आबिदा (परिमला अम्बेकर की कहानी)

‘‘अम्मा आजकल मय्यत उठने के लिए भी बीस पच्चीस हजार लगते हैं !!‘‘

जब से खबर मिली है आबिदा के मौत की, बार बार उसका कहा यह वाक्य कानों में बज रहा है। हमेशा बोलती हॅंसती खिलखिलाती आबिदा, दिल में कोई मलाल नहीं, जो भी कहना है सामने, न भीतर न बाहर !! चलुबुली भी इतनी कि हर किसी से बात करती, कोई लिहाज नहीं। क्या आदमी क्या जनाना, सब उसके मित्र मंडली के फेहरिस्त के। बडी से बडी बात को भी उतनी ही सरल और सहज अंदाज में कहती जैसे ठंडे पानी का घूँट पी रही हो।

क्या कुछ नहीं किया उसने! रहते समय तक अपना पेट खुद पाला और मरने के बाद अपनी मय्यत को खुद सजाया …!!

बहुत लंबे अरसे से मैं जानती थी आबिदा को। लगभग पच्चीस तीस साल से होगा। हमारे घर आती थी बच्चों को दिखाने। मेरे डॉक्टर पति की इलाज पर उसे पूरा भरोसा था। महीने दो महीने में कम-से-कम चार पांच बार , दूर शेखरोजे से दो तीन किलो मिटर चलते आती थी ब्रह्मपूर के हमारे घर। एक दो को  बगल में खोसे, और दो तीन को आगे पीछे डोलाते चलते ले आती थी बच्चों को अपने साथ। सुबह दवाखाने के कमरे का दरवाजा खोलने से पहले ही कट्टे पर आबिदा की सवारी बैठी रहती। हल्के बादामी रंग के बुर्के में लिपटी वह , हमें देखते ही मुंह पर का रकाब उठाकर सलाम करती । मेरे ससुराल के सारे सदस्य उसे जानते थे वह सबसे सलाम दुआ करती, हालचाल पूछती, बातें करती। चुलबुल-चुलबुल करते बच्चों को लिये दवाखाने की बेंच पर बैठे-बैठे भीतर घर के अहाते में झांककर देखती…मेरी सास से बातें करती । खीर पुलावो की बातें, अचार मुरब्बे की बातें, ईद त्यौहार की बातें , पीर पूजा की बातें … !! उसकी ये सारी बातें सुनकर मुझे आश्चर्य होता । पूछने पर हॅंसते कहती ‘‘ नहीं अम्मा … मेरी अम्मा की एक बम्मना की सहेली थी तुम जैसी शहाबाद में। रेलवे के मोहल्ले में हम सब रहते थे। भौत उठना बैठना था उनके साथ। इसीलिए मुझे तुम्हारे सब तौर तरीके मालूम है’’।

आबिदा सब से बोलती, बोलने से पहले उनका चेहरा देखकर हॅंस पडती। जबरदस्ती अपने चेहरे पर हॅंसी के कोलाज के चौखटा को चढाती। चाहे वह जान-मान का हो या ना हो, बातें काम-धाम की हो या ना हो। वह सबसे ऐसा बोलती जैसे वह सबका उधारी चुका रही हो। उसके बोलने के ढंग में एक नमूने की बेफिक्री रहती।  ‘‘ अरे, बातें करने में क्या जाने वाला है अम्मा, न लेने का ना देने का-मुंह में जुबान है तो बोलने के लिए…उल्लू की तरह घूरते बैठने से क्या मिलता ? ‘‘ उसका यह बेढंगी फलसफा किसी की जबान चढे या ना चढे लेकिन आबिदा अपना उल्लू जरूर सीधा कर लेती. अपनी जुबान की खुजली मिटा कर के !!

