रूद्र मोहम्मद शहिदुल्लाह की कविताएँ

 सुलोचना वर्मा


विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित. छायाचित्रण और चित्रकारी में रुचि. सम्पर्क:  verma.sulochana@gmail.com

प्रेम और क्रांति के कवि रूद्र मोहम्मद शहिदुल्लाह की कविताओं का अनुवाद सुलोचना वर्मा ने किया है. बांग्लादेश के इस बड़े कवि की कविताएं जनता के बीच लोकप्रिय रही हैं. तसलीमा नसरीन से विवाह विच्छेद के बाद 45 साल की उम्र में वे दुनिया से रुखसत हो गये. 


 दूर हो दूर 


नहीं छू पाया तुम्हें, तुम्हारी तुम्हें
उष्ण देह गूँथ-गूँथ कर इकठ्ठा किया सुख
परस्पर खनन कर-करके ढूँढ ली घनिष्ठता,
तुम्हारे तुम को मैं छू नहीं पाया .

जिस प्रकार सीप खोलकर मोती ढूँढते हैं लोग
मुझे खोलते ही तुमने पायी बीमारी
पायी तुमने किनारा हीन आग की नदी .

शरीर के तीव्रतम गहरे उल्लास में
तुम्हारी आँखों की भाषा पढ़ी है सविस्मय
तुम्हारे तुम को मैं छू नहीं पाया .
जीवन के ऊपर रखा विश्वास का हाथ
कब शिथिल होकर तूफ़ान में उड़ गया पत्ते सा
कब ह्रदय फेंककर ह्रदयपिंड को छूकर
बैठा हूँ उदासीन आनन्द के मेले में

नहीं छू पाया तुम्हें, मेरी तुम्हें,
पागल गिरीबाज कबूतर जैसे नीली पृष्ठभूमि
तहस-नहस कर गया शांत आकाश का .
अविराम बारिश में मैंने भिगोया है हिया

तुम्हारे तुम को मैं नहीं छू पाया .

एक गिलास अंधकार हाथ में 

एक गिलास अंधकार हाथ में लिए बैठा हूँ .
शून्यता की ओर कर आँख, शून्यता आँखों के भीतर भी
एक गिलास अंधकार हाथ में लिए बैठा हूँ .
विलुप्त वनस्पति की छाया, विलुप्त हिरण .
प्रवासी पक्षियों का झुण्ड पंखों के अन्तराल में
तुषार का गहन सौरभ ढ़ोकर नहीं लाता अब .

 रूद्र मोहम्मद शहिदुल्लाह

दृश्यमान प्रौद्योगिकी की जटाओं में अवरूध्द काल,
पूर्णिमा के चाँद से झड़कर गिरती सोने सी बीमारी .
पुकार सुन देखता हूँ पीछे – नहीं है कोई .
एक गिलास अंधकार हाथ में लिए बैठा हूँ अकेला….
समकालीन सुन्दरीगण उठकर जा रही हैं अतिद्रुत
कुलीन शयनकक्ष में,
मूल्यवान असबाब की तरह निर्विकार .
सभ्यता देख रही है उसके अंतर्गत क्षय
और प्रशंसित विकृति की ओर .

उज्जवलता की ओर कर आँख, देख रहा हूँ-
डीप फ्रीज में हिमायित कष्ट के पास ही प्रलोभन,
अतृप्त शरीर ढूँढ ले रहे हैं चोरदरवाज़ा – सेक्सड्रेन .

रुग्णता के काँधे पर रख हाथ सांत्वना बाँट रहा है अपशिष्ट-
मायावी प्रकाश के नीचे गजब का शोरगुल, नीला रक्त, नीली छवि

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जग उठता है एक खंड धारदार चमचमाता इस्पात,
खोपड़ी के अंदर उसकी हलचल महसूस कर पाता हूँ सिर्फ .

इसी बीच कॉकटेल से बिखरा परिचय, संपर्क, पदवी –
उज्जवलता के भीतर उठाता है फन एक अलग अंधकार .
भरा गिलास अंधकार उलट देता हूँ इस अंधकार में .



 बतास में लाश की गंध 


आज भी मैं पाता हूँ बतास में लाश की गंध
आज भी मैं देखता हूँ माटी में मृत्यु का नग्ननृत्य,
बलत्कृता की कातर चीत्कार सुनता हूँ आज भी तन्द्रा के भीतर….
यह देश क्या भूल गया वह दुस्वप्न की रात, वह रक्ताक्त समय ?
बतास में तैरती है लाश की गंध
माटी में लगा हुआ है रक्त का दाग .
इस रक्तरंजित माटी के ललाट को छूकर एकदिन जिन लोगों ने बाँधी थी उम्मीद
जीर्ण जीवन के मवाद में वो ढूँढ लेते हैं निषिद्ध अन्धकार,
आज वो प्रकाश विहीन पिंजड़े के प्रेम में जगे रहते हैं रात्रि की गुहा में .
मानो जैसे नष्ट जन्म की लज्जा से जड़ कुँवारी जननी
स्वाधीनता – क्या यह जन्म होगा नष्ट ?
यह क्या तब पिताहीन जननी की लज्जा का है फसल ?

