पुरुषों की तुलना में स्त्रियों का नैतिक विकास अधिक : अनामिका



हिन्दी साहित्य में स्त्रीलेखन के भीतर से बहुत कम रचनाकार हैं, जो खुद को स्त्रीवादी रचनाकार क्लेम करती हैं. अनामिका खुद को स्त्रीवादी रचनाकार मानने वाली लेखिकाओं में से एक हैं. उनसे बातचीत की है स्त्रीवाद की शोधार्थी अनुराधा ने 


आपने लिखना कैसे शुरू किया? 
मेरे पिताजी भी कवि थे। मैं उनसे अन्त्याक्षरी खेलती थी। जब वे हारने लगते तो कुछ बना के बोल देते। उन्हीं को देखकर मैं भी जब हारने लगती तो कुछ बना के बोलने लगी, जीतने के लिए, तो कई बार पिताजी हंसने लगते, बोलते ये तो ठीक है। फिर उन्होंने मुझे एक रजिस्टर लाकर दिया, बोले लिखा करो, जो मन में आया करे। उस रजिस्टर में मैंने जो पहली पंक्ति लिखी वह अंगीठी को देखकर लिखी। अंगीठी में आग जलाने के लिए कोयला ऊपर तक भर देते हैं और उसमें से बड़ी देर तक धुंआ निकलता है जबतक आग नहीं जलती। उसे देखकर मैंने लिखा- ‘धुंआ उठा ऐसे जैसे कूबड़ी माई’। हमारे घर के सामने ही एक कूबड़ी माई रहती थी, उन्हीं को देखकर मैंने ये लिखा। मुझे ऐसी समांतर चीज़ें मिलाना अच्छा लगता था, तब मैं 7 साल की थी। वो तो मुझे बाद में पता चला इसे उत्प्रेक्षा अलंकार कहते हैं। फिर पिताजी मुझसे पूछने लगे, तुम्हे ये कैसा लगता है, वो कैसा लगता है, जैसे ‘जाड़े के दिन तुम्हे कैसे लगते हैं?’ तो मैंने कहा ‘जाड़े का दिन जैसे आपस की बात हो अधूरी’। पिताजी ने कहा ये लिख लो, अच्छी लाइन है ये। ऐसे लिखना सीखा।

मतलब, आपको आपके परिवेश और खेल की रोचकता ने लिखने के लिए प्रेरित किया?
हाँ…. कविता बहुत सहज रूप से बातचीत का हिस्सा बनकर उभरी हमारे बीच।  बाद में अंग्रेजी की प्रोफेसर बनने के बाद अंग्रेजी में कविताएं लिखने का मन नहीं हुआ? मैंने शुरू में ही अंग्रेजी में भी कविताएं लिखी। मैं जिस स्कूल में पढ़ती थी वह एक एंग्लो- इंडियन समुदाय का स्कूल था। अंग्रेज जब यहाँ से गए तो उनके जो बच्चे भारतीय लोगों से पैदा हुए थे वे यहाँ छूट गए। उनको एंग्लो-इंडियन समुदाय कहते थे। हमारे मुजफ्फरपुर में रेलवे कॉलोनी है वहां ये लोग रहते थे, क्योंकि अंग्रेज अपने लोगों को रेलवे में आसानी से नौकरी दे देते थे, इसलिए देशभर में ऐसी बहुत सी कॉलोनियां थी, और वहां उनके बच्चों के लिए ऐसे स्कूल भी थे। मेरे घर के पीछे भी एक स्कूल था उसी की एक टीचर मिसेज होलिंक्सवर्ड ने वहां के बच्चों के लिए एक स्कूल खोला था- ‘सेंट फ्रांसिस सीनियर सेकेंडरी स्कूल’, उसी में मुझे प्रवेश दिलाया गया। वह स्कूल इतना भयंकर था कि वहां खेल-खेल में भी हिंदी बोलने पर रूल से मार पड़ती। वहां पर स्कूल की एक पत्रिका निकलती थी, मुझे उसका चाइल्ड एडिटर बना दिया गया, तब मैं शायद सातवीं या आठवीं में थी। उसके लिए मैंने अंग्रेजी में भी कविताएं लिखी। जिनका एक संकलन भी आया। लेकिन बाद में मेरे भीतर ये चेतना जगी कि मुझे अंग्रेजी में नहीं लिखना चाहिए, पर अंग्रेजी में प्रवेश इसलिए लिया क्योंकि उस समय जो विश्व साहित्य था वह ज्यादातर अंग्रेजी में ही था, जिनका परिचय मुझे पिताजी की लाइब्रेरी और एक चलंत लाइब्रेरी उस समय हुआ करती थी, जिसमें ‘पीपल्स पब्लीकेशन हाउस’ द्वारा मुद्रित रूसी साहित्य की किताबें आती थी, से हुआ। ये सब अंग्रेजी में  था, अब तो हिंदी में भी है, पर उस समय नहीं थी इसलिए मुझे लगा अगर विश्व साहित्य की सैर करनी है तो अंग्रेजी पढ़ने से आसानी होगी इसलिए मैंने अपनी पूरी पढ़ाई अंग्रेजी में की और उसके बाद क्योंकि ये मेरा विषय बन गया तो अकादमिक लेखन तो मैंने अंग्रेजी में किया लेकिन सृजनात्मक लेखन के लिए संकल्पपूर्वक मैंने हिंदी को ही चुना। ये मेरा एक सचेतन निर्णय था।

