एक विदुषी पतिता की आत्मकथा

कुमारी (श्रीमती) मानदा देवी
अनुवाद और सम्पादन: मुन्नी गुप्ता

1929 में मूल बांग्ला में प्रकाशित किताब “शिक्षिता पतितार आत्मचरित”, का हिन्दी अनुवाद एवं सम्पादन मुन्नी गुप्ता ने किया है, जिसका प्रकाशन श्रुति बुक्स, गाजियाबाद से हुआ है. यह एक ‘वेश्या’ की आत्मकथा है. इस किताब की लम्बी भूमिका का एक अंश एवं आत्मकथा का एक अंश स्त्रीकाल के पाठकों के लिए.

लड़कियों के दुःख अजब होते हैं सुख उससे अजीब
हँस रही हैं और का जल भीगता है साथसाथ.”  
परवीन शाकिर

दुनिया की किसी भी ‘आत्मकथा’ में दोशीजा, दुखतर से होते हुए औरत होने की अनंत और अतिरंजित यात्रा में जाना एक अद्भुत क्षण है. यह घटना घटित हो ये तब और भी जरूरी हो जाता है जब एक औरत इस सफर में सिलसिलेवार खुद से होकर गुजरी हो. अपनी जुबानी खुद के भीतर-बाहर की दुनिया के बारे में बात करने को राज़ी हो या जरूरत महसूस करती हो. यह राजीनामा बेहद जटिल, संश्लिष्ट, सघन अनुभूतियों और अनुभवों से बना होता है. उसके इन्द्रिय-जालों में गुह्यशिरायें हैं और ये गुत्थमगुत्थ संरचनाओं से मिलकर बनी हैं. बात भले ही सुनने में अजीब लगे लेकिन इसके पीछे एक संजीदा, गहरी, त्रासद अनुभूति छिपी हुई है.

इस बात से समझा जा सकता है कि हर औरत अपने बाहर की दुनिया में जीती हुई अपने भीतर की औरत को समझने और उसे बाहर की दुनिया से सामना करने के लिए तैयार कैसे कर सकती है इसकी खातिर वह खुद एक (‘स्वनिर्मित तिलिस्मी’ इसे आप कह सकते हैं, किन्तु उस लिपि से वह औरत बखूबी वाकिफ है) फैंटस ऐन्द्रिक-लिपि निर्मित करती है, जिसमें  ‘आत्म’ की तलाश और दुनिया के भीतर ‘औरत’ होने के अर्थ छिपे जो हैं, एक ‘थेसारस’ होता है. वह जो कुछ महसूस करती है, उन नर्म और कठोर सम्वेदनाओं की एक चित्रशाला भीतर हर लम्हा बनती रहती है, झेले-भोगे सच की स्मृतियों की ‘नव्य शैली’ विकसित होती रहती है और बारीक-शिल्प में तराशा हुआ संग्रहालय रचा जा रहा होता है. औरत इन भित्तितंत्रिकाओं में अनगिनत भित्तिचित्रों से खुद को बारम्बार रचती है. साथ ही भीतर-भीतर असंख्य भित्तिचित्र उकेरती है. इस चित्रशाला, संग्रहालय और थेसारस के बाहर और भीतर ‘औरत’ एक जिस्म व खुद से रू-ब-रू औरत की रूह में जो दूरी है, वह एक कुशल-अकुशल शिल्पकार की भांति रचना-मूर्ति की नक्काशी करती है, एक जीवंत कार्यशाला के भीतर बरसों तक रहकर जीती है, एकवृहद चित्रशाळामहीन कारीगरी से बुनती है जिन्हें कभी अनुकूल और कभी प्रतिकूल हालातों में अपने भीतर बन रही छवियों को नई-नई शक्ल सूरत में ढालती रहती है. इस चित्रशाला में एक औरत की इन्द्रियों से अनुभूत असंख्य तस्वीरें और कलाकृतियाँ होती हैं, खुद के चुने हुए रंध्रिकाओं के रंग शामिल होते हैं. अन्तःकरण के इस कैनवास में औरत ढेरों संवेदनाओं को हर सांस-सांस रंगती चलती है. वह इनमें जीती हुई तमाम औरतों की ध्वनियाँ और लोक संजोती है, अनगिनत पहलुओं की छायाप्रति ही चित्र अपनी समूची भूमिका में पारदर्शी प्रिज्म की तरह चमकता है, परावर्तित होती है उसके भीतर से हर लम्हा नई नई रंगआमेज़ प्रकीर्णन छवियाँ उभरती रहती हैं.

