स्त्रीवाद की ` रिले रेस `में रमणिका गुप्ता का बेटन

नीलम कुलश्रेष्ठ


जिंदगी की तनी डोर, ये स्त्रियाँ, परत दर परत स्त्री सहित कई किताबें प्रकाशित हैं.
सम्पर्क:  .kneeli@rediffmail.com,



स्त्रियों की जागृति  का इतिहास सवा सौ साल पुराना है जिस पर कुछ ना कुछ लिखा जाता रहा है लेकिन एक कलमकार स्त्री इस इतिहास को सही ढंग से अभिव्यक्त कर सकती है .वड़ोदरा[गुजरात ] की भूतपूर्व महारानी  चिमणाबाई गायकवाड़ ने लंदन के भारतीय मूल के एक सहयोगी लेखक श्री एस. एम. मित्र  के साथ सवा सौ वर्ष पूर्व एक पुस्तक लिखी थी “द पोज़ीशन ऑफ़ वीमन इन इंडियन लाइफ़ “ सम्भवत; ये भारत का  पहला स्त्री लिखित दस्तावेज होगा जिसने खुली आँखों से  स्त्री को पंगु बनाने वाला सामाजिक ढाँचा देखा .वो भी उस महारानी ने जिसने भारत के सभी राजघरानो में से प्रथम बार पति महाराजा सयाँ जीराव गायकवाड़  तृतीय के कहने पर घूँघट हटा दिया था .तो इन सवा सौ वर्षो में ये स्त्री जागृति संघर्ष करती , टूटती , हाँफती ,कभी जीतती कहाँ तक पहुँची है ?भारत के अलग -अलग प्रदेश की कलमकार स्त्री किस तरह  इसका दस्तावेज तैयार कर रही है ?हिन्दी की ये आइकन स्त्रियां लगभग जानी पहचानी है लेकिन अन्य  भाषाओं की  कौन सी आइकन स्त्रियां हैं जिनकी कलम से स्त्रियों की व्यथा कथा रिस रही है ? इन आइकन की  तलाश में दिल्ली की रमणिका   गुप्ता वर्षो से अपनी टीम के साथ जुटी हुई हैं .वे  दृढप्रतिज्ञ हैं कि चालीस भाषाओं की रचनाकारों  को हिन्दी  में प्रस्तुत करके बतायेगी कि अपने को कैद करती चारों  ओर की अग्निरेखा को किस तरह स्त्रियां उलांघ रही हैं .

रमणिका  खुद एक सुविख्यात साहित्यकार  हैं . वे 43  पुस्तकों की लेखिका है व उन्होंने 34 पुस्तकें संपादित की हैं . उन्होंने बिहार के कोलियरी के मज़दूरों के अधिकारों के लिए संघर्ष करके उन्हें अधिकार दिलवाये  हैं आदिवासियों व दलितों के लिये उनका कलम से संघर्ष जारी है याँ नि कि वे ऐसा व्यक्तितव नहीं  है कि खयालो में ही क्रांति  की बात करती रहे .एक पत्रिका का वर्षो से संपादन कर रही है “युद्धरत आम आदमी`.

वे  लेखिकओ से किस तरह से   स्नेह् से व्यवहार करती हैं ,मेरे स्वयम के अनुभव हैं -मैंने बिना पूर्व परिचय के उनसे पत्र डालकर “धर्म की बेडि़याँ  खोल रही है औरत `के लिए किसी पौराणिक स्त्री चरित्र पर कहानी माँगी तो उसी शाम उन्होने  फ़ोन  पर अपनी कहानी  `मेनका` का सारांश सुना दिया  था.“हाशिये उलांघती औरत `के लिए `रिले रेस` ई-मेल की तो उसी शाम उन्होंने फ़ोन  करके शाबासी दी व कहा कि इस कहानी को सबसे पहले हम प्रकाशित करेंगे .