एक दिन वह हमारे यहॉं आयी थी…लेकिन उस दिन साथ में बच्चे नहीं थे। सफेद पाजामा कुर्ता और चाकलेटी ऊनी टोपी पहना एक बूढा बुजुर्ग और चिकन का दुपट्टा ओढी बूढी औरत उसके साथ थे। जब भी आबिदा के आने का आहट पाती मैं अपना काम-धाम छोडकर दवाखाने के कमरे के पास आकर, भीतर झांकती। आबिदा की मसखरी भरी बातें मुझे अच्छी लगतीं। किसी बहाने उसे भीतर बुलाकर, उससे बातें करती। बातुनी आबिदा के लिए तो यह ‘‘शेख भी कहे आम की बातें, आम को भी भाये आम की बातें ‘‘ वाली बात थी। मुझे लगता ‘शायद मेरी अम्मा की भी कोई मुसलमान सहेली रही होगी जिसके ही मुहल्ले में मैं भी पली बढी हुई होगी !!

मेरे भीतर आने की आहट पाकर साथ आये दोनो से बुर्के में से ही इशारा करते हुए कहा ‘‘ सलाम करो दागदर साब की जोरू हैं और ये हमारी अम्मा है।’ मैंने भी हाथ जोडकर नमस्कार किया। मेरे नजदीक आकर लगभग कान में सुनाने जैसी आवाज निकालते कहने लगी ‘‘ अम्मा तुम्हारे भय्या बाबू के अम्मी अब्बा है… महीने से पीछे पडे थे…दागदर को दिखाओ दागदर को दिखाओ, नै सो सौ ढंगा है अम्मा इनके। कुछ नै रैता चुपीच जान खाते, ऊपर से इनका मुझे डॉंटना अलग। इसीलिए बुलाको लाई… साब का चाय नाश्ता हुआ नै ‘‘। अपने सास  ससुर को हाथों से सहारा देकर बेंच पर बिठाते हुए उन्हें मेरे सामने ऐसा पेश कर रही थी जैसे मॉं अपने बच्चों को डॉंटते हुए स्कूल में टीचर के सामने उनकी शिकायत पर पेश करती है। अपने पति बाबू से बहन का रिश्ता जोडकर, बडी सहजता से सामने बैठे बुजुर्गों को मेरा माँ-बाप बना दिया था आबिदा ने। आबिदा की चालाक बातों की जाल में हरबार सब फॅंसते ही जाते… और वह है कि बादामी रंग की बुर्के की जाली में से अपने सॉंवले गोल चेहरे में हॅंसती बडी-बडी ऑंखों को और भी खिलाते जाती !! बैठे-बैठे मै सोचती ‘अंतर्राष्ट्रीय मसलों को हल करने के लिए बुलाई जानेवाली सभाओं में अगर आबिदा को बिठा देंगे तो क्या होगा ‘और उसके व्यवहार की कल्पना करके मै खुद ही खुद हॅंसते जाती।

उस दिन मैंने देखा …आबिदा आयी थी लेकिन हमेशा की तरह सुबह तडके नहीं… दस साढे दस के करीब वह आयी थी। साथ में बगल का एक ही बच्चा था, दुबला-पतला सा दूसरे बच्चों की फौज नदारद थी। किसी इमेरजन्सी के चलते डाक्टर भी घर पर नहीं थे। मुझे पास बुलाकर एक बडी सी थैली मेरे हाथ पकडाते कहने लगी ‘‘शहाबाद के अम्मी के खेत के मूंगफल्ली है अम्मा ‘‘ थैली हाथ में पकडे-पकडे वहीं बेंच पर बैठते मैने कहा ‘‘ बाल बच्चों का घर है तेरा उन्हें खिला देती, नाहक तूने…’’ बीच में ही मुझे टोकते उसने कहा ‘‘ अम्मा घर का बरकत बॉंटकर खाने में है., और बच्चे भी..’’ बच्चे कहते ही मुझे भी कुछ याद हो आया मैने पूछा ‘‘ हॉं आबिदा क्यूं आज इस अकेले को लायी हो, दूसरे कहॉं है। उलटे हुए बुर्के में से पूरा चेहरा खिलाते कहने लगी, ‘‘नहीं अम्मा ओ सब मेरे नहीं. मेरी दोनों देवरानियों के हैं तीन तीन बच्चे। मेरा यही अकेला है। एक दो आज इस्कूल गये हैं और दूसरे अपनी अम्मी के साथ थे।’ इसीलिए नै आये मेरे पिच्छे पिच्छे। ‘‘ बच्चे की ओर मेरे देखने के अंदाजे से ही वह समझ गयी , तपाक से बोल पडी ‘‘बहुत बारीक पैदा हुआ था अम्मा यह… कितने ही तो पीरों के यहाँ चरागां जला जलाकर बचा ली हूं इसे और दागदर साब की दवा और आपकी दुआ से बचा है अम्मा यह ‘‘इत्मीनान से मुझे बैठा हुआ देखकर उसे मैदान साफ नजर आया । बातुनी आबिदा फिर छूट पडी,’’ जब इसके पेट से थी तो तुमारे भय्या की मिल की नौकरी छूट गयी। ढंग से खाना नै दवा नै दारू नै। मेरी कमजोरी इसको लग गयी अम्मा। अभी भी वइच  हाल है। महीना गया नै बुखार जुकाम खांसी, दस्त लगेच रैता है ‘‘

