वे सब ऊंची जाति की हिन्दू सहेलियां थीं: मेरे मुसलमान होने की पीड़ा

नाइश हसन
सोशल एक्टविस्ट
संपर्क :naish_hasan@yahoo.com

डा. पायल तडावी अपनी तीन सीनियर डॉक्टर्स की प्रताड़ना के कारण आत्महत्या कर चुकी हैं. उनकी सांस्थानिक हत्या हुई है. ऐसी स्थितियां और भी अन्य समूहों की महिलाएं झेलती रही हैं. खुद जाति का बर्डन ढोती, अपने लिए ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की व्यवस्था में उपेक्षित ऊंची जाति की महिलाएं अन्य जाति और धार्मिक पहचान वालों के साथ क्रूर और अमानवीय व्यवहार करती हैं. हम इस सीरीज में ऐसे अनुभवों को प्रकाशित कर रहे हैं. पहली क़िस्त में नाइश हसन के अनुभव. अप भी एक दलित, ओबीसी, आदिवासी, पसमांदा स्त्री के रूप में यदि यह झेल चुकी हैं तो अपने अनुभव हमें भेजें.

मेरा गाँव उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले में है, तियरी नाम है गाँव का। कर्मठ स्वतन्त्रता सेनानी मेरे बाबा नाज़िम अली का गाँव। आज से 30 बरस पहले पढाई का सफर उसी गाँव से प्रारम्भ किया था। शेख-सय्यदों का गाँव। ऊॅंची ज़ात का गुमान ब्राहमणों की तरह सय्यदों में भी खूब है। पढाई-लिखाई का सिलसिला चलता रहा, वो दौर जब बाबरी मस्जिद ढहा दी गई, मेरे रिश्तेदारों की लाशें बिछा दी गई , माहौल बहुत खराब होता चला गया। उसी सिलसिले में बात करने एक दिन मेरे विद्यालय में एक स्थानीय पत्रकार जगन्नाथ वर्मा आए। मेरा तर्क ये था कि अयोध्या को एक ऐसा स्थल बना दिया जाना चाहिए जहाँ हिन्दू और मुसलमान सभी आएं, उनके इबादतगाह भी हो , पर्यटन का केन्द्र भी हो, इससे हमारे आपसी झगडे ख़त्म हो जाऐगे। इस बयान का अखबार में छपना कि मुसलमानों की ओर से मुझ पर गालियों की बौछार होने लगी , हम भाई बहन डर सहम गए। एक तो लड़की होने के नाते दूसरा ऐसी प्रतिक्रिया। हमारा घर स्कूल से 14-15 किलोमीटर दूर था। साइकिल से आना जाना। हमेशा डर लगा रहता था किसी अनहोनी का। इस बयान पर हमारे माता-पिता को भी परेशान किया जाने लगा। तैश खाए मुसलमानों ने अखबार में माफी मांगने का दबाव बनाया कि हम कहें ये मस्जिद मुसलमानों की थी, है,और रहेगी-बस्स!! और कुछ भी नही!! हमें काफिर करार दिया गया। उम्र इतनी नहीं थी कि इस सियासत को समझ पाती। भला यही लगा कि झगड़ा समाप्त हो जाए, तो कह दिया। बहुत अपमानित हुई। मजहब बचाने वालों ने निशाने पर ले लिया। छोटी उम्र में एक विचार बना कि ये गाँव वाले बहुत दकियानूस होते है, शहरों में ऐसा नही होता, वहाँ लोग शिक्षित व खुले विचारों के होते हैं।