उनका अटूट विश्वास है कि समाज का लेखा -जोखा इतिहास के अलावा सहित्य ही रखता है और अब स्त्री विमर्श मुख्य धारा में स्थान पा चुका है तो अलग अलग स्थानों की स्त्री मुक्ति  किस दौर से गुजर रही है ,ये वहा की साहित्यकारों की रचनाओं से ही जाना जा सकता है .  वे बताती हैं ,“हमने  तीस भाषाओं की 334 कवियित्रिओ का काव्य संकलन प्रकाशित कियाँ  है . लेकिन अब हमने कहानी अंक  निकालने का इसलिए निर्णय लियाँ  है कि कहानी में घटनाक्रम ,परिस्थितियां, क्षेत्र ,  व भूगोल सिलसिलेवार ढंग से स्पष्ट होता है जिससे मुक्ति की अवधारणा,उसका इतिहास ,विकास व स्तर स्थूल व सूक्ष्म रुप से प्रतिबिंबित हो सकता है . “

इस कठिन मुहिम पर उनके साथ हैं सुप्रसिद्ध संपादक व लेखिका  अर्चना  वर्मा  व संपादन सहयोग दे रहे हैं अनामिका ,हेमलता महिश्वर व विपिन चौधरी .व अन्य  भाषाओं के अनेक सहयोगी जो अनुवाद  कार्य में जुटे  हुए हैं .` युद्धरत आम आदमी` के तीन अंकों में हिन्दी कहानी  के  तीन खंडों में देश की 112 समर्थ कहानी लेखिकाओ की कहानियाँ  प्रकाशित की गई हैं  .प्रथम  खंड का बहुत दिलचस्प है नाम “कोठी में धान“जिसमे महादेवी  वर्मा .सुभद्रा कुमारी चौहान .सुमित्रा कुमारी सिन्हा . शिवरानी  प्रेमचंद   ,चंदकिरण  सौनरेक्सा ,मँजुल भगत व लवलीन .दूसरे खंड में “खड़ी  फ़सल `में  सन् 1948 में व उसके बाद जन्म लेने वाली लेखिकओ की कहानियाँ  हैं.खंड -3 `नई पौध `में 1964 व उसके बाद जन्मी लेखिकाओ की कहानियाँ  हैं . अब तक उनकी पास 25 भाषाओं की कहानियाँ  आ चुकी हैं बाकी भाषाओं की कहानियो को अनुवादित करने में उनकी टीम जुटी हुई है .पेश है उनसे संक्षित्प्त बातचीत 

आपने चालीस भाषाओं  की कहानियों के संकलन का बीड़ा क्यो उठाया  है ?“

विभिन्न दार्शनिकों ने कभी स्त्री को स्वतंत्र इकाई नहीं माना. यहूदी ये मानते रहे कि स्त्रियाँ पुरुष की पसली की  हड्डी  से निर्मित हुई है .ईसाइयों ने कहा कि ये पुरुष के मांसल  अंग से .निर्मित है .प्लेटो व अरिसटोटल ने तो स्त्री को ही नकार दिया  .कबीर ने इसे नरक का कुंड कहा .सृष्टि ने तो स्त्री पुरुष को समान पैदा किया  है किन्तु इन दो मनुष्य प्रजाति के बीच पुरुष ने भेद पैदा किया  यानि स्त्री की गुलामी पुरुष समाज की नियामत है . इन सभी मतों का प्रतिरोध है नारीवादी लेखन .स्त्री अपना भोगा  हुआ  यथार्थ अभिव्यक्त करती है  तो वह् अधिक प्रामाणिक बन जाता है .मैंने अपने सहयोगियों सहित इसलिए चालीस भाषाओं की स्त्रियों की रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद का बीड़ा उठाया  है जिससे वह् समाज के विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा फैलाये भ्रम के पार स्त्री को एक मनुष्य  रुप में देख सके .“

`इस विभेद को सहित्य किस तरह चुनौती दे रहा है ?

