प्रलेस की एक सदस्या की खुली चिट्ठी :पितृसत्ता के खिलाफ हर लड़ाई में हम आपके साथ हैं

आरती

संजीव जी,
इस मुद्दे को आप मुझे व्यक्तिगत भी भेजते रहे हैं, काफी दिनों से पढ़ रही रही हूं.

नूर जहीर संगठन के प्रथम पंक्ति की लेखिका, कार्यकर्ता और संगठन कर्मी भी हैं  उस स्तर पर क्या हो रहा है यह हम जैसे सबसे निचले पायदान पर काम करने वाले कम प्रचलित लेखक, संपादक को पता नहीं होता.

खैर इस पूरे मुद्दे पर पहली बात तो यह कह दूं कि विभूति नारायण से मेरी कोई सहानुभूति नहीं है. और मैं खुद भी उन्हें किसी कार्यक्रम में मंच पर बरदाश्त नहीं कर सकती . भरसक विरोध करूंगी लेकिन संगठन के भीतर. ऐसा करके मैं देखूंगी कि क्या कोई असर होता है, नहीं होगा तो किसी और तरीके के बारे में भी  सोचूंगी.  

हालांकि ऐसा कहते हुए मैं सोच रही हूं कि नूर जहीर, जिनका कद मुझे हमेशा प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा में बहुत ही महत्वपूर्ण दिखाई दिया,( वह है भी). वह इस तरह कि- वे जब भी किसी कार्यक्रम में दिखी हमेशा पहली पंक्ति में दिखी, उनकी बातों का वजन भी हमने महसूस किया फिर यदि वे उपेक्षित महसूस कर रही हैं और सोशल मीडिया पर गुहार लगा रही हैं तब हम अपने बारे में अंदाज लगा ही सकते हैं. अभी कुछ दिनों पहले  जब नूर जी भोपाल आई थी तब संगठन के सभी लोग ने, मध्य प्रदेश में प्रथम पंक्ति के लोग ने,( वही जो आपके शब्दों में भूमिहार और सामंती कहे जा रहे हैं इन दिनों) नूर जी स्वागत में लगे हुए थे. हम भी थे. खैर ऊपर से ऐसा ही दिखाई देता है भीतर कुछ और होता है.

आप ने बार-बार कहा कि संगठन के भीतर की महिलाएं क्यों नहीं बोल रही है? चुप्पी तो किसी भी विषय में खतरनाक होती है और मैं भी अधिक दिनों तक चुप नहीं रह सकी जब मैंने देखा  कि यह  मसला सामूहिकता की ओर जा रहा है. हालांकि मुझे किसी ने बोलने या चुप रहने कि न तो समझाइश दी थी और न ही मुझ पर किसी तरह का कोई दबाव था. वैसे भी कोई भी किसी पर कोई दबाव नहीं डाल सकता हर व्यक्ति आने और जाने के लिए स्वतंत्र होता है मैं भी हूं . 

मेरी बात कही जाए तो प्रलेसमैंने खुद चुना है, तो मेरी पहली प्राथमिकता होगी कि जिन वजहों से मैंने उसे चुना है उसमें सहयोग करूं. जैसा कि मैंने कहा कि मैं भी जिन चीजों पर मुझे  असहमति होगी, संगठन के भीतर आवाज उठाकर देखूंगी. हालांकि यह खरा सच है कि हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने की तरह ही लगभग सभी संस्थाएं ,संगठन और पार्टियां पितृसत्तात्मक सांचे में जकड़ी हुई है. वहां स्त्रियों के लिए बमुश्किल जगह बन पाती है और वह जगह भी पिछली पंक्ति में बैठने के लिए बनती है. जो बोलती हैं वे ऐसे परंपरावादी  ढांचे के लिए मुफीद नहीं होती. उन्हें तभी स्वीकारा जाता है जब वे उनकी तरह हो जाएं . उसी तरह लिखने लगे ,उसी तरह बोलने लगे. कोई जगह पाने के लिए उन्हें भी पुरुष की आवाज को अपनी आवाज बनाना पड़ता है. यह बात इसके पहले भी मार्क्सवादी विचारधारा और पार्टी के गठन के साथ ही प्रतिबद्ध महिलाओं ने महसूस की थी और कहा भी था. जिसकी जरूरत को महसूस करके लेनिन ने अपने समय में पार्टी में कई सुधारात्मक काम किए थे. इस आशय का एक लेख मैंने बहुत पहले लिखा था जो आपके स्त्रीकाल में भी प्रकाशित हुआ था.इसलिए नूर जहीर जिस आवाज को उठा रही हैं उसे मैं महसूस कर सकती हूं और उनकी आवाज को मेरा समर्थन है.