कितने मजबूर हो गए होंगे
अनकही बात मुँह पे लाने को

पुल्त्ज़िर प्राइज़ विजेता नाबाकोव ने कहा था कि अपनी बीबी के बगैर मैं एक भी नावेल नहीं लिख सकूंगा. जाहिर है कि इन्हीं मायनों में औरत किसी भी मुकाम तक पहुँचने में बेहद जरुरी भूमिका निभाती है. अब अगर औरत को ही लिखना हो वह सब कुछ, जो उसकी अंदरूनी और बाहरी दुनिया में उसके साथ होता आ रहा है तो सोचिये कि कितनी मुश्किलें आएँगी, जो चुनौतियाँ हैं जिन्हें एकमुश्त ही औरतें बर्दाश्त करती आई हैं औरतों के खिलाफ हो रहे हमलों को सहते हुए एक एक सम्वाद को अल्फाज को सच के पर्दे में उतारना, अफसानानिगार की तरह पेश करना कितना मुश्किल होगा? और यह भी कि इसमें कितनी बेतकल्लुफी, बेखौफ आवाजें और अंदाज़ में कितनी हिम्मत, कितनी साफगोई चाहिए होगी. औरत के भीतर पैदा हुए मेटाफर में वह कितनी खूबसूरत, दिलचस्प, साफ़-सफ्फाक, नए मायनों से भरी, जटिल वुजूद के ताने-बाने बुने, सिलवटों और उलझनें, कशिश को अनोखेपन और जिंदादिली से कैसे निबाहेगी? उसका ‘पर्सनालिटी एसेंस’ कैसा होगा.

अगर औरत वेश्या हो तो वह ऐसे में विदुषी होने की सूरत को कैसे निखारेगी? इसका आधार क्या होगा? मानदा ने सारी खूबियों के साथ काम करते हुए आत्मकथा लिखी. इससे हमें यह बात समझनी होगी –वह सब कुछ जो हम में आलोचनात्म कयोग्यता पैदा करता है, जो हमें प्रिय परंपराओं को भी विवेक की कसौटी पर परखने के लिए प्रेरित करता है, जो हमें वैचारिक रूप से स्वस्थ बनाता है और हममें एकता और राष्ट्रीय एकीकरण पैदा करता है, उसी को हम प्रगतिशील साहित्य कहते हैं.ये बातें सज्जाद जहीर ने प्रगतिशील आन्दोलन का पहला मेनीफेस्टो 1925  में लिखने के दौरान कहा था. इस लिहाज़ से एक विदुषी की आत्मकथा बेहद मानिख्ज़ अफसाना बनकर उभरी है.

यह विचार भले ही अजीब लगे, मगर दिलचस्प यह है कि एक औरत वेश्या होकर इल्म की दस्तकारी को कैसे अपने हक में इस्तेमाल करेगी? वह जरा भी हिचकिचाए बगैर ये माद्दा कैसे पैदा करे कि कोई अलफ़ाज़ अविश्वसनीय व अतार्किक न लगे. हकीकत से नाता यूँ बने कि जो वेश्या है वह आपकी याददाश्त में जगह बना ले, जरा भी हरकत हलचल किए बिना ही. औरत जो वेश्या के पेशे में रत है वह अपनी कठिनाई, कड़वी अनुभूति से हर पल गहरे तक आपको खुद में जोड़े रख सके. एक ज़िंदा हुश्न की लानत-मलानत के संग-संग मानो आपके साथ-साथ चलती चली जा रही है अपने आखिरी इम्तिहान की तरफ भरोसे और तस्दीक के साथ.

