माहवारी में हिमाचली महिलाएं नारकीय जीवन को मजबूर!

टीना

हिमाचल प्रदेश को देवभूमि कहा जाता है लेकिन फिर भी भले ही बदलते युग में समाज महिलाओं और पुरुषों को समान दर्जा देने की बात करता हो लेकिन इस सबके बावजूद हिमाचल प्रदेश में कुछ ऐसे भी गांव हैं जहां आज भी महिलाए नरक सा जीवन जीने को मजबूर हैं। यहां बात हो रही है हिमाचल के जिला कुल्लू की, जहां की करीब 82 पंचायतों में आज भी महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान भेदभाव का शिकार होना पड़ता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को मासिक धर्म होने पर घर से बाहर रहना पड़ता है और पशुशाला में जानवरों के साथ रातें बितानी पड़ती हैं। महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान अपना समय पशुशाला में ही बिताना पड़ रहा है। समाज की इस कुरीति को अपने जीवन का अहम हिस्सा मान ये महिलाएं आसानी से ऐसा करती हैं।

फुल्लू और पैडमैन फिल्मों से मासिक धर्म को लेकर समाज में व्याप्त अंधविश्वास दूर हुए क्या?

मानो स्त्रियों के मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल होने वाली सेनेट्री नैपकीन यानी सेफ्टी पैड पर फिल्म बनाने की होड़ सी मची हो। इस मुद्दे पर जून 2017 में फुल्लू नाम से एक फिल्म बनाकर डायरेक्टर अभिषेक सक्सेना अव्वल रहे। दुख की बात ये रही कि उनकी इस फिल्म को ‘A’ सर्टिफिकेट के साथ रिलीज किया गया था वहीं करीब आठ महीने बाद इसी मुद्दे पर दूसरी फिल्म आई पैडमैन। अक्षय कुमार के साथ इसे आर. बाल्की ने डायरेक्ट किया है। पैडमैन को ‘U/A’ सर्टिफिकेट दिया गया। एक ही मुद्दे पर अलग-अलग सर्टिफिकेट देने के पीछे सेंसर बोर्ड की मंसा क्या थी यह अलग बहस का विषय है। फुल्लू और पैडमैन फिल्मों का आधार एक ही है। इन फिल्मों की कहानी अरुणांचलम मुरुगननांथम की जिंदगी से जुड़ी हुई है। उन्होंने ही सबसे पहले महिलाओं के लिए सस्ते सेनेट्री नैपकीन उपलब्ध कराने का सपना देखा था और उसे पूरा भी किया। फुल्लू और पैडमैन फिल्में सिनेट्री नैपकीन अथवा सेफ्टी पैड के प्रचार तक सीमित होकर रह गईं। यदि इन फिल्मों के जरिये पीरियड यानी माहवारी अथवा मासिक धर्म से जुड़े सदियों पुराने अंधविश्वासों और अज्ञानताओं को दूर करने की दिशा में भी कुछ काम किया गया होता तो ज्यादा बेहतर होता। कोलकाता की प्रिया कहती हैं – “ज्यादा पुरानी बात नहीं है मैं मंदिर गई, प्रसाद चढ़ाया जब घर पहुंची तो वहाँ पड़ोस की आंटियाँ भी मौजूद थीं। उनको शक हुआ तो बोलीं- तुम्हारा पीरियड तो नहीं आया हुआ है? मेरे मुँह से निकल गया – हाँ। इसके बाद जो नाक भौं उन आंटियों ने सिकोड़ा और ताने दिए जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाई। मतलब कि पीरियड के दौरान मंदिर जाकर जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया हो।“ यह जानते हुए भी कि माहवारी कोई छुआछूत की बीमारी नहीं बल्कि एक जैविक क्रिया है, कई तरह के अंधविश्वास आज भी हमारे समाज का हिस्सा बने हुए हैं। ऐसा सिर्फ प्रिया के साथ ही नहीं हुआ है। दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ाने के दौरान छात्राओं ने जो आपबीती बताई वो भी चौंकाने वाली हैं। मम्मियाँ, आंटियाँ, दादियाँ परम्परा के नाम पर, धर्म का हवाला देकर, किसी अनहोनी का भय दिखाकर ऐसा करने को मजबूर करती हैं। सिखों और ईसाइयों में तो नहीं हाँ, हिंदू और मुस्लिम धर्मों में माहवारी को लेकर अंधविश्वास बहुत गहरा है। समाजसेवी डॉ. अर्चना सचदेव बताती हैं कि – “समाज में पीरियड्स को लेकर 21वीं शताब्दी में भी जागरूता नहीं बन पाई है। पीरियड के दौरान पौधों को पानी देने से मना करना, अचार छूने से मना करना, खाना बनाने से रोकना, दूसरे का खाना या पानी छूने से मना करना, तीन चार दिन तक जमीन पर सोने के लिए बोलना, बिस्तर और बर्तन अलग कर देना, हफ्ते भर तक पूजा पाठ करने और मंदिर जाने से रोकना जैसे अंधविश्वास आज भी समाज के व्याप्त हैं।“ समाज बदल रहा है।

