जावेद आलम खान

दलित लेखक संघ के तत्वावधान में 20 अक्टूबर 2019 को एफ – 19 कनॉट प्लेस दिल्ली के संत रविदास सभागार में रजनी दिसोदिया की पुस्तक ‘साहित्य और समाज – कुछ बदलते सवाल’ का लोकार्पण व चर्चा का आयोजन किया गया। जो एक आलोचनात्मक निबंधों पर आधारित पुस्तक है।
इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे, दलेस के अध्यक्ष हीरालाल राजस्थानी ने कहा कि दलित साहित्य स्वानुभूति के साथ जुड़े सहानुभूति को कर्मानुभूति का साहित्य माना जाना चाहिए। जिसमें जाति धर्म से ऊपर व्यक्ति की कर्मानुभूति को महत्व दिया जाना ज़रूरी, नहीं तो यह कुछ लोगों में सिमट कर रह जाएगा और कभी भी हम डॉ. अंबेडकर के समतामूलक समाज की परिकल्पना को साकार नहीं कर सकेंगे। हीरालाल राजस्थानी ने आगे लेखिका को बधाई देते हुए कहा कि राजनीति ने साहित्यिक आंदोलन को ठगने का काम किया है। साहित्यिक चीज़ों को हस्तगत करके राजनीति अपने अनुकूल ढालकर अपना औज़ार बना लेती है। दलित आंदोलन इन्हीं साज़िशों का शिकार होता रहा है। आज लेखन में जोखिम उठाने की ज़रूरत है। जिस परिपक्व भाषा शैली में यह पुस्तक लिखी गई है वह सराहनीय है।
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मुख्य अतिथि रेखा अवस्थी ने अपने वक्तव्य में कहा कि हिंदी आलोचना में हस्तक्षेप करती यह पुस्तक आलोचना को एक नयी दृष्टि देती है। समाज में व्याप्त विभेद और अन्याय रजनी को आंदोलित करता है। इस किताब में सलीके से कही गयी बातों को हमें कक्षाओं में लेकर जाना चाहिए। जाति के मुद्दे को पाठ्यक्रम में न लाना भी एक साज़िश है। लेखिका की दृष्टि दलित या स्त्री विमर्श तक नहीं बल्कि कहीं अधिक व्यापक है। उनकी विनम्र शैली लोगों को जोड़ने का काम करती है। इन लेखों में ताऱीख भी देनी चाहिए जिससे उनकी वैचारिक यात्रा को पाठक समझ सके। यह पुस्तक दलित चेतना को विस्तार देती है।

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जाने माने दलित चिंतक व आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने अपने वक्तव्य में कहा कि रजनी दिसोदिया की यह पुस्तक अध्ययन और अनुभव का मिश्रण है। जातियों का पाखंड और हीनता बोध को वे साथ-साथ लेकर चलती हैं। मार्क्सवाद के केंद्र में रांगेय राघव को रखना और जगह-जगह संत कवियों का वर्णन इस किताब को ख़ास बनाता है। रजनी समझौतावादी नहीं है। रजनी की शालीनता और दृढ़ता से कही बात विरोधियों प्रभावित करती है। इस किताब के पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक पाखंड की शिनाख़्त है तथा दुसरे हिस्से के सभी निबंधों में परम्परा से गुज़रते हुए आलोचना को आकार मिला है। द्वंद्वात्मक विश्लेषण तथा कौंध शास्त्रीय विवेचना का सुमेल हैं इनके लेख। काव्यशास्त्र में लिखित जन्मजात प्रतिभा की हवा निकालना क़ाबिले तारीफ है।
मुख्यवक्ता के रूप में शेखर पवार ने कहा कि रजनी की यह पुस्तक दो भागों में विभाजित है पहले भाग में सामाजिक विश्लेषण सम्बन्धी 8 निबंध है और दुसरे भाग में साहित्यिक विश्लेषण सम्बन्धी 13 निबंध हैं। पहले निबंध में ही आर्य द्रविड़ पर अच्छा प्रकाश पड़ा है। अपने पुरखों को याद करता हूँ तो महिषासुर को बार-बार प्रणाम करता हूँ। दलितों में हीनताबोध आज तक उनकी प्रगति में बाधा बना हुआ है। रजनी के सामाजिक लेख पाठक में सामाजिक ताने-बाने की जटिलता को समझने की बुद्धि को विकसित करते हैं। यह पुस्तक आशा जगाती है कि उपेक्षा और तिरस्कार की अवहेलना करके दलित लेखक इतिहासकार बनने को तैयार है।