घर के भीतर से मेरे नाम से किसी की आवाज सुनकर आबिदा बच्चे को बगल में लिये सलाम करके निकल गई। और मैं वहीं थैली से मुंगफल्ली निकालकर कुतरते बैठ गई। सोचने लगी ‘आबिदा जैसी कितनी ही तो औरतों के परिवार है हमारे समाज में, जो बच्चे की पैदाइश को पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं समझते और बच्चे के परवरिश को मिल जुलकर सफलता से नहीं निभाते। अपनी औरतें हैं कि अंत तक इसके लिए पति और ससुराल वालों को जिम्मेदार ठहराकर उन्हें कोसते ही रह जाती हैं। कुपोषण से लडना हर-एक की जिम्मेदारी है। ससुराल हो या मायका इससे अपना पल्ला नहीं झाड सकता।’

शायद टीवी पर परिवार नियोजन की सरकारी विज्ञापनों को देखने का नतीजा होगा, सोचकर अपने आप पर ही हॅंसते हुए थैली लेकर भीतर चली गयी। खैर इसके बाद आबिदा का हमारे यहाँ आना ही लगभग बंद हो गया। मेरे खयालों में भी उसकी याद आती… जाती…आती… चली ही गयी।

लेकिन बहुत सालों बाद आबिदा अचानक प्रकट हो गयी। साथ में बहु को लाई थी दिखाने वह भी शाम के समय। वही बादामी रंग का बुर्का। लेकिन कुछ नया सा लग रहा था। बेटे के ब्याह में खरीदा होगा । ‘‘ अरे…आबिदा तेरे उस लिजलिजा सा खांसी बलगम का पुलिंदा बेटे ने शादी बना ली….? मेरी हॅंसी रूक न सकी। आबिदा की चुलबुले हॅंसी मजाकिया स्वभाव से तो मैं वाकिफ थी। लेकिन बगल में खडी गोल- मटोल गिड्डी काली बुर्के वाली बहु को मेरी हॅंसी कैसे लगी पता न चला। बुर्के से कोई हरकत होता न देख मैं एकदम चुप हो गयी। आबिदा ने ही आगे बढकर हॅसते हुए मेरे हाथ मिठाई का डब्बा देते बहू से सलाम करने कहा। वहीं बेंच पर इत्मीनान से बैठते हुए बुर्के के बंद खोलू जालीदार रेशमी परदे को ऊपर  उठाकर कहने लगी ‘‘क्यूं न होगा अम्मा… दागदर साब की दवा का और आपकी दुआ का असर है देखो …इस काबिल हो गया। लेकिन क्या करें अम्मा, तुम्हारे भय्या के नसीब में नै था, अल्ला का रहम देखना’’ उसके चेहरे पर गम और खुशी के भाव आ जा रहे थे। आबिदा के चेहरे पर खुशी नूर की तरह टपक रही थी वहीं बगल का गोल-मटोल संवेदनाहीन चेहरा बिना ऑंखें झपकाये एकटक मुझे ही घूरे जा रही थी। बुरखे में अब भी कोई हलचल होता न देख मैं चुपा गयी। लेकिन मुझे जरूर लगा… ‘अपनी आबिदा हॅंसता चांद है लेकिन इसकी यह बहू? इसमें तो आबिदा के खिलखिले स्वभाव का पौ भर का हिस्सा भी नहीं। न मजाक का अहसास और न ही खुशी का इजहार। चेहरा है या भुतनी का लबादा…!!’’ भीतर से पता नहीं क्यूं मेरा मन अस्वस्थ हो गया। खुशी से बोलती दिपदिपाती आबिदा से मैं कुछ कह नहीं सकी ।