हिंदी में लेखिकाओं  की संख्या तो बढ़ रही है लेकिन महिला आलोचक न के बराबर हैं, इसका क्या कारण हो सकता है?
इसका कारण ये हो सकता है कि बौद्धिकता से स्त्रियों का नाता कम-कम जोड़ा जाता है इसलिए शायद स्त्री भी यही समझती है कि शायद वह बौद्धिक निकष पर उतनी खरी नहीं उतरेगी। अभिव्यक्ति के लिए तो वो रचनाएं लिख लेती हैं, रचनाएं खुद को लिखवा लेती हैं लेकिन अपने को एक बौद्धिक के रूप में सामने लाने का आत्मविश्वास अभी स्त्रियों में आया नहीं है और दूसरी बात कि कविता, कहानी भावों की चीज़ है वो बिना पढ़े भी लिखी जा सकती हैं पर उच्च शिक्षा से भी स्त्रियों का नाता बहुत समय तक नहीं रहा जिसको पाकर सिद्धांत गढ़ने का आत्मविश्वास आता है, जबकि विदेश में स्त्रियों ने भी बड़े-बड़े सिद्धांत दिए हैं पर अपने यहाँ स्त्रियों के लिए शिक्षा की अव्यवस्था और अनेक पूर्वग्रहों के कारण स्त्री के विदुषी रूप का विकास कम हो पाया।

बाएँ से दाएं अनुराधा, अनामिका और प्रज्ञा



स्त्री विमर्श की सैद्धांतिकी और उसके वर्तमान व्यवहारिक रूप में क्या कोई अंतर है? यदि हाँ तो क्या और उसका समाधान क्या हो सकता है?
कोई भी सैद्धांतिकी आंदोलन की पृष्ठभूमि में गढी जाती है। भारतीय स्त्री विमर्श की सैद्धांतिकी में सूप का ‘सार सार को  गहि रखे, थोथा दे उड़ाए’ का गुण रहा है। विदेश से हमने बहुत कुछ लिया जैसे मार्क्सवाद ने लिया वैसे ही स्त्री विमर्श ने भी  लेकिन उसमें से रखी काम की ही चीज़, जो थोथा था उसे छोड़ दिया। जैसे हमारे काम की एक बहुत महत्वपूर्ण धारणा थी, बहनापे की। स्त्रियों में यह बहनापा, हर वर्ण, वर्ग जाति उम्र में भी पाया जाता है, तुममे और मुझमें भी। तुम मेरी बेटी की उम्र की हो लेकिन मुझमें और तुममें बहनापे के दो सूत्र हैं। पहला मेरी और तुम्हारी भाषा, हमारी भाषा अंतरंग भाषा है। एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर बात करने वाले ह्रदय की भाषा है और दूसरा जो बहनापे का सूत्र है वह हमारी देह है, जो हमारे शोषण का आधार है। देह से जुड़े जो सुख या जो दुःख मेरे होंगे वही तुम्हारे भी होंगे इसलिए एकदम से जुड़ाव हो जाता है। गर्भधारण, बच्चे को दूध पिलाना, उसे बड़ा करना, ये इतना बड़ा सुख है जिससे पुरुष कभी परिचित नहीं हो सकता लेकिन इसके अलावा भ्रूण-हत्या, मारपीट, गाली गलौज, यौन-शोषण, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी आदि बहुत से बड़े-बड़े दुःख भी हैं जो इसी शरीर से जुड़े हैं और सभी के हैं,ये किसी भी जाति, वर्ग, धर्म, वर्ण, गाँव की, शहर की, बच्ची हो बुजुर्ग हो तो एकदम से जुड़ाव हो जाता है।


