वर्जिन : जयप्रकाश कर्दम की कहानी (पहली क़िस्त)

रोज़ की तरह अशोक अपना स्कूल बैग उठकर घर से निकला और सुनीता के घर के बाहर आकर उसे आवाज़ दी, ‘सुनीता।’
हर रोज़ अशोक की आवाज़ सुनते ही सुनीता ‘आ रही हूँ’ कहती हुई अपना स्कूल बैग लेकर घर से बाहर निकल आती थी। लेकिन उस दिन अशोक की आवाज़ सुनकर घर के अंदर से न सुनीता बाहर आयी और न उसकी आवाज़। अशोक को लगा कि शायद सुनीता उसकी आवाज़ सुन नहीं पायी है। उसने फिर से आवाज़ लगायी, ‘सुनीता, जल्दी आओ, नहीं तो स्कूल को देर हो जाएगी।’
इस बार भी उसकी आवाज़ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो यह सोचकर कि शायद सुनीता अभी तैयार नहीं हुई है, वह उसकी प्रतीक्षा करने लगा। किंतु, कई मिनट के बाद भी सुनीता बाहर नहीं आयी तो उसे कुछ विचित्र सा लगा। ‘आज क्या हो गया है सुनीता को? ऐसा तो  कभी होता नहीं है। वह तो हमेशा पहले से ही तैयार रहती है और उसकी एक आवाज़ पर ही घर से बाहर निकल आती है। फिर आज क्यों बाहर नहीं आयी है वह अभी तक, और ना कुछ बता ही रही है कि उसे कितना समय और लगेगा तैयार होने में।’ इस बार उसने थोड़े ऊंचे स्वर में आवाज़ लगायी, ‘सुनीता, अरे भाई सो रही हो क्या अभी। क्या स्कूल नहीं जाना है आज?’

लाल रत्नाकर की पेंटिंग

इस बार उसकी आवाज़ पर प्रतिक्रिया हुई और सुनीता घर के अंदर से बाहर आयी। लेकिन वह बिना स्कूल ड्रेस के थी, घर के कपड़ों में ही। चेहरे से भी वह कुछ बुझी-बुझी और उदास लग रही थी। उसे इस तरह देख अशोक को कुछ आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, ‘क्या हुआ है तुम्हें? आज स्कूल नहीं जाओगी क्या?’
‘नहीं अशोक, में स्कूल नहीं जाऊँगी।’ उसका स्वर उदासी में डूबा हुआ था।
अशोक ने उसके चेहरे के बुझेपन और उदासी को पढ़ने की कोशिश करते हुए पूछा’ ‘क्यों? क्या हुआ? तबीयत ठीक नहीं है क्या?’
‘ऐसा ही समझ लो।’ उसके इस प्रश्न के जवाब में सुनीता से अनमनेपन के स्वर में कहा।

अशोक को आज सुनीता का व्यवहार एक पहेली सा लग रहा था। यूँ परेशान और दुखी तो वह पिछले काफ़ी दिन से थी और अशोक उसके दुःख और परेशानी को जानता-समझता भी था। लेकिन आज वह मानसिक रूप से कुछ अधिक ही परेशान दिखायी दे रही थी। उसकी इस परेशानी को समझने की कोशिश करते हुए वह बोला, ’यह समझ लो क्या होता है। तबीयत ठीक नहीं है तो स्पष्ट बताओ ना क्या हुआ है?’
अशोक का इस तरह अधिकारपूर्वक पूछना सुनीता को अच्छा लगा, किंतु अपने मन का असमंजस व्यक्त करते हुए वह केवल इतना कह पायी, ‘क्या बताऊँ?’
सुनीता के चहरे पर छायी उदासी और रूखेपन से अशोक को यह आभास हो गया था कि सुनीता किसी न किसी गहरी उलझन की शिकार है। वह बोला, ‘कुछ तो है। जो भी है वह बताओ। कुछ ज़्यादा ही परेशान लग रही हो। क्या बात है? आंटी की तबीयत तो ठीक है?’
‘उनकी तबीयत तो ठीक है।’
‘फिर क्या बात है?’
‘मैं बहुत बड़े तनाव और उलझन में हूँ अशोक।’
‘किस बात की उलझन है तुम्हें? ऐं?’ अशोक ने उसके चेहरे पर अपनी आँखें टिकाते हुए गम्भीरता से पूछा
‘अभी तुम स्कूल चले जाओ, नहीं तो तुमको देर हो जाएगी। स्कूल से लौटते हुए आ जाना तब बात करेंगे।’ इतना कहकर सुनीता ने बात को टालने की कोशिश की
‘सुनीता मैं तुम्हारा दोस्त हूँ। मुझसे भी अपने मन की उलझन छिपाओगी तो किसको बताओगी? और बताओगी नहीं तो उस उलझन से कैसे बाहर आओगी?
‘तुमको यह कहने की आवश्यकता नहीं है अशोक कि तुम मेरे दोस्त हो। दोस्त ही नहीं, तुम मेरे बहुत अच्छे दोस्त हो। इतना सपोर्ट करते हो तुम मुझे, तुमको नहीं बताऊँजी तो किसको बताउँगी। तुम्हारे अलावा दूर-दूर तक और कोई नहीं है जिससे मैं अपने मन की बात कह सकूँ।’

तो बताओ न क्या बात है? किस परेशानी में डूबी हो तुम
‘बताउँगी, सब कुछ बताउँगी। पहले तुम स्कूल से तो हो आओ
‘नहीं, मैं भी स्कूल नहीं जा रहा हूँ आज।’
‘क्यों? तुम क्यों नहीं जाओगे स्कूल?‘
‘बस यूँ ही।’

‘तुम जानते हो अशोक कि पढ़ाई हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है। तुम यह मानते और कहते भी हो कि हमारी ज़िन्दगी की बेहतरी के रास्ते शिक्षा से ही खुलने हैं। एक दिन भी स्कूल नहीं जाने का मतलब है एक दिन की शिक्षा से वंचित रहना। एक दिन की शिक्षा भी हमें ज़िन्दगी की दौड़ में पीछे कर सकती है। इसलिए जो भी बात करनी है, वह हम बाद में कर लेंगे। मैं स्कूल नहीं जा पा रही हूँ लेकिन तुम तो स्कूल जाओ।’

‘मैं भी तो तुमसे वही कह रहा हूँ। मेरे लिए ही नहीं तुम्हारे लिए भी पढ़ाई उतनी ही ज़रूरी है। यदि किसी परेशानी के कारण तुम भी एक दिन भी स्कूल नहीं जाओगी तो ज़िंदगी की दौड़ में तुम भी उतनी ही पिछड़ जाओगी। ……….तुम जिस परेशानी के कारण आज स्कूल नहीं जा रही हो, क्या वह परेशानी केवल आज की ही है? और कल तुम स्कूल जाओगी?’

‘नहीं, यह समस्या एक दिन की नहीं हैं। और जिस तरह की समस्या में उलझी हूँ उसे देखते हुए मैं कब और कैसे स्कूल जा पाऊँगी, और कभी जा भी पाऊँगी या नहीं, इस बारे में में कुछ नहीं कह सकती।’ सुनीता के शब्दों में उसकी विवशता का दर्द साफ़ झलक रहा था।

अशोक ने उसके दर्द को महसूस किया और उसके दर्द के साथ जुड़ते हुए बोला, ‘मैं एक दिन स्कूल नहीं जाऊँगा तो मेरी पढ़ाई पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा, लेकिन तुम परेशान बनी रही और इस कारण स्कूल नहीं जा पायी तो तुम्हारा बहुत अधिक नुक़सान होगा।’
‘हाँ, यह तो है………।’ सुनीता ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा।

 ‘जब तक तुम्हारी परेशानी का पता नहीं चल जाएगा मेरा मन भी परेशान रहेगा और इस स्थिति में स्कूल चला भी जाऊँ तो मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगेगा। इसलिए मैं सोचता हूँ कि आज मैं भी स्कूल नहीं जाऊँ और तुम्हारे साथ बैठकर तुम्हारी समस्या पर विचार करें और उसका कोई उचित समाधान खोजने की कोशिश करें। क्यों? ठीक है ना?’ इतना कहते हुए उसने प्रश्नसूचक दृष्टि से सुनीता की ओर देखा।

     सुनीता जिस उलझन और तनाव से गुज़र रही थी, उससे उबरने के लिए उसे भी मानसिक सपोर्ट की बहुत ज़रूरत थी। वह भी चाहती थी कि कोई हो जिसके साथ बैठकर वह अपने मन की परेशानी को बाँट सके और तनाव से कुछ मुक्त हो सके। स्कूल न जाकर उसके साथ बैठकर समय व्यतीत करने के अशोक के आत्मीय निर्णय पर सुनीता मौन रह गयी थी। बिना कुछ बोले अशोक को आने का संकेत करते हुए वह घर के अंदर हो गयी। अशोक भी उसके पीछे-पीछे उसके घर के अंदर प्रवेश कर गया।

     घर के नाम पर वह टीन की छत का एक कमरा था, जिसमें एक ओर चूल्हा और गैस का सिलिंडर रखा था। वहीं पर कुछ बर्तन, आटे का कनस्तर और कुछ डिब्बे रखे थे, जिनमें दाल, चावल और मसाले आदि रखे थे। दूसरी ओर दीवार के साथ एक तख़्त बिछा था जिस पर रूई के गद्दे पर सुनीता की मां लेटी थी। कमरे के बीचों बीच एक रस्सी पर परदा डालकर उसे दो भागों में बाँटा हुआ था। परदे के दूसरी ओर का भाग सुनीता और उसके छोटे भाई संजय के पढ़ने और सोने की जगह थी। जगह बहुत कम थी किंतु किसी तरह दोनों की किताबें और कपड़े रखने के बाद उनके सोने के लिए जगह बनायी हुई थी। संजय स्कूल गया हुआ था।

     घर के अंदर प्रवेश करते ही सुनीता ने माँ से अशोक का परिचय कराया, ‘माँ, ये अशोक है। मेरा स्कूल का सहपाठी और दोस्त। ये ही रोज़ मुझे अपने साथ स्कूल लेकर जाता है।’

     अशोक ने दोनों हाथ जोड़कर उनको अभिवादन करते हुए कहा, ‘नमस्ते आंटी।
‘नमस्ते बेटा!…..जीते रहो| खूब पढ़ो| ख़ूब लम्बी उमर मिलै। खूब तरक्की करो तुम|’ यह कहते हुए उन्होंने स्नेह और वात्सल्यपूर्ण दृष्टि से अशोक की ओर देखा और बिस्तर से उठकर बैठने की कोशिश की| किन्तु कमजोरी और दर्द के कारण वह उठ नहीं सकी। उठने की कोशिश में उनको बहुत पीड़ा हुई और उनके मुँह से एक कराह निकली। सुनीता ने अपने हाथों का सहारा देकर उनको बैठाया। अशोक करुणा और सहानुभूति से उनको देख रहा था। मां की कमर के पीछे तकिया लगाते हुए सुनीता ने अशोक को बताया, ‘मां को उठने-बैठने में तकलीफ होती है| अपने आप वह उठ-बैठ नहीं पाती हैं। उनको उठाना-बैठाना पड़ता है।’

      ‘जब तुम्हारा भाई और तुम दोनों स्कूल चले जाते हो तब बाद में कौन उठाता-बैठाता है उनको?’ अशोक ने जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा।

      सुनीता ने उसकी जिज्ञासा को शांत करते हुए बताया, ’मैं स्कूल जाने से पहले मां के हाथ-मुँह धुलवाकर और उनको नास्ता-पानी देकर जाती हूँ। जब तक हम स्कूल से आते हैं वह बिस्तर पर ही लेटी रहती हैं। स्कूल से आने पर उनको बैठाते हैं।’

      सुनीता के इन शब्दों से अशोक के मन की जिज्ञासा पूरी तरह शांत नहीं हुई थी। उसके जिज्ञासु मन में दूसरा प्रश्न उभरा, ‘लेकिन टोयलेट जाने की आवश्यकता पड़े तो कैसे जाती होंगी वह?’

      सुनीता ने बताया, ‘सुबह को मैं उनको टायलेट करवाकर जाती हूं। स्कूल से आते ही सबसे पहले उनको टायलेट ले जाती हूं। इस तरह से मैनेज हो जाता है।’

      ‘लेकिन इसमें तो कई घंटे हो जाते हैं। इतनी देर में तो प्यास भी लगती होगी उनको और पेशाब भी आता होगा। हम-तुम लोग भी तो स्कूल में एकाध बार चले ही जाते हैं टायलेट। आंटी कैसे करती होंगी? उनको तो बहुत दिक़्क़त होती होगी?’

      ‘मैं उनको चाय-नास्ता और दवाई देकर जाती हूँ। वैसे तो दवाई के नशे में ही लगभग दोपहर तक वह सोयी रहती हैं। लेकिन फिर भी उनको नींद नहीं आए या पेशाब की दिक़्क़त होती है तो मम्मी को-ओपरेट करती हैं।’

      ‘को-ओपरेट?’ अशोक को यह सुनकर आश्चर्य हुआ। वह अपना आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोला, ‘कैसे को-ओपरेट करती हैं वह?’

     ‘उनको कितना भी ज़ोर से प्रेसर आए, हमारे स्कूल से आने तक वह कंट्रोल किए रहती हैं।’ सुनीता ने स्पष्ट करते हुए कहा।

     ‘लेकिन यह भी तो बहुत सही नहीं है हेल्थ के लिए। ऐसा करने से भी कभी-कभी बीमारियाँ हो जाती हैं।’ अशोक ने स्वास्थ्य के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कहा। 

      ‘हाँ, यह बात तो है। लेकिन ऐसा नहीं करें तो करें क्या? और कोई विकल्प भी तो नहीं है।’ सुनीता अपनी विवशता समझाते हुए बोली। उसने आगे बताया, ‘हाँ, एक बात का ध्यान हम ज़रूर रखते हैं कि सुबह के समय मां को बहुत कम पानी पिलाते हैं ताकि मेरे स्कूल से आने तक उनको टायलेट की कोई समस्या नहींहो। और स्कूल से आने पर सबसे पहले मैं उनको टायलेट ही करवाती हूँ।उसके बाद कुछ और करती हूँ।’

      सुनीता के लिए यह उसकी दिनचर्या का हिस्सा था। वह सहज रूप से यह सब बता रही थी। लेकिन अशोक को उसकी बातें सुनकर सुखद आश्चर्य हो रहा था। वह सुनीता की ओर देखते हुए बोला, ‘कितना मुश्किल है यह सब। ……. स्कूल जाना, घर का सारा काम करना और मां की देखभाल ….। इतने सारे काम। कैसे कर लेती हो तुम यह सब?’

      ‘करना पड़ता है अशोक। कोई और करने वाला नहीं है ना। …….मजबूरी सब करना सिखा देती है और सब कुछ करने की ताक़त दे देती है।’ यह कहते हुए उसने मां के बिस्तर के पास में रखे लकड़ी के स्टूल को एक कपड़े से साफ़ किया और अशोक को उस पर बैठने का संकेत करते हुए बोली, ‘बैठो, मैं तुम्हारे लिए चाय बनाती हूँ। फिर तसल्ली से बैठकर बात करेंगे।’

     स्टोव पर चाय का पानी रखने के बाद सुनीता, अशोक के बैठने के लिए जगह बनाने में लग गयी। जब तक चाय का पानी गरम हुआ उसने कपड़े, किताबें आदि ठीक से व्यवस्थित करके अशोक को बैठने के लिए जगह बना दी और चाय के पानी में चीनी डालते हुए अशोक से पूछा, ‘कितनी चीनी लोगे अशोक, हल्की या चखार?।

‘ज़्यादा नहीं, नॉर्मल ही।’
‘ओ के।’

अपने दोनों हाथ बिस्तर पर टिका कर उनके सहारे दीवार से कमर लगाकर बैठने की कोशिश करते हुए सुनीता की मां ने अशोक की ओर देखा और बोली, ‘कैसे हो बेटा? तुम्हारे मम्मी-पापा कैसे हैं

‘अच्छे हैं आंटी।’
‘सुनीता तुम्हारी बहुत तारीफ़ करती है। जिस तरह आजकल का माहौल ख़राब है, उसमें लड़कियों का अकेले घर से निकलना दूभर है। जहाँ देखो वहाँ, गली-मौहल्लों में, चौराहों पर, सब जगह आवारा लड़कों के झुंड दिखायी देते हैं। छुट्टे साँड़ से घूमते ये लुच्चे-लफ़ंगेआती—जाती लड़कियों को गंदी नज़र से देखते हैं और छेड़ते हैं, लड़कियों का जीना हराम किए रहते हैं। लड़की देखने में थोड़ी ठीक-ठाक हो तो और ज़्यादा मुसीबत है। इस माहौल को देखकर मेरा तो मन नहीं करता कि सुनीता घर से बाहर क़दम भी रखे। बिना पढ़े रह ले वो ठीक है, कोई दाग़ लग गया तो जनम ख़राब हो जाएगा। ……बेटा तुम रोज़ स्कूल उसके साथ चले जाते हो और साथ में आ आते हो तो उससे बड़ा सहारा मिलता है, नहीं तो मैं यह सोचकर ही काँप जाती हूँ कि सुनीता को अकेले ही स्कूल जाना पड़े तो कैसे करेगी वह? जब तक यह सही-सलामत घर नहीं लौट आती है, मन में हमेशा डर बना रहता है कि कहीं कुछ ऐसा-वैसा ना हो जाए।’ यह कहते हुए उनके चेहरे पर चिंता की मोटी-मोटी रेखाएँ उभर आयी थीं।

सुनीता की मां ने जो कुछ भी कहा था अशोक उसकी सच्चाई से अच्छी तरह परिचित था। वह स्वयं रोज़ अपनी आँखों से आवारा लड़कों को, लड़कियों को छेड़ते और उन पर भद्दी और अश्लील टिप्पणियाँ करते देखता था। उनकी इन हरकतों का कोई विरोध करे तो मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। सुनीता के साथ उसे जाते देखकर कई लड़के उस पर भी तरह-तरह की टिप्पणी करते थे। पहले उसे ‘सुनीता का बोडी-गार्ड’ कहकर चिड़ाने की कोशिश की जाती थी। लेकिन वह उनकी बातों पर ध्यान न देकर और बिना उनकी ओर देखे चुपचाप निकल जाता था। उसके हम-उम्र लड़के ‘साले ने क्या पटाखा लड़की पर हाथ मारा है’ कहकर उस पर व्यंग्य करते थे तो बड़ी उम्र के लड़के डराने-धमकाने के अन्दाज़ में बात करते थे। एक दिन शाम को वह किसी काम से कहीं जा रहा था कि गली के कोने पर दो-तीन आवारा क़िस्म के लड़कों ने अकेले में उसको रोक लिया। एक लड़के ने उससे पूछा, ‘क्यों बे, क्या लगती है वो तेरी?’

 उसके कहने के अन्दाज़ से अशोक को यह समझने में देर नहीं लगी कि उसके कहने का आशय क्या है। किंतु, वह अनभिज्ञता प्रकट करता हुआ बोला, ‘कौन? किसकी बात कर रहे हैं आप?’

‘ज़्यादा भोला मत बन। रोज़ जिसके साथ चिपक कर स्कूल जाता है उसकी ही बात कर रहे हैं। अब समझा?’ इस बार दूसरा लड़का बोला था।
‘तो सुनीता की बात कर रहे हो तुम लोग?
‘हाँ, उस की ही बात कर रहे हैं।
‘मेरी कुछ नहीं लगती है वह
‘कुछ नहीं लगती है तो क्यों उसके साथ चिपका फिरता है तू?’

‘हम दोनों एक स्कूल में और एक ही क्लास में पढ़ते हैं और इस कारण स्कूल भी एक साथ चले जाते हैं हम। इसमें चिपकने की कौन सी बात है।’

‘अच्छा, तो यह कोई बात नहीं है?’ उसने लगभग घूरते हुए अशोक की आँखों में अपनी आँखें गड़ाते हुए प्रश्न करते हुए कहा
‘नहीं, मुझे नहीं लगता कि इसमें कुछ भी ग़लत है।’ अशोक ने पूर्ववत उसी सहजता से उसके प्रश्न के जवाब में कहा।

       अशोक की बात को सुना-अनसुना कर तीसरे लड़के ने अपने एक हाथ से उसके मुँह को दबाते हुए धमकी भरे स्वर में कहा, ’ओए, यह सही ग़लत मत सिखा हमें। बस, उस लड़की से दूर रह तू। …..और याद रख वह हमारा माल है। तेरे कारण वह हमारी बात नहीं सुन रही है। पर देखते हैं कब तक नहीं सुनती है। सुननी तो पड़ेगी उसे हमारी बात। राज़ी से सुनेगी तो राज़ी से नहीं तो ग़ैर-राज़ी सुनेगी। तू रास्ते से अलग हट जा, नहीं तो उसके साथ-साथ तेरा भी……., समझ रहा है ना ?……’

       उन लड़कों की बातों के तेवर से अशोक को यह आभास हो गया था कि आने वाला समय सुनीता के लिए बहुत अच्छा नहीं है। उसके साथ कुछ भी हो सकता है। और यदि वह इसी तरह सुनीता के साथ स्कूल जाता रहा तो वह भी चपेट में आए बिना नहीं रहेगा। कई दिन वह इस बात को लेकर परेशान रहा और सोचता रहा कि वह क्या करे और क्या नहीं करे। पहले उसने सोचा ‘ये आवारा लड़के हैं। आए दिन किसी न किसी के साथ मार-पीट करते रहते हैं। यदि मैंने सुनीता के साथ स्कूल जाना नहीं छोड़ा तो ये लोग मेरे साथ भी मार-पीट कर सकते हैं। वे हिंसक और लड़ाके हैं। उनका मुक़ाबला मैं नहीं कर सकता।’ लेकिन सुनीता का ख़याल आया तो वह सोचने लगा ‘इस स्थिति में सुनीता का साथ छोड़ना भी उचित नहीं है। ….. तब क्या करूं?’ इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए अंतत: उसे एक उपाय सूझा। अगले दिन मिलते ही उसने सबसे पहले सुनीता को सम्भावित ख़तरे के प्रति आगाह किया, ‘तुम संभल कर रहा करो। स्कूल से आने के बाद भी घर से बाहर अकेले कहीं मत जाया करो।’