कुछ समय बाद शिक्षा के सिलसिले में लखनऊ आना हो गया। लखनऊ विश्वविद्यालय से एम0फिल0 किया फिर कुछ दिनों बाद एक महिला अधिकार संगठन में नौकरी कर ली। यहाँ आकर यह भरम धराशाई हो गया कि हम भी ऊॅंची ज़ात वाले हैं । यूं कहूँ तो एक एहसास-ए-कमतरी ने घेर लिया। यहाँ सिर्फ मुसलमान नाम होना काफी था एक विशेष प्रकार से देखे जाने के लिए। एक दिन मेरी एक हमउम्र सहकर्मी ने यूं ही हॅंसते-हॅंसते किसी की बात बताई और उसे मुसल्टा (मुसलमान) कह कर सम्बोधित किया । इसके फौरन बाद उसने मेरी ओर पलट कर देखा, दोबारा उपहास मिश्रित हॅंसी के साथ बोली , वैसे तुम लोग भी हिन्दुओं को किसी न किसी नाम से पुकारते ही होगे! उसमें जरा भी अपराधबोध नही था, वो एक के ऊपर एक पैर रखे उसे धीरे-धीरे हिला रही थी, और ऐसे हॅंस रही थी जैसे किसी कला फिल्म की नायिका अपना दोहरा किरदार निभा रही हो। उसे ये एहसास भी नही हुआ कि उसके कलेजा चीर देने वाले शब्दों से मेरे अन्दर कितना कुछ टूट बिखर गया है। मुझे हिन्दू मित्रों को किस उपनाम से पुकारना है ये मेरे परिवार ने कभी नहीं सिखाया था। मैं उसे क्या जवाब देती, स्वतन्त्रता सेनानी की पोती थी, क्रान्ति की बातें बचपन से सुनकर मन क्रान्किारी ही था। अपमानित सा मुहं लिए वहां से उठ गई। ये मेरे साथ शहर आने के बाद पहला वाकया था जिसने खुले विचारों की पूर्वधारणा को तोड़ना आरम्भ किया था।

ऐसा मौका कई बार आया जब मेरी एक अन्य सहकर्मी (ब्राहमण) साथ खाना खाने से कतराती रहती थी, कभी खा भी लेती तो मेरे डब्बे से एक निवाला भी न चखती। ये सिलसिला लम्बा चलता रहा। कष्ट किसी को नही था इस बात से, सिवाय मेरे। वक्त गुज़रता गया। दिल की बात जुबान तक आने में ज्यादा वक्त नही लगा। एक दिन उसने कहा गुरूदेव कहते हैं, जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन….। गायत्री परिवार के श्रीराम शर्मा की भक्ति के शब्द थे ये। यानि मेरे बिना कुछ बताए पूछे ही वह निष्कर्ष पर पहुचं गई थी कि मुसलमान का अन्न और मन कैसा होता है। मैं निरूत्तर हो गई कि ये अन्तर्यामी लोग अपने आप सबकी कुण्डलियाँ देख चुके हैं.मेरे अन्दर पता नही क्या क्या होने लगा था। क्या करती रहना तो यहीं था। अपने मन को समझाती रही जितना समझा सकती थी ।

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मेरे मित्रों ने कई बार बड़ी बेबाकी से मुझसे ये बात कही है ”तुम मुसलमान हो, पर लगती बिल्कुल नहीं हो।’ इस बात पर कई बार मै मुस्कुरा दी , पर कई बार मेरी भी ज़बान में कडवाहट घुल गई । रोज-रोज इन बेहूदा सवालों से दो चार होती रही, कई बार ह्दय को चीरती उनकी व्यंज्ञात्मक मुस्कान भी बहुत सी अनकही बातों का भी उत्तर दे देती थी। मेरी जिज्ञासा अब ये जानने में हो गई थी कि मुसलमान कैसे लगते हैं । हमारा स्कूल एक, कॉलेज एक फिर मेरे साथ पढी लड़कियों में और मुझमें क्या फर्क है, ये मुझे कभी पता ही नही चला। पर न जाने कौन सा फर्क उनकी जांचती निगाहें ढूँढती रही । यह एक बहुत कॉमन सवाल रहा जिसे अनेको बार अनेको जगहों पर मुझसे पूछा गया। बात ये है कि मै तो लगना चाहती हूँ वही मुसलमान, जिसकी मेरे अज़ीज़ साथियों के मन में तस्वीर है, उनसे जानने की इच्छा भी है कि हमें कैसा लगना चाहिए। अगर वो हमें समझा सकें।