मर्द की नजर में औरत तो कई-कई पहचानों व नामों में तस्लीम की गई – अगर औरत में समझदारी है, सूझबूझ है, लॉजिक है, बोलने की तल्खी है, कला है, तो वह औरत मर्द की निगाह में ‘बौद्धिक रंडी’ कहकर अपमानित होगी ही, या की जायेगी. अगर औरत में खूबसूरती है, अदब है, अदा है, सुख़न है, काहिन है, फिक्रत परस्ती है तो शहर-ए-इल्म-ओ-फन में हंगामा परवर जमात उसे ‘ट्रॉफी’ की तरह इज्ज़त-शोहरत बख्सेंगे. अगर औरत ने खाना-खराबी(घर छोड़ दिया है) में बिताई है जवानी तो बे-दिमागी बाज़ार के मुक्तलिफ़ लोग उस गैरत की नस्ल को बेआबरू करने में कोई कसर न छोड़ेंगे, अस्मत को सरेबाजार कुचल कर रख देंगे.

औरत की अस्मत मर्द की निगाह में है ही क्या? कभी आश्रमों में रहने वाली सन्यासिनों को वेश्या बनाने में आध्यात्म के पाखंड, कभी नफरतों में कौम और जमातों की औरतों को बेआबरू करते वहशी कौमें, चुलबुली, बिंदास लड़की देखकर हवश में डूबे बेलगाम रईसजादे, शादी में ‘वर्जिनिटी टेस्ट’ करती शौकिया अपाहिज दिमागों वाले परिवार, घर, मकानात क्या किसी वेश्यालयों से कम हैं. जहाँहर रात एक ही मर्द से ज़िन्दगीभर का सौदा तय हुआ है. क्यूंकि जब उसे ब्याहकर (यानी मर्दानगी के दरीचे में) लाया था तब उसके प्यूरिटी ऑफ़ वर्जिनिटी की कीमत थी. वो जवान पट्ठे जो नंगी निगाहों से औरतों को बेपर्दा देखने के शौक़ीन हैं, पोर्न के बाज़ार से लाये गये मसालेदार नंगी औरतों के चलचित्र को देखते- सनकी, चस्की, बददिमाग, अपराधी, इश्कबाज जिस्म के धंधे में दलाली करते लौंडे, चकलाघर तो इन मर्दों के भीतरी घरानों में हर लम्हा नस-नस में दौड़ता है. रेड लाईट एरिया इसके लिए सबसे मुफीद बाज़ार हैं जहां नंगी औरतों का शौक रखने वाले जवाँ मर्द और उम्रदराज़ मर्दों की तादाद ऐसी है जो औरत के गर्म गोश्त का लुत्फ़ की चाहत में वे सभी अपने-अपने भीतरी तहखानों में बिलकुल बेअदब और नंगे हैं. उन्हें कुँवारी लड़की, जवान औरत, पेशेवर वेश्या, तवायफ चाँद रात में चाहिए. उन्हें हर शबजिस्म का उत्ताप बुझाने को बंद कमरों के भीतर एक अदद बीबी चाहिए जिससे नशीले गोश्त की ताज़ी गंध आती है. ये मर्द गंदले अनुभवों, जोशीलेपन की जेहालत और मर्दानगी के सलीके में बद से बद्तर किस्म के दिमागी बीमार लोग हैं ऐसी जमातें हर शहर में ठंसी पड़ी हैं. आधुनिकता के लबादे में तो तमाम खूबसूरत लड़कियाँ प्रति माह बंधी रकम की खातिर यौन-कुंठा से भरे रईसजादों की रखैलें बनने को मजबूर या राजी हैं. आखिर कब तक औरतें हर हाल में सोसाइटी के लिए कलंक ही बनी रहेंगी? औरत होने की हैसियत कब हासिल करेंगी. दोशीजा कब तलक मर्दों की फितरत और फजां में नीच, अछूत, घटिया मानी जाती रहेगी.

