तानाशाह के खिलाफ वह खूबसूरत शख्सियत, हमें भी पढ़ा गयी पाठ!

संध्या नवोदिता
फहमीदा रियाज़ से मेरा पहला परिचय उनकी कविताओं से हुआ था। उनसे आमने-सामने मिलने से पहले उनकी नज़्में लाखों पाठकों की तरह मेरे भी जेहन पर छा गईं थीं। बाद में इलाहाबाद में जन संस्कृति मंच ने एक राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम में आयोजित किया। जिसमें किसी एक दिन शानदार कवि गोष्ठी का आयोजन था। उसमें देश भर के बेहतरीन कवि आमन्त्रित किये गए थे। फहमीदा जी उसमें मुख्य अतिथि थीं। बल्ली सिंह चीमा भी आए थे। यह सुखद संयोग था कि इस कवि सम्मेलन में फहमीदा जी के साथ मंच पर मुझे भी शामिल होने का मौका मिला। वह लिखती तो थीं ही शानदार, पढ़ती भी बहुत उम्दा थीं। उनकी आवाज़ में एक रेशमी एहसास था, सुनते हुए उनमें खो जाइये। आराम-आराम से अपनी बात सधे हुए स्वर में कहना। यहीं मंच से उन्होंने अपनी चर्चित कविता ‘ तुम बिल्कुल हम जैसे निकले…’ सफलतापूर्वक पढ़ी। सफलतापूर्वक इसलिए कहा क्योंकि इसके ठीक पहले उन्होंने यह कविता जेएनयू में पढ़ी थी और वहाँ उन पर पत्थर चले थे। इस कविता को इलाहाबाद में पढ़ने के बाद वह जेएनयू के वाकये पर खूब हँस रही थीं और अनजाने में ही हम यह सोच कर खुश हो रहे थे कि इलाहाबाद के श्रोता जेएनयू से ज़्यादा समझदार हैं।

उन्हें इलाहाबाद में एजी दफ्तर के गेस्ट हाउस में ठहराया गया था। जहाँ वे अपनी रिश्तेदार और मित्र फरहत रिज़वी के साथ रुकी थीं। वह तीन दिन के लिए रुकी थीं। मेरा घर उनके गेस्ट हाउस के नजदीक ही था। मैं हर सुबह , हर शाम उनसे मिलने गेस्ट हाउस पहुँच जाती। बाद में उन्होंने भारत की इस यात्रा का संस्मरण एक पत्रिका में लिखा था, जिसमें अपना जिक्र पढ़कर मेरा मन बहुत प्रसन्न हुआ था। तब एक शाम शम्सुर्रहमान फारुखी साहब के घर मुलाकात रखी गयी थी। इलाहाबादी अदब की दुनिया के तमाम लोग जुटे। सब उनको घेर के बैठे रहे। उनकी बातें सुनते रहे।

फहमीदा जी का व्यक्तित्व चुम्बकीय था। वे बोलतीं तो सब मुग्ध होकर सुनने लगते। बोलने के बाद श्रोता समूह उनके इर्द गिर्द जमा हो जाता। खूब बातें होतीं। मुझे उनके प्रसिद्ध लेखक, पद्मश्री शम्सुर्रहमान फारूकी साहब के आने का वाकया याद है। दिन के कार्यक्रम के बाद यह तय था कि शाम को फारूकी साहब के यहाँ बैठकी होगी, जो लोग आना चाहें वहाँ आ जाएं, तो अनौपचारिक वार्तालाप हो जाएगा। शाम को फारूकी साहब के यहां खुले में बैठक लगी। अदब की दुनिया के नामी-गिरामी लेखक, कवि और कलाकार आए । अच्छा खासा जमावड़ा लगा। सब उनको घेर के बैठे रहे। उनकी बातें सुनते रहे।नाश्ते पानी के साथ खूब बातें होने लगीं। कोई एक तरफ से कुछ पूछता फहमीदा जी जवाब देतीं, कोई दूसरी तरफ से कुछ पूछता उसका भी उत्तर दिया जाता। यह गुफ्तगू तब थी जबकि लोग दिन के कार्यक्रम में उनसे सुन मिल चुके थे।

