
पत्नियां प्रेमिकाएं नहीं होतीं
पत्नियां प्रेमिकाएं नहीं होतीं इसलिए उनका विद्रोही होना अमर्यादित होता है ।
पत्नियां नहीं पहुंचती चरमसुख तक यह हक है सिर्फ प्रेमिकाओं का..
जिनके पास आने के लिए कई नखरों को,
अदा कहते हो तुम।
पत्नियां नहीं फैला सकती आदाओं से लबालब,
खुले हाथों का पंख जो बंधा है रूढ़ समाज के खूंटे से।
यह हक़ है प्रेमिकाओं का जो तुम्हारे गोद के सहारे ही फैलाती हैं,
पंख जो जुड़े हैं हृदय की उन्मुक्त आकाश से।
पत्नियां कभी ठहाके नहीं मारती, उसे तो मीठी मुस्कान सजानी है
बिना स्वर के, जो मुक प्रतिक्रिया है पीढ़ी दर पीढ़ी का।
ठहाके लगाती हैं प्रेमिकाएं इनमें शामिल नहीं होता परिवार,
हक होता है ‘सिर्फ तुम्हारा’..
पत्नियां बट जाती हैं परिवार के हर रिश्ते में,
जहां मर्यादित करने में भूल जाते हो तुम,
अपना ही हिस्सा उसके हक का।
पत्नियां प्रश्न नहीं करती,भरती है सिर्फ लंबी आह की चुप्पी,
तेरे और परिवार के पूर्व नियोजित निर्णय का ।
प्रेमिकाएं करती है हर निर्णय,
वहां होती है तुम्हारी हामी, बिल्कुल चुप।
पत्नियां डरती है तुम्हारे ठुकराने से,
प्रेमिकाएं नहीं डरा करती, वहां होता है विकल्प
सदैव किसी और साथी का..
पत्नियां ढलती रहती हैं तुम्हारे सांचे में
होकर सहनशील गंभीर
जो संभालती हैं परिवार चार दीवारों के घेरे में,
प्रेमिकाएं तो सदैव चंचल विद्रोही ही फबती हैं, तुम्हें।
जिन्हें गोते लगाने हैं बेसुध होकर तुम्हारे प्रेम सागर में।
इसलिए पत्नियां दिन से महीने और सालों करती हैं,
तेरे दीद का इंतजार और तुम करते ना जाने कितने,
मयखानों में डूबकर प्रेमिकाओं का इंतजार।
क्योंकि पत्नियां हो जाती हैं सहज तुम्हारी,
और प्रेमिकाओं को खोने का डर बना रहता है,
इसलिए नहीं रिझाते तुम पत्नियों को,
उसमें डर हो जाता है मर्यादित से अमर्यादित होने का।
लेकिन रिझाने में प्रेमिकाओं को करते रहते हो,
तुम न जाने कितने ही गुमनाम यात्राएं शहर से देश-विदेश,
पहाड़ों, गुफाओं, नदियों की किलकारियों में,
जहां दिखाते हो तुम अपनी मर्दानगी की बेइंतहां रोमानियत,
पर समाज में सिमटने लगते हैं
तुम्हारेअपने भाव,
जीवनसाथी का साथ देने भर से,
क्योंकि यहां आ जाता है परिवार,
समाज और तेरे मर्द होने के दंभ का कवच।
जो नहीं रहते ओढ़े तुम प्रेमिकाओं संग गलियों में,
जब रंगों से सराबोर हाथ रखते हो बिना बंदिश के
प्रेमिकाओं के कंधों पर, बड़े शान से।
यहां तरस जाते हैं न जाने कितनी उंगलियां,
सहज स्पर्श के लिए,
जिनमें रमते हो तुम मात्र परिवार-नियोजन के लिये।
प्रेमिकाएं बन सकती हैं तुम्हारी पत्नियां,
पर पत्नियां प्रेमिकाएं नहीं हो पाती।
पत्नी और प्रेमिका दोनों होती हैं- ‘स्त्री’
पर तुम्हारी दुनियां में पत्नियां प्रेमिकाएं नहीं होती।।
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खुली खिड़कियां
कभी-कभी खुली खिड़कियां
न जाने कितने संकेतों को बयां करती है,
मकड़ी-जाल की उलझन सुलझाते अपने खुले विचार
बंद कमरे की घुटन से बाहर खुली नई ताजगी,
पिंजरे की फड़फड़ाहट को तोड़कर,मुक्त उड़ान की चाह,
इतिहास की जड़ता से परे अनुभवों का सृजन
भविष्य की आजाद चेतना के लिये,
जो सिमटने, घुटने, टूटने के दौरान अब तक
अनसुलझे घुटन में फड़फड़ा रही हो लक्ष्यहीन।
घर,दिल और दिमाग की खिड़कियां
खुली रहने देना चाहिये,
चाहे वो घर हो या रिश्ते…
बंदिशें दोनो में घुटन पैदा करती हैं।
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कंचन कुमारी
शोधार्थी (Ph.D.),
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
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