आत्मकथा में मानदा से बातचीत में रमेश बाबू का मर्दवादी नजरिया बेहद तल्ख और साफ़-सफ्फाक है. उसे समाज के ताने-बाने पर पूरा भरोसा है तभी तो यह बात कह पाए तीन हज़ार रुपये दफ्तर में कैश जमा कर मेरी चोरी की बदनामी ख़त्म हो जायेगी? दो चार लड़कियों को घर से बाहर निकालने के बावजूद मैं समाज में सर उंचा उठा कर चलूँगा और शराब पीना वह तो सम्पन्नता का लक्षण है. तुमने खुद अपना भला नहीं समझा. अब तुम्हारी मुक्ति असंभव है. मैं भी देखूंगा, तुम्हारे मन में जो नयानया नीति ज्ञान जागा है, वह कितनी दूर तक तुम्हारी रक्षा कर सकता है .दोशीज़ा मानदा को ‘वेश्या मानदा’ के सफ़र तक लाने में इसी भद्रलोक के रमेश बाबू ने बड़ा रोल निभाया और मानदा को ‘फिरोजा बीबी’ के किरदार से लेकर ‘मिस मुखर्जी’ के किरदार तक लाने में इसी भद्र लोक के वकील की भूमिका रही है.लम्बे समय से लड़कियों को जिन्दा दफन करने की रस्म चली आई है. औरत के सामने चुनौतियाँ हैं, जिन्हें हर मायने में औरतें ही हक़ और हकूक की लड़ाई से हासिल कर सकती हैं. मर्द हर हाल में औरतों के मसले में ज्यादा आक्रामक होते हैं. आक्रामक होना एक तरह की मानसिक कुंठा से, अवसाद और उत्तेजना से उपजी मानसिक बीमारी है,

हर उत्तेजना के रिलेटिव सिग्नीफिकेंट होते हैं, जो इंसान के जैविक, भौतिक परिस्थिति में अनुकूलन को तय करते हैं. उत्तेजनाएं औरतों में भी होती हैं तो उनमें यह भावना बड़े पैमाने पर क्यूँ नहीं जागती कि वे भी मर्दों, जवान लड़कों के साथ यौन अत्याचार कर सकें. मतलब अनुकूलता के लिए विकृति को सामाजिक परिस्थितियाँ और सांस्कृतिक वायुमंडल से ऊर्जा मिलती है. मर्द इस मामले में पुरसुकून महसूस करता है. कारण उसके अनुकूलन के लिए सोशल इन्वायरमेंट हमेशा मौके देता है. औरतों को इसका प्रतिकूल प्रभाव झेलना पड़ता है. सेंसोरी एडोप्टेशनलेवल ही क्वालिटेटिव आस्पेक्ट पैदा करने की क्षमता देता है. यह औरतों के लिए कैसे फायदेमंद हो तब जबकि वे भी यौन उत्कंठाओं और उत्तेजनाओं के दौर से गुजरती हैं मगर सोशल कंडीशंस फेवरेबल न होने के कारण उन्हें उन पर काबू पाने या उन्हें खत्म करने के मौके नहीं मिलते.

इस मायने में दोनों ग्राहक हैं औरत और मर्द जो उत्तेजनाओं को बैलेंस करने के लिए एडजेस्टिव बिहैवियर की तलाश में अगर जा सकें तो सेंसेसरी डिसऑर्डर होने से बचा जा सकता है. बेस्ट सोशल ऑर्डर और बेहतर उत्पादन हो सकता है. अन्तःग्राहक इनके भीतरी इलाके में सें सोरी चैनल और सेन्सस ओर्गंस को बेहतर तरीके से मुकम्मिल रिजल्ट्स दे सकते हैं. सेंसेसंस के इन घटकों में औरतें और मर्द दोनों में ही क्वालिटी, इन्टेनसिटी और विविदनेस के कारण मेंटल इम्प्रेसंस का क्वांटीटेटीव इफेक्ट समझा जा सकता है. मगर इसके लिए दोनों को यानी मर्द और औरत को सेंसेसरी एक्सपीरियंस को समझना होगा.

औरतें मर्दों के मुकाबले अधिक भावुक और तीव्र उत्तेजनाओं की ग्राहिका होती हैं. मर्दों में तनाव की वजह से हार्मोनल डिस्टर्बेंस अधिक प्रभावी होता है. औरतें इस मामले में थोड़ी स्थिर और ज्यादातर अवसाद की अवस्था में ही क्षणिक ही असंतुलित होती हैं. आदमी अपने भीतर उठी उत्तेजनाओं और संवेगों-आवेगों से बाहर निकलने की खातिर उपाय की कोशिशें कहीं अधिक करता है. वह उसके परिणामों की परवाह नहीं करता. औरतें अपनी उत्तेजनाओं और संवेगों के उत्ताप को तोड़ने के लिए जैव-विविधता में अन्य प्राणी को साथी मानकर तरह-तरह से इमोशनल शेयरिंग के जरिये निदान पाने में लगी रहती हैं, जिसका खामियाजा ज्यादातर वक्त उन्हें जिस्मानी या अंदरूनी आघात के तौर पर भुगतना पड़ता है.

