औरतें अपने दु:ख की विरासत किसको देंगी

राहुल

लड़कियां माँओं जैसे मुक़द्दर क्यूँ रखती हैं
तन सहरा और आँख समुंदर क्यूँ रखती हैं
औरतें अपने दु:ख की विरासत किसको देंगी
संदूकों में बंद ये ज़ेवर क्यूँ रखती हैं ।।
इशरत आफ़री

मां अपनी बेटी को अपनी उम्मीदों व आशाओं की एक कड़ी के रूप में देखती है। वह जानती है हर एक परेशानियों का सबब। जानती है बेटी की हर एक जरुरत। खुशियों, इच्छाओं, उदासियों, भावनाओं से वाकिफ जो होती है, और मौजूद रहती है जीवन के हर एक हर्फ़ में। और बेटी भी माँ की परछाई होती है। माँ का ख्याल रखती है बेटी, और देखती है मां, बेटी को अपनी उम्मीदों, आशाओं व संभावनाओं की नजर से। इसलिए लड़कियां रखती हैं मांओं जैसा मुक्कद्दर। मुक्कद्दर की यह संभावना साहित्य में भी खूब समाहित है। और यह संभावना निर्मित करती है एक विमर्श को जो अपने मनुष्य होने की चाह लिए एक अदद मुक्ति के लिए संघर्षरत है। 

हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श की वैचारिकी और राजनीतिक निर्माण को देखा जाए तो यह कृष्णा सोबती के जिक्र के बग़ैर अधूरा है। मनुष्य की आजादी और मनुष्य के रूप में स्त्री का आजाद ख्याल (आजादी) होना इनके उपन्यासों का प्रस्थान विन्दु रहा है। ‘डार से बिछुड़ी’, मित्रो मरजानी, सूरजमुखी अंधेरे के, यारो के यार, तिन पहाड़, ऐ लड़की, जिंदगीनामा, समय सरगम आदि उपन्यासों के केंद्र में स्त्री ही है। उनके ये उपन्यास स्त्री पराधीनता और जटिल भारतीय सामाजिक,पारिवारिक ताने-बाने की पड़ताल करते हैं। आधुनिकता व पारम्परिकता का सामंजस्य बैठाती और साथ ही स्वाधीनता को पाने का रास्ता सुझाती उनकी आत्मकथात्मक लघु उपन्यास/ लम्बी कहानी ‘ऐ लड़की’ अनुभव और विचार की नई दुनिया रचती है। इनकी सृजनशीलता स्वाधीनता के लिए ‘स्व की चिंता’ और ‘खुशी की नई उपयोगिता’ गढ़ती है। स्त्री की सम्पूर्ण मुक्ति पर कृष्णा सोबती की विश्व दृष्टि व विचार से विरोध हो सकता है, लेकिन इनकी चिंताओं व सवालों को नाकारा नहीं जा सकता।

‘ऐ लड़की’ आत्मकथात्मक लघु उपन्यास/ लम्बी कहानी है, जिसमें माँ- बेटी (कृष्णा सोबती और उनकी माँ) का संवाद है। 1991 में राजकमल से प्रकाशित यह लघु उपन्यास/ लम्बी कहानी 88 पृष्ठों विस्तारित है और इसके केंद्र में माँ और बेटी का आपसी संवाद है। और यह संवाद अस्तित्व के अंत:संचरण का संवाद है। इस कथा में माँ और लड़की के अस्तित्व का परस्पर एक दूसरे में घुलना है। ऐ लड़की’ में माँ अपनी जीवन- स्मृति लड़की में खोलती है और अपने जीवन-अस्तित्व को व्यक्त करती है- “तुम्हें बार-बार बुलाती हूँ तो इसलिए कि तुमसे अपने लिए ताकत खींचती हूँ।” और इस तरह उस अनुभव को छू पाती है- “मैं तुमलोगों की माँ जरूर हूँ पर तुमसे अलग हूँ। मैं तुम नहीं और तुम मैं नहीं। मैं मैं हूँ।”