 एक बात आपके लिए – आप मेरे मैं अच्छे दोस्त हैं( ऐसा मैं मानती हूं आशा है आप भी ऐसा ही मानते होंगे). आप के द्वारा समय-समय पर उठाए गए मसलों का मैंने समर्थन किया है. एक बार मैंने कहा भी था, याद कीजिए, कि आप सच का साथ दीजिए और किसी के नाराज होने की परवाह मत  कीजिए . अभी भी यही कहूंगी. हालांकि आपके द्वारा उठाए गए कई मसलों पर मेरी राय अलग थी. कई बार मैं इसलिए चुप रही क्योंकि वह आपकी राजनीतिक धारा के लिए जरूरी था, जैसे कन्हैया कुमार का मामला. आपने क्या क्या लिखा, कब कब लिखा ,हमने आपको कभी नहीं टोका ना अपनी असहमति लिखी. क्योंकि  वह चुनावी रणनीति का  एक भाग था. वह आप की दलगत नैतिकता ही थी. और बोलना हर समय हर बिंदु पर जरूरी भी नहीं होता. 

लेकिन यह मुद्दा अलग है. हमारी वरिष्ठ साथी नूर जहीर से जुड़ा हुआ है और हमारे प्रिय संगठन प्रलेस से भी. इसलिए बोलना जरूरी है.

याद आता है कभी राजेंद्र यादव महिलाओं के खेवनहार  बने हुए थे, वहीं महिलाओं के सारे मुद्दे उठाते थे और महिलाएं पर्दे के पीछे खड़ी तालियां बजाती थी. यह सूरतेहाल आठवें-नौवें दशक और उसके बाद भी चलता रहा. इन दिनों वह भूमिका हमारे अजीज दोस्त संजीव चंदन ने संभाल रखी है. अभी भी स्त्रियों को अपने मुद्दे उठाने के लिए एक स्त्रीवादी मर्द की जरूरत है जो बारी-बारी सबसे पूछता है कि तुम क्यों चुप हो ? तुम क्यों चुप हो? अभी भी सूरतेहाल तीन दशक पहले वाले ही हैं.

 हमें बहुत अच्छा लगता यदि नूर जहीर अपनी लड़ाई में सीधे हमें शामिल करती, बजाय आपके मार्फत? नूर जहीर संगठन की वरिष्ठ साथी हैं हमारी प्रिय लेखिका भी .उनके मान-सम्मान के लिए (मैं यहां हम नहीं कहूंगी मैं कहूंगी)  मैं उनके साथ हूं, बशर्ते कि वे हमें अपनी लड़ाई का साथ ही तो समझे. 

मध्यप्रदेश के एक कार्यक्रम में नूर ज़हीर

यहां यह भी कहा जा सकता है कि क्या हर एक से पूछ-पूछ कर मसले उठाए जाएं ? और फिर जरूरी नहीं कि वे मुझ या मुझ जैसी महिलाओं को जानती भी हो( संगठन के भीतर की).

 तो नूर आपा !! एक बड़ी लड़ाई के लिए लोगों को आवाज तो देनी ही होगी . हो सकता है आप मुझे न जानती पहचानती हो, लेकिन कुछ महिलाएं तो है संगठन के भीतर हैं,जिन्हें आप जानती और पहचानती हैं . 

फिर भी मैं आपकी लगभग बातों का समर्थन करती हूं और पितृसत्तात्मक ढांचे के खिलाफ वह चाहे घर के भीतर हो या संगठन के भीतर या कहीं बाहर उस लड़ाई में आपके साथ हूं.

…………. आरती

लेखिका आरती प्रलेस के मध्यप्रदेश इकाई में हैं. वे समय की साखी नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका की सम्पादक हैं.

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ISSN 2394-093X
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