औरतें हमेशा जैविक बदलावों के कारण मर्दों के मुकाबले कहीं अधिक पारिस्थतकीय संघर्षों से जूझती रही हैं साथ ही मनोवैज्ञानिक अस्थिर हालातों में बार-बार बदलावों से उन्हें अधिक मुश्किलें झेलने को मिली. मर्द इन्हीं परिस्थितियों में अधिक उग्र और आक्रोशित भाव-दशाओं में जीते हैं. इसी का नतीजा है वे अधिक प्रभावशाली तरीके से बगैर जज्बाती हुए फैसले ले सकते हैं. आदमी की दुनिया में बाहरी दुनिया की हलचलें और उनके परिणामों का बड़ा असर होता है, महिलाओं में यही घटना भीतरी दुनिया और संवेगों-आवेगों के उत्तेजकों, ऊतकों की वजह से एक डिसबैलेंस पैदा करने की स्थितियां बनी रहती हैं .

इनके कांसिक्वेंसेस मिलकर ही तय करते हैं कि मानदा जैसी औरत एक दोशीजा की ज़िन्दगीसे बाहरी मजबूत सुरक्षा कवच को, खोल को, आवरण को, तोड़कर औरत बनने की यात्रा में जब निकली तब कैसे वह वेश्या बनने की गुमनाम राह की ओर जा पहुंची और इन सबके बीच उसने अपने भीतरी इलाकों में औरत के होने उसके वुजूद की मजबूत पहाड़ियों को छुआ तो वह विदुषी होने की खिलती कोंपलों को दिलोदिमाग से, अपने लहू के कतरे कतरे से सींचा-रोंपती रही. कठिन हालातों, मुश्किलों से भरी अनगिनत ढलानों और ऊंचाइयों से होकर गुजरी मगर वह मजबूत इरादों के साथ औरत की अस्मिता को लेकर हर पल चिंतित रही.

औरत एक वेश्या के भीतरी खोल में कैसे जिंदा रह सकती है, कैसे बची रह सकती है, कैसे इंसानी पाकीज़ा इल्म्कारी का हिस्सा हो सकती है, कैसे पेशे में ईमान और जिस्म की तकलीफों के दरिया को पुरसुकूँ दे सकती है, कैसे सियाह दीवार-ओ-दर में रहकर इल्म की कशीदाकारी को सूझबूझ से कायम रख सकती है.

यह सब कुछ घटित होना कतई आसान तो नहीं हो सकता. ये यात्रा संकटों, संघर्षों, चुनौतियों की भरी पूरी दास्ताँ इसीलिए बनती चली गई, जहाँकोई एक सिद्धांत फिट नहीं बैठ सकता, किसी व्यावहारिक फार्मूले में वह कैद नहीं की जा सकती, कोई एक हासिल तो पाना काफी दुष्कर है,