आपके जो काव्य-संग्रह है, मैंने तीन शोधकार्य के लिए लिये  हैं- ‘कविता में औरत’, ‘दूब-धान’ और ‘खुरदुरी हथेलियाँ’, में मुख्य रूप से स्त्रियों के प्रतिरोध के स्वर हैं। जैसे ‘दूब-धान’ में गाँव की स्त्रियों के प्रतिरोध का चित्रण है लेकिन ‘दूब-धान’ शीर्षक से ऐसा कुछ ध्वनित नहीं होता, इस शीर्षक का आशय क्या है?
हमारे यहाँ स्त्रियों को खोइंचा दिया जाता है। जिसमें दूब, चावल, चावल न हो तो धान, हल्दी और कुछ पैसे आँचल में डालकर दिया जाता है और गाँठ बांधकर कहा जाता है, हम आते रहेंगे। कविता भी अपने आँचल में दूब-धान बांधकर चलती है क्योंकि वह हमेशा स्मृतियों में लौटती रहती है, वे स्मृतियाँ चाहे वैयक्तिक हों चाहे जातीय, तो मेरा वो मतलब था और मिटटी की याद….स्त्री को विदा होते हुए भी मायका हमेशा याद रहता है। अब तो विस्थापन दोहरा है। पहले स्त्री आसपास के गाँव में ही विदा होती थी। अब तो वो दूर पढने भी जाती है, नौकरी करने भी जाती है, पर उसका परिवेश उसके आँचल में बंधा रहता है, यही एक जुड़ाव है यहाँ।

स्त्री विमर्श पर कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि भारतीय सांस्कृतिक सन्दर्भों में यह स्त्री-पुरुष संबंधों को प्रभावित कर रहा है?आपके क्या विचार हैं? 
इसका एक ही लाइन में उत्तर हो सकता है कि पहले की स्त्रियाँ तन-मन से सेवा करती थी और आज की स्त्रियाँ तन-मन-धन से सेवा कर रही हैं। स्त्री विमर्श से उसकी सेवा का भाव कम नहीं हुआ है, मातृत्व भाव मरा नहीं है बल्कि ममता का विस्तार हुआ है। पहले ममता और स्नेह केवल अपने परिवार के लिए ही थी लेकिन अब जैसे-जैसे वो बाहर निकली है उसकी ममता का दायरा भी बढ़ा है। दुनिया की कोई भी ताक़त मुझे ये मानने से मना नहीं कर सकती कि तुमलोग मेरा परिवार नहीं हो। रक्त सम्बन्ध से स्त्री विमर्श के परिवार का कोई लेना-देना नहीं है। पहले यौन सम्बन्ध और रक्त सम्बन्ध परिवार के ही निर्णायक थे अब नयी स्त्री के यहाँ पारिवारिकता का दायरा बढ़ा है और आत्मा का रिश्ता ही पारिवारिकता का निर्धारक है, तो मुझे नहीं लगता इस विमर्श में कोई दम है। लोग सोचते हैं स्त्रियाँ अगर आज़ाद हो जाएंगी तो दिल तोड़ेंगी और घर फोड़ेंगी पर ऐसा नहीं है ये दिल तोड़ने और घर फोड़ने वाली स्त्रियों का वाग्विलास नहीं है। ये अपने संबंधों के क्षितिज को लगातार बढ़ाने का उपक्रम है। इसे उनकी युद्धों, सेनाबलों में सेनानी, पर्यावरण संरक्षिकाओं की भूमिका
बहनापे के सूत्र से देखें तो ग्रामीण महिला भी एक बहन है। हम (स्त्रियाँ) जितनी आसानी से ग्रामीण महिला से बात कर लेते हैं, एक पुरुष से वे इतनी आसानी से नहीं खुलेंगी। दो स्त्रियाँ वे किसी भी संस्कृति या परिवेश की हों आसानी से गप्प कर सकती हैं। यह गप्प ही वह सूत्र है जिसके सहारे वे अपने भीतर के गाँव या शहर को उद्घाटित कर सकती हैं। यदि आप सहज रूप से किसी से बात ही नहीं कर सकते हैं तो उसकी स्मृतियाँ आपके लिए हमेशा अंजान ही रहेंगी और जबतक किसी की स्मृतियाँ और सपने साझा नहीं होते तबतक कोई मनुष्य अपना नहीं बन सकता।