जल्दी ही मैने देखा कि उच्च जाति की इन लडकियों का एक गुट बन गया दफ्तर में। उनके बीच मुसलमानों को लेकर खराब चर्चाएँ आम हो गई। गाँव से शहर आने के बाद मैंने पहली बार मुसलमानों के लिए कटुआ शब्द यहीं सुना था। एक लड़की जिसके पिता आरएसएस का सरस्वती शिशुमन्दिर स्कूल चलाते थे, आर्थिक रूप से काफी सम्पन्न परिवार से थी। संगठन की मुखिया को कई बार विचारधारा के बारे में आगाह किया परन्तु उसका अमीर होना उसकी योग्यता में शामिल था, जो गाहे-बेगाहे असर भी छोडता था। मुसलमानों के खिलाफ घोर कट्टरवादी माहौल में पली लड़की की रग-रग में नफरत भरी हुई थी। बैलेन्स बनाना अब बिल्कुल असम्भव लगने लगा था। एक दिन मैने उससे कहा तुम्हारी शक्ल मेरी एक रिश्तेदार से मिलती-जुलती है, इस बात से ही वह धृणा से भर गई , बोली, भक और नफरत भरी हॅंसी हॅंसने लगी मानो कह रही हो किसी मुसलमान से उसकी शक्ल की तुलना करने की मेरी जुर्रत कैसे हुई। सास बहू धारावाहिकों में नागिन जैसी भूमिकाओं में दिखाई जाने वाली औरतें घरों के भीतर ही नही, दफ्तरों में भी होती है जो बॉस को खुश रखना खूब जानती है। कोई मुसलमान औरत दफ्तर में सर से दुपटटा ओढ़ कर आ जाए तो उसे कहा जाता था ये इनके यानी मेरे लोग है। हाँ ऊपर-ऊपर सब लोग सेक्युलर, मुसलमान प्रेमी होने का अच्छा खासा ढोंग रचते थे, जिसे बाहर से देखने वाला भांप भी नही सकता था।

नौकरी एक मजबूरी थी, घुटन बढती जा रही थी, खुदकशी करने का सवाल हावी होता जा रहा था, घर वाले भी मेरी पीड़ा को समझ नही पा रहे थे, हर रोज ये विचार हावी होता चला जा रहा था, एक दिन सोचा आज दफ्तर में ही जान दे दुगी । इतना अपमानित महसूस करती थी कि सुबह उठकर दफ्तर जाने का इरादा भी मुझे डराने लगा था। एक स्वतन्त्रता सेनानी की पोती थी , क्रान्ति की बातें बचपन से ही सुनती रहती थी, मन भी क्रन्तिकारी ही था, लेकिन जिस माहौल में जवानी में कदम रखा उसके साथ मेरा तालमेल ही नहीं बैठ पा रहा था। मेरी सेहत भी गिरती जा रही थी।
सवालों को छोटा बताकर कई बार चुप कराने की चेष्टा हुई । ये छोटे सवाल नहीं है। ये गम्भीर कलेजा कुतरने वाले सवाल हैं। किसी परिस्थिति को देखकर कुछ कहना और उसे जी कर कुछ कहना दोनों में बड़ा फर्क होता है। इन सवालों को जीने की पीड़ा बड़ी गहरी होती है। इन सवालों को तथाकथित महिला अधिकार के पैरोकारों के सामने उठाने पर ज्यादातर को यही लगा कि मै सवाल ज्यादा ही करने लगी हूँ ये मेरी गुस्ताख़ी है, पर सवाल तो वही ज्यादा करता है जिसके हिस्से में संघर्ष ज़्यादा होता है। जिसे छोटी छोटी चीजों के लिए बेजा परेशानियों से दो चार होना पड़ता है। मुझे अपने राष्ट्र प्रेम को भी बहुत बार साबित करना पड़ा था।


