अनुराधा अनन्या की कविताएं ( पति प्रेम और अन्य)

अनुराधा अनन्या

स्वतंत्र लेखिका, रंगमंच से जुड़ी हैं.:anuradha.annanya@gmail.com

पति प्रेम 

पतियों से दुखी औरतें
अपने सुकून टटोलती हैं
कभी  अपनों के दुलार में
कभी पुराने प्रेमियों की याद में
बेहद निजी समय में

निजी समय जो वे चुराती हैं
बुनती हैं अपने एकांत में

एकांत, किसी बंद कमरे में नहीं
जंगल में नही, छत पर भी नहीं
जहाँ मिल जाता है आसानी से एकांत किसी को भी
वहां  भी नही

औरतों का एकांत चलते-फिरते जीवन में
घर के काम करते हुए
बच्चे संभालते हुए.
बिस्तर पर ढेर औरतें
उतरती है अपने निजी समय में
नींद में होने के बावजूद

इस तरह खुद को बचाती हैं
संदिग्ध होने से
कई बार तो  एकांत को भी काटती हैं
इसी कोशिश में

मगर सुकून टटोलती रहती है पूरी शिद्दत से
ताकि बना रहे पति प्रेम
यहां तक  कि
उन्हें पति की मार में भी
प्रेम नजर आने लगता

एक पन्ना और बस मैं 

मैंने सारे क्षोभ को बटोरा
और कलम उठाई
फिर अपने दुखों को,निराशा को,थकान को
शब्दो मे पिरो कर
कागज़ पर रसीद कर दिया
जैसे पूरा मन खाली हो गया हो कोरे कागज़ पर

राहत बुनती चली गई एक- एक हर्फ़ के साथ
पूरा मन खाली हो गया
लबालब भरा हुआ था मन
प्यार से,धोखे से,निराशा से,थकान से, दुःख से,आस से
खाली हो गया एक काग़ज़ पर

दिमाग परत दर परत खुलता चला गया
केंचुली सी उतरती गई सारी परतें
परतों में छिपा एक गाना,एक कहानी,एक रहस्य,एक याद,एक धोखा,प्यार,कुछ योजनाएं,कुछ,दृश्य ,कुछ शब्द और एक क़लम
भाषा के रूप में उतरते गए
उधड़ता गया लबालब भरा हुआ मन और परत दर परत दिमाग एक ही पन्ने पर

एक नींद कमाऊंगी अब
अपने आलिंगन से ही
खुद को सुनाते हुए लोरी
बुनूँगी एक सपना,एक गाना,एक कहानी,एक याद,एक अहसास, प्यार,ढेरों इच्छाएं,योजनाएं,कुछ शब्द,एक क़लम, एक पन्ना और बस एक मैं

सहेलियों  सी कविता 


कविताएं मेरी सहेलियां  हैं
जिंदा रखती है मुझे
कागज़ पर
समेटे हुए अंदर के अवसाद मेरे
दुःख मेरे ,शिकायते भी
बचाकर रखती हैं आंच दिल मे आस की
फूट पड़ेगीं ठीक दुःख  की तरह ही
खुशी में भी
मन की पतझड़, वसन्त दोनो ही दिखेंगें
इन कविताओं में
ज़िंदा रहूंगी मैं,जिंदा कविताओं की  छिपी आस में

झांक लेंगी वे औरतें भी इनमें
जो छिपाकर रखती है जिंदा कविताएँ
कविताएँ, जीवन की यात्राओं की ,बादलों की,आसमानों की
असीम कल्पनाओं की और अधूरी इच्छाओं की भी

कविताएँ,छिपाकर रखी है उन औरतों ने
मन के किसी कोने में
दुप्पटे की गाँठ में
लटकते हुए छिके में
एक याद की तरह
महफूज है किसी खजाने सी

कविताएँ , जो जबान से ना कही गई
ना लिखी गई, किसी जबान में
दुनिया की चलताऊ भाषा से दूर
अपनी ही भाषा में

डूबी कविताएँ

पहचान जाएंगी औरतें देखते ही
सहेलियों की तरह
खोज लेंगी पीड़ अपनी, प्रीत अपनी
मेरी कविताओं में भी
उनकी कविताओं की तरह

ये कविताएँ जो कही गयीं
जो अनकही भी रही
भाषाओं में

4. 
कहना सुनना 

उसने कहा
तुम पागल हो
और निपट भी

मैं पागल हूँ…?
वह यह भी न कह पाई
पागल नहीं हूँ
न कह पाने की तरह

वह अभ्यस्त है
सिर्फ सुनने की
मगर कोशिश करती है
कहने की भी

मगर वह न कभी अभ्यस्त ही  रहा
सुनने का
न कोशिश ही की कभी

5. 
भाषा का अंतर 

मेरी भाषा को पता है
कब क्या कहना है

तुम्हारी भाषा को पता है
कब क्या कहलवाना है

इस कदर अभ्यस्त हैं
इस संवाद में हम
कि तुम सिर्फ इशारा भी करते हो
तो मैं मशीन सी चालू हो जाती हूँ

तस्वीरें गूगल से साभार 

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