गांधी के ब्रह्मचर्य-प्रयोग की क्रूरता

अरुंधति राय/ अनुवाद: अनिल यादव ‘जयहिंद’, रतनलाल

यह हिस्सा राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित अरुंधति रॉय की किताब ‘ एक था डॉक्टर, एक था संत’ से लिया गया है. इसका अनुवाद अनिल यादव ‘जयहिंद’ और रतनलाल ने किया है.

जब गांधी टॉलस्टॉय फार्म में गरीबी के क्रिया-कलापों की अदाकारी कर रहे थे, इसे विडम्बना ही कहेंगे कि तब वो चन्द हाथों में धन-पूंजी के एकत्रीकरण के खिलाफ या धन-सम्पत्ति के असमान बंटवारे के ऊपर प्रश्न नहीं खड़ा कर रहे थे। भारतीय इंडेंचर्ड बंधुआ मजदूरों को बेहतर काम-काज की सुविधाएं मिलें, और उन लोगों को उनकी जमीन वापस मिले, जिनसे जबरन छीन ली गई थी। ऐसे ज्वलन्त प्रश्नों पर भी वे कुछ नहीं कर रहे थे, न कोई सवाल खड़ा कर रहे थे। अलबत्ता, वे भारतीय व्यापारियों के हक की लड़ाई जरूर लड़ रहे थे कि कैसे वे अपने कारोबार का विस्तार ट्रांसवाल में कर सकें और ब्रिटिश व्यापारियों का मुकाबला कर सकें।

गांधी से हजारों वर्ष पहले से लेकर आज तक, हिन्दू ऋषियों-योगियों ने गांधी से कहीं ज्यादा कठिन त्याग के करतबों का अभ्यास किया है। परन्तु उन्होंने यह कठोर तप आमतौर पर दुनिया की नजरों से दूर, बियाबान पर्वतों की बर्फीली चोटियों पर किए, खड़ी चट्टान वाले पहाड़ों की गगन-छूती गुफाओं-कंदराओं में किए, जहां जिस्म की हड्डियों को चटका देने वाली सर्द आंधियां हर पल धड़धड़ाती हैं। गांधी की निपुणता इस बात में थी कि उन्होंने इस मोक्ष की पारलौकिक खोज को सांसारिक, सियासी मकसद से जोड़ दिया ओर दोनों के सम्मिश्रण को एक फ्यूजन नृत्य की तरह-दर्शकों के सामने जीवन-नाट्यशाला में पेश कर दिया। बीतते वर्षों में उन्होंने अपने विस्तारित होते प्रयोगों में अपनी पत्नी तथा अन्य लोगों को भी शामिल कर लिया, उनमें से कुछ तो इतनी कम आयु के थे कि शायद उन्हें इस बात की समझ भी नहीं रही होगी कि आखिर उनके साथ क्या किया जा रहा है। अपने जीवन के अन्तिम दौर में, जब गांधी सत्तर वर्ष से अधिक आयु के बूढ़े थे, उन्होंने दो कम उम्र युवतियों के साथ सोना शुरू कर दिया, मनु, सत्रह वर्षीय पौत्री और आभरा (ये दोनों युवतियां गांधी की ‘बैसाखी’ भी कहलाती थीं)। गांधी का कहना यह था कि वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि वे अपनी काम-इच्छाओं को पराजितज करने में किस हद तक सफल या असफल रहे हैं, इसका सही आकलन कर सकें। सहमति और औचित्य के अति विवादास्पद और चिन्तित करने वाले मुद्दों को यदि छोड़ भी दिया जाए, बालिकाओं के मन-मस्तिष्क पर उसका क्या प्रभाव पड़ा होगा, यदि इसे भी छोड़ दिया जाए तो भी-प्रयोग एक और भयानक व चिन्ताजनक प्रश्न खड़ा करते हैं। गांधी का दो (या तीन या चार) स्त्रियों के साथ एक ही बिस्तर पर सोना और उन प्रयोगों के निष्कर्षों के आधार पर मूल्यांकन करके इस परिणाम पर पहुंचना कि गांधी ने अपनी विषय-लिंग काम-इच्छाओं पर काबू पा लिया है या नहीं, इससे यह साफ जाहिर होता है कि वे महिलाओं को एक विशिष्ट व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक श्रेणी या वर्ग के रूप में देखते थे। इसीलिए उनके लिए ये दो-तीन-चार जिस्मानी नमूने, जिनमें उनकी अपनी पौत्री भी शामिल थी, एक पूरी महिला प्रजाति का प्रतिनिधित्व करते थे।

गांधी ने टॉलस्टॉय फार्म में किए गए प्रयोगों के विषय में विस्तार से लिखा था। एक अवसर का उन्होंने वर्णन किया है कि एक बार वे किस प्रकार चारों ओर से लड़के-लड़कियों से घिरकर सोये। ‘‘इस बात का खास ख्याल रखते हुए कि बिस्तरों को बिछाने की व्यवस्था ठीक प्रकार से हो,’’ लेकिन भलीभांति जानते हुए कि ‘‘इस प्रकार की कोई भी सावधानी किसी दुष्ट मानसिकता वाले के लिए व्यर्थ ही साबित होगी।’’ और फिर एक बार :

मैंने उन लड़कों को जो शरारती माने जाते थे और मासूम युवतियों को, स्नान करने के लिए एक ही समय पर, एक ही स्थान पर भेज दिया। मैंने उन बच्चों को आत्म-संयम के कर्तव्य के विषय में पूरी तरह से समझा दिया था, वे सभी सत्याग्रह के सिद्धान्तों से पहले से ही परिचित थे। मैं जानता था और बच्चे भी जानते थे कि मैं उन्हें एक मां की तरह प्यार करता हूं… क्या यह एक मूर्खता थी, बच्चों को इस तरह स्नान के लिए मिलने देना और फिर भी उनसे उम्मीद करना कि वे अपनी मासूमियत बरकरार रखेंगे?