मैं सोचने लगी, आबिदा हजारी प्रसाद द्विवेदी के लिखे उस शिरीष की तरह है जो भर भरे धूपकाल में फूलों से लदाफदा रहता है, शिरीष के उस फलों की तरह है जो हर मौसम में जीवन रूपी वृक्ष से लगे लगे रहते हैं, अपनापन जताते रहते हैं।

यूं तो आबिदा कोई विशेष हिस्सा नहीं थी मेरे जीवन की। उसे तो मैं भूल ही गयी। लेकिन पता नहीं क्यूं फिर आबिदा के साथ का मेरा संपर्क शायद खत्म नहीं हुआ था। वह फिर आ गयी मेरे घर। लगभग आठ दस साल बाद। इस बार साथ में कोई नहीं था। अकेली थी आबिदा। मुझे आश्चर्य हुआ। वह कभी अकेली नहीं होती किसी न किसी को लेकर आती है साथ डॉक्टरी इलाज के लिए। कभी वह अकेली अपने इलाज के लिए आता मैने नहीं देखा था। इस बार वह अकेली थी। बेरंगी बादामी बुरखे के परदे को आहिस्ता से ऊपर करते हुए निढाल सी बेंच पर बैठ गयी। मैं खडी-खड़ी उसके चेहरे को ही देखती रह गयी। चेहरे से जैसे सारा रस निचुड गया था,ऑंखों से नूर जैसे गुल हो गयी थी। मेरी चढी त्यौरियों को देख आाबिदा  के चेहरे पर हंसी बेबसी सी पसर गयी। उसके आने का आहट पाकर मेरी सास भी भीतर कमरे में आ गयी। उन्हें देख उसके चेहरे की हॅंसी बेबसी की सारी बाधाएं तोडकर ऑंखों से बरसने लग गयी। हम दोनों को उसे समझाने के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा था।

‘ पत्थर तक से बात करती है वह ‘यह मुहावरा जुमला हुआ था उसपर। हर कोई उसे देखकर कहता। ‘बोलना हॅसना उसके जेवर हैं मॉं के पेट से ही पैनकर आयी है उने।‘ लेकिन आज वही हॅंसोडी आबिदा फफक-फफकर रो रही थी। धीरे-धीरे सारी बातें खुलती गयी।

बहु घर के चादर के नाप की नहीं थी। उसके पैर दिन-ब-दिन पसरते ही जा रहे थे। दिन की ऑटो की कमाई में माँ-पत्नी और दो बच्चों का पेट भरना बेटे को भारी पडने लगा। सास ससुर देवर जेठानियों के बीच जीवन गुजारी आबिदा को बहू के नखरे अजीब लगते। बेटा बुरा न माने, बेटा दुःखी ना हो, बेटा ये न समझे बेटा ओ न समझे सोच सोचकर आबिदा गलने लग गयी थी। ससुराल के हल में बैल की तरह जुती आबिदा फिर से बेटे के लिए घर का सारा भार अपने कंधे पर उठा लिया था। हॅंसते-हंसते सारे काम निपटाते जाती। लेकिन समय का सूरज जैसे जैसे ढलान पर उतरने लगा… आबिदा थकने लगी। बहू का बरताव उसे बेगाना जतवाने लगा। उसने सोचा, ‘यह तो बेगानेपन की जुतायी है। न किसी को उसके मेहनत से मतलब और न उसकी परेशानी से चिंता। वह अकेली पडने लगी। उसकी हॅंसी, उसका मसखरा घर के चारों कोनों में चित्त से पडे रहने लगे। लेकिन बहू है कि हथेली में बाल उगाये बैठी थी।