माँ-बेटी के आपसी संवाद एक दूसरे के पूरक नजर आते हैं। जिन्दगी के सारे रंग खासकर स्त्री जीवन के सारे रंग हर्ष, ख़ुशी, उत्साह, दुःख, शोक, वियोग, अकेलापन आदि एक दूसरे से गूंथे हैं। “ऐ लड़की अँधेरा क्यों कर रखा है! बिजली पर कटौती! क्या सचमुच ऐसी नौबत आ गई है”[1]। यह अँधेरा केवल कमरे का अँधेरा भर नहीं है बल्कि माँ और बेटी के जीवन का अँधेरा है। स्त्री जीवन का अँधेरा है। ‘रूढ़’ व ‘आधुनिक’ दोनों तरह के समाजों में किसी भी लड़की के लिए अविवाहित व अकेले रहना अमान्य है। सामाजिक नियम के विरुद्ध है। लेकिन इस कहानी में लड़की अविवाहित है और अपनी स्वेच्छा से अविवाहित भी रहना चाहती है। ‘यह बताओ, तुम क्यों नीली चिड़िया बनी बैठी हो!’[2]

वृद्ध और बीमारी से लड़ रही अम्मू मृत्यु से डरती नहीं हैं और न ही जीने की बहुत लालसा ही रखती है, बल्कि वह तो उससे जूझने व जितने की इच्छा रखती है। तभी तो वह कहती हैं “बीमारी को अपने अन्दर धसने नहीं दिया। अभी तक तो सब कुछ चाट जाती, मेरी देहरी की सांकल तो खुल चूँकि! दरवाजे पर खटपट हुई नहीं कि मैं बहार! मगर सुन लड़की मैं मजबूती से अड़ी हूँ”[3]। “जीना और जीवन छलना नहीं है। इस दुनिया से चले जाना छलना है। …यह दुनिया बड़ी सुहानी है। हवाएँ- धूप-छाँह-बारिश-उजाला–अँधेरा-चाँद-सितारे- इस लोक की तो लीला ही अनोखी है! अद्भुत है[4]। … देह तो एक वरण है। पहना तो इस लोक में चले आए। उतार दिया तो पर-लोक। दूसरों का लोक अपना नहीं[5]। यह विचार जीवन-मोह से मुक्ति का नहीं है बल्कि स्त्री-जीवन से मुक्ति का है। लेकिन स्त्री मुक्ति का सपना तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक रूढ़ सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से टकराहट न हो। स्त्री अपना पूरा जीवन परिवार की ख़ुशी के लिए खपा देती है, उसकी अपनी ख़ुशी कोई मायने नहीं रखती। “शादी के बाद औरत पूरे परिवार के लिए शिकारे की माँझी बन जाती है। …उन पर सवार परिवार मजे-मजे झूमते हैं और चप्पू चलती है औरत।”[6] अम्मू की यह बात पितृसत्ता के गहरे धसे स्त्री श्रम के शोषण को अभिव्यक्त करती है और कैसे       स्त्री-श्रम को नजरअंदाज किया जाता है, इसके सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों की ओर भी इशारा करती है।