       ‘तुम्हारी बात तो ठीक है। स्कूल आते-जाते तो लड़के जो छींटाकशी करते हैं सो करते हैं, स्कूल के बाद किसी काम से घर से बाहर निकलना पड़ जाए तो लोग मुँह से लार टपकाते हुए ऐसे घूर-घूर कर देखते हैं कि वहाँ से गुज़रना मुश्किल पड़ जाता है। अशोक, मैं रोज़ अपने ऊपर उठती बहुत सी नज़रों को देखती हूँ और उन नज़रों की भाषा को भी अच्छी तरह समझती हूँ। इसलिए स्कूल से आने के बाद जब तक बहुत ज़रूरी नहीं हो, मैं अब घर से बाहर नहीं निकलती हूँ। घर का सामान लाने के लिए बाज़ार भी मैं आस-पड़ौस की किसी न किसी आंटी के साथ जाती हूँ और महीने भर का राशन और सब ज़रूरी सामान एक बार ही ले आती हूँ। लेकिन छोटी-मोटी कोई चीज़ लाने के लिए कभी-कभार मौहल्ले की दुकान पर ज़रूर जाना पड़ता है।’

      ‘मेरी बात मानो तो मौहल्ले की दुकान पर भी तुम अकेले मत जाओ अब। ……… तुम्हारा भाई भी इतना बड़ा तो है कि वह दुकान से सामान ला सके।’ 

        ‘हाँ, है तो।’ 

       ‘तो फिर अपने भाई से मँगवा लिया करो, यदि मौहल्ले की दुकान से कोई सामान मंगवाने की ज़रूरत पद जाए तो। इससे वह भी कुछ समझदार और ज़िम्मेदार बनेगा, तुम्हारे काम में कुछ हाथ बँटेगा और इस तरह की समस्या से भी बचोगी।’ अशोक ने सुझाव दिया।

       सुनीता को अशोक का सुझाव सही लगा। उसने सहमति में सिर हिलते हुए कहा, ‘हाँ, यह सही है। तुमने बहुत अच्छा सुझाव दिया है। अब से ऐसा ही करुंगी।’

      उस दिन के बाद से सुनीता ने स्कूल से आने के बाद घर से बाहर निकलना बिलकुल बंद कर दिया था। लेकिन समस्या ख़त्म नहीं हुई थी। पुरुष वातावरण में चारों ओर फैली सुनीता के सुंदर कुँवारे शरीर की मादक गंध लड़कों को आकृष्ट कर रही थी। उस गंध में मदहोश लड़कों ने अब सुनीता के घर के बाहर जमघट लगाना शुरू कर दिया था और इस बात के इंतज़ार में कि कभी तो सुनीता अपने घर से बाहर निकलेगी तभी उससे अपने मन की बात कहेंगे, सारा दिन वहीं पर पड़े रहते थे। मौहल्ले के लोग यह बात अच्छी तरह समझ रहे थे कि लड़कों की भीड़ सुनीता के घर के बाहर ही क्यों रहती है। आस-पड़ौस के एक-दो बड़े बुज़ुर्ग ने उन लड़कों को टोका भी कि ‘यहाँ क्यों जमघट लगाए हुए हो तुम लोग। चलो, यहाँ से हटो और अपने घर जाओ।’ लेकिन लड़कों पर उनकी बात का कोई असर नहीं पड़ा। दो-चार मिनट के लिए वे वहाँ से तितर-बितर हुए और बुज़ुर्ग के वहाँ से हटते ही फिर से जमावड़े में बदल गए।

      व्यक्ति अपने आप में कितना ही सही हो, कमी निकालने वाले कोई न कोई कमी निकाल ही लेते हैं। सारा मौहल्ला जानता था कि सुनीता एक सौम्य, शालीन और अपने काम से काम रखने वाली लड़की थी। कभी किसी से कोई फ़ालतू बात करते किसी ने उसे नहीं देखा था और न ही उसके बारे में ऐसा कुछ सुना था। सारा मौहल्ला इस बात के लिए उसकी प्रशंसा करता था कि पिता की असमय मौत के बाद इतनी कम उम्र में किस तरह से परिवार का भार अपने ऊपर लेकर पूरी ज़िम्मेदारी से वह सब कुछ कर रही थी। सारे मौहल्ले के लिए वह एक मिसाल थी। बहुत से लोग उसके प्रति सहानुभूति रखते थे। लेकिन उसके घर के बाहर लड़कों के जमघट और हौ-हल्ले को देखकर मौहल्ले की कुछ औरतें उसके बारे में तरह-तरह की बातें बनाने लगी थीं।

