प्रेमकुमार मणि
जहाँ लाखों लोग महामारी से उत्पीड़ित हो रहे हों, हजारों मर रहे हों, और सरकारें विवश -लाचार दिख रही हों, वहाँ एक अभिनेता की मौत से पर्दा हटाने केलिए, देश की सबसे बड़ी ‘ सत्यशोधक ‘ एजेंसी सीबीआई को लगाया गया है। इसी साल, पिछले 14 जून को एक दोपहर अचानक से एक खबर फ़्लैश होती है कि होनहार अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने पंखे से झूल आत्महत्या कर ली, खबर ह्रदय -विदारक थी। खास कर हमारे बिहार के लिए यहाँ नेता, विधायक, गुंडे, ठेकेदार, बिल्डर और अफसर तो बहुत बनते हैं, लेकिन कला, संगीत, अभिनय, साहित्य, विचार की दुनिया से जुड़ना, सामान्यतया , लोग तौहीन समझते हैं । ऐसे में, व्यक्तिगत तौर मैं स्वयं बहुत उदास हुआ था । 16 जून को एक पोस्ट लिखी थी ‘आत्महत्या के विरुद्ध ‘। चाहे हत्या हो अथवा आत्महत्या सुशांत का जाना बेहद दुखद था।
धीरे-धीरे वक़्त गुजरता गया और मामला रहस्यमय बनता चला गया। आत्महत्या की जगह हत्या की बात चर्चा में आने लगी। कोई अभिनेता है, मुंबई में है, युवा और अविवाहित है, तो ‘नारी-नजरिया’ भी देखना हुआ। मिल भी गया और फिर तो हमारे समाज का स्त्री- विरोधी ‘पौरुष’ का जगना स्वाभाविक था। अरे! लड़की ! वह भी चक्रवर्ती टाइप ! बंगाली कन्याएं तो काला ज़ादू जानती ही हैं। पुरुष को मेमना बना कर रखना उन्हें खूब आता है। ‘नारी नरक की खान’ यूँ ही थोड़े कहा गया है। पकड़ …..को

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अभिनेता की मौत का रहस्य उजागर हो, इसे मैं भी चाहूँगा। इसलिए कि फिल्म- इंडस्ट्रीज एक बदनाम जगह बनती जा रही है। कोई पचीस साल पहले मैंने एक छोटा-सा लेख लिखा था, मुम्बइया फिल्मों पर। जिसे लोग हॉलीवुड की तर्ज पर बॉलीवुड कहने लगे हैं (अब तो कायदे से इसे मॉलीवुड कहा जाना चाहिए )। मुम्बइया फिल्मों के पतन पर मुझे तब भी अफ़सोस था, आज भी है। एक समय था, जब यहाँ देश भर के कलाकार अपनी किस्मत आजमाने आते थे। उनके संघर्ष के किस्से लोगों की जुबान पर होते थे। कहीं से पृथ्वीराज कपूर और राजकपूर आये, कहीं से दिलीप कुमार और मधुबाला। साहिर और शैलेन्द्र जैसे गीतकार आये, तो ख्वाजा अहमद अब्बास और रही मासूम रज़ा जैसे लेखक भी। कितनों का नाम लूँ। प्रेमचंद और रेणु जैसे नामी लेखक भी वहाँ घूम -टहल आये थे।
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मुम्बइया फिल्मों का अपना अंदाज़ होता था । हिंदुस्तानी जुबान, खास कर हिंदी (प्रिंसिपल हिंदी नहीं ) को इसने व्यापकता दी, जात-पात की भावना कमजोर करने में भी भूमिका निभाई। सब से बढ़ कर एक हिंदुस्तानी मन बनाया। उन दिनों फिल्मों में सेठों के पैसे लगते थे। फिल्म- इंडस्ट्रीज की अपनी इकॉनमी थी। मुंबई को इस इंडस्ट्रीज ने एक खूबसूरत पहचान दी थी।

फिर काले -धंधे वाले लोगों का जमाना आया। एक कुख्यात तस्कर के इस दुनिया से जुड़ाव के किस्से सरे आम होने लगे। फिर उसके एक चेले ने इसे अपनी मुट्ठी में ले लिया। कौन अभिनेता होगा और किसकी फ़िल्में रिलीज होंगी, वह गुंडा तय करने लगा। अचानक वहाँ सांप्रदायिक मोर्चा बनने लगा। बन्दूक, अपराध और अय्याशी आम बात होने लगी। माफिया, तस्कर, अपराधी और अमर सिंह जैसे लोग इस दुनिया पर हावी होने लगे फिर तो हत्याओं और आत्महत्याओं का सिलसिला बनने लगा।
कोई समझ सकता है कि बिहार से गए एक मासूम नौजवान को जगह बनाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी। उसे अपने नाम के साथ सिंह और राजपूत एक साथ जोड़ने की विवशता क्यों हुई होगी ? आज़ादी के बाद युसूफ खान को दिलीप कुमार और महजबीं बानो को मीना कुमारी बनना पड़ता था। अब सुशांत को राजपूत बनना पड़ा था। समय शायद यह भी आये कि नाम के आगे किसी को राणा भी लगाना पड़े। क्या सीबीआई या कोई और संस्था मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में फैली -पसरी अन्य बुराइयों की भी खोज -खबर लेगी? गुंडा की तरह दिखने वाला एक ‘अभिनेता ‘ दाऊद का एजेंट बना, पूरी इंडस्ट्रीज को धमकाता है । यही वह अभिनेता है,जो अपने चेहरे पर मोदी भक्ति का पलोथन भी लगाए होता है।
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लेकिन, मैं यह जानता हूँ कि बिहार और केंद्र की सरकारों को न सुशांत से कोई वास्ता है, न फ़िल्मी दुनिया के कचरे की सफाई से इसका मक़सद कुछ और है। महामारी के बीच सिलसिला अच्छा चला है। कल जाकर महाराष्ट्र और दिल्ली की सरकारें सृजन घोटाले की जांच के लिए केंद्र से दरखास्त करेंगी और वही के किसी कसबे में इस पर कोई एफ आई आर भी दर्ज होगा और तब देखना होगा कि संघ -राज्य सरकारों का कैसा रिश्ता बनेगा।
‘प्रेमकुमार मणि’ राजनैतिक-सांस्कृतिक विचारक हैं और बिहार विधान सभा के पूर्व सदस्य रहे हैं.
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