वह भविष्य का नेता था लेकिन राजनीति ने उसे तुष्टिकरण में फंसा दिया (!)

लाल बाबू ललित 

परिस्थितिजन्य मजबूरियों के कारण राजनीति में पदार्पण को विवश हुआ वह शख्स अपनी मस्ती में अपनी बीवी, अपने बच्चों  और अपने पेशे से संतुष्ट जिंदादिली से अपनी जिंदगी जिए जा रहा था।  इंदिरा गाँधी की हुई हत्या से उपजी परिस्थितियों ने राजीव गांधी को राजनीति की चौखट पर सक्रिय रूप से दस्तक देने और देश की बागडोर सँभालने के लिए लगभग  विकल्पहीनता की स्थिति में लाकर रख दिया। हालाँकि संजय गाँधी की विमान दुर्घटना में हुई असामयिक मृत्यु के बाद से ही इंदिरा गांधी राजनितिक विरासत को लेकर चिंतित रहने लगी थी और बड़ी शिद्दत से यह चाह  रही थी कि राजीव राजकाज और राजनीति  में दिलचस्पी लें।

लेकिन उनकी गैरराजनीतिक पत्नी सोनिया गाँधी उन्हें ऐसा करने से रोक रही थी। वे अपने पति और बच्चों के संग निजी जिंदगी में बहुत खुश और संतुष्ट थी। इंदिरा की मौत के बाद भी सोनिया ने राजीव को राजनीति में आने से रोकने का भरसक प्रयास किया लेकिन हमेशा वही कहाँ होता है जैसा हम चाहते हैं। राजीव गाँधी ने इन्हीं हालातों के बीच देश का बागडोर संभाला।

राजीव गाँधी के लिए उनका राजनीति  से बाहर का होना फायदेमंद साबित हुआ। उनका नाम किसी विवाद से जुड़ा हुआ नहीं था। न ही वे किसी विशेष खेमे से जुड़े हुए थे। उनके खुले व्यव्हार  की वजह से लोगों में उनकी अपील बहुत ज्यादा थी। यहाँ तक कि देशवासियों ने उनको मिस्टर क्लीन की संज्ञा दी। उनके सलाहकार भी राजनीति से बाहर  ही थे। इनमें वे लोग भी थे जो दून स्कूल में उनके सहपाठी रहे थे और मित्र भी थे।  अरुण सिंह और अरुण नेहरू को तो बाकायदा उन्होंने अपने मंत्रिमण्डल में भी शामिल किया। सैम पित्रोदा जैसे लोगों को अपनी टीम में शामिल किया और हिंदुस्तान को बैलगाड़ी के ज़माने से कंप्यूटर के ज़माने में ले जाने की बात की।  ऐसा लगा कि सच में भारत को एक नए और आधुनिक युग में ले जाने वाला नायक मिल गया हो। मीडिया के एक हिस्से ने वाहवाही की तो दूसरे हिस्से ने मजाक भी उड़ाया।  मीडिया के कुछ लोगों ने राजीव गाँधी द्वारा नियुक्त किये गए कुछ विशेषज्ञों को ” राजीव का कंप्यूटर बॉय ”  तक कहा।

राजीव गाँधी के कार्यकाल के शुरुआती वर्षों में उठाये गए कदम से ऐसा लगा भी कि वे देश की ज्वलंत समस्याओं को सुलझाने और देश को शांति और विकास की राह पर ले जाने के लिए गंभीर प्रयास कर रहे हैं। प्रधानमंत्री बनते ही उन्हें विरासत में पंजाब, आसाम, मिजोरम और बंगाल की समस्याएँ मिली, इन सभी राज्यों में या तो अलग देश की मांग को लेकर या अलग राज्य की माँग  को लेकर उग्र गतिविधियां चल रही थीं। पंजाब और आसाम बुरी तरह जल रहा था।

पंजाब में जहाँ खालिस्तान की मांग फिर से जोर पकड़ रही थी। इंदिरा की हत्या के बाद देशभर में सिखों के खिलाफ हुई हिंसा और हत्या से उपजे जनाक्रोश के कारण नए सिख युवा खालिस्तान आंदोलन की तरफ फिर से आकर्षित हो रहे थे।  यहाँ तक कि  सिख धर्मगुरु और खुद अकाली दाल के नेताओं द्वारा खालिस्तान के समर्थन में नारे लगाए जा रहे थे।