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वक्ता डॉ अंजलि देशपांडे ने अपने वक्तव्य में कहा कि संघर्षशील लोगों का मंच दुनिया का सबसे बेहतरीन मंच है। हिंदी मे स्त्री आलोचक कम है और दलित आलोचक बहुत कम इसलिए रजनी दोनों नज़रिये ला सकती हैं। रजनी आलोचक के साथ लेखक भी हैं इसलिए रचना प्रक्रिया को समझती हैं यही समझ उनकी दृष्टि को गहराई देती है। इस पुस्तक में शामिल ‘सूरदास की कर्मभूमि’ निबंध की चर्चा करते हुए कहा कि रंगभूमि का यह विश्लेषण थोड़ा और बढ़ाया जा सकता था। ‘ जाति और वर्ण’ निबंध में उसकी उत्पत्ति का विशद वर्णन न करके आज की परिस्थितियों को शामिल करती तो और बेहतर होता। रजनी में अति शिष्टता और अति संतुलन का दोष है। तुलसी राम की आत्मकथा मुर्दहिया रजनी की पुस्तक का मज़बूत पक्ष है। रजनी ने मार्क्सवाद को छद्म एवं अव्यावहारिक कहा है तो उन्हें इसका प्रमाण भी देना चाहिए जबकि दलित पैंथर्स का उदय नक्सलवाद की पृष्ठभूमि में हुआ था। हाशिये पर पड़े समाजों को दलगत साहित्य से अलग हटकर, अलग जगह बनानी चाहिए। रजनी का लेखन उम्मीद जगाता है।
वक्ता के तौर आलोचक पर संजीव को आना था लेकिन किन्ही आवश्यक कारणों से में असमर्थ रहे किन्तु उन्होंने इस सम्बन्ध अपना लेख भेज दिया था। जिसे धनंजय पासवान ने सभागार में पढ़ा। संजीव कुमार लेख में कहते हैं कि रजनी दिसोदिया की अंतर्दृष्टि प्रभावित करती है। मैं इनके विचारों का उपभोक्ता नहीं भागीदार हूँ। इस पुस्तक में आये स्वानुभूति और सहानुभूति ‘तथा ‘दलित विमर्श की मार्क्सवादी राह’ निबंधों का ज़िक्र करते हुए कहा कि कुछ लेखक सायास गढंत को सायास तोड़ने का प्रयास करते हैं तो कुछ मज़बूत करने में। रांगेय राघव के प्रश्न परंपरा पोषित समाज के लिए असहजकारी थे। इसलिए उपेक्षित रहे जबकि रामविलास शर्मा उसी परंपरा से आते थे। इसलिए दलित आलोचना के केंद्र में रहे। लेखिका ने इन मुद्दों को नयी समझ के साथ पुस्तक में उठाया है जिसके लिए वे बधाई की पात्र हैं। पुस्तक में वर्तनी सम्बन्धी छोटी छोटी अशुद्धियाँ हैं जिन्हे सुधारा जा सकता है।
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डॉ. रजनी दिसोदिया ने अपनी पुस्तक अपने गुरू तेज सिंह को समर्पित करते हुए कहा कि इस पुस्तक के लेख अलग-अलग समय पर लिखे गए हैं। दलित लेखन में स्त्री आलोचना न के बराबर है इस विचार से मैंने पुस्तक की योजना बनायीं। जाति का सवाल सामाजिक है लेकिन आर्थिक ढांचे को बदले बिना उसका हल असंभव है। पुस्तक विमोचन में इतने लोग आये, सुना, अपनी बात रखी। मेरे लिए यही ख़ुशी की बात है।
मंच संचालन कर रहे कर्मशील भारती ने इस कार्यक्रम की रूपरेखा, दलित आंदोलन एवं लेखन पर प्रकाश डालते हुए बताया कि दलितों का राजनीतिक पक्ष तो मज़बूत है लेकिन साहित्यिक पक्ष में अभी ढेर सारी सुधार की गुंजाइश है। दलित साहित्य में भी आलोचक कम है और महिला आलोचक तो न के बराबर है। रजनी दिसोदिया का यह प्रयास इस आभाव की पूर्ति करती है।
अंत में डॉ. पूनम तुषामड़ ने दलित साहित्य में रजनी के रूप में महिला आलोचक की उपस्थिति पर प्रसन्नता दिखाते हुए सभी आगंतुक अतिथियों, वक्ताओं और श्रोताओं को धन्यवाद प्रकट किया।
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