वे सख्त दिल मह्बूब: सफ़र के क़िस्से


सबाहत आफ़रीन
सिद्धार्थनगर, उत्तरप्रदेश के एक गाँव न रहकर एफएम रेडियो के लिए लेखन

कहने को तो हम औरतें अपने बच्चों से सख़्त आजिज़ होती हैं। मौक़े बेमौके उनका रोना पीटना ,ज़िद करना, सर पे सवार होना , जान जलाए रहता है, वैसे तो ख़ुद में मगन खेला करेंगे, मगर हम जैसे ही किसी काम मे मशगूल होंगे, या हमारी दिलचस्पी का कोई लम्हा होगा, ठीक उसी वक़्त हमारे बच्चे,हमारी सब्र का इम्तहान लेने, अपनी तमाम शरारतों के साथ आ खड़े होते हैं।लेकिन बाज़ दफ़ा  यही बच्चे बड़े कारआमद साबित होते हैं ।

जॉइंट फैमिली में तो बच्चे हर छोटी बड़ी बहानेबाज़ियों की बेहतरीन यक़ीनबख्श वजह बन जाया करते हैं ।यही वजह है, लाख आफ़त मुसीबत नाज़िल किये हों बच्चे, मगर औरतों के मुनासिब ढाल भी बन जाया करते हैं। एक तो मुझे अल्लाह मौक़ा दे बच्चों के गिले शिकवे बयान करने का ।

ख़ैर , गुज़िश्ता रोज़ हमें भी बच्चो के तुफ़ैल पहाड़ों की सैर करने का मौक़ा फ़राहम हुआ, हुआ यूं, हमने ज़माने की यतीमी चेहरे पे उंडेल कर कुछ ऐसी मिस्कीनी सूरत बनाई , बच्चों की बाहर घूमने फ़िरने की ख़ाहिश कुछ ऐसी बेचारगी से बयान की।

बच्चो की तरफ़ से भाई और अम्मी को कुछ यूं मातमी निगाहों से देखा , कि ख़ुद तरसी की शिकार सत्तर रूहें भी हमें देख कर गश खा कर गिर गिर पड़तीं। इतनी आला दर्जे की नाटकबाज़ी का कोई तो रिज़ल्ट आना ही था।  और हमारे हक़ में अम्मी का फ़रमान जारी हो गया ।

भाई और मामू के साथ हम लोग 3 दिनों के लिए नेपाल की हसीन दिलरुबा , अल्हड़ मस्त नदियों और किसी सख़्त दिल महबूब की तरह टस से मस न होने वाले पहाड़ों की मज़ेदार सैर करने को निकल पड़े ।

पहले रोज़ लुम्बिनी का सैर करना तय पाया गया , गौतम बुद्ध की जन्मस्थली देखने की शदीद ख़ाहिश थी , उसकी एक वजह ये थी कि बचपन से गौतम बुद्ध की अच्छाई की नेकी की बहुत सी कहानियां अम्मी से सुन रखी थी , या यूँ कह लें  उनके क़िस्से कहानियां सुन कर बड़े हुए थे हम। परिंदे से नेक सुलूक की दास्तान और वो कविता जो अम्मी हमें सुनाती थीं,”

नेपाल का एक दृश्य

माँ कह एक कहानी, राजा था या रानी ।
तू है हठी मानधन मेरे ,सुन उपवन में बड़े सवेरे
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहां सुरभि मनमानी।”

हम सोने से पहले बिला नागा सुनते थे। ये अलग बात है, ज़िन्दगी भर अच्छे और बेहतरीन लोगों की कहानियां सुनी और उनका ज़र्रा बराबर असर नही हुआ हम पर।

 और लुम्बिनी जाने की दूसरी ख़ास वजह या शायद दूसरी बड़ी वजह ये थी कि लुम्बिनी से 1 घण्टे के फासले पे हमारी प्यारी सहेली शहनीला की ससुराल थी । उनसे मिलने की जुस्तुजू दिल मे सजाए हम सफ़र पे रवाना हुए ।

लुम्बिनी में  गुज़रे ज़माने के वक़्तों की धूल देखी , वो शानदार  , बेहतरीन रख रखाव वाले , महलों वाले , सच्चाई की तलवार पे चलने वाले , अल्लाह के ख़ूबसूरत बन्दों के हल्के निशां देखे । जो मिट गए , ख़त्म हो गए , मगर अपनी कभी न मिटने वाली ज़िंदा इबारतें छोड़ गए । 

