जब प्रलेस के बड़े लेखकों ने पाकिस्तानी महिलाओं से बदसुलूकी की

नूर ज़हीर

पाकिस्तान गये प्रगतिशील लेखक संघ के डेलिगेशन में शामिल बड़े पुरुष लेखकों ने पाकिस्तानी महिलाओं से बदसुलूकी की तो संगठन ने इस मसले को उठाने पर डेलिगेशन में गयी लेखिका को ही अलग-थलग कर दिया और अब खबर है कि जिनपर बदसुलूकी का आरोप है वे कुछ सालों तक महासचिव रहने के बाद संगठन के अध्यक्ष बनाये जाने वाले हैं और महासचिव तक प्रोमोशन लेखिकाओं को गालियाँ देने वाले दारोगा लेखक का होने जा रहा है. पढ़ें पूरा वाकया:

…नतीजा यह हुआ कि हमको तो हाथ-मुंह धोकर तरोताजा हो जाने का मौका मिल गया और मर्दों को हमारे बगैर खुली छूट मिल गई. आधे घंटे बाद जब सब बस में लदकर पहुंचे तो उनकी हालत देखते ही कमला प्रसाद जी बोले कि फ़ौरन गेस्ट हाउस चलना चाहिए. लेकिन सबने, खास करके सबुआ और राहत भाई ने जोर दिया कि हमें रुकना चाहिए. खुद मेरी भी इच्छा थी कि पाकिस्तानी गायकों को सुनूं लिहाजा मैंने भी उनका साथ दिया जिसका आज तक अफ़सोस है.

प्रगतिशील लेखक संघ का पंजाब में राष्ट्रीय अधिवेशन: ऑर्गनाइजेशन विदआउट वुमन

महफ़िल फर्श पर बैठी जिसके एक तरफ गायकों के लिए ऊँचा-सा डायस बना था. पहली गायिका ने गाना शुरू ही किया था कि इरशाद हसन साहब और अली जावेद ने इतनी जोर-जोर से ‘वाह-वाह” शुरू कर दी कि बिचारी कम-उम्र लड़की के होश फाख्ता हो गए और उसके सुर डोलने लगे. पहले ही वार में कामयाबी से दोनों इतने खुश हुए तख़्त को चारों तरफ सजाने वाले, ख़ास भारतीय डिजाइन में लगे, गेंदे के फूलों को नोच-नोचकर उसपर फूलों की बारिश करने लगे. देवताले जी ने उन्हें समझाने की कोशिश की तो अली जावेद बड़े फूहड़पन से हँसे. और चिल्लाकर बोले—“अरे कोई देवताले के मुंह पर ताला लगाओ, बहुत बोलता है.” देवताले जी एकदम बिफर पड़े और बड़ा शदीद झगड़ा शुरू होता अगर कमला प्रसाद जी और खगेन्द्रजी उन्हें न सम्म्भालाते. इतने नामी, इज्जतदार, बुजुर्ग और कम-से-कम आठ किताबों के लेखक की इस तरह से सरे आम तौहीन देखकर, जो कोई भी उनसे कुछ कहने वाला था वह अपने इरादे दबाकर चुप बैठा रहा.