अब लोग माहवारी और सेनेट्री पैड जैसे विषयों पर बात करने लगे हैं। वह दिन दूर नहीं जब माहवारी से जुड़े अंधविश्वासों के खिलाफ महिलाएँ उठ खड़ी होंगी। शहरी और नौकरी-पेशा महिलाओं ने तो एक तरह से इन सबसे पीछा छुड़ा लिया है पर छोटे शहरों व ग्रामीण इलाकों में यह अंधविश्वास अभी भी जड़ जमाए हुए है। यहाँ सवाल यह है कि बने बनाए स्टोरी के प्लॉट पर पैसा कमाने की नीयत से बनी फुल्लू और पैडमैन जैसी फिल्मों से पीरियड को लेकर समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियां दूर हुईं क्या? एक पीड़ादायक वक्त में समाज की इन बंदिशों से आनेवाली पीढ़ी को छुटकारा मिलेगा क्या? जबकि सब कुछ साबित हो चुका है कि पीरियड और छुआछूत का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है। दरअसल जहाँ फिल्मों के रिलीज के अगले ही दिन यह चर्चा प्रमुख हो जाती है कि फिल्म ने कितना कमाया और कितने घाटे में रही ऐसे फिल्मकारों और उनकी कमाई का प्रचार करने वाली मीडिया से यह उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती है। दरअसल किसी और से उम्मीद करने की बजाय हम महिलाओं को ही इन अंधविश्वासों और कुरीतियों से लड़ते हुए समाज को जागरूक करना होगा।

किसी भी महिला के लिए मासिक धर्म का होना एक प्राकृतिक और स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मासिक धर्म, मानव के रूप में एक नये जीव के सृजन का आधार है.  सामान्यतः 10 से 50 साल की महिलाओं में मासिक धर्म होता है। उन्हें शुद्ध न मानते हुए मंदिर में उनका प्रवेश वर्जित है। भारत के संदर्भ में भारतीय संविधान जब किसी भी नागरिक से उसकी जाति, रंग, लिंग के आधार पर शुद्ध-अशुद्ध, छूत-अछूत जैसे मान्यताओं को प्रतिबंधित करता है तो फिर इस तरह का व्यवहार करना संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है ? धर्म में लैंगिक समानता के अधिकार के लिए माननीय सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद देखना यह है कि महिलाओं को धार्मिक स्वतंत्रता मिलती है या नहीं।

मासिक धर्म के दौरान मंदिरों में जाने की अनुमति क्यों नहीं है?

मासिक धर्म महिलाओं के लिए एक श्राप बन चुका है। क्योंकि यही शक्ति एक औरत के जीवन शक्ति को परिभाषित करती है। पर दुर्भाग्य से लोग इसे हीन दृष्टि से देख औरत की भावनाओं को दबा रहे हैं। समाज की नजर से महिलाओं के शरीर से खून का बहना जहां एक ओर अशुद्ध माना जाता है तो दूसरी ओर माहवारी के समय निकलने वाले खून वाली देवी को लोग पूजने के लिए उसके दरबार पर जाते है। जिसे रक्तस्राव देवी या कामाख्या देवी के नाम से जाना जाता है। आखिर यह किस प्रकार का न्याय है कि एक ओर रक्तस्राव देवी की लोग पूजा करते है तो दूसरी ओर रक्तस्त्राव वाली महिला को मंदिर में जाने से रोका जाता है। अंधविश्वासों से घिरे इस देश में जहां एक ओर महिलाओं के रक्तस्राव के समय पवित्र स्थान पर महिलाओं को प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, तो वहीं दूसरी ओर उस समय महिलाओं को हेय दृष्टि से भी देखा जाता है, आखिर क्यों?

मासिक धर्म की भ्रांतियां दूर करने की है जरूरत

समाज में फैली इन भ्रांतियों को दूर करने के विषय पर जिला कुल्लू प्रशासन ने भी पहल शुरू की है। जिसके तहत महिलाओं के सशक्तिकरण, उनके स्वस्थ और स्वच्छ जीवन, स्वाभिमान और उत्थान के लिए कुल्लू जिला प्रशासन ने महिला एवं बाल विकास विभाग के सहयोग से नारी-गरिमा अभियान आरंभ करने का निर्णय लिया है। इस अभियान के दौरान महिलाओं के मासिक धर्म से संबंधित भ्रांतियों को दूर करने और व्यक्तिगत स्वच्छता पर बल देने के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण और उत्थान से संबंधित विभिन्न योजनाओं के बारे में व्यापक मुहिम चलाई जाएगी।

लेखिका टीना शोधार्थी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

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