हमले होते रहे तो यह प्रतिशत बढ़ने की बजाय और घट ही जाएगा|

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