कुछ लम्हे रंज भी हुआ खुद पे , कि इस दारे फानी में हम सब एक पत्ते पे गिरे शबनम की बूंद जैसे हैं , जिसका कोई पता नही कब बेवजूद हो जाये ।  ज़रूरी कामो से फ़ारिग होकर यानि फोटोज़ वग़ैरा क्लिक कराकर , हम शहनीला के घर की तरफ़ रवाना हुए । रास्ते मे धूल भरी पतली सड़को को देखते हुए , नेपाल सरकार की एक ख़ास बात अच्छी लगी । वहां की सरकार प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बिल्कुल नहीं करती , जो सड़क जिस हाल में है ,उसे वैसे ही रहने दिया गया है । 

ख़्वाह आपकी गाड़ी गढ्ढे मे चली जाए , या फ़िर हिचकोलों से आपका पेट मे गया खाना वापस से मुँह में आने की ज़िद कर बैठे , धूल से आप को सामने कुछ भी नज़र आना बंद हो जाये , मगर मजाल है जो नेपाल सरकार ग़रीब मुसाफ़िरों की सुविधा के बारे में सोचे , उन्हें क़ुदरत से छेड़छाड़ नही करनी , बात ख़तम ।

या ख़ुदा मैं इस हद तक शिकायती क्यों हूँ ? 

ख़ैर शहनीला के घर ज़बर्दस्त इस्तक़बाल हुआ हम सबका। रोस्टेड काजू बादाम पिस्ते की प्लेट्स पे मेरी नज़र पड़ी ही थीं कि उससे पहले शहनीला के तीनों साहबज़ादे उन पर टूट पड़े। 

तीनो की उम्र में तक़रीबन  1 या डेढ़ साल का फ़र्क़ रहा होगा। 6 साल से लेकर 3 साल तक के छापामार सिपाहियों ने ड्राई फ्रूट्स का नामो निशान मिटा दिया। मैं मेहमानी रवायत निभाते हुए , बज़ाहिर खुशदिली का मुज़ाहिरा करती रही , वरना दिल चाह रहा था , तीनो को ज़ोरदार डाँट लगाऊं और पिस्तों की प्लेट्स अपने क़ब्ज़े में कर लूं। क़ायदे से मेज़बान ऐसे होने चाहिए जो कुशादा दिल रखते हों, ख़ुद भूखे पेट भले रह जाएं, मगर क्या मजाल जो मेहमानों की शान में गुस्ताख़ी रह जाये। 

पहली बार मेरे दिल मे अपने बच्चों के लिए नर्म गोशा पैदा हुआ, ज़रा से मुहज़्ज़ब, शर्मीले ,इंसान नुमा लगे मुझे।

खाने पीने के दौर से फ़ारिग़ हुए तो शहनीला के शौहर जमाल साहब नमूदार हुए ।राजनीति में ऊंचा क़द रखने  वाले जमाल  ख़ुद भी लंबे क़द  के ख़ुशशक्ल और थोड़े  मगरूर से लगे। पहली मुलाक़ात या यूं कहिए रस्मन सलाम दुआ करते ही छठी हिस को कुछ अच्छा एहसास नही हुआ।  शहनीला कई दफ़े उनकी रंगीनमिजाज़ी के दुखड़े  हमसे रो चुकी थी, और उसके बयान किये किस्सों पे हम सेकंड के हजारवें हिस्से में फ़टाफ़ट ईमान ले आये ।

मर्दों की ये वाली कैटेगरी भी  कमाल की सिफ़त रखती है। मुख़ालिफ़ जिंस को घूरने में अल्लाह मियां के यहां से मास्टर्स की डिग्री ले के आये होते हैं। कोई गरज़ नहीं, सामने वाला या वाली हैरान परेशान है , कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि साथ में बैठी उसकी बीवी किस हद तक शर्मिंदा और नादिम है, कोई एहसास नहीं कि जिसको घूर रहे हैं वो ज़िल्लत के एहसास तले दबा जा रहा है । 

 जमाल साहब की लगातार एक्सरे करती नज़रों से घबराकर हम ने उनके निहायत शैतान बच्चो को झटपट गोद मे बिठा लिया, बिठाया नही दबोच लिया ज़बरदस्ती । फ़िर भी उनकी निगाहें मुख़्तलिफ़ ज़विये से सर से पैर तक के सैर ओ तफरीह में मगन थीं और उस पे  सितम ये हुआ कि उन साहब ने दूसरे दिन का झटपट प्रोग्राम बना डाला,  हम सबको काठमांडू घूमाने का । 

शहनीला शौहर की फ़ितरत से बख़ूबी वाकिफ़ थी , उसने हीले बहाने बना कर प्रोग्राम रदद् कराया, मैंने नज़रों नज़रो में उसे खूब प्यार दिया कि ऐसी औरतें जो सारी जिंदगी अपने शौहरों की ग़लत हरकतें झेलती हैं और शर्मिंदगी के बोझ तले दबी रहती हैं, उनके दिल किस हद तक हर पल ज़ख्मी होते होंगे ,इसका पूरा अंदाज़ा हुआ मुझे।