उनके उस आगमन की एक घटना मुझे याद है। शाम से रात होने लगी। उसी भीड़ में एक बुजुर्ग लगातार बैठे रहे। वे फहमीदा जी को सुनने आये थे। वे पास आकर कोई उतावले सवाल जवाब भी नहीं कर रहे थे, शायद वह बहुत संकोच में थे। या फिर इतने भर से ही मुतमइन थे बस थोड़ी दूर बैठे खामोशी से उनको सुन रहे थे। अधिकांश लोग चले गए, जब सिर्फ चार छह लोग बचे, तो फहमीदा जी खुद उनकी तरफ मुखातिब हुईं। बहुत आदर के साथ उनका परिचय लिया और स्नेह से बात की। मुझे फहमीदा जी का उन बुजुर्गवार से यूँ परिचय लेना, बातें करना बहुत अच्छा लगा। मुझे वे बहुत विनम्र लगीं। जो कि वे थीं भी। बाद में उन बुजुर्ग से मेरा न सिर्फ अच्छा परिचय हुआ बल्कि वह मेरे पिता की तरह सम्माननीय हुए और उनका पितृवत स्नेह मुझे आज मिल रहा है। वह बुजुर्ग सज्जन आदरणीय शायर बुद्धिसेन शर्मा जी थे, जो मुझे अपनी बेटी कहते हैं और जिन्हें मैं बाऊजी कहती हूँ।

फहमीदा जी व्यवहार में बहुत नरम, बेतकल्लुफ, नफासत पसंद, तहजीबपसंद और विनम्र थीं। उन्हें खूबसूरत कहना भी कम होगा। ज़बरदस्त चुम्बकीय व्यक्तित्व। जो उनके साथ आये वह खुद को बड़ा महसूस करने लगे।  लोग पाकिस्तान के बारे में जानना चाहते। उस समय जनरल जिया की हुकूमत थी। लोग तानाशाह की हुकूमत में सामान्य जीवन पाकिस्तान के हाल चाल, उनका लेखन सब पूछते रहे। उस वक्त वे जलालुद्दीन रूमी पर काम कर रही थीं। रूमी उन पर जादू की तरह तारी थे। कहना न होगा वे रूमी के नशे में थीं। उस वक्त हम रूमी को नहीं जानते थे, बाद में जाना तो समझ मे आया कि जादू क्या होता है।

लोग उनसे पाकिस्तान की साहित्यिक  गतिविधियां पूछते। हालात जितने कठोर होते हैं, अभिव्यक्ति उतनी ही जीवन्त और मारक हो जाती है। बोलने की पाबंदी हो तो लोग और ज़ोर से और सार्थक बोलते हैं। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कसाव जितना ज्यादा हो, मुक्ति की छटपटाहट उतनी ही व्यग्र होती है। जाहिर सी बात है ऐसी परिस्थितियों में पाकिस्तान में नज़्म का दौर उफान पर रहा। शानदार रचा गया। हबीब जालिब से लेकर फहमीदा रियाज़ तक एक लंबी फेहरिस्त है। ‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले … ‘ जब वे पढ़तीं तो सुनने वालों में खामोशी छा जाती। लोग सराहते और आत्मावलोकन में चले जाते।

वे मेरठ में जन्मीं थीं। उन्हें उत्तर प्रदेश के शहरों से बड़ा मोह रहता। मेरठ उनकी ज़ुबान पर मिठास की तरह आता। वे हिंदुस्तान आने को व्यग्र रहतीं। उनको देखकर समझ में आता था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का दिल एक ही है। इन्हें कोई राजनीति कोई दीवार अलग नहीं कर सकती। जब इलाहाबाद आतीं वह सब लेखकों से उनकी किताबों और लेखन के बारे में पूछतीं। सब उनको अपनी नई छपी किताबों का तोहफा देकर बड़े प्रसन्न होते।

उनसे दोबारा मुलाकात हुई, नवम्बर 2013 के यही दिन तो थे, जब फहमीदा जी इलाहाबाद में थीं। प्रगतिशील लेखक संघ का कार्यक्रम था। सामाजिक बदलाव में लेखक की भूमिका। फहमीदा जी खूब मन से बोलीं, और श्रोताओं ने जी भर के खूब अपनेपन से सुना और सराहा। उस दरम्यान वे इलाहाबाद में तीन दिन रहीं। बहुत बातें हुईं।
उनकी नज्म आज उनके जाने के दिन एक बार फिर से वायरल हुई है- तुम बिल्कुल हम जैसे निकले… इलाहाबाद में भी उन्होंने सुनाई थी।

आप चली गईं फहमीदा जी, हम तो सोचते थे अगली बार आप आएंगी तो और बड़ा प्रोग्राम करेंगे, खूब बातें करेंगे। हिन्दुस्तान में आपको चाहने वाले आपको कभी नहीं भूलेंगे, आप यहां की यादों में खुशबू की तरह हमेशा बसी रहेंगी।
आपको नम आंखों से अंतिम विदा। अब जब आयेंगी तो मिलेंगे।


और आपका यह नज़्म, आख़िरी पैगाम सच में सच बन गया है: 
तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्‍हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्‍टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी
माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्‍या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नजर न आयी?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश्‍क करो तुम, आ जाएगा
उल्‍टे पाँव चलते जाना
ध्‍यान न मन में दूजा आए
बस पीछे ही नजर जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना।
आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना
एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ
पर तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ
वहाँ से चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना।

संध्या नवोदिता कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार हैं. संपर्क: navodiita@gmail.com
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