गड़बड़ी, जिसकी गांधी उम्मीद कर रहे थे-असल में जिसके लिए उत्सुक थे-एक मां का पूर्वाभास जो उन्हें था-आखिर हो ही गई :

एक दिन, युवाओं में से एक ने दो लड़कियों का मजाक उड़ाया, और लड़कियों ने स्वयं या किसी बच्चे ने मुझे तक यह जानकारी पहुंचा दी। खबर ने मुझे झकझोर दिया। मैंने पूछताछ की और पाया की रिपोर्ट सही थी। मैंने युवाओं को समझाया-बुझाया, लेकिन यह तो नाकाफी था। मैंने सोचा कि दोनों लड़कियों पर कुछ ऐसा निशान या चिन्ह होना चाहिए, प्रत्येक नौजवान के लिए एक चेतावनी के रूप में, ताकि उनके ऊपर कोई बुरी नजर डाल ही न सके, और हर लड़की के लिए यह सबक हो कि उनकी पवित्रता पर हमला करने का कोई भी साहस नहीं कर सकता। कामुक रावण, सीता को बुरी नीयत से छू भी नहीं पाया था, जबकि राम हमारों मील दूर थे। लड़कियों पर ऐसा कौन-सा निशान हो ताकि उनको सुरक्षा का अहसास हो, तथा साथ-साथ पापी की नजरें भी निर्मल हो जाएं। इस प्रश्न ने मुझे सारी रात बेचैनी से जगाए रखा।

सुबह तक, गांधी अपना फैसला ले चुके थे। उन्होंने ‘‘बहुत ही शालीनता से लड़कियों को सुझाया कि वे उनको अपने लम्बे रेशमी बाल काटने दें। शुरू में लड़कियों ने हिचकिचाहट दिखाई। गांधी ने दबाव बनाए रखा और फार्म की बुजुर्ग महिलाओं को अपने साथ जोड़ने में कामयाब हो गए। आखिरकार लड़कियां मान ही गईं, और तत्काल इन्हीं हाथों ने जो इस घटना का वर्णन कर रहे हैं, लड़कियों के बाल काट दिए। और बाद में अपनी कक्षा में, उत्कृष्ट परिणामों सहित, इसका विश्लेषण किया और इसकी प्रक्रिया को समझाया। इसके बाद मैंने कभी नहीं सुना कि किसी लड़के ने किसी लड़की का मजाक उड़ाया हो।’’

इस बात का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता कि जिस बुद्धि ने लड़कियों के बाल काट देने के विचार उत्पन्न किया, उसी बुद्धि ने लड़कों को क्या दंड दिया।

इसमें कोई शक नहीं कि गांधी ने राष्ट्रीय आन्दोलन में महिलाओं के लिए जगह बनाई। लेकिन उन महिलाओं का सदाचारी होना नितान्त आवश्यक था; उनको खुद पर, यदि ऐसा कहा जाए तो, ‘निशान’ लगाना था जो ‘पानी की नजरों को निर्मल’ कर दे। उन महिलाओं का ऐसी आज्ञाकारी भी होना जरूरी था जो पितृसत्ता की पारम्परिक संरचनाओं को कभी चुनौती दें।

गांधी ने शायद अपने ‘प्रयोगों’ में खूब आनन्द उठाया हो और बहुत कुछ सीखा हो। लेकिन आज वे नहीं हैं, और अपने अनुयायियों के लिए एक ऐसी विरासत छोड़ गए हैं, जो आनन्द-रहित है, जिसमें कोई हंसी-ठिठोली नहीं है, कोई ख्वाहिश नहीं, कोई आरजू नहीं, कोई सेक्स नहीं-सेक्स, जिसे उन्होंने एक ऐसा जहर बताया, जो सांप के काटे से भी ज्यादा बुरा था-कोई खान-पान नहीं, कोई मनकों वाली माला नहीं, कोई मोहक वस्त्र नहीं, कोई नाचना-गाना नहीं, कोई कविता नहीं। और बहुत थोड़ा-सा संगीत है। यह सच है कि गांधी करोड़ों लोगों के दिलो-दिमाग पर छाए रहे, लेकिन यह भी सत्य है कि उन्होंने करोड़ों लोगों की राजनीतिक कल्पनाशक्ति को कमजोर कर दिया, अपने असम्भव ‘शुद्धता’ और सदाचार के मानकों को, राजनीति से जुड़ने की न्यूनतम योग्यता बनाकर :

ब्रह्मचर्य सबसे महान अनुशासनों में से एक है, जिसके बिना मन में आवश्यक दृढ़ता प्राप्त नहीं हो सकती। एक व्यक्ति जो अपना दमखम खो देता है, नपुंसक और कायर हो जाता है… कई सवाल उठते हैं : तब अपनी पत्नी के साथ कैसे रहना है? फिर भी, जो लोग महान कार्यों में भाग लेना चाहते हैं, उन्हें इन पहेलियों का हल ढूंढ़ना ही होगा।

ऐसा कोई सवाल पत्नी के लिए नहीं उठा कि उसे अपने पति के साथ कैसे रहना है। न ही कोई विचार इस पर आया कि सत्याग्रह कैसे प्रभावी होगा, उदाहरण के लिए वैवाहिक बलात्कार की पुरातन परम्परा के खिलाफ।

बुकर सम्मान से सम्मानित अरुंधति राय विश्वप्रसिद्ध लेखिका और चिंतक हैं. अनिल यादव सोशल एक्टिविस्ट एवं रतन लाल हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक हैं.

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ISSN 2394-093X
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