ख़ैर शहनीला से ख़ूब सारी मुहब्बतें वसूल कर, अगले रोज़ हमारा सफ़र बुटवल की तरफ़ रवाना हुआ। मेरे बच्चों ने तौबा क़ुबूल करवाने में कोई कसर नही छोड़ी , मगर फ़िर भी क़ुदरत के हसीन नज़ारे आंखों को खुशुनुमा लज़्ज़त बख्श रहे थे । पहाड़ो के सीने चाक कर , उनमें ज़िन्दगी ढूंढने वाले मेहनतकश इंसानों के ज़ज़्बे के आगे सर झुक गया। रस्ते में जहां कहीं हम गाड़ी रुकवाने को होते , मामू हस्बे आदत मुझे झिड़क के गाड़ी आगे बढ़ा ले जाते। सारे रास्ते मामू  की नसीहतें सुनते, उन पर बिल्कुल भी ध्यान न देते हुए हम , ख़यालों की खूबसूरत पगडंडियों पे भागते रहे ।

 आगे भूत खोला नाम की नदी पे हमारा रुकना हुआ ।नेपाल में नदियों को खोला कहते हैं । ऊंचे पहाड़ों पे पतली सड़कों पे हमारी गाड़ी , और ख़ूब नीचे नदी तक पहुंचने के लिए एकदम खड़ी सीढियां । नदी के ऊपर दो पहाड़ो को जोड़ती हवा में लटकती जंजीरों और तारों को जोड़कर बना पुल । हम लोग मामू की नसीहतों को दरकिनार करते हुए , तेज़ क़दमो से सीढियां उतरते पुल की जानिब चल दिये । बच्चो की ज़िम्मेदारी भाई ने ली थी , और हम , ख़ुद  से लापरवा ख़ुशी से चहकते  हवा में झूलते पुल पर चलते जा रहे थे । 

काफ़ी खूबसूरत समा था ,ख़ूब लम्बा पुल, पुल  के एक तरफ़ घना हरा भरा जंगल, और एक तरफ़ सीढियां, सीढ़ियों से लगी पहाड़ी सड़क।

 पुल के नीचे पत्थरों पहाड़ियों में घिरी बहती नदी , और मेरे ऊपर आसमां । मैं खो सी गयी,उस वक़्त मेरे दिल मे आया , अगर मैं नीचे गिर गयी तो ??

भूतखोला नदी के पास पिथेकीयस पार्क है , जिसपे नेपाल सरकार भूल कर भी नज़र उठाने की भूल नही करती। पार्क किसी ज़माने में बेहतरीन रहा होगा, फ़िलहाल माज़ी की याद रह गयी है। कहते हैं वहां आदि मानव का दांत मिला था। ये बात वहीं के बाशिंदे ने काफी ज़ोर देकर बतायी ।

हम आगे बढ़े , हस्बे आदत सफ़र में चाय की शदीद तलब हुई मुझे। आगे पहाड़ी रस्ते पे , नीचे तीखी खाई और बेहद पतली सड़क पे , जोरधारा नाम की जगह पर ,उत्तम चिया पसल नाम की चाय का ठिकाना दिखा ।

नेपाल

इंसान ने हर जगह जीने के बहाने ढूंढे हैं , छोटी सी चाय की दुकान को 2,3 औरतों ने संभाल रखा है , उनकी दुकान के ठीक सामने ऊपर पहाड़ से झरने की शकल में क़ुदरत पानी मुहैया करता है। बेहतरीन साफ़ पानी ,आप मिनरल वाटर कह सकते हैं, जिनसे वो अपनी ज़रूरतें पूरी करते हैं।

यहाँ से बच्चों को डाँट डपट कर , धमका कर उन्हें जैकेट पहनाया गया , ठंड बढ़ गयी थी , और हम पाल्पा से तानसेन शहर की तरफ़ रवाना हुए। 

तानसेन ऊंचे पहाड़ पे बसा छोटा सा शहर है। हम पहाड़ो के दामन में सिमटे , पहाड़ी संकरे रस्तों पे चलते हुए , नीचे गहरी खाइयों की तरफ़ हैरत से देखते हुए तानसेन पहुंच गए ।

एक बात और बता दूं , हमें कहीं मोटे मर्द मोटी औरतें नहीं दिखीं। क़सम नही खा सकती, मगर बेहद फिट बाशिंदे लगे वहां के । इसकी वजह उनका बेहद मेहनत मशक्कत करना और ख़ुशबाश  रहना है ।