आपकी कविताओं की स्त्रियाँ संवाद करती हैं और उनकी भाषा में एक प्रतिरोध है? यह स्थितियां आपकी आँखों देखी हैं या कल्पना की उपज?
ये दोनों ही स्थितियां मेरी देखी हुई हैं। मेरी एक मामी ने मुझसे कहा था, शादी के समय कि ससुराल में पापड़ जब खाना तो दाल में भिगो के खाना, कुट-कुट नहीं होनी चाहिए। मैंने ये भी देखा है कि स्त्रियों के लिए कहा जाता है कि चुप्पी ही सौंदर्यशास्त्र है लेकिन मैंने ये भी देखा है कि घूंघट के नीचे से भी स्त्रियाँ जीभ दिखा देती हैं, तो ऐसा है कि स्त्रियाँ जब खुलती हैं तो दोम्ब्काचार में कितना अच्छा केरीकेचर करती हैं। वो एक अच्छे बच्चे की तरह चुपचाप बैठी रहती हैं, उनका नटखटपन छुप के रहता है लेकिन जहाँ मौका मिलता है वो खुलकर सामने आ जाता है। उसके बाद बातचीत की लय जब शुरू हो जाती है तो ख़त्म नहीं होती आसानी से। मेरी एक कविता है ‘चिट्ठी लिखती हुई औरत’ उसमें यही सब है, तो ये सब देखा हुआ है मेरा, हवा में मैंने बात नहीं की है और ये स्त्रियों की बड़ी शक्ति है। इसे निखारने का मुझे लगता है हम सबको प्रयास करना चाहिए।

स्त्री विमर्श पर पुरुषों और स्त्रियों का नजरिया अलग-अलग है। आपका इस बारे में क्या मत है?
उत्तर- मैंने कहा न, पुरुष तो समझते हैं कि ये दिल तोड़ने और घर फोड़ने वाली स्त्रियों का वाग्विलास है। इनके जीवन में कोई संकट नहीं है तो घूम-घूम के बात बना रही हैं लेकिन ऐसी बात नहीं है। स्त्रियाँ तो ये चाहती हैं कि पुरुष सदैव प्रेम करने के लायक बनें। स्त्रियाँ अभी तक बच्चों की तरह पुरुषों को देखती आ रही हैं। माफ़ करते हुए, उनके बड़े होने का इंतज़ार करते हुए। आज की स्त्री मन से बहुत अकेली हो गयी है क्योंकि जितना उनका नैतिक विकास हुआ है तुलनात्मक रूप से पुरुषों का कम हुआ है और मेरी एक कविता में तो मैंने ये भी कहा है कि स्त्रीधन कहके जो गहने गिनाए जाते हैं जैसे लज्जा, सहिष्णुता वो गहने स्त्री-पुरुष में बराबर-बराबर क्यों नहीं बंट सकते? ये तो पुरुषों के ही हक की ही बात है कि ये गहने उन्हें अधिक मानवीय, अधिक सहृदय, अधिक दोस्त, अधिक प्रिय ही तो बनाते हैं। इसमें पुरुषों का ही भला होगा न और पुरुषों को वे विकास से बाहर नहीं मानती। वो जानती हैं कि दोष पितृसत्ता का है, पुरुष का नहीं है। उस पितृसत्ता को भेद कर ज्यादा मानवीय रूप में वो अगर सामने आए तो इसमें सबका ही भला है।


अनुराधा, स्त्री-अध्ययन विभाग, म.गा.आ.हिं. वि, वर्धा की शोधार्थी हैं.  संपर्क anuradha.loving91@gmail.com
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