अब तो दोनों ऐसा शोर मचाने पर उतारू हुए कि दो कलाकारों ने तो कार कर दिया. एक जो हिम्मत करके गाने बैठी तो ‘ फूल नोचो, फूल फेंको’ की जैसे दोनों में बाजी लग गई. इस बार सिर्फ गायिका पर ही नहीं, आसपास बैठे लोगों पर भी फूल बरसने लगे. अब पाकिस्तानी मर्दों में भी कुछ बेचैनी दिखाई दी.ये वे लोग थे जिन्होंने अपनी बहनों, पत्नियों के शौक को दबा देने के बजाय उसे पनपने के मौके दिए थे. इन्हें ख़ुशी थी कि इनके घर की औरतें सर्फ आलिशान बंगलों में बैठकर बनती-संवारती नहीं रहतीं हैं, अपने हुनर को मेहनत और रियाज से निखारने की कोशिश करती हैं. इन्हें फ़ख्र था कि संगीत की प्राचीन परम्परा वाले हिन्दुस्तान के नामी लेखकों के सामने उनकी बीबियों को अपनी कला दिखाने का मौक़ा मिल रहा था. उन्होंने कभी भी यह नहीं सोचा होगा कि उनके घरों की इज्जतदार औरतों के साथ इस तरह का बेहूदा बरताव किया जाएगा. उनमे से एक उठने लगा मगर दो ने ने उनका हाथ पकड़कर रोक लिया. दोनों के चहरे जब्त गुस्से से तमतमाये हुए थे. और हमारे डिप्टी लीडर न तो इस तरफ ध्यान दे रहे थे, न रत्ती बराबर मेजबानो का ख्याल कर रहे थे, बस फूल नोचने, उछालने, जोर-जोर से हंसने और चिल्लाने में मग्न थे. किसी ने सच ही कहा है कि किसी के किरदार के बारे में शक हो तो उसे तीन पेग विह्स्की पिला दीजिये और फिर उसका असली चेहरा देख लीजिये.

वह न जाने कब आकर मंच के बिलकुल पीछे बैठ गई थी और मुझे ऐसे घुर रही थी जैसे बीमार बच्चे की माँ हाथ में इंजेक्शन लिए हुए डॉक्टर को घूरती है. फिर वह तंज से मुस्कुराई जैसे कह रही हो—“ यही है युम्हारी संस्कृति, इसी तहजीब की तुम इतनी चर्चा करती हो ना. यही कला तुम दूसरों को दोगी ना—चुप रहना. बदसूरती से सामना हो तो आँखें बंद कर लेना. इज्जत पर हमला हो तो खामोश खून का घूंट पी लेना, अन्याय के आगे सिर झुकाना और शोषण देखकर मुंह दूसरी तरफ घुमा लेना. यह संस्कार तुम्हे सज्जाद जाहिर ने तो दिए नहीं तो फिर यह तुममे कहाँ से आ गए. तुम सोच रही हो ये लोग नशा करे हुए हैं. अरे इनसे ज्यादा तो नशा तुम करे हो. तुम्हे तो लत लग गई है, बर्दाश्त कर लेने की. इनका नशा का क्या मुकाबला करेगा तुम्हारे नशे का. दिल से तो बहुत कुछ करना चाहती हो और बस हाथ पर हाथ धरे बैठी हो. वाह वाही तो तुम्हारी होनी चाहिए.”

लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना दिवस पर शामिल हुए लेखक-लेखिकाएँ

मैं बराबर अपने मेजबान और ख़ास करके उन पाकिस्तानी पुरुषों को देख रही थी जिनकी बीबियाँ गा चुकी थीं या गाने वाली थीं. उनके चहरे और हाव भाव को देखते हुए मुझे लगा कि जल्दी ही कुछ करना चाहिए वरना शायद बहुत देर हो जाए. अपनी जगह से उठकर मैं उन लोगों के पास आई. मुझे आगे बढ़ाते देखकर और शायद कुछ मेरा मूड भांपकर राहत भाई ने भी पहली बार उन दोनों को चुप कराने की कोशिश की. अली जावेद बिगड़कर बोले—“ अरे काये को चुप हो जाए, क्या हम किसी से डरते हैं.” फिर पलटकर मुझे देखा और बोले_-“ हाँ नूर कहो क्या बात है.”

“बात कुछ नहीं है, बस आपसे इतना कहना है कि आप दोनों चुप हो जाइए. जिस आदमी के नाम पर यहाँ आये हैं उसके नाम का तो लिहाज कीजिए.”…..

चर्चित लेखिका नूर ज़हीर की किताब ‘सुर्ख कारवां के हमसफर’ का एक हिस्सा

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