तानसेन शहर में यूँ ही बिला मक़सद घूमते हुए हम पाल्पा दरबार पहुंचे । किसी ज़माने में नेपाल के राजा ने पाल्पा में क़याम करने के लिए ये महल बनवाया ,जिसे पाल्पा दरबार के नाम से जाना जाता है । शोख़ रंगों की बहुरंगी इमारत , लकड़ियों की पुराने तर्ज़ की नक़्क़ाशी और शानदार महसूस कराने वाला पाल्पा दरबार , गुज़रे ज़माने की अपनी बेमिसाल अहमियत और तारीख़ में क़ैद हुए उन ज़हीन लोगो की याद दिलाता है ,जो हमसे कहीं ज़्यादा बेहतर और बेहतरीन समझ बूझ रखते थे ।

पाल्पा दरबार में कुछ वक्त गुज़ार कर , तानसेन शहर में घूमने का प्रोग्राम बना। मज़ा ये आता है ,कि आप पहाड़ो पे रहने के आदी नही , अपने क़दमो को क़ाबू में करके चलना होता है ,वरना अचानक से ढलान वाली सड़क गिरा भी सकती है। हम सीधे रस्तों पे चलने वाले,तीख़ी तेज़ गलियों में बैलेंस खो भी सकते हैं।लेकिन डरना तो हमने सीखा नहीं,इसलिए हर जगह ज़ोर आज़माइश करते रहे।

लाइन में सजी छोटी छोटी शाप्स को देखते रहिये , मगर निगाह रस्ते पे रखिये जनाब , क्योंकि पहाड़ों पे कब अचानक से तेज़ ढलान आ जाये , कह नहीं सकते ।

मुख़्तलिफ़ पोज़ में फोटोज़ लेते हुए, थकन से बेहाल हम लोगों को , किसी तरह ठेल ठाल कर मामू  बटेसर डाङा की तरफ ले कर चले। मामू ताने मारने में मेरी अम्मी को भी पीछे छोड़ते जा रहे थे। जैसे ही हम किसी जगह पे हाथ पावँ खड़े करके ,ज़रा दम लेने को कहते (यहाँ भी हम बच्चों का बहाना बना देते ,कि बच्चे थक गए होंगे ,थोड़ी देर आराम कर लें), मामू कहते ,” यही रोज़ हंगामा करती थी घूमने जाने के लिए ? अब कान पकड़ लो अब न कहना ।” मामू ख़तरनाक अंदाज़ में धमकी देते।

और हम जले पैर की बिल्ली की तरह उछल खड़े होते कि अल्लाह मियां मामू के दिल मे रहम डाल दें ।

बतासा डाङा बेहद ऊंचा पहाड़ है , वहां से हिमालया की रेंज साफ़ देखी जा सकती है। बर्फ़ीले पहाडो की झलकियां चमकते सूरज में कुछ यूं लगीं ,जैसे नयी दुल्हन की नाक में चमकती सफेद नग की लौंग। इतनी ऊंचाई पे बैठ कर मेरा दिल घबराने लगा, चक्कर से आने लगे। तेज़ हवाएं पहाड़ की ऊंचाई से नीचे खाइयों की तरफ़ फेंकने को आमादा लग रही थीं। हमने मामू की तरफ़ बेचारगी से देखा , और गुज़ारिश की वहां से नीचे उतरने की ।

माया देवी मंदिर, लुम्बिनी: फोटो संदीप सेन

मामू हमें फिर से तानसेन शहर लेकर आये ,वहां  होटल श्रीनगर में खाने-पीने की और ज़रूरियात से फ़ारिग़ होने के बेहतरीन इंतज़ामात थे। एक साहब गिटार बजा रहे थे, हम उसकी धुन में खोए जा रहे थे। फूलों की तो जैसे एक दुनिया आबाद थी होटल श्रीनगर में। हमारा तो ये हाल था किधर देखें, किधर न देखें। नयी तकनीक और गुज़रे रँगी बहारों को मिलाकर, ऐसा हसीन माहौल तैयार किया है श्रीनगर वालों ने कि दिल आ जाये।  हमने भाई से कहा , ऐसे होटल्स तो फिल्मों में देखे हैं , बाहर मुल्क़ों के होटल्स की जो तस्वीरें देखी थीं , वो हमारी आंखों के सामने जलवा अफ़रोज़ होकर , दिल ज़ेहन को अलग सी सरशारी बख़्श रही थी ।

इंसान  ख़ुदा बनने के बेहद करीब पहुंच चुका है। मैं हैरान होती हूँ , क्या शय है इंसान, दिलचस्प तिलिस्माती और शानदार दिलरुबाई ज़ेहन रखने वाला । 

जॉन एलिया साहब ने कहा है , 
“कितनी दिलकश हो तुम, कितना दिलजू हूँ मैं ,
क्या सितम है कि हम लोग मर जायेंगे ।”

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ISSN 2394-093X
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