किसी एक ब्राह्मण से अम्बेडकर, बुद्ध, रैदास की ताकत वाला दलित आन्दोलन खत्म नहीं हो सकता: रमणिका गुप्ता



रमणिका गुप्ता 


हिन्दी और दलित साहित्य संसार में फेसबुक पर पिछले दिनों हुए आरोपों-प्रत्यारोपों पर ‘युद्धरत आम आदमी’ की संपादक और वरिष्ठ साहित्यकार रमणिका गुप्ता की यह टिप्पणी नये सिरे से एक बहस को जन्म देगी . यह टिप्पणी उन्होंने ‘युद्धरत आम आदमी’ के अपने सम्पादकीय में की है: 


पूरे देश में 2 अप्रैल को दलित प्रतिरोध ने अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करा कर, सत्ता को यह अहसास तो करा दिया है कि वे अब अपने अधिकारों के साथ किसी को छेड़-छाड़ करने नहीं देंगे। ऐसे समय में दिल्ली के दलित आन्दोलन के कतिपय बुद्धिजीवी वर्ग के लेखक आपस में बन्दूकें ताने खड़े हैं। वे एक बड़ी लकीर खींच कर बड़ा बनने की बजाय, खिंची हुई लकीरों को ही छोटा करके बड़ा बनना चाह रहे हैं। दलित आंदोलन, विशेषकर दिल्ली के दलित लेखकों का आंदोलन आज कई भागों में विभक्त हो चुका है। उन्होंने अलग-अलग संगठन भी बना लिए हैं। एक-आध संगठन तो जाति के आधार पर भी बन गए हैं। अलग-अलग संगठन बनाना कोई इतनी बुरी बात नहीं, बशर्ते उनकी मंशा सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध होकर ज्यादा से ज्यादा काम करना हो, ना कि ज्यादा से ज्यादा दूसरे को नीचा दिखाना। हो यह रहा है कि वे अब एक-दूसरे को ‘आउस्ट’ (बाहर) करने के लिए, एक दूसरे पर आरोप लगाने और एक-दूसरे की भर्त्सना  करने लगे हैं। उन्हें दूसरे की हर बात में षड्यंत्र की बू आने लगी है।

रमणिका गुप्ता दलित लेखक संघ के सम्मान कार्यक्रम में

कुछ लेखक तो खुलेआम बाबा साहेब डॉक्टर अम्बेडकर की ब्राह्मण महिला से शादी करने के प्रश्न को लेकर भी उनसे केवल नाइत्तेफ़ाक़ी ही नहीं जताते बल्कि उन पर प्रश्न भी खड़े कर रहे हैं। उनके बारे में तुच्छ शब्दों में बतियाते भी हैं। इतना ही नहीं, कोई-कोई तो गौतम बुद्ध को भी क्षत्रिय कहकर नकार रहे हैं। कुछ दलित लेखक व उनके परिवार वाले अभी भी उनका आदर्श ब्राह्मण ही है। अपने घरों में हिन्दूवादी अनुष्ठानों को यथावत् मान रहे हैं पर मंच पर वे ‘वचनं किमं दरिद्रम’हैं। एकजुट होकर एक जमात बनने की बजाय, वे मनु संहिता के अनुसार दलित साहित्य को भी जातीय खेमों में बांट रहे हैं। आज वे धड़ल्ले से जातीय उन्नयन की बात भी करने लगे हैं। अन्तरजातीय विवाह के विरुद्ध तो वे अलग से मुहिम ही चला रहे हैं। यह बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाओं के बिल्कुल विपरीत है। कभी-कभी तो वे बड़े जोर से एक-दूसरे को संघी कहकर दलित संगठनों से बाहर करने की बात भी करने लगते हैं-पता ही नहीं चलता कि वास्तव में उनमें संघी कौन है-आरोपित या आरोप लगाने वाला? ये बात भी सच है कि किसी संगठन को कमजोर करना हो तो संका और भ्रम सबसे कमजोर कारगर हथियार होता है। इस समय, दलितों को एकजुट होकर एक जमात बनना चाहिए और लोगों को छांट या हटाकर दलित आंदोलन की धार को कुन्द नहीं करना चाहिए। अगर वे एक संगठन नहीं बन सकते तो न सही-पर उन्हें आपस में जुड़ना तो चाहिए। भले ही संगठन अलग हो लेकिन मुद्दे तो एक हों-उनमें आपसी कटुता तो न हो।
अपनी बात मनवाने यानी दलित आंदोलन को और सशक्त बनाने और आज के हिंदुत्ववादी खतरे से निजात पाने के लिए, दलितों को प्रगतिशील जनों के साथ एक साझा मोर्चा बनाना भी जरूरी है। ऐसे समय में दलित बुद्धिजीवियों का आपस में ही मारामारी करना तो हिंदुत्ववादी शक्तियों को ही बल देगा। वे आपस में ही इतनी तोड़फोड़ करने में लिप्त हैं कि एक जमात बनने की सोच ही नहीं रहे। बहुत पीड़ा होती है यह सब देख कर
वे सोशल मीडिया, फेसबुक, व्हाट्सएप के माध्यम से प्रगतिशील साथियों पर भी स्वयं को चर्चा में लाने या अपनी व्यक्तिगत खुन्नसें निकालने हेतु बिना प्रमाण आरोप भी लगाने लगते-कभी-कभी। इतना बड़ा आंदोलन, जो सामाजिक न्याय के लिए लड़ा जा रहा है, उसे कतिपय दिल्ली के बुद्धिजीवी अपने व्यक्तिगत विकास की सीढ़ी बनाने के लिए, आपस में लड़कर कमज़ोर कर रहे हैं। अगर कोई शंका है, तो उन्हें मिल-बैठकर बात करके, पत्राचार करके सुलझाना चाहिए, न कि फेसबुक या व्हाट्सएप पर-जैसे अगंभीर भाषा में 2 अप्रैल, 2018 को चलाई गई बहस। गंभीर लोग प्रायः ऐसी भाषा का उपयोग नहीं करते। यह सवर्णों की भाषा है। दरअसल आजकल अपने को चर्चा में लाने का यह एक अच्छा ढंग निकला है। किसी पर कीचड़ उछाल दो फेसबुक पर या व्हाट्सएप पर-और चर्चा में आ जाओ! कुछ अच्छा लेख लिखकर, अच्छी बात कहकर चर्चा में आना ज्यादा सार्थक होता है। यदि आप किसी के मत से सहमत नहीं हैं, तो लेख के माध्यम से भी लेख के माध्यम से भी अपना विरोध दर्ज़ करवा सकते हैं। उसमें कटुता या शत्रुता तो नहीं आनी चाहिए।
हम लोग, जो संपादन करते हैं, उन्हें बड़े-से-बड़े लेखक की रचनाओं को भी संपादित करना पड़ता है। कई बार टाइप की अशुद्धियां भी होती हैं, कई बार व्याकरण की गलतियां भी होती हैं। कई बार कुछ रचनाएं तो इतनी ज्यादा बड़ी होती हैं कि उन्हें काट-छाँट कर संपादित भी करना पड़ता है। यह संपादक का काम होता है। उसमें संपादक यह देखता है कि मूल भाव नष्ट ना हो और पूरी बात भी चली जाय। अनूदित रचनाओं में तो भयंकर गलतियां होती हैं। महाराष्ट्र से रचना मराठी-हिन्दी, गुजरात से गुजराती-हिन्दी, तेलुगु से तेलुगु-हिन्दी में आती हैं, यानी हर भाषा की रचनाओं में अपने-अपने व्याकरण के उपयोग के चलते गलतियां हो जाती हैं-उन्हें भी ठीक करना पड़ता है। कई बार पुनः लेखन करना पड़ता है, जैसे प्रेमचन्द किया करते थे। इसीलिए अगर कोई साथी दलित रचनाओं को ठीक करके, उन्हें और अच्छा बना कर प्रकाशित करने लायक बना कर किसी दलित साथी की मदद कर प्रकाशित करता या करवाता है, तो उसको शाबाशी मिलनी चाहिए, ना कि उसकी भर्त्सना करनी चाहिए। ऐसा तो केवल व्यक्तिगत खुन्नस के मामले में या चर्चा में आने की अथवा अपनी जगह बनाने की योजना होने पर ही होता है। आज यह भी गंभीरता से सोचने का एक जरूरी और महत्वपूर्ण विषय है कि आखिर दलित समाज और उसका बुद्धिजीवी तबका भगवा में क्यों चला गया? इस पर भी सभी गुटों के दलितों को मिल बैठकर बात करनी चाहिए और राष्ट्रीय स्तर पर सेमिनार होने चाहिए।

दलितों को जागृत व एकजुट करने हेतु जरूरत है कि दलित लेखक गांव से जुड़ें, केवल शहरों में बैठकर यह काम नहीं होगा। उन्हें दिवंगत रजनी तिलक की तरह एक्टिविस्ट होने के मार्ग पर चलने के बारे में तय करना होगा, अगर वे सचमुच दलित समाज को जागरूक कर सवर्ण शोषण व सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता-सवर्ण व दलित दोनों की-से मुक्त कराना चाहते हैं। आज दलित वर्ग मध्यम वर्गीय प्रवृत्ति अपनाता जा रहा है। पढ़-लिख कर वह अपने घर की औरतों के प्रति भी वही सवर्ण दृष्टि अपना रहा है। पुरुष ‘शावनिज़्म’ (मर्दवाद), जो उसमें पहले से ही था-अब और बढ़ गया है। वे अभी भी ब्राह्मण को अपना आदर्श मानते हैं, और मन से हिन्दू हैं-हिन्दू अनुष्ठानों को निभाते हैं-बौद्ध रीति से विवाह करते हैं दिखावे के लिए-फिर घर जाकर हिन्दू रीति से विवाह करते हैं।

रमणिका फाउंडेशन की एक तस्वीर

मैंने पहले भी कई बार लिखा है कि दलितों को अपने आलोचक पैदा करने चाहिए। सवर्णों से सर्टिफिकेट लेने की चिरौरी नहीं करनी चाहिए किन्तु आज भी वे अपनी किताबों की समीक्षा उनसे लगातार करवाते आ रहे हैं और व्यक्तिगत मतभेद होने पर उन्हें ‘घुसपैठिया’ या कुछ और कहकर या दलित आन्दोलन के टूटने का भय दिखाकर, उनमें आरोप भी मढ़ने  लगते हैं-बिना प्रमाण के आरोप लगाना भी निन्दनीय हरकत होती है। हालांकि अब कुछ दलित लोग आलोचना भी करने लगे हैं, ये अच्छी बात है पर वहां भी जब खेमेबाजी नज़र आती है तो दुख होता है। एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने की बजाय वे नये लेखकों को डराने व भगाने वाली आलोचना करने लगते हैं या अपने खेमे के लेखक की इतनी अधिक आधारहीन प्रशंसा कर देते हैं कि वह आत्ममुग्ध हो जाए और उसका विकास ही बंद हो जाए। वे नई-नई उपाधियां देने की पेशकश कर रहे हैं, जो बड़ी ही अच्छी बात है। पर आज हमें  महाकवियों की नहीं, जन-कवियों की उपाधि की दरकार है। महाकवि शास्त्रीय प्रणाली थी। वे महाकवि आम आदमी के लिए अबूझ थे। हमें सूरजपाल चैहान, मलखान सिंह जैसे जन-कवियों की दरकार है-हमें जयप्रकाश कदर्म और मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि आदि खोजी और गंभीर लेखकों की दरकार है, जो आंदोलनों को प्रेरित कर सकें और मानसिकता बदल सकें, जागृति ला सकें-हमारी कमज़ोरियों से भी हमें अवगत करवा सकें ताकि हम उन्हें दूर कर सकें और हमारा इतिहास भी तैयार करें। साथी गंगाधर पन्तावणे जी का तो कहना था कि दलित साहित्य में ‘शिव का तीसरा नेत्रा खुलेगा’ जैसे वाक्य या बिम्ब नहीं आने चाहिए। दलितों को अपनी श्रमण संस्कृति व जीवन के अनुरूप नये बिम्ब-प्रतीक लाने होंगे। इसलिये सवर्णों की शास्त्रीय भाषा का प्रयोग मत कीजिये-अपने लेखों को आम आदमी के लिये पठनीय बनाइये। इसलिए अपने कवि को कोई उपाधि देनी है, तो जनकवि की उपाधि दीजिए, महाकवि की नहीं। हमें कालिदास नहीं चाहिए, हमें कबीर-रैदास-तुकाराम की जरूरत है।

2 अप्रैल को सवर्ण घुसपैठ के नाम पर जिस भद्दे ढंग से एक व्यक्ति को टारगेट करके पोस्ट चलाई गई है, उस बहस की भाषा संघी है। यह प्रगतिशील दिमाग की उपज नहीं है। एक अभियान कँवल भारती के खिलाफ भी चला है, मैं उसकी भी भर्त्सना  करती हूं। ऐसी निरर्थक बहसें दलित लेखन व दलित आंदोलन को नुकसान पहुंचाती हैं-उनके आइकन्स को विद्रूप करती हैं।

दलित आंदोलनकारियों को इस बात के लिए मुतमइन होना चाहिए कि किसी एक ब्राह्मण या व्यक्ति से आन्दोलन ख़त्म नहीं होता। …घुसपैठ से अगर कोई आंदोलन खत्म हो जाए, तो वह कैसा आंदोलन है? इसका अर्थ है कि उसकी नींव ही कमज़ोर है। और दलित आन्दोलन इतना कमज़ोर नहीं है। दलित आंदोलन के पीछे अम्बेडकर हैं, बुद्ध हैं, रैदास  हैं, कबीर हैं और सामाजिक न्याय की लगन है सदियों के शोषण की पीड़ा है-उसे कैसे कोई एक व्यक्ति मिटा सकता है? संगठन जहां 2 जोड़ 2 बराबर चार-गणनात्मक’ होता है; वहीं वह मां की ममता की तरह सब को समा लेने की क्षमता रखने वाला सागर भी होता है। एक बूंद दूसरी बूंद से मिल जाने पर दो नहीं एक हो रहती है। दलित एक-एक बूंद मिल कर समुद्र बन जाएं! आओ इस ऐके को कायम करें।
यदि आन्दोलन चलाने वाले व्यक्तिवादी न होकर सामूहिकता में विश्वास रखते हों और अपने सिद्धान्त के प्रति प्रतिबद्ध हों, तो उन्हें कोई नहीं तोड़ सकता। संगठन संवादहीनता व शंका-अविश्वास से टूटते हैं। होना तो यह चाहिए कि जितने लोग दलित आंदोलन से अभी बाहर हैं, उन्हें भी सब दलित साथी संपर्क करें और अपने संगठन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और आन्दोलन के बल पर उनकी मानसिकता भी बदलें।

दलित साहित्य के पक्ष में रमणिका जी का एक लेख 1998 में

हमारे गंभीर दलित साथी, जो इस पचड़े या विवाद में नहीं पड़े हैं, उनसे मेरा विशेष अनुरोध है कि वे इन सब साथियों को एक साथ बिठाकर कोई रास्ता खोजें। कृपया आपसी छीछालेदर बंद करवायें। उन्हें जो भी करना हो आपस में बातचीत करके या पत्राचार करके गलतफहमियां दूर करें बनिस्पत सोशल मीडिया पर आने के। यह जग हंसाई की बात है। वे गम्भीर लेखन के माध्यम से बात करें-अपनी कमज़ोरियों को भी ध्यान में रखें। दलित आंदोलन सोच बदलने का, दृष्टिकोण बदलने का आन्दोलन है। वह मानवता के कल्याण और सामाजिक न्याय का आन्दोलन है। करोड़ों दलितों को जागरूक करने की ज़िम्मेवारी है इस आंदोलन पर। उनकी बहस व्यक्ति-आधारित न होकर दृष्टिकोण-परक या मानसिकता आधारित होनी चाहिए।

अभी केवल एक अनुरोध है दलित साथियों से कि वे आपसी विवाद खत्म करें और एकजुट होकर एक साथ बैठें। जो दलित साथी उनसे इसलिए दूर हो गए हैं कि किसी विशेष दलित जाति ने उनका अपेक्षित नोटिस नहीं लिया और उन्हें लेखन में स्थान नहीं दिया, उनसे गंभीरता से बात करनी चाहिए ताकि वे जातिगत खेमों में न बंटें। वर्णाश्रम के अंतिम डंडे पर बैठे दलित को भी यह अहसास कराएं कि वह उसके साथ पूरी दलित जमात खड़ी है। यह बहुत खतरनाक समय है-आज बहुत बड़े-बड़े दलित नेता भगवा गोद में जा बैठे हैं। जब बाहर के दुश्मनों का हमला होता है तो घर के दुश्मन-दोस्त मिलकर उसका मुकाबला करते हैं-अपनी लड़ाई स्थगित कर देते हैं। अभी देश पर जातिवादी धर्मान्ध अंधविश्वासियों, तर्कहीन अंधभक्तों, धर्मान्ध हिन्दुत्ववादियों, दंगावादियों का ख़तरा मंडरा रहा है-जिनके खि़लाफ़ एक साझा मोर्चे की जरूरत है, और ऐसे समय में ऐसी बहसें उस साझे मोर्चे को कमज़ोर करने की साज़िश है-यही आरएसएस का अभीष्ट भी है। दलित बुद्धिजीवियों को प्रगतिशील तत्वों से मिलकर इसका मुकाबला करना चाहिए ताकि हिन्दुत्ववाद-जिसने दलितों को पशुवत जिंदगी दी, उसे परास्त व ध्वस्त किया जा सके।

पुनश्च: राजकिशोर जी के जाने से बड़ा आघात लगा। वे बड़े बेबाक और तर्कशील आलोचक होने के साथ-साथ वंचित समाज व हाशिये के लोगों की भी चिंता करते थे और उन पर लिखते थे। एक अच्छे विश्लेषक का अचानक हमारे बीच से चले जाना बड़ा दुखदायी है। रमणिका फाउंडेशन, युद्धरत आम आदमी और अखिल भारतीय आदिवासी साहित्यिक मंच उनको अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं।

 
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