मेरी गुरू बहनों ने महिला मानवाधिकार के जो मूल्य हमें सिखा दिए थे वो मेरे भीतर बडे़ गहरे बैठ गए उससे इतर जाने का कभी सोचा ही नहीं, लेकिन मुस्लिम की पहचान उनके चश्मे से क्या दिखती है, खुले आम गिनाते मेरी सहकर्मी बहनों को भी कभी गुरेज नही हुआ। न आंखों की शर्म न जुबान पर लगाम। हम तो बहनापे का दर्द बांटने आए थे, उसे मजबूत बनाने, हमे पता ही नहीं था की हमारे बहनापे के दरमियान भी गहरी मोटी लकीरें है। जो हमें हिन्दू मुस्लिम के अलग-अलग खानो में ही रखती हैं. इसके पीछे वजह जो मुझे नजर आती है वो ये कि भारत में महिला आन्दोलन के झण्डाबरदारों में ज्यादातर उच्च वर्ग व उच्च कही जाने वाली हिन्दू जातियों से आई महिलाएं थीं और हैं। जो ऐतिहासिक तौर पर अप्रत्यक्ष रूप से शोषणकारियों का ही वर्ग रहा है। जिन्होंने कठिनाइयों पर चर्चा तो की है पर उसे जिया नही है। तो अन्जाम ये हुआ कि वो यहां भी उसी जमात में शामिल रहीं । इस लिए अन्तः कलह व द्वन्द काफी नज़र आया जिसे सामान्य होने में अभी नस्लें खत्म होंगी। जब तक कि पीड़ित वर्ग मज़बूती से लामबन्द नहीं हो जाता। जब तक आप कोई घाव न दिखा पाएं तब तक आप की पीड़ा को बहुत कम आंकता है ये समाज , लेकिन कुछ तकलीफों में हम आप कोई घाव नहीं दिखा सकते फिर भी भीतर की दुनिया के हजार टुकड़े हो चुके होते है। बदलते तो गाँव शहर है हम, विचार तो हमारे साथ-साथ ही सफर करते है। वो तो ऐसे ही चिपके रहते हैं जब तक कि हम उन्हें झटक कर फेंक न दें। हमें तय करना होगा किसी की उच्छृंखलताकी हद तक आज़ादी किसी के लिए घुटन न बन जाए।

कहते हैं कभी-कभी तो बुरे हादसे भी इंसान को बिगाड़ने के बजाए सम्हाल देते है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। जेहनी जद्दोजेहेद जारी रही , मन में घोर उथल-पुथल चल रहा था। बस एक दिन झटके में बिना किसी पूर्व योजना के इस्तीफा देने का इरादा पक्का हो गया। उसके बाद मुसलमान औरतों के साथ बहुत जमीनी स्तर पर काम करना प्रारम्भ किया, उनकी रोजी रोटी तालीम के सवाल उठाना प्रारम्भ किए, मुझे ऐसा लगा जैसे मै जी उठी, बहुत आत्मबल और ऊर्जा मिली उस इस्तीफे से, उस घुटन भरे महिला अधिकार संगठन से बाहर आकर। जिन्दगी जीने का नजरिया बदल गया। खूब पढाई की, खुद को समय दिया, उसके बाद मुस्लिम समाज के कट्टरवाद और शरीया कानून पे जो वार किया तो कोई आलिम, फाजिल, मौलवी, मौलाना हमें हरा नही सका। मज़हबी तंजीमों को झकझोर कर रख दिया।

इस काम में मेरी सबसे ज्यादा मदद की थी डा0 असगर अली इंजीनियर ने। मुस्लिम महिलाओं की आवाज को मजबूती देने में तथाकथित सधे हुए एनजीओ से कही बहुत ज्यादा बडी भूमिका निभाई। राह में बहुत सी दुश्वारियां आई जब औरत के सामने औरत खडी कर दी गई उसे नेस्तोनाबूद करने के वास्ते, आतिश पर कदम रखने पड़े , लेकिन मेरी भूमिका को कभी नकारा नही जा सकता। जिसका असर आज दिखाई भी दे रहा है। डा0 पायल तुम तो मेरी ही तरह थी, मेरे ही जैसा अपमान सहती थी। तुम घबराकर खुद में क्यों सिमट गई। तुम्हें अपमान सहकर अपने पंख और फैला लेने चाहिए थे। एक बड़ी लाइन भी तो खींचना था। तुम्हें हारना नही था इसका इलाज हम तुम जैसे लोग ही कर सकते है। सावित्री बाई फुले भी अगर यूं ही अपमान सह कर मर गई होती, ताराबाई शिन्दे ने भी अगर खुदकुशी कर ली होती तो क्या हम तुम यहां तक पहुचते जहांतक पहूंच पाए ! नही! शायद कभी नही! ये सफर लम्बा है , ऐसे ब्राह्मणवादी , मनुवादी चेहरे हमारे सामने आते रहेंगे हमें डराते रहेंगे, हमारा उपहास करते रहेंगे, लेकिन मजहबी हदबन्दियांको तोड़़ते हुए इन्ही कांटों भरी राह में ही हमें अपना रास्ता निकालना होगा। तभी एक नई दुनिया मुमकिन हो पाएगी।


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ISSN 2394-093X
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