इसी तरह रेयर जेनेटिक डिसऑर्डर की वजह से अगर किसी भौगोलिक दायरेमें पैदा होने वाली नस्लें अपना रूप-गुण बदल सकते हैं, जैसा कि ‘प्युबरती स्टेज’ में पहुँचते ही कैरेबिया के सेलिनास की संतानें अपने भीतर बदलाव महसूसती हैं तो यकीनन यह अचरज नहीं. इसी तरह से मनोविकृति के कारण पैदा हुए ‘मेंटल डिसऑर्डर’ से जो यौन कुंठाओं में जीता मर्दवादी समूह है-  खासकर जहाँ जवान और उम्रदराज़ मर्दवादी इलाके हैं, जहाँइंसानी तालीम के बजाय कुंठाओं को शांत करने की चाहत में ये कम्युनिटी औरतों को ‘सेक्स ट्वाय’ की तरह इस्तेमाल करते हैं. प्युबरती पीरियड ज्यूँ ही परवान चढ़ता है, यौन ग्रन्थियों की लिप्सा बुझाने की खातिर हर उम्र की औरतों के संग अपराध की फेहरिस्त बढ़ती जाती है. कुछ तो कानूनी कायदों में पागिरिफ्त रवायतों के साथ औरतों पर तरह-तरह से जुल्म ढाते हैं, अत्याचार करते हैं, जिस्मानी चोट करते हैं, कहर बरपाते हैं. ये कुंठाओं में जीती मानसिक विकृतियों में गुजर करती बीमार जमातें दुनिया को भला क्या देंगी? खूबसूरत और सेहतमंद माहोल तो हरगिज़ पैदा नहीं करेंगी.

किसी वेश्या को ऐसा किरदार निभाते हुए कोई गर यह देखे कि वह एक फनकार है, तो जाहिर है उसे दानिशमंद जीने न देंगे. खाकिश्तर (डस्टी) बना के ही छोड़ेंगे. फक़त ऐसे में उसे दरख्त-ए-ज़र्द से होकर तो गुजरना ही होगा. बे-निहायत की तमन्ना, कियामत की महबूबा होना ही होगा. यह कतई आसान तो हरगिज़ नहीं, वरना दुनिया की तमाम वेश्याओं ने अपनी तकलीफ की दास्तानें इबादत की बुर्ज़ तक पहुंचाने और दुनिया की पलस्तर लगी दीवारों पर दर्ज करने में कोई कसर न छोड़ी होती.

हर वेश्या को अपने-अपने किरदार निभाने के मौके और विकल्प कहाँ, कब, कैसे मिलेंगे? यह एक बड़ा सवाल है. मानदा ने वेश्या होकर भी बेहद कड़ाई से अपनी खामोशी को ठीक एल्विना रो की तरह ही भीतर बरसों तक कैसे छिपाए रखा होगा?

इसी सिलसिले में याद हो आई नंदिता दास की शॉर्ट फिल्म ‘बोल के लब आज़ाद हैं तेरे’ सन 2017 में रिलीज़ हुई, जिस पर बोलते हुए मंटो साफ़ करते हैं कि वेश्याएँ उनके लिहाज से क्यूँ लिखने के मामले में जरुरी विषय रहीं, वे पर्दानशीन खामियों के धागे खोलते नजर आ रहे हैं. वो कहते हैं, क्यों न लिखूं वेश्याओं के बारे में, क्यों वो हमारे माश्शरे (समाज) का हिस्सा नहीं हैं? उनके यहाँ मर्द नमाज या दुरुह पढ़ने तो नहीं जाते हैं, उन्हें वहां जाने की पूरी इजाजत है लेकिन हमें उनके बारे में लिखने की नहीं. क्यों नहीं?

वेश्या होकर नलिनी जमीला जब अपनी जुबानी लबालब तकलीफ की दर्दमंद झील को भीतर के दर्रों से बाहर की दुनिया में लेकर आई तब औरत होने की तकलीफ और जिन्दगी के हादसों की तहें खुली. वो कैसे ज़र्फ़ वाली हुई होगी यह तय करने में कि अपनी मासूम और नादान बच्चियों की भूख मिटाने की खातिर एक पेशे में दाखिल हुई जहाँइक वक्त में ही पचास रूपये से अधिक कमा सकती है, जिस्म का सौदा करके. वहीं दूसरी तरफ ये भी कहती है, वेश्यावृत्ति तबतक बढ़ेगी जबतक समाज में यौन उत्पीड़न हो और जब तक सेक्स में विविधता का आनंद लेने में रुचि हो।

वहीं इब्दिता-ए-इश्क से शुरू हुई रूमानी, फन्तासी दास्ताँ मानदा को कहाँ ले आई? गिरहों का खुलना और गिरह में दाम पाना इसे जुस्तजू कहें या मुस्तकिल (स्थायी) गम कहें. औरत के भीतर की गिरहें कैसे खुलेंगी और रुदाद (कथा) को कैसे हासिल होगी मंजिल, ये मुश्किल है समझ पाना. राज़ ए अलफ़ाज़ में जीकर जाना रवायत किसे कहते हैं और उल्फत की सजा क्या है? इक रवायत चली आई है, दिल्लगी से बेरुखी की. मगर देखें कैसे जिए कोई बिना गिरहों के खुली हवा में, परवाज़ पखेरू लेके. एक मता-ए-कूचा-ए-बाज़ार (गली और बाज़ार की चीज़) की जीनत बनके कोई कब तलक सहे दरिंदगी के अफ़साने.