एक दिन आपस में चर्चा करते हुए मीरा नाम की एक औरत कह रही थी, ‘राधा बहन, सुभद्रा बहन, मुझे तो ये लड़की ही कुछ तेज़ लगती है, तभी उसके घर के बाहर सारे मौहल्ले के लड़के जमघट लगाए रहते हैं। नहीं तो मौहल्ले में और भी लड़कियां हैं, किसी और के घर के बाहर तो कोई जमघट नहीं लगता इस तरह का।’

राधा उसके साथ सहमति व्यक्त करते हुए बोली, ‘हाँ, मीरा बहन, देखने में बड़ी सीधी लगती है, पर सीधी नहीं घुन्नी है, पूरी घुन्नी। घुन्ने लोगों का कोई भेद नहीं मिलता है।’

     सुभद्रा ने मीरा और राधा की बात में तड़का लगाते हुए कहा, ‘सुंदर भी तो कितनी ज़्यादा है। लड़के तो सुंदर लड़कियों के दीवाने होते ही हैं। अब लड़के इतनी सुंदर लड़की पर ना मरें तो किस पर मरें।’

      सुनीता की सुंदरता के बारे में सुभद्रा की टिप्पणी का समर्थन करते हुए मीरा बोली, ‘भई उसकी सुंदरता तो ग़रूर करने लायक है। कोई भी इतनी सुंदर लड़की अपनी सुंदरता पर ग़रूर करेगी ही। सुनीता भी अपनी सुंदरता पर ग़रूर करती है, तभी तो मौहल्ले में कभी किसी से कोई बात नहीं करती है। जहाँ गुड होगा मक्खी वहीं तो आकर बैठेंगी। वह भी लड़कों को लुभा रही है, तभी तो इतने सारे लड़के उसके आगे-पीछे नाच रहे हैं।’

      राधा, जिसका घर सुनीता के घर के बिलकुल पास में ही था, उसने अपनी राय देते हुए कहा, ‘मुझे तो ऐसा लगे है कि इस लड़की ने धंधा शुरू कर दिया है। तभी उसके घर के बाहर इतनी भीड़ लगी रहती है लड़कों की। थोड़ी-थोड़ी देर में उसके घर का दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ तो हमारे घर तक भी सुनायी देती है। ग्राहक ही खटखटाते होंगे दरवाज़ा, नहीं तो और कौन खटखटाएगा। इससे पहले तो कभी उसके घर से दरवाज़ा खुलने या खटखटाने की आवाज़ नहीं आती थी।’

      सुभद्रा ने फिर से अन्य औरतों की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ‘सही कह रही हो बहन तुम। सुना है हमारे मौहल्ले के ही नहीं, दूसरे मौहल्ले के लड़के भी यहाँ के चक्कर काटने लगे हैं अब। हमारे मौहल्ले के लड़कों के साथ उनकी मार-पिटायी भी हुई है।’

      मीरा ने इस पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ‘ऐं, ये कब की बात है? मौहल्ले में इतना सब हो गया और हमें कुछ पता ही नहीं है।’

     राधा ने उसके आश्चर्य को शांत करते हुए बताया, ‘अभी दो दिन पहले की बात है। कई लड़कों के हाथ-पैर टूटे हैं और सिर भी फूटे हैं। पट्टी बंधी हुई हैं कईयों के हाथ, पैर और सिरों में।’

     मीरा आश्चर्य से माथे पार हाथ मारते हुए बोली, ’हाय रे, गाँठ सी लड़की और इतना ज़ुल्म ढा रही है। ये लड़की है या जीती-जागती आफ़त। अभी से मार-काट मचवा रखी है इसने। आगे पता नहीं और क्या-क्या करवाएगी ये। इसके इतनी ही आग लग रही है तो किसी कोठे पर चली जावे कहीं, यहाँ मौहल्ले में क्यों गंद मचा रही है।’

      राधा ने उसकी बात में मिर्च-मसाला लगाते हुए कहा, ’अरे, उसे किसी कोठे पर जाने की क्या ज़रूरत है। उसने तो घर को ही कोठा बना रखा है। और सबसे बड़ा ज़ुलम तो ये है कि उसकी मां को भी कुछ दिखायी नहीं देता। लड़की को ना सही कम से कम उसकी मां को तो अपनी इज़्ज़त-आबरू का ख़याल रखना चाहिए कुछ। वह भी अंधी बनी हुई है।’ 

     ‘उसकी मां तो बीमार है बेचारी। बिस्तर पर अपाहिज पड़ी रहती है। और ज़्यादातर समय दवाइयों के नशे में पड़ी रहती है। वो क्या कर लेगी यदि बेटी कुछ भी ऐसा-वैसा करे तो। कमरे में पर्दा डालकर दो भागों में बाँट रखा है। लड़की घर में किसी को बुलाएगी और कोई आएगा भी तो परदे के दूसरी ओर रखेगी उसे।’ सुभद्रा ने अपनी ओर से स्थिति की व्याख्या करते हुए राधा की बात का समर्थन किया।

      उन औरतों के बीच एक बुज़ुर्ग महिला भी थी। सुनीता के बारे में उन औरतों की इस तरह की बातें सुनना उनको अच्छा नहीं लगा। वह इन औरतों को सुनीता के बारे में नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना छोड़ सकारात्मक होने की नसीहत देते हुए बोली, ’अरे नहीं, ऐसी बात मत करो। इन बातों की गुंजाइश नहीं है। उसका भाई भी तो है। वह भी तो घर के अंदर ही रहता है। उसके रहते कैसे किसी को घर के अंदर बुलाकर कुछ कर सकती है वो।’ 

      मीरा ने बुज़ुर्ग महिला का प्रतिवाद करते हुए कहा, ’अरे काकी, उसका भाई तो अभी बच्चा है। खेलने-कूदने चला जाता है वह तो दूसरे बच्चों के साथ। उसके बाद वह किसी को भी घर में बुलाए, कुछ भी करे, कौन रोकने-टोकने वाला है।’

      मीरा की बात को पानी देते हुए राधा बोली, ’अरी बहन, वह जो करे सो करे, अपने बच्चों को दूर रखो ऐसी लड़की से। मेरी चन्दा कभी-कभी उसके पास चली जाती थी, पर जब से उसके बारे में यह सब सुना है, मैंने तो साफ़ मना कर दिया है उसे सुनीता से मिलने को।’

      सुभद्रा ने भी राधा के स्वर में स्वर मिलाते हुए कहा, ‘सही कहती हो बहन। मैं भी अपने बच्चों से कहूँगी कि वे सुनीता से नहीं मिलें, और ना उससे कोई बात करें।’ 

     औरतों की इस चर्चा ने सुनीता को एक बदचलन लड़की के रूप में मंडित कर दिया था। कुछ ही दिन में उन औरतों की यह आपसी चर्चा उनके मुँह से निकलकर सारे मौहल्ले की दूसरी औरतों में, और उनके माध्यम से पुरुषों में भी फैल गयी कि सुनीता एक आवारा लड़की है और इसीलिए मौहल्ले के लड़के उसके घर के बाहर जमावड़ा लगाए रहते हैं। सुनीता के बारे में इस दुष्प्रचार के बाद उससे सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोगों का दृष्टिकोण भी उसके प्रति बदल गया था और अब उन्होंने यह कहते हुए उन लड़कों को टोकना बंद कर दिया था कि ‘जब सिक्का ही खोटा है तो परखने वालों का क्या दोष।’ बल्कि बहुत से घर-गृहस्थी वाले और अधेड़ लोग भी मुँह से लार टपकाते हुए, लोगों से नज़रें बचाकर अंधेरे-उजाले सुनीता के घर के सामने से गुज़रने लगे थे। कभी-कभी थोड़ी-बहुत देर वहाँ बैठ भी जाते थे। इससे लड़कों का उत्साह और बढ़ गया था और कभी-कभी कोई लड़का किसी न किसी बहाने से सुनीता के घर का दरवाज़ा खटखटा देता था। दिन में रास्ता चलता था और कोई न कोई वहाँ से निकलता रहता था। लेकिन साँझ ढलने के बाद गली से लोगों का आना-जाना कम हो जाता था, इसलिए इस तरह की हरकतें शाम के समय ही होती थीं। शुरू में एक-दो बार सुनीता ने दरवाज़ा खोला, लेकिन लड़कों की शरारत को समझकर बाद में सुनीता ने दरवाज़ा खोलना बंद कर दिया था। और कहीं सच में ही कोई आया न हो, यह देखने के लिए सुनीता के बजाए उसका छोटा भाई दरवाज़ा खोलने लगा था।

वरिष्ठ साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम का दलित साहित्य में खासकर महत्वपूर्ण अवदान है. उनके कई उपन्यास एवं कविता-संग्रह प्रकाशित हैं.
क्रमशः

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ISSN 2394-093X
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