 “सवा सौ वर्षो में इस गुलामी से मुक्ति का अभियान ही नारीवाद है .जिसे नजरअंदाज नहीं  कियाँ  जा सकता है .स्त्री विमर्श का सहित्य स्त्री को वस्तु से व्यक्ति बनाने की मुहिम चला रहा है .इस मुहिम में कुछ पुरुष भी साथ हैं .ये अभिव्यक्ति की हर विधा व साहित्य की हर विधा में उभर रहा है . ये समाज के दोहरे मापदंड को चुनौती दे रहा है .ये मेरा व मेरी टीम का शोध अभियान है कि देखे किस प्रदेश की कौन सी स्त्री  अपनी कहानी में इस चुनौती को किस तरह अभिव्यक्त कर रही है क्या स्त्री मुक्ति की मुहिम याँ  आंदोलन के लिए उसे प्रभावकारी बनाने के लिये नए आइकन की खोज ज़रूरी नहीं    है ? “..

 “क्या इन खंडों में स्त्री मुक्ति का स्वर जनसाधारण से जुड़ पायेगा ?“

“धीरे-धीरे कही ये सब तो हो ही रहा है .स्त्री मुक्ति की पीड़ा की अवधारणा के तहत मात्र भोगी हुई पीड़ा का एहसास होना ही पर्याप्त नहीं  है .जिस पीड़ा से प्रतिरोध का स्वर न उभरे तो वह पीड़ा निरर्थक हो जाती है .कोई भी प्रतिरोध जब पूरे समाज का प्रतिरोध बन जाता है -तो ही बदलाव संभव हो पाता है .16 दिसंबर 2012 को सामूहिक बलात्कार की घटना ,इसका सटीक उदाहरण है  .“  दुर्भाग्य ये है कि इस आंदोलन के बावजूद सामूहिक बलात्कार नहीं  रुक रहे लेकिन उनकी ये बात भी सही है स्त्री को हिम्मत दी है कि वह बलात्कारियों के खिलाफ़ आवाज़ उठा रही है .

 “आप इन संकलन से क्या संदेश देना चाहती है?“
“अनेक माध्यमों से पुरुषों ने स्त्री को ऎसे अनुकूलित किया  है कि वह भी अपनी गुलामी का उत्सव मनाने लगी है .स्त्री जब तक स्व्यं को यौन का साधन समझती रहेगी तब तक मुक्त नहीं     हो पायेगी .स्त्री को स्वयम को प्यार करना ,इज़्ज़त देना सीखना होगा .

“क्या आपको लगता है कि ये संकलन स्त्री मुक्ति में कोई अहम् भूमिका अदा करेंगे ?`

स्त्री का अपनी यौन  शुचिता के लिए  अपराध बोध हो ,चाहे शुचिता बोध हो या  पवित्रता के प्रति नकार का आग्रह  .मुझे पूरा विश्वास है कि ये कहनियाँ  स्त्री में आत्म सम्मान व अस्मिता का बोध जगाने में सक्षम हैं . आज स्त्री केवल पुरुष की आँखों में प्यार या  अपने सौंदर्य के बखान के प्रति आग्रही नहीं  है बल्कि वह अपने मन में आदर व सम्मान देखना चाहती है जो कि उसे मालिक नहीं    एक साथी दे सकता है.

इन खंडों में कुछ स्त्री  देह के इर्द गिर्द कहानियाँ  है ,इसके विषय में आप क्या कहेंगी ?
इनमें सबसे अधिक तीव्र बोध देह को लेकर है क्योंकि स्त्री को देह से इतर देखा नहीं  जाता .  दक्षिण की मुस्लिम स्त्रियां अपने समाज की रुढ़ियो ,और परंपराओं की विकृतियों पर खुलकर प्रहार करती हैं .मेरे खयाल से ये स्त्रियों के लिए प्रेरणादायक है .स्त्री  आज मर्द बनने की इच्छा नहीं पालती.वह धर्म ,चमत्कार व अंधविश्वासों के इस बोझ को ढोने से इनकार कर रही है .वह जानना चाह रही है जिस कोख से पुरुष ने जन्म लिया  है उसी कोख को वर्जित कहने का राज़ ,उसके सौंदर्य को मोहमाया का जंजाल क्यो कहने लगा है , उसी अंग को गाली बना देने का राज़ .
क्या इस सन्दर्भ में पुरुष अहम आड़े नहीं आयेगा ?

आता तो है ही, बदलाव भी दिखाई दे रहा है.भारतीय स्त्रियां हजारों ग्रंथियों से ग्रस्त हैं लेकिन उससे बड़ा सच है कि पुरुष का अहम  हीन  भावना से उत्पन्न है .खंड -2 में अनेक कहानियों में भी स्त्री की हीन भावना  पुरुष दंभ की व्याख्या करने की कोशिश की है .

सोनी सिंह की कहानी एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने वर्जित कर दी थी आपने उसे खंड तीन में प्रकाशित किया  है .
“हां,वह् सोनी सिंह की `योनि कथा `है व वोल्गा की तेलुगु कहानी `अयोनि `है जिसमे कहानी की नायिका बचपन में सामूहिक बलात्कार से गुजरती है  .वह् कातर होकर प्रश्न करती है कि क्या स्त्री सिर्फ़ योनि है .  दोनों कहनियाँ  चौंकाने वाली है व स्त्री सोच को नई ज़मीन प्रदान करती  है   .अयोनि .`कहानी की नायिका का एक और प्रश्न है ,“`क्या योनि  रोटी है ?

अंत में फिर पुस्तक `पोज़ीशान ऑफ़ विमान इन इंडियन सोसायटीज “की बात कर रही हूँ    .मैंने इसे वड़ोदरा के गायकवाड़ राजघराने के इन्दुमति महल, वड़ोदरा के पुस्तकालय में  धूंढ़ने की कोशिश की .आश्चर्य अपनी ही महारानी की पुस्तक ये सम्भाल कर रख  नहीं पाया  था.ये पुस्तक मुझे मिली महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय  के पुस्तकालय में .इससे क्या समझा जाए स्त्रियों का लेखन भूतकाल में एक निरर्थक  उपेक्षित  काम था लेकिन आज के समय में क्या कोई पुस्तकालय होगा जिसमे स्त्री विमर्श की पुस्तक ना हो ? साहित्य में अब तक मान्यता रही है कि स्त्री लेखन का आरंभ विश्व में पंद्रहवी या  सोलहवीं शताब्दी से हुआ था लेकिन मुझे इस पुस्तक से ही पता लगा कि ग्यारहवीं शताब्दी में दो जापानी स्त्रियों मुरास्की दो शिकिबु ने एक उपन्यास `जेजी मोनोगावरी ` व शोनेगौन ने सामाजिक विषय पर एक अभूतपूर्व  पुस्तक लिखी थी` मकुरानो जोशी `ये जानकारी इसलिए भी प्रामाणिक है क्योंकि महाराजा साल में अधिकतर विदेश घूमते रहते थे .तो ग्यारहवीं शताब्दी से आरंभ हुए स्त्री लेखन का मुकाम कहाँ   तक पहुँचा है ?रमणिका जी व उनकी टीम को एक बार फिर बधाई उनके  प्रयास से औरत कितने हाशिये उलांघती मुख्य धारा में अपने पैर जमाये खड़ी हो सकेगी क्योंकि  तक इनके प्रयास से बाईस भाषाओं की स्त्री विमर्श कथाकारों की कहानियां हिंदी में अनुवादित होकर प्रकाशित  हो चुकीं हैं जिनमें छ;भाषाएँ उत्तरी पूर्व की शामिल हैं। उर्द वह  अपना विकास ,अपनी सोच  स्त्रीवाद की ` रिले रेस `में पुस्तक के रुप में अपना `बेटन `अगली पीढ़ी  को सौपती जा रही है .

तस्वीरें गूगल से साभार 

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