कामकाज़ी औरतें और अन्य कविताएँ

 मंजू शर्मा


हिन्दी की शिक्षिका,  सोशल मीडिया में सक्रिय. सम्पर्क:  manjubksc@gmail.com


मध्यम वय की औरतें


मध्यम वय की औरतें
कुछ ज्यादा जागती और कम नींद सोती है.
हार्मोनल बदलाव से जूझती हैं
मेनोपॉज की वज़ह से भीतर-ही-भीतर दरकती हैं.
किशोरियों की तरह अल्हड़ बिंदास वो
छोटी-सी बात पर कभी-कभी खूब खिलखिलाती हैं.
मोम की तरह का इनका कुछ गुस्सा
भी ऐसा कि वो जल्द ही पिघल जाती हैं.
कई बार अतीत की बातों पर भीतर-ही-भीतर
झुंझलाती है और अन्तर्मन मेँ खूब चिल्लाती हैं.
घर में रखे सामान की तरह होकर वो
बिखरे हुए बालों में कई बार आधी रात में घबराती हैं.
अपने लिए अच्छे दोस्त भी तलाशती हैं.
ये मध्यम वय की औरतें
कुछ-कुछ अज़ीबोगरीब होती हैं.
कभी-कभी अपनी तन्हाइयों से उबकर सच्चे प्रेमी की आस में
लक्ष्मण-रेखा लाँघकर बाहर की दुनिया में उसे तलाशती हैं.

कामकाज़ी औरतें


कामकाज़ी औरतें
रविवार के दिन का इंतज़ार बड़े बेसब्री से करती हैं.
जैसे रविवार का दिन न होकर एक करिश्माई दिन है
और इस एक रविवार के दिन जी लेगी वह सप्ताह के सातों दिन.
बेवकूफ़ हैँ वे कामकाज़ी औरतें!
बाकी के दिन उसके पास पेश की जाती हैं
कुछ कम ख्वाहिशों की फ़ाइलें
कुछ कम उम्मीदों की चॉक
कुछ कम अपेक्षाओं की गठरी.
बेहतर होते हैं ये सप्ताह के बाकी के छ: दिन
जब सबकी सहानुभूति भरी निगाहें तो उठती है उसकी ओर.

तुम सुनती तो होगी
थकी हुई है बेचारी,अभी ही तो लौटी है काम-से
तनिक सोने दो उसे और देर शाम तक.
और इस मुए रविवार के दिन तुम देखना!
कपड़ों का बड़ा-सा ढ़ेर तुम्हें बड़े प्यार-से देखता है
जिसे तुम रेशे के हिसाब-से मशीन में भिगोती हो
रसोई में सबके खास फ़रमाइशों के साथ समाती हो
बेतरतीब हो रखे घर के सामान को तन्मयता-से सजाती हो.
और खुद का क्या!
ज़रूरत-से ज्यादा बेतरतीब हो जाती हो.
फिर पसीने-से तर होकर खुद में ही बुदबुदाती हो.
कि इससे भले तो मेरे काम वाले सप्ताह के वो छ: दिन!!!!!
वहाँ तो रोज़ फिर भी अपने सहकर्मियोँ से कुछ हँसती और बतियाती हो.
रविवार का दिन तो निहायत ही बेशर्म-सा निष्ठुर एक दिन है!
कोई रहमो-करम की उम्मीद इस दिन घरवालों से नहीं करती हो
फिर क्योंकर इस मुए रविवार का इंतज़ार करती हो?
पसीने-से तरबतर कई बार तो एकदम-से गंधाती हो.
जब खुद को एकदम-से बदरंग हल्दी लगी नाईटी में बेतरतीब छोड़ देती हो.

वो उदास-सी स्त्री


चन्द्रग्रहण के बाद वह उदास-सी स्त्री 
अक्सर उदास हो जाती थी
कुछ था जो उसे उदास कर जाता था
स्याह अँधियारे उसे अब नहीं भाते थे
बस चंद्रमा की दूधिया रौशनी में नहाई हुई दुनिया
और उजाले को वह पसन्द करती थी.

वज़ह कुछ अतीत के साये में दफ़न थे.
कई बार इन्हीं स्याह अँधेरों में कोई था
जो उसे प्रेम करने की सुखद कहानियाँ सुनाया करता था.
उसे बस याद आती उसी बेईमान की
और वही सुखद-सी रैन बतिया
जो उससे अँधेरे में की जाती थी.
चंद रोज़ पहले उसे इंतज़ार होता था स्याह अँधियारे
और अमावस की रात का.
इन्हीं अँधेरे रैनों में वो घनघोर बरसता था
और उसके प्रेम की मधुमास में वह मगन हो जाती थी.
उसकी खिलखिलाती हुई हँसी
हरसिंगार की फूलों की तरह धरा से गगन तक पसर जाते थे
दूर तलक बस होती वह और उसके मुखर प्रेम की बात
और महक उठती थी उसकी वह अकेली -सी रात
उसके साथ
तब!!
क्या हुआ,कोई इंद्र बनकर छल तो नहीं गया उसे?
कि वह चन्द्रग्रहण के बाद इतनी उदासियों की बातें करती है
और सघन अँधियारे में समेट लेती है
खुद को कहीं ऐसी जगह जहाँ
प्रेमी बनकर कोई छलिया प्रेम से उसे न छल सके.
हर अँधेरी रात अब रिसती रहती है
और उसे याद आने लगता है वही
उसका जो नहीं था शायद कभी भी
अब हँसती नहीं है वह
हरसिंगार के फूल की तरह
वह अब बरसती है हर बार
और ओंस की तरह फैल जाती है
गहराई हुई वह कहीं भीतर ही भीतर.
और लग गया है एक चन्द्रग्रहण
हमेशा के लिए उसके सुंदर-सी लगती खिलखिलाहट पर

अनवरत जारी तुम्हारा यह सफ़र


इल्लियों से तितलियाँ बनने की क़वायद अनवरत जारी तुम्हारा यह सफ़र आसान नहीं है.
कोकून तो कब की तोड़ चुकी हैं ये तितलियाँ
और तुम हो कि अब भी वही घिसे-पिटे सवाल करते हो!
क्या कर रही हो?
कहाँ जा रही हो?
किसके साथ जा रही हो?
कैसे कर सकती हो?
काँच की किरचियों की तरह चुभने लगे हैं अब ये घिसे-पीटे सवाल!
सभ्यताओं का वहन
अपनी कोख़ में करने वालों से भी पूछा जाता है क्या कोई सवाल?

प्रकृति को सरजती हैं
और सँवारती हैं हर बेतरतीब कोने को
तुमसे तो न होगा इतना कुछ!
हाँ तुम्हें अपनी शक्ति-प्रदर्शन का शौक चढ़ आया है
और बेहयाई से
जब-तब अपनी शक्तियों का नपुंसक प्रदर्शन करते रहते हो.
पौराणिक कथाओं और वेदों की ऋचाएँ पढ़कर भी
तुम निरे मूर्ख हो!
गार्गी और अपाला तक तुम्हें याद नहीं !
पर तुम नहीं भूलना चाहते,सीता,सावित्री और उर्मिला की कथाओं को.
लाँघ चुकी हैं वे लक्ष्मण की खींची हुई देहरी की पुरानी उस रेखा को.
बन्द करो अब कूढ़मगज की तरह घिसे-पिटे पुराने सवाल करना!!!
वह अब भी कहीं रंग ले रही होगी किसी फूल से
कि भर सके अपने पंखों में सुंदर-सुंदर रंग
और इस बदरंग दुनिया को वह रंगीन बना देगी.

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