मीडिया की बलात्कारी भाषा: शेल्टर होम का सन्दर्भ

सुशील मानव 
यौन-उत्पीड़न जैसे संवेदनशील मुद्दे की रिपोर्टिंग में अपने भाषा संस्कार से बलात्कारी समाज गढ़ रहा मीडिया
सेवा संकल्प बालिका गृह मुज़फ्फ़रपुर यौन उत्पीड़न केस की महीनों अनदेखी के बाद जागी मीडिया केस के अनसुलझे पहलुओं में गोते लगाने के बाद से रिपोर्टिंग के स्तर पर लगातार संवदेनहीनता की सारी हदें पार कर चुका है। देवरिया, हरदोई (यूपी) और नूह (हरियाणा) के शेल्टर होमों में बच्चियों से हुए यौन उत्पीड़न के इन बेहद गंभीर और संवेदनशील मुद्दे की रिपोर्टिंग में भी मीडिया सिर्फ सनसनी मचाने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हुए उत्पीड़न की खबरों को मसालेदार और उत्तेजना जगाने वाली सेक्स फैंटेसी के रूप में ही परोसता आ रहा है।कह सकते हैं कि बच्चियों के यौन उत्पीड़न केस में अब तक भाषा के स्तर पर मीडिया लगातार बलात्कारियों के पक्ष में ही खड़ा रहा है। उसका एक कारण ये भी है कि मीडिया संस्थानों के अधिकांश पत्रकार आरोपी बृजेश ठाकुर और गिरिजा त्रिपाठी के ही वर्ग, वर्ण से आते हैं तो जाहिर है कि अपने वर्गीय-वर्णीय भाषा संस्कार के चलते वो स्वाभाविक रूप से ऐसा कर जाते हों। पर सवाल फिर भी तो उठता ही है कि जो सचेतन अवस्था में भी अपने भाषा-संस्कार से मुक्त नहीं हो सके वे क्या खाक यौन-उत्पीड़न जैसी बेहद जटिल आपराधिक घटना की रिपोर्टिंग कर सकते हैं। हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक विफलता है कि हमारे पास यौन-अपराध जैसी घटना के लिए संवेदनशील भाषा तक नहीं है। उसका दूसरा कारण ये भी है कि उत्पीड़ित समाज और लिंग की भाषा मीडिया की भाषा नहीं बन पाई क्योंकि मीडिया में उनका प्रतिनिधित्व ही नहीं है।

‘रोज लूटी जाती थी बच्चियों की अस्मत’, ‘बालिकागृह में अनाथ बच्चियों की इज़्ज़त हुई तार-तार’  ‘बच्चियों की आबरू से खिलवाड़’, ‘बच्चियों को परोसा जाता था सफेदपोशों के आगे’‘जेठ में सावन का मजा लेने जाते थे सफेदपोश’ जैसे सामंतवादी मुहावरों से सजी खबरें हेडलाइन बनकर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में छायी हुई हैं। इन्हीं सामंती मुहावरों के जरिए भारतीय हिंदी पत्रकार अपनी भाषा में सामंती मूल्यों को बचाए हुए हैं। याद रखिए कि सामंतवादी वैचारिकता हमेशा पीड़िता को ही दोषी ठहराती आई है। सामंतवादी मुहावरों से आच्छादित भाषा इस बात का प्रमाण है कि यौन-उत्पीड़न को लेकर अभी भी भारतीय समाज की सोच और मनोदशा बहुत नहीं बदली है। बलात्कार की घटना पर हर बार विरोध करने सड़को पर उतरने वाले लोग यदि किसी लड़की या स्त्री का बलात्कार होना उसकी अस्मत पर हमला मानते हैं जोकि एक तरह से संबंधित परिवार के मान सम्मान और लड़की की वैवाहिक जिंदगी की ही फिक्र होती है। यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज लगाने वाले भी ये मानने को तैयार नहीं हैं कि बलात्कार का मतलब पीड़िता के मूल अधिकारों पर हमला करना है। उनके लिए भी बलात्कार का मतलब अभी भी लड़की या स्त्री का जूठन में बदल जाना है। क्योंकि बलत्कृत लड़की को समाज बहू या बीबी के रूप में अपनाता नहीं है। जबकि बहू या बीबी ही अपनी जैविक उत्पादकता से परिवार नामक संस्था को चलाने की धुरी रही हैं। दरअसल समाज में यौन पीड़िता के प्रति ये दुरग्रह स्त्री के लिए यौनशुचिता के सर्वस्वीकार्य कांसेप्ट के चलते है।

बलात्कार केस में सजा पाकर जेल गए राम रहीम और हनीप्रीत के संबंधों की चाशनी में लपेट लपेटकर महीनों टीआरपी बटोरने वाला मीडिया मुज़फ्फ़रपुर केस में आरोपी बृजेश ठाकुर और उसकी महिला सहयोगी मधु के संबंधों में टीआरपी फैक्टर खोजने में लगा हुआ है। इसके लिए ख़बरों को चटखारेदार बनाया जाता है।कई बार रिपोर्टर या एंकर यौन-उत्पीड़न की रिपोर्टिंग या प्रस्तुति में अपने भाषा-बिंब और मुहावरों में स्खलित होने की हद तक आनंद लेता हुआ लगता है। बलात्कार के बदले बलात्कार की कबीलाई बर्बरता के तर्ज पर मीडिया भी अपने भाषाई पंजों से मधु (ब़जेश ठाकुर की महिला सहयोगी)के शरीर से खेलने लगा है।‘गदराये बदन वाली’ ‘ कैसे बनी मधु बृजेश की करीबी’ ‘केस में मिस्ट्री वुमन मधु’ ‘नब्बे के दशक में ब्रजेश ठाकुर के पिता मधु के करीब आये, और फिर वो वो बृजेश की खासमखास बन गई’ ‘साकी की भूमिका में गदराई बदन की मधु होती थी’ जैसे जाने कितनी टैगलाइन अखबारों और टीवी चैनलों की हेडलाइन बन चुकी हैं।

इतना ही नहीं बलात्कार के मामलों की रिपोर्टिंग में लैंगिक वर्चस्ववाली मर्दवादी भाषा का भी मीडिया लगातार इस्तेमाल करता रहा है। जो दर्शक, पाठक या श्रोता के सामनेअपने शब्दों और बिंबों व प्रतीकों से जो चित्र बनाता है कई बार वो हूबहू किसी मसाला फिल्म में जबर्दस्ती ठूँसे गए रेप सीन की नकल लगते हैं, जिनका उद्देश्य उनमें संवेदना जगाना या आंदोलित करना नहीं बल्कि उनमें लैंगिक उत्तेजना भरकर उनका मनोरंजन करना भर होता है। जिसमें शिकार करने जैसा रोमांच और रहस्य होता है। नहीं भी हो तो कल्पनाशक्ति के जरिए इन्हे रहस्यमयी बना दिया जाता है। कई बार रिपोर्टर अपनी रिपोर्ट के जरिए खुद पीड़िता का शिकार करता हुआ जान पड़ता है।‘मासूम बच्चियों का शिकार’, ‘बच्चियों की नाजुक देह नोचते रहे भेड़ियें’, ‘मासूमों के जिस्मों को परोसा जाता रहा’ आदि हेडलाइन इसकी बानगी भर हैं।

यौन उत्पीड़न की रिपोर्टिंग को लेकर मीडिया इधर के दशक में तो लगभग हिंसक और उत्पीड़क रहा है। कई बार रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार यौन-उत्पीड़ित स्त्री का उपहास कर मजा लेता हुआ दिखता है। जैसे टीवी न्यूज चैनल या अख़बार की हेडलाइन होती है- ‘चार बच्चों की माँ से बलात्कार’ या ‘70 साल की बुढ़िया संग बलात्कार’।उपरोक्त हेडलाइन में स्पष्ट है कि यौन उत्पीड़न के उपरोक्त दो केसों में पत्रकार की मंशा क्या है। वो एक तरह से न सिर्फ पीड़ित महिलाओं का उपहास कर रहा है बल्कि अपनी उपभोगवादी मर्द नजरिए से उन बलात्कारियों को बलात्कार के लिए नहीं बल्कि उनकी ‘च्वाइस’ के लिए धिक्कार रहा है! याद कीजिए अपने आरोपी पिता बृजेश ठाकुर के बचाव में उनकी बेटी और पटना से प्रकाशित अंग्रेजी अख़बार न्यूज नेक्स्ट की संपादक पत्रकार निकिता आनंद ने क्या कहा था। निकिता ने भी कहा था-कि चूँकि मेरे बाप के पास बहुत पैसा है। अगर उसे शारीरिक संबंध ही बनाना होता तो और लड़कियों की सप्लाई करनी होती यहाँ की लड़किया क्यों करता।’ये सामंतवादी ठेठ मर्दवादी टेक है कि,‘गिरना ही होता तो अपना स्तर देखकर गिरते। ये स्तर शब्द लड़की या स्त्री योनि के बरअक्श उसके जाति, रंग और उम्र को लेकर बोले कहे जाते हैं। निकिता का प्रत्यक्ष कहना ये था कि कोई भी साधन संपन्न मर्द बालगृह की अनाथ और निम्न जाति की लड़कियों में क्यों इंट्रेस्ट लेगा। ध्यान रहे निकिता एक अख़बार की संपादक भी थी।

वहीं एक दूसरे तरह के यौन-उत्पीड़न की रिपोर्टिंग में पत्रकार पीड़िता की जाति, धर्म और उसकी जीवनशैली के आधार पर लगभग फैसला थोपता हुआ रिपोर्टिंग करता है। अपनी रिपोर्टिंग में वह न सिर्फ इसका सरलीकरण कर देता है बल्कि इसका सामान्यीकरण करके ग्लोरीफाई भी कर देता है कि जैसे ये कोई आम बात हो। जैसे-‘दलित स्त्री संग बलात्कार’ ‘मुस्लिम युवती संग बलात्कार’। जबकि सामंतवादी मूल्यों से इतर जीवनशैली अनुसार व्यवहार करती लड़कियों स्त्रियों को रिपोर्टिंग में  ‘दोस्तों संग पार्टी करने गई लड़की संग दुष्कर्म’ जैसे हेडलाइन के साथ पेश किया जाता है कि जैसे उन जैसी लड़कियों के साथ बलात्कार होना ही न्याय है।

ये बाज़ारवाद की विद्रूपता है कि टीवी और अख़बार और वेब पोर्टल हर जगह ख़बरों और घटनाओं को बेचना और सिर्फ बेचना है। बेचने की इस प्रक्रिया में एक-दूजे से आगे निकलकर ज्यादा से ज्यादा टीआरपी बटोरने और विज्ञापन हासिल करने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा भी है। इस बेचने की क्रिया के पीछे विज्ञापनों का आर्थिक दबाव भी काम करता है। कोई ताज्जुब नहीं कि यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट के बीचों बीच या ऊपर-नीचे यौनेच्छा जगाता कंडोम का विज्ञापन भी मिल जाए, या फिर किसी मसाज पार्लर का विज्ञापन।किसी भी कीमत पर खबरों को बेचने का बाज़ारवादी फैक्टर यौन-उत्पीड़न जैसे निहायत संवेदनशील मुद्दे को भी उत्पादीकरण करके एक उत्पाद में तब्दील कर देता। कोई भाव, घटना या खबर को जब बाजार उत्पाद में तब्दील करता है तो चेतना, संवेदना जैसी चीजों को उसमें से निकालकर अलग कर देता है और इनकी जगह उसमें रहस्य, रोमांच, सनसनी और उत्तेजना भर दी जाती है।

सिर्फ रिपोर्टिंग करनेवाला पत्रकार या एंकर ही नहीं पूरी की पूरी संपादन टीम और मीडिया प्रबंधन भी उतना ही भागीदार होता है इनमें। क्योंकि आखिरी फैंसला इन्हीं का होता है। मीडिया में संपादन का जिम्मा वंचित तबके की स्त्रियों को सौंपे बिना मीडिया की भाषा को संवेदनशील और मानवीय नहीं बनाया जा सकता। चूँकि भाषा ग्राही के भीतर अपने संस्कार गढ़ रही होती है।जबकि वर्तमान समाज जोकि तकनीकि विकास के चलते साहित्य से परे भागता जा रहा है भाषा के लिए बहुत हद तक मीडिया पर ही निर्भर है। और मुझे अब ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि समाचार मीडिया अपनी भाषा के संस्कार से प्रतिहिंसक और बलात्कारी समाज गढ़ रहा है।

सुशील मानव फ्रीलांस पत्रकारिता करते हैं. सम्पर्क: 6393491351

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