अम्मू की जिंदगी एक रुढ़ सामाजिक ढांचे के चौखटे में ढलती व अनुकूलित होती हुई विकसित हुई है। उसके व्यक्तित्व का स्त्रीकरण समाज के धर्म परंपरा से हुआ और सामाजिक ताने-बाने में व्याप्त सांस्कृतिक निंरकुशता ने उसे अपने अनुरूप अनुकूलित भी किया। लेकिन मानव सुलभ इच्छाएं और जीवन-लय पुराने समय को तोड़ने के लिए कुलांचे भरती टकराती टूटती आगे बढ़ी, और सामाजिक ढांचे ने उसे अपने अनुरूप ढाला भी। एक स्त्री की इच्छाएं पितृसत्तात्मक समाज में कोई मायने नहीं रखती तभी तो अम्मू कहती है- “चाहती थी पहाड़ियों की चोटियों पर चढ़ूँ। शिखरों पर पहुंचूं। …तुम तो अपने में आजाद हो। तुम पर किसी की रोक-टोक नहीं। जो चाहो कर लो। लेकिन एक बात याद रहे कि अपने से भी आजादी चाहिए होती है।”[7] अम्मू अपने सहज स्मृतियों के द्वारा स्त्री-जीवन के दोनों छोरों (दुःख और सुख) को पकड़कर समय व समाज को नापती है और एक स्त्री के जिंदगी को परत दर परत खोलती हैं। तभी तो अपनी बेटी से कहती हैं कि– “अपने आप में आप होना परम है, श्रेष्ठ है! चलाई होती न परिवार की गाड़ी तुमने भी, तो अब तक समझ गई होती कि गृहस्थी में सारी शोभा नामों की है। यह इसकी पत्नी है, बहू है, माँ है, नानी है, दादी है! फिर वही खाना, पहनना और गहना! लड़की, वह नाम की ही महारानी है। सबकुछ पोंछ-पाँछ के उसे बिठा दिया जाता है अपनी जगह जगह पर।”[8] यानि उसे देवी का दर्जा दे दिया जाता है। ऐसी देवी जो अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकती। यह वजूद अम्मू (माँ) की है लेकिन बेटी अपने अस्तित्व के प्रति सजग है। अपनी जिंदगी के हर पहल को स्वीकारती है, कुछ भी छुपाती नहीं। अविवाहित रहने का फैसला खुद उसका है और इसे लेकर वह जरा भी चिंतित नहीं है। इस संदर्भ में देखें तो यह कहानी पितृसत्ता के स्थापित भूमिका से एक तरह का विद्रोह भी है। यह विद्रोह  परिवार और निजी सम्पत्ति, राज्य की उत्पत्ति  के संदर्भ में देखा जा सकता है। निजी  सम्पति के उदय और उस पर अधिकार की वंशानुगत व्यवस्था के क्रम में स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण प्रारंभ हुआ ,जो कि उन पर पुरुष वर्चस्व को तय करने का कारण बना। यह नियंत्रण उनकी गत्यात्मकता पर रोक, उनकी यौनिकता पर नियंत्रण और इस क्रम में अपनी ही देह तथा समाज  के सभी  संसाधनों (आर्थिक तथा सांस्कृतिक ) से उनका वंचन करता है। लड़की और नर्स सूसन अपनी जिंदगी के लिए अपने रास्ते खुद चुनती हैं। “सुनो, बेटा- बेटियां,नाती- नातिन, पुत्र- पौत्र मेरा सब परिवार सजा हुआ है, फिर भी अकेली हूँ। और तुम! तुम उस प्राचीन गाथा से बाहर हो, जहाँ पति होता है, बच्चे होते हैं, परिवार होता है। न भी हो दुनियादारी वाली चौखट, तो भी तुम अपने आप में तो आप हो। लड़की अपने आप में आप होना परम है, श्रेष्ठ है।”

“गृहस्थ में पांव रखकर स्त्री का जो मंथन-मर्दन होता है, वह भूचाल के झटकों से कम नहीं होता है। और औरत इसे सहन कर लेती है, क्योंकि उसे सहन करना पड़ता है।”[9] यह कहानी समाज एवं परंपरा, निजत्व, दुख के साथ नैतिकता, राजनीति आदि को भी समेटती है। रिश्तों की जटिलता, स्वावलम्बन तथा माँ-बेटी की भूमिकाओं पर भी दृष्टि डालती है।

बुर्जुआ विवाह संस्था में जकड़ी स्त्री की यह सामाजिक समस्या अम्मू की ज़िंदगी को कुरेदती है। जीवन में प्रेम का आभाव, महज स्वछंदता नहीं परिपूर्ण जीवन की चाह, उद्दाम आवेगमय प्यार की चाहत जो मानवता के भौतिक आत्मिक मुक्ति से संभव है जो आज भी स्त्री के लिए स्वप्न है। यह सारी चीजें अम्मू को अपनी जिंदगी में कभी न मिल सकी। वह अपनी बेटियों में अपनी इन इच्छाओं की चाह पाती हैं। और अपना ही विस्तार देखती हैं। “तुम जब होने वाली थी मैं दिल और मन से अकेली हो गई थी। सर में जैसे एकांत छा गया हो। दिल में यही उठे कि मैं पगडंडियों पर अकेली घूमती रहूँ। लगे चिड का ऊँचा पेड़ ही मेरे अन्दर उग आया है।”[10] अपनी समरूपा उत्पन्न करना माँ के लिए बड़ा महत्त्वाकारी है। बेटी के पैदा होते ही माँ सदाजीवी हो जाती है। वह कभी नहीं मरती। वह हो उठती है वह निरंतरा। वह आज है, कल भी रहेगी। माँ से बेटी तक। बेटी से उसकी बेटी, उसकी बेटी से अगली बेटी। अगली से भी अगली।”[11] यह क्रम लगातार चलता रहता है हम ख्याल होने तक। स्त्री मुक्ति तक। स्त्री मुक्ति और स्वतंत्रता की कल्पना आधी आबादी की आर्थिक स्वतंत्रता से भी जुड़ी है। “उसका वक्त तब सुधरेगा जब वह अपनी जीविका अपने आप कमाने लगेगी।”[12]  पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष पुरानी रूढ़ियों और जकड़नों को तोड़े बिना, घर की चहदीवारी की कैद को ध्वस्त किए वगैर संभव नहीं है। “जरा सोचों मैं अपने भाई की तरह पढ़ती तो क्या बनती! क्या होती मैं और क्या होते मेरे बच्चे। सच तो यह है कि लड़कियों को तैयार ही जानमारी के लिए किया जाता है- भाई पढ़ रहा है, जाओ दूध दे आओ। भाई सो रहा है जाओ कंबल ओढा दो। जल्दी से भाई का थाली परस दो। उसे भूख लगी है। भाई खा चूका है। लो, अब तुम भी खा लो।”[13]