राजीव गाँधी ने बड़े ही धैर्य से अपने सारे पूर्वग्रह और दुरग्रह को किनारे कर इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया और सुलझाया भी। जहाँ एक तरफ बदमाशों से सीधी भाषा में में बात करने वाले  जे ऍफ़ रिबेरो और के पी एस गिल जैसे पुलिस अधिकारियों को आतंवादियों के सफाये के लिए लगाया वहीँ दूसरी तरफ नरम रुख अपनाते हुए राजनैतिक स्तर पर भी इसे सुलझाने के प्रयास किये।  अकाली दल  को चुनाव में भाग लेने के लिए तैयार किया।  इंटेलिजेंस ब्यूरो की स्पष्ट रिपोर्ट थी कि यदि पंजाब में अभी चुनाव हुए तो कांग्रेस बुरी तरह हार जायगी।  बावजूद इसके राजीव ने राष्ट्रपति शासन हटकर पंजाब में चुनाव करवाए।  अकाली दल  भारी बहुमत से चुनाव जीत गया। कांग्रेस ने अपनी हार को सदाशयता से कबूला लेकिन खालिस्तानी मंसूबों को ध्वस्त करके रख दिया।

राजीव गांधी के साथ सैम पित्रोदा

ठीक यही स्थिति मिजोरम में थी। मिजो नेशनल फ्रंट के लाल डेंगा ने केंद्र सरकार का नाकोदम कर रखा था। वहीँ आसाम में अलग बोडोलैंड की माँग  को लेकर आल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन उत्पात मचा रहे थे।  आसाम  जल रहा था। उधर बंगाल के दार्जीलिंग के नेपाली भाषा-भाषी लोग अपने लिए अलग राज्य गोरखालैंड की माँग  कर रहे थे। सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में लोग चट्टान की तरह खड़े थे और उनकी एक आवाज पर मरने – मारने को उतारू थे।

इन सारी आंतरिक समस्याओं पर राजीव गाँधी बड़ी ही सूझबूझ और बारीकी से आगे बढे और धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए समस्याओं को सुलझा लिया।  जहाँ आसाम में छात्र नेता प्रफुल्ला कुमार महंत से समझौता कर उन्हें मुख्यधारा की राजनीति में आने के लिए राजी किया। राष्ट्रपति शासन हटाकर चुनाव करवाए।  कांग्रेस यहाँ भी बुरी तरह हार गयी। प्रफुल्ल महंत की पार्टी अगप भरी बहुमत से सत्ता में आयी।  कांग्रेस ने खुलकर स्वागत किया और कहा कि भले ही कांग्रेस चुनाव हार गयी हो लेकिन लोकतंत्र मजबूत हुआ है।  जून 1986 में मिजो नेशनल फ्रंट के नेता लाल ड़ेंगा से भी शांति समझौता हुआ।  समझौते की शर्तों  के मुताबिक मिजो नेशनल फ्रंट  नेताओं ने हथियार  डाल दिए और उनको आम माफ़ी दे दी गयी।  केंद्र सरकार ने मिजोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया और लाल ड़ेंगा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली।  यह कुर्सी उन्होंने कांग्रेस मंत्रिमण्डल से ग्रहण की थी।  मोर्चों पर राजीव गाँधी ने एक राजनेता की तरह नहीं, घर के अभिभावक की तरह और एक स्टेट्समैन की तरह खुद को  पेश किया और लगभग सफलतापूर्वक इन उबलते हुए मसलों पर पानी के छींटे मारकर शांत किया।

लेकिन कांग्रेस के अंदर मौजूद सामंती तत्वों और संघी मानसिकता के कांग्रेसियों ने धीरे-धीरे राजीव के मानस पटल को प्रदूषित करना शुरू कर दिया जिसका परिणाम हुआ कि  वोट बैंक के चक्कर में कई साहसिक फैसले लेने  से चुक गये।  और फिर उनमें मौजूद क्रन्तिकारी फैसले लेने वाला तत्व राजनीति की गंदगी और वोट बैंक के चक्कर में धीरे-धीरे ख़त्म होता चला गया वरना कई साहसिक बदलाव मुस्लिम महिलाओं और आम लोगों के जीवन में परिलक्षित होता जरूर दिखता।

इसका पहला उदहारण देखने को मिला शाहबानो के मामले में।  मोहम्मद अहमद खान नामक एक बुजुर्ग सुप्रीम कोर्ट में एक आवेदन लेकर आया।  उसने निचली अदालत के उस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायलय में अपील की थी जिसमें उसे अपनी तलाकशुदा पत्नी को गुजारा-भत्ता देने का आदेश दिया था।
खान का कहना था क़ि उसने इस्लामिक कानून के मुताबिक अपनी तलाकशुदा पत्नी को 3 महीने का गुजारा भत्ता देकर अपना फर्ज अदा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धरा 125 के तहत खान की अपील को ख़ारिज कर दिया- एक तलाकशुदा पत्नी को अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है, अगर उनके पति ने दूसरी शादी कर ली हो और उस तलाकशुदा महिला ने पुनर्विवाह नहीं किया हो और कमाने लायक नहीं हो।

सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा कि CRPC और पर्सनल लॉ के बीच विवाद की स्थिति में CRPC 125 पर्सनल लॉ से ऊपर है।  और भी कई सुधारात्मक टिप्पणियां सुप्रीम कोर्ट ने की।  सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से मुस्लिम जगत में तीखी प्रतिक्रिया हुई और कई हलकों से टिप्पणी आयी कि सुप्रीम कोर्ट मुस्लिमों के निजी मामलों में अनावश्यक दखल दे रहा है।  धर्मगुरुओं और मुल्लाओं ने भी कोर्ट की तीखी आलोचना की।  इस फैसले के ठीक 3 महीने बाद जी एम बनातवाला नामक सांसद ने संसद में एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया जिसमें मुसलामानों को CRPC 125 के दायरे से मुक्त करने की बात थी।

तत्कालीन गृह राजयमंत्री , प्रख्यात कानूनविद , राजीव गाँधी के भरोसेमंद और प्रगतिशील मुस्लिमों के प्रतिनिधि आरिफ मोहम्मद खान ने इस बिल का विरोध किया।  सदन में यह बिल धराशायी हुआ। लेकिन सदन के बाहर बहस चलती रही।  कट्टरपंथियों ने शाह बानो को धर्मच्युत कर दिया।  कट्टरपंथियों के दबाव में  शाह बानो झुक गयी।  मुसलमानों ने उसका बहिष्कार किया।  ठीक उसी समय उत्तर भारतीय राज्यों में उपचुनाव हुए।  कांग्रेस पार्टी उन उपचुनावों में हार गयी।

अपने परिवार के साथ राजीव गांधी

हार से राजीव गाँधी घबराये और चिंतित हो गए। राजीव गाँधी ने मोहम्मद आरिफ से  किनारा कर लिया  और उनकी जगह कट्टरपंथी मुसलमानों ने ले ली।  फरवरी 1986 में कांग्रेस मुस्लिम महिला बिल लेकर आयी। इस बिल के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के शाह बानो वाले फैसले को निष्प्रभावी कर दिया गया।  मोहम्मद आरिफ खान कांग्रेस से इस्तीफ़ा देकर बाहर हो गए।  पहली बार राजीव गाँधी ने वोट बैंक की राजनीति में खुद को शामिल कर एक साहसिक और क्रन्तिकारी कदम से अपने आपको पीछे खिंच लिया और मुस्लिम समाज की महिलाओं के हक़ में बड़ा फैसला होकर भी नहीं हो सका।

इधर कट्टरपंथी हिन्दू तबका और संघियों ने राजीव गाँधी पर  तुष्टिकरण के आरोप लगाए और हिन्दू हितों की अनदेखी करने की  बात भी कही।  राजीव को फिर चिंता हुई और वे क्षतिपूर्ति में लग गए।  उन्हें लगा कि  हिन्दू वोट कहीं नाराज न हो जाय।  और इस क्रम में उन्होंने  और गलती की।  राम मंदिर – बाबरी मस्जिद जिसमें वर्षों से ताला जड़ा  हुआ था और विहीप  वाले लगभग तीन दशक बाद 80  के दशक में रामजन्म भूमि की मुक्ति के अभियान चला रहे थे।

उसी समय फैजाबाद की एक  स्थानीय अदालत ने एक वकील ने याचिका दायर कर आम लोगों को रामलला की पूजा अर्चना की अनुमति प्रदान करने की माँग की थी। शाह बानो प्रकरण के ठीक बाद जिला जज ने फैसला दिया कि  मस्जिद का ताला खोला जाय और पूजा अर्चना की इजाजत दी जाय। लोगों का मानना था कि  यह फैसला दिल्ली से दिलवाया गया है और शाह बानो प्रकरण के बाद नाराज हिन्दुओं को तुष्ट करने के लिए राजीव गाँधी के कहने पर अदालत ने यह फैसला दिया है। और इस तरह यह विवाद जो वर्षों से पिटारे में दबा पड़ा था , उसे फिर से बाहर कर दिया गया जिसका दंश देश ने 1992 में झेला  और आजतक झेल रहा है।

साफ़ है कि एक साफ़ सुथरा इंसान जिसने कई महत्वपूर्ण फैसलों से देश को एक नयी दिशा देने की पुरजोर कोशिश की थी और सफल भी हो रहा था, वोट बैंक की राजनीति  के चपेट से  बचा न सका और राजनीति  के एक पक्ष की सड़ांध ने उसे भी अपनी लपेट में ले लिया।

एडवोकेट लाल बाबू ललित सुप्रीमकोर्ट सहित दिल्ली के न्यायालयों में वकालत करते हैं. 

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