आखिर चारा न पाकर बेटा अधिक कमाई के लिए विदेश निकल गया। महीना-महीना पैसा भेजने लगा। बहू बच्चे खुश, नये कपडे लत्तों से लदे-फदे। सिनेमा, बाजार सैर सपाटे में मस्त। लेकिन आबिदा को वह पैसा छूना तक हराम लगता। उधर बेटा मेहतन करता है, भूखा पेट रहता है, आसमान के नीचे सोता है। बेटे के खून पसीने की कमाई पर बहू पोतों की मटरगश्ती उसके चेहरे की सीन को छीनती गयी। ऊपर से बहू के ताने। पेट भरना भारी पडने लगा। आबिदा भूखी पेट भले ही रह सकती थी लेकिन हॅंसने-हंसाने  के बिना रहना जैसे उसे असंभव सा था। कोने में बिखरे पडे अपनी हॅंसी के टूटे किरचों को बटोरा, हड्डियों में बची रही सही ऐंठपन को कसकर, खूंटी पर टंगे अपनी बादामी रंग के बुर्के को ओढकर घर से निकल पडी आबिदा । बेटे की खून की कमायी का बेरहम कौर तोडना उसपर काफिर गुजरा। चेहरे पर लदी बेबसी की हॅंसी को उतारकर आबिदा घरों के काम पर लग गयी। फिर से हॅंसने लगी, खिलखिलाने लगी।

आबिदा से मेरी मुलाकात उसके मौत की खबर आने के कुछ ही महीने पहले हुई थी। शायद उस दिन वह ईद का पैगाम देने आयी थी। वही उसकी आखरी मुलाकात थी। उस दिन वह बहुत खुश नजर आ रही थी। मुझे लगा उसके चेहरे से निसर गई हॅंसी फिर से सूखी झुर्रियों में धीरे-धीरे भरती जा रही है। आबिदा  मेरे थमाये गिलास से चाय का घूंट भरते कहते जा रही थी और साथ में हॅंसते भी जा रही थी। सामने बैठे मै उसकी बातों को सुनते जा रही थी। जैसे मेरी कहानी का कोई जीवंत किरदार मेरे सामने अपने आप को खोलते जा रहा हो।’ अम्मा अब मै मर गई तो भी कोई परवा नै। अपना कमाती हूं खाती हूं। मैने यूं ही पूछा, ‘‘कितना पैसा जमा कर लिया है आबिदा।’ फटाक से बोल पडी ‘‘होंगे बीस पच्चीस हजार !’ मेरा एकटक सुनता देख फिर कहने लगी ‘‘मैं बुड्डी हो गई हूं….मर गई तो मुझपर किसी का भी पैसा नै लगना, बेटे का भी नै। अम्मा आजकल मय्यत उठने के लिए भी बीस-पच्चीस हजार से कम नहीं लगते”

आबिदा का वह आखिरी वाक्य मेरे कानों में गूंजने लगा था। होठ बुदबुदाने लगे मैं सोचने लगी, ‘‘मौत के बाद भी शायद हॅंसी उसके चेहरे पर खिली रही होगी।’’  खबर सुनकर जर्र हुआ मेरा चेहरा यह सोचकर खिल गया ‘‘चुलबुली मसखरी हंसोड़ आबिदा बादामी रंग के बुर्के के जालीदार परदे से झांककर, बीस पच्चीस हजार के हिसाब-किताब के बहाने काजी से बोलने-बतियाने के लिए उठ कर बैठ तो न गयी हो’’                              

अपनी मौत को भी वह हॅंसी की पोटली में बांध कर ले जा रही थी ।  

लेखक परिचय: विभागाध्यक्ष , हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका परिमला अम्बेकर मूलतः आलोचक हैं.  इन्होंने कहानियाँ भी लिखी है. संपर्क:09480226677

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ISSN 2394-093X
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