इस सामंती पितृसत्तात्मक समाज में लड़की होना एक अभिशाप है। जहाँ लड़की के पैदा होते ही उदासी छा जाती है। यही वजह है कि लड़की के मन में समाज के दोहरी नीतियों के प्रति गहरा आक्रोश है। अम्मू इससे बेखबर नहीं है बल्कि इससे उसका साबका बचपन में ही हो गया है। यह कितना दयनीय है कि उसने अपने उपर उन पुराने मूल्यों को लादा जिन्होंने उसे अपने बारे में, स्वतंत्र अस्तित्व के बारे में सोचने से रोका।

            अम्मू ने एकाकी, स्वावलंबी जीवन की शुरुआत की जिसमें एक स्वकेंद्रण था, जिद थी। समाज के ढांचे द्वारा पैदा व्यक्तित्व की ओढ़ी नैतिकता का दर्प था। ‘दूसरों के लिए जीना’ के कर्तव्य बोध का स्वपीड़न व ज़िंदगी का निग्रह था। और इसी के द्वारा पैदा ‘खुशामद करने-करवाने की इच्छा’, बच्चियों के प्यार और निजी ज़िंदगी पर एकाधिपत्य की चाह, बेटियों की हर बात को जानने की व्यग्रता थी। दरअसल यह अपनापन और प्यार तथा केंद में बने रहने की चाह थी जो उनके समाज ने उनके जीवन से छीन लिया था, और उनका ऐसा चरित्र निर्माण किया था। “बरसों-सालों-साल इस घर में रही हूँ पर इन दिनों बार-बार यही मन में कि कितना इतना जीना था तो कुछ ढंग का काम किया होता। इतनी बड़ी दुनिया है उसे ही देख डालती। पर गृहस्थी के ताने-बाने में उम्र ही गुजर गई।”[14] अम्मू की यह व्याग्रता, बेचैनी उस स्त्री आबादी की है जो अधीनस्थ है और दर्द का अव्यक्त उदधि समेटे है। बचपन से ही जिस स्त्री को औरतपने के चौखटे में सिद्धांत और नैतिकता के पाठ द्वारा कैद किया गया। “माँ पैदा करती है। पाल-पोसकर बढ़ा करती है। फिर उसी की कुर्बानी! माँ को टुकड़ों में बाटकर परिवार उसे यहाँ- वहाँ फैला देता है। कारण तो यही कि समूची रहकर कहीं उठ खड़ी न हो! माँ को प्योसर गाय या धाय बनाकर रखते हैं। खटती रहे, सुख देती रहे। उसका काम इतना ही है। वह अपने तई कुछ भी समझती रहे, पर बच्चों के लिए मात्र घर की व्यवस्था करने वाली।”[15] इस संदर्भ में देखें तो एक स्त्री को माँ का दर्जा देकर उसका महिमा मंडन ही किया जाता है। ‘माँ एक सामाजिक प्रत्यय है’। अम्मू के जीवन परिधि का विस्तार भी हो रहा है, खुद के लिए उसका जीना, स्वार्थ के लिए नहीं वरन सबके साथ जीने की तरफ जाता है। उसकी चिंता का दायरा स्व तक ही नहीं सिमित है बल्कि सूसन (अपनी अटेंडेंट) तक की चिंता है। वह सूसन से पूछती हैं- “अपने लिए कोई लड़का नजर में है? ढूढ़ने का काम तुम्हें खुद ही करना होगा।”[16]