भूले से मोहब्बत कर बैठा नादां था बेचारा दिल ही तो है।

            हर दिल से खता हो जाती है बिगड़ो ना खुदारा दिल ही तो है.             ये दुनिया जो मानदा की है यानी एक ‘औरत’ के बाहर की दुनिया, एक ‘वेश्या’ औरत के सीकचों के बाहर की दुनिया, एक ‘विदुषी’ जनाना के बाहर की दुनिया है, जिसमें वह सांस लेती, जीती है, सोचती है, विरोध जताती है, गिरामी है, मर्दवादी और सामन्ती ख्यालों-उसूलों को नकारती है. उसी मानदा के भीतर एक जवाँ, शोख, हसीन ‘दोशीजा’ तमाम हालातों के बीच औरत होने की तरफ बढ़ती है. बचपना बिताती शरारत से भरी, खानदान की चहेती लड़की है, जिसे तरह-तरह की किताबें, रिसाले, शायरी, नज्में, दास्तान, पढ़ने का शौक है. उसके घर में एक जवान शिक्षक है जो उसके भीतर पल रही संवेदनाओं, संभावनाओं को लेकर चिंतित है. मानदा अपनी ख्वाहिशें किससे कहे? सो उसे दोस्त, सखा, गुरु, इल्मकार दास्तानगो मिले. जिनके संग वो घर के भीतर बाहर सुकून, हिफाजत और आज़ादी महसूस करती है. मनहूसियत और अवसाद से परे खुली हवा में उड़ने को बेताब है. पिता दूसरी शादी की वजह से नई नवेली दुल्ह्न के संग मुतमईन हैं. गाड़ी है, बंगला है, नौकर-चाकर हैं, फिर भी एक घुटन, एक अकेलापन, एक बेचैनी पल रही है मानदा के भीतर. वह उम्र की सबसे उद्दाम उमंगों वाली, उत्तेजक आवेग-संवेगों, उन्मुक्त राहों की ओर कदम बढाये बह निकली है. ऐसे में उसे हर पल इक साझीदार, एक पार्टनर मिले, एक संगी, एक हमराह, उसकीबात करने सुनने वाला हो और सलाह देने वाला हो. मगर कौन उसे इस उम्र में हमसाया बने, संग-संग परवाज़ को राज़ी हो? दुलार जो पिता से नहीं मिल सका. माँ, जो उसे इस जहान में लाई वह कूच कर गई. मानदा के वक्त की सुइयों के साथ साथ हम-नशीं शायद कोई नहीं. समय-चक्र में साथ-साथ सोचने, समझने और मानसिक हालत में प्रमोट करने वाला एक इंसान इक हम-नफ़स (दोस्त) चाहिए, जोकि उसे अपने गुरु और अपने सखा और बड़े भाई रमेश दा में दिखा. यहाँ से ज़िन्दगीनई नई घुमावदार और मुश्किल यात्राओं की ओर गई. एक सहरा-ब-सहरा साथ चलता रहा. वो कहे भी क्या, सहरा-जादों ने उसे नहीं बख्शा? ये ज़हर जो दिमागों में तकसीम के बोया गया. उसे उधेड़ना, खोलना, खुलेआम जिरह-मुबाहिश करना बेहद जरुरी हो गया है. मानदा के अल्फाज को कोई तो जगह मिले.

जो है इक नंगहस्ती* उसको तुम क्या जान भी लोगे
अगर तुम देख लो मुझको तो क्या पहचान भी लोगे
(* जिसका जीवन लज्जा का कारण हो.)

क्रमशः
मुन्नी गुप्ता, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय, कोलकाता-700073

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ISSN 2394-093X
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