जाति की पताका को आज नाखूनों से जकड़ लिया है पुराने गिद्ध ने  .

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बतास में है लाश की गंध
निऑन प्रकाश में फिर भी नर्तकी की देह में मचता है मांस का तूफ़ान .
माटी में है रक्त का दाग –
चावल के गोदाम में फिर भी होती है जमा अनाहारी मनुष्य की अस्थियाँ
इन आँखों में नींद नहीं आती . पूरी रात मुझे नींद नहीं आती –
तन्द्रा में मैं सुनता हूँ बलत्कृता की करुण चीत्कार,
नदी में कुम्भी की तरह तैरती रहती है इंसान की सड़ी हुई लाश
मुंडहीन बालिका का कुत्तों द्वारा खाया हुआ वीभत्स शरीर
तैर उठता है आँखों के भीतर . मैं नहीं सो पाता, मैं नहीं सो पाता….
रक्त के कफ़न में मुड़ा – कुत्ते ने खाया है जिसे , गिद्ध ने खाया है जिसे
वह मेरा भाई है, वह मेरी माँ है, वह हैं मेरे प्रियतम पिता .
स्वाधीनता, वह मेरी स्वजन, खोकर मिली एकमात्र स्वजन –
स्वाधीनता – मेरे प्रिय मनुष्यों के रक्त से खरीदी गयी अमूल्य फसल .
बलत्कृता बहन की साड़ी ही है मेरी रक्ताक्त जाति की पताका .


खतियान


हाथ पसारते ही मुठ्ठी भर जाती है ऋण से
जबकि मेरे खेत में भरा है अनाज .
धूप ढूँढे नहीं मिलता है कभी दिन में,
प्रकाश में बहाती है रात की वसुंधरा .

हल्के से झाड़ते ही झड़ती है सड़ी हुई ऊँगली की घाम,
ध्वस्त होता है तब दिमाग का मस्तूल
नाविक लोग भूलते हैं अपना पुकारनाम
आँखों में खिलता है रक्तजवा का फूल .
पुकार उठो यदि स्मृति सिक्त फीके स्वर में,
उड़ाओ नीरव में गोपनीय रुमाल को
पंछी लौटेंगे पथ चीन्ह चीन्ह कर घर में
मेरा ही केवल नहीं रहेगा चीन्हा हुआ पथ –
हल्के से झाड़ते ही झड़ जाएगी पुरानी धूल
आँखों के किनारे जमा एक बूँद जल .
कपास फटकर बतास में तैरेगी रुई
नहीं रहेगा सिर्फ निवेदित तरुतल
नहीं जागेगा वनभूमि के सिरहाने चाँद
रेत के शरीर पर सफेद झाग की छुअन
नहीं आएगी याद अमीमांसित जाल
अविकल रह जाएगा, रहता आया है जैसे लेटना
हाथ पसारते ही मुठ्ठी भर जाता है प्रेम से
जबकि मेरी विरहभूमि है व्यापक
भाग जाना चाहता हूँ – पथ थम जाता है पाँव में
ढक दो आँखें ऊँगली के नख से तुम .

 यह कैसी भ्रान्ति मेरी 


यह कैसी भ्रान्ति मेरी !
आती हो तो लगता है दूर हो गई हो, बहुत दूर,
दूरत्व की परिधि क्रमशः बढ़ा जा रहा है आकाश .
आती हो तो अलग तरह की लगती है आबोहवा, प्रकृति,
अन्य भूगोल, विषुवत रेखा सब अन्य अर्थ-वाहक
तुम आती हो तो लगता है आकाश में है जल का घ्राण  .

हाथ रखती हो तो लगता है स्पर्शहीन करतल रखा है बालों में,
स्नेह- पलातक बेहद कठोर उँगलियाँ .
देखती हो तो लगता है देख रही हो विपरीत आँखों को,
लौट रहा है समर्पण नंगे पैरों से एकाकी विषाद – क्लांत होकर
करुण छाया की तरह छाया से प्रतिछाया में .
आती हो तो लगता है तुम कभी आ ही नहीं पायी …

कुशल क्षेम पूछती हो तो लगता है तुम नहीं आयी
पास बैठती हो, तो भी लगता है तुम नहीं आयी .
दस्तक सुनकर लगता है कि तुम आयी हो,
दरवाजा खोलते ही लगता है तुम नहीं आयी .
आओगी जानकर समझता हूँ अग्रिम विपदवार्ता,
आबोहवा संकेत, आठ, नौ , अवसाद, उत्तर, पश्चिम
आती हो तो लगता है तुम कभी आ ही नहीं पायी .

चली जाती हो तो लगता है तुम आयी थी,
चली जाती हो तो लगता है तुम हो पूरी पृथ्वी पर.

तस्वीरें गूगल से साभार 

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