अपने अस्तित्व को पति के अस्तित्व से अलग देखने-समझने की परंपरा ‘भारतीय समाज’ में  नहीं रही है। स्त्री पिता, पति, पुत्र के अस्तित्व से ही पहचानी जाती रही है। लेकिन सामंती पितृसत्ता के कमजोर पड़ने पर स्त्रियाँ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने लगी हैं। विवाह के बाद भी अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाए रखना चाहती हैं। इसी संदर्भ में अम्मू सूसन को एक मंत्र देती हैं- “मेरी बात सुनो। न पूरा खर्च तुम किया करो और न उसे ही करने दिया करो। आधा-आधा, समझी। नहीं तो यूं ही हजम कर ली जाओगी। सूसन, शादी के बाद किसी के हाथों का झुनझुना नहीं बनना। अपनी ताकत बनने की कोशिश करना।”[17] यह एक स्त्री की सहज चिंता है जो जीवन उसने जिया, वही जीवन भविष्य की पीढियां न जिएं, वे ऐसे समाज का हिस्सा हों जहाँ उनकी भी इच्छाओं, विचारों को समझा जा सके और अपने फैसले वे खुद ले सकें। उनकी अपनी इच्छाओं का दमन पितृसत्तात्मक ढांचे व रूढ़ सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के सहारे न हो सके।    

‘ऐ लड़की’ उपन्यास/लम्बी कहानी मृत्यु की प्रतीक्षा में एक बुजुर्ग स्त्री की कहानी मात्र नहीं है, बल्कि अपनी स्मृतियों के माध्यम से स्त्री जीवन को टटोलती एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो स्त्री को रूढ़ सामाजिक मूल्यों से मुक्ति व स्त्री स्वावलम्बन की चाहत रखती है। “सोचने की बात है- मर्द काम करता है, तो उसे इवज में अर्थ-धन प्राप्त होता है। औरत दिन-रात जो खटती है वह बेगार के खाते में ही न! भूली रहती है अपने को मोह-ममता में अंजान बेध्यान।”[18] यह वह सवाल है जिसे नारीवाद भी उठाने से कतराता है।

समाज द्वारा अम्म्मू के अधीनस्थ स्त्री व्यक्तित्व का निर्माण, बुर्जुआ विवाह परम्परा, पुरुष की भोग दृष्टि, आर्थिक स्वातंत्र्य व नारी मुक्ति, स्वावलंबन, ‘स्त्री सुलभ लज्जा व संकोच’ आदि की चर्चा करते हुए प्रश्न उपस्थित करता है। और समाधान के लिए संवेदन बहस पैदा करता है। विषय में आत्मकथात्मक और वृद्ध अवस्था व बीमारी से लड़ती जिजीविषा से भरी अम्मू के जद्दोजहद की सीमा में यह उपन्यास गहरी भावात्मकता, संवेदना व वैचारिकी को संप्रेषित करता है। साथ ही स्त्री मनोविज्ञान व स्त्री प्रश्न के कई सवालों को भी खड़ा करता है।

यह दीगर बात है कि यह लघु उपन्यास/ लम्बी कहानी स्त्री मुक्ति के प्रश्न को निजता की मुक्ति व व्यक्ति स्व के स्वावलंबन की सीमा तक ही सीमित रहती है। स्त्री मुक्ति के तमाम सवालों को नजरअंदाज करते हुए यह स्त्री जीवन के लिए परंपरा और आधुनिक बोध के बीच सामंजस्य स्थापित करती हुई प्रतीत होती है।     


[1]  सोबती, कृष्णा.(1991). ऐ लड़की. दिल्ली : राजकमल प्रकाशन. पृष्ठ सं. 7
[2] वही, पृष्ठ सं. 8
[3] वही 8
[4] वही, 41
[5] वही 12
[6] वही 56
[7] वही 56
[8] वही 57
[9] वही 73
[10] वही 69
[11] वही 43
[12] वही 56
[13] वही 68
[14] वही 73
[15] वही 74
[16] वही 53
[17] वही 53
[18] वही 56

स्त्री अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में गेस्ट फैकल्टी. ईमेल- apnaemailpata@gmail.com , मोबाइल नं. 9689337805

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ISSN 2394-093X
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