रजनी दिसोदिया
दलित पुरुष के लेखन में स्त्री
इस मुद्दे पर दलित स्त्री विमर्श प्राय: उत्तेजित और आवेशमयी मुद्रा में रहता आया है। वास्तव में यह मुद्दा दलित स्त्री विमर्श के रूपाकार ग्रहण करने का तात्विक मुद्दा है। अर्थात दलित स्त्री विमर्श के पैदा होने की जड़ में यह मुद्दा मौजूद है। अपनी जड़ों से जुड़े रहना किसी भी समाज, व्यक्ति और संस्थान के लिए जिन्दा रहने की शर्त की तरह जरूरी होता है। यह अलग बात है कि यह जुड़ाव विकास की संभावनाओं को अवरुद्ध करता नहीं होना चाहिए। दलित स्त्री विमर्श पुरुष मात्र का विरोध नहीं पुरुष को तथाकथित पुरुष बनाने की मशीनरी का विरोध है। जिसका हर्जाना दोनों को भुगतना पड़ता है। इस लेख में हम पाँच पुरुष दलित लेखकों की कहानियों का अध्ययन करेंगे। इनमें ओमप्रकाश वाल्मीकि, कैलाश वानखेड़े, मुकेश मानस, अजय नावरिया और सूरज बड़त्या शामिल हैं। यहाँ उद्देश्य केवल यह देखना नहीं है कि दलित पुरुष लेखन में स्त्रियों के मुद्दों को कितना ओर किस स्तर तक उठाया गया है बल्कि यह देखना भी है कि दलित समाज में स्त्री की स्थिति और छवि कैसी है।
इस अध्ययन को इस प्रकार रखा गया है कि यह समझा जा सके कि क्या सचमुच स्वानुभूति और सहानुभूति के तर्क में कुछ दम है? क्या सचमुच स्त्रियों के मामले में पुरुष चिंतन की सीमाएँ हैं? जिस प्रकार गैर दलित, दलित की पीड़ा, मन:स्थति, इच्छाओं और आंकाक्षाओं को समझ पाने में चूक जाते हैं ? क्या वैसे ही पुरुष (दलित) भी स्त्रियों (दलित) की दिक्कतों और चाहतों को समझ पाने उनके लिए आवाज़ उठा पाने में चूक जाते हