मर्दोत्सव और स्त्रीविलाप बीच होलिका का लोकमिथ

सुशील मानव


स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन तथा एक्टिविज्म. सम्पर्क: susheel.manav@gmail.com
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अवध वह क्षेत्र है जहाँ से राम की कट्टर मर्यादा पुरुषोत्तम छवि के साथ साथ आर्य संस्कृति का पुंसवाद न सिर्फ खड़ा होता है बल्कि फैलते फूलते संपूर्ण भारत एवं श्री लंका तक छा जाता है। ये आर्य पुंसवादन न सिर्फ सभी स्थानीय व मूल संस्कृतियों को छल-बल-बर्बरता से लील लेता है अपितु उनके विनाश के उत्सव का रूपक भी रचता जाता है। ये पुरुषवादी उत्सव क्रूरता बर्बरता और रक्तपात के अपने मूल भावों को समेटे हुए अपनी सदियों की यात्रा में रुपांतरित होकर, धार्मिक रूप धरकर न सिर्फ लोगों के अवचेतन में रच बस गए अपितु उनकी चेतना व विवेक को कुंठित करके, हिंसा वबर्बरता को ग्लोरीफाई करते हुए उनकी चेतना में बैठकर उनके भावबोध को परपीड़क आनंदमयता में अनुकूलित किए हुए हैं।

होलिका, ढूढा, पूतना, सूपर्णखा और ताड़का जैसी तमाम असुर संस्कृति की वीर योद्धा नायिकाओं की बर्बरतापूर्वक हत्या करके इन्हें खलनायिका और मनुष्य शिशुओं को खाने वाली राक्षसी के तौर पर पुरुष संस्कृति द्वारा दुष्प्रचारित करके जनमानस में स्थापित कर दिया गया। होलिका दहन के उत्सवधर्मिता के मूल में असुर संस्कृति की रक्षक वीरांगना होलिका की छलपूर्वक हत्या की पुरुषवादी कथा छद्म का महिमामंडित पाठ है। जबकि पूर्ण तर्क और तथ्य के साथ मूल सत्य इसके ठीक उलट संवेदनशील और मानवीय है। यहाँ एक बात ध्यान देने की है कि आर्य मर्द-संस्कृति के अलावा दुनिया की किसी भी संस्कृति में जिंदा या मुर्दा व्यक्तियों को आग में जलाने की किसी भी प्रथा का कोई जिक्र नहीं मिलता है। अतः हिरण्यकश्यप द्वारा अपने पुत्र प्रहलाद को लेकर बहिन होलिका को आग में प्रवेश करने की आज्ञा देने का पौराणिक दावा एक गल्प मात्र है।

होलिका दहन का सबसे सटीक व तार्किक व्याख्या ज्योतिबा फुले करते हैं। वो“गुलामगीरी”  किताब में लिखते हैं, ‘वराह के मरने के बाद द्विजों का मुखिया नरसिंह बना। सबसे पहले उसके मन में हिरण्यकशिपु की हत्या करने का विचार आया। उसने अपने एक द्विज शिक्षक नारद के माध्यम से हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद के अबोध मन पर अपना धर्म-सिद्धांत थोपना शुरू किया। इसकी वजह से प्रह्लाद ने अपने हरहर नाम के कुलस्वामी की पूजा करनी बंद कर दी। प्रह्लाद पर द्विज रंग ऐसा चढ़ा कि हिरण्यकशिपु की उसे समझाने की सारी कोशिशें बेकार गयीं। तब नरसिंह ने प्रह्लाद को अपने पिता की हत्या करने को उकसाया। पर ऐसा करने की प्रह्लाद की हिम्मत नहीं हुई। अंत में नरसिंह ने अपने शरीर को रंगवाकर मुंह में नकली शेर का मुखौटा लगाकर अपने शरीर को साड़ी से ढँककर प्रह्लाद की मदद से हिरण्यकशिपु के महल में एक खम्बे की आंड़ में छिपकर खड़ा हो गया और जब हिरण्यकशिपु आराम के लिए पलंग पर लेटा, तो शेर रूप धरे नरसिंह उस पर टूट पड़ा, और बखनखा से उसका पेट फाड़कर उसकी हत्या कर दी।हिरण्यकशिपु की हत्या के बाद नरसिंह सभी द्विजों को साथ लेकर अपने मुल्क भाग गया। जब क्षत्रियों को पता चला तो वे आर्यों को द्विज कहना छोड़कर ‘विप्रिय’ (अप्रिय, धोखेबाज़, दुष्ट) कहना शुरू कर दिया। बाद में इसी ‘विप्रिय’ शब्द से उनका नाम ‘विप्र’ पड़ा।
हिरण्यकशिपु की हत्या के बाद उसकी बहिन होलिका ने आर्य देवों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया साथ ही प्रह्लाद को भी चेताया कि ब्राह्मण संस्कृति समस्त असुर संस्कृति के विनाश का दर्शन है। होलिका देवों और ब्राह्मणों के रास्ते की अंतिम बाधा थी, जिसे हटाकर ही वे प्रह्लाद के मुखौटे से ब्राह्मण-राज्य कायम कर सकते थे। अत: एक दिन अवसर पाकर लाठी-डंडों से लैस ब्राह्मणों ने होलिका को जिन्दा जलाकर मार डाला। उसकी मौत पर ढोल-नगाड़े बजाए गए। आज उसी तर्ज पर हिंदू हर वर्ष होलिका के रूप में होली जलाकर ब्राह्मणवाद की विजय का जश्न मनाते हैं।

मैं अवध क्षेत्र के एक छोटे से गाँव से ताल्लुक़ रखता हूँ जो फूलपुर तहसील के अंतर्गत आती है। बचपन में होलिका दहन के दिन पूरे गाँव में होलिका लगाने वाले लोगों को हर घर से उपली, लकड़ी सरपट, पुआल, ऊख के पाती बटोरते माँगते देखते आया हूँ। उनकी ऊर्जा और तल्लीनता देख देखकर मेरा मन रोमांचित और उत्सवधर्मी हो उठता। उस दौरान कई बार घर में जिद करता कि मुझे भी होलिका दहन देखना और उसमें शामिल होना है लेकिन माँ या दादी मुझेकभी भी इसमें शामिल नहीं होने देती थी। हाँ, होलिका दहन के अगली सुबह माँ के साथ होलई जुड़वाने की रस्म में शामिल होने ज़रूर जाना होता था। दादी हमेशा जाने से पहले ही हम बच्चों को समझा देती थी कि होलई से बुझी हुई उपली ही ले आना, भूलकर भी होलई की जलती आग घर में मत लाना वर्ना सालभर वो आग जिलाए रखनी होगी। दादी के कहे उस वाक्य का अर्थ आज मैं ये पाता हूं कि शायद जलती आग बदले की आग का रूपक रही होगी जिसे पूरे साल जिंदा रखना पड़ता हो शायद। ख़ैर वहाँ गाँव की तमाम दूसरी स्त्रियों के साथ माँ परिक्रमा कर करके होलई जुड़वाती, साथ ही स्त्रियाँ कोई गीत भी गाती थी जिसमें होलई माई या होलई बहिनी का बार बार टेक होता। मैं इसे होलई जुड़ावन गीत कहता।

कहते हैं ना जहाँ से दमन का सबसे क्रूर आयोजन होता हैं उसका प्रतिरोध भी वहीं से आकार लेता है। होलिका दहन की बर्बर मर्दोत्सव के बाद सुबह गाँव की बड़ी बूढ़ी स्त्रियां मातम मनाकर प्रतिरोध रचती हैं। पुरुष जहाँ होलिका को आग के हवाले कर क्रूरता को खुशी में तब्दील कर गाते बजाते नाचते जश्न मनाते हैं वहीं सुबह स्त्रियाँ करुणा दया संवेदना से सराबोर होकर सूप और गेडुआमें पानी लेकरहोलिका को जुड़वाती हैं हमारे यहाँ इसे होलिका बुझाना या होलका जुड़वाना कहते हैं इस तरह स्त्रियां दया करुणा संवेदना का भाव उपजाती हुई मनुष्यता के भावबोध की रक्षा करती हैं और लौटते हुए रास्ते में जो भी पुरुष मिलता है उसका नामले लेकर बहुत कच्ची गालियाँ देती हुई घर लौटती हैं। फिर उस पुरुष का उनसे चाहे कोई भी रिश्ता हो वो उसकी परवाह उस पल नहीं करतीं। ये गारी एक तरह से स्त्रियों का हथियार होता है जिसके सहारे वो श्रेष्ठता का दंभ भरने वाली पुरुष संस्कृति को ज़लील करती हैं। होलई जुड़वाने के बाद स्त्रियां घर जाती हैं (विशेषकर पिछड़ी और दलित समुदाय की महिलाएं) और फिर अपने अपने घरों से पोतनउरी (जिसमें पीली चिकनी मिट्टी जिसे पिरोड़ कहा जाता का घोल होता है जिससे कच्ची मिट्टी के चूल्हे पोते जाते हैं) लिए गाँव भर के मर्दों को खदेड़ खदेड़ कर उनपर करिखा,गोबर,कचड़ा, चँहटा फेंक फेंककर उन्हें कुरूपित करती हुई गरियाती हैं। कह सकते हैं एक तरह से अप्रिय चीजों को फेंककर पुरुषों को अपमानित करती हैं। आखिर में थक हारकर मिट्टी की पोतनउरी फोड़ फोड़कर अपने अपने घरों को लौट जाती हैं और घर पहुँचकर लट खोलकर नहाती हैं। अमूमन पोतनउरी किसी अपने की मौत होने पर ही फोड़ी जाती है। इस तरह पोतनउरी फोड़कर स्त्रियाँ होलिका से अपने बहनापे के संबंध का रूपक रचती हैं।

होलिका एक लोकमिथ है और समूचे भारत में होलिका से संबद्ध अनेक मानवीय प्रथाएं मूलनिवासियों से जुड़ती हैं होलिका दहन के बाद होली का भाडू, ढूंढ़, गैर नृत्य (युध्द नृत्य ) और जमराबिज,तीन दिन बाद उठावना, 12 दिन का शोक, शोक तोड़ने के रूप में रंग तेरस ये सब रस्मे अपने पीछे एक लोक-इतिहास समेटे हुए है। होली के एक माह पूर्व से ही होलिका विवाह के गीत कई आदिवासी गांवो में गाए जाते है तीये की बैठक की तरह होली जलने के तीसरे दिन उठावना किया जाता है!होलई जलने के बाद ठंडा किया जाता है! कहीं-कहीं होलई की आग ले जाकर बदले की आग के रूपक के तौर पर वर्षभर सम्हाल कर रखा जाता है ! बच्चो को जन्म बाद इसी दिन ढ़ूढा जाता है!हत्या का बदला लेने के प्रतीक हथियारो के साथ होली पर गैर नृत्य (एक तरह से युध्द की तैयारी का नृत्य) खेला जाता है!दरअसल होलिका दहन की पृष्ठभूमि में दो संस्कृतियों आर्य (पितृ) और अनार्य (मार्तृ)) का संघर्ष है। दरअसल हिरण्यकश्यप की हत्या हो जाने के पश्चात उनकी बहन होलिका अपने भाई के मौत का बदला लेने और प्रहलाद को दूर ले जाने के उद्देश्य से आई थी, जिसे आर्य देवताओं ने पकड़कर आग के हवाले कर दिया। यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि प्रहलाद विष्णु का पुत्र था। इंद्र द्वारा रानी कयादु (हिरष्यकश्यप की पत्नी) का अपहरण करके विष्णु के पास ले जाने के बाद से ही दोनों केविवाहेत्तर संबंध थे। इस तरह प्रहलाद असुर राज्यमें विष्णु की संस्कृति का रिप्रेजेंटेटिव था और उसी के मिलीभगत के दम पर विष्णुने हिरण्यकश्यप की हत्या की थी।

इसके अलावा होलिकादहन से एक और मूल निवासी असुर स्त्री योद्धा की हत्या का ब्राह्मणवादी प्रसंग जुड़ता है। इस प्रसंग में असुर स्त्री ढूढा की हत्या के लिए उसके साथ अश्लीलता, उसका शीलाघात और हैवानियत को पुरोहिती उपाय बताया गया है ! कहानी यूँ है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पूर्वज राजा रघुके समयकाल में’ढूढा’ नामक एक राक्षसी  हैजोकि माली नामक राक्षस की कन्या है और बड़ी मायाविनी है तथा अपनी इच्छानुसार रूप बदलने में शातिर है। वह बच्चों का मांस खाने की आदी है। जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र शस्त्रया जाड़ा गर्मी या बारिश से मर सकती है। पुरोहित वशिष्ठ द्वारा राजा रघु को ढूढा की हत्या का उपाय बताया गया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, अट्ठहास करें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास और अश्लीलता तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा रघु ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन ‘अडाडा’ या ‘होलिका’ कहा गया।

होलिका दहन के मूल में जो एक बात प्रमुख है वो ये कि, जो पुरुषों के लिए उत्सव है वही स्त्री के लिए दुख है मातमहै, विलाप का सबब है। पुरुष जहाँ होलिका जलाकर नाचते गाते हैं वहीं स्त्रिया विलाप करती हैं, गारी गाती हैं और होलिका को जुड़वाती हैं। पुरुषोत्सव आर्य ब्राह्मण संस्कृति का प्रतिनिधित्व हैं जबकि स्त्रियों का मातमसदियों से उपेक्षित असुर संस्कृति का पीड़ित आख्यान है।
तस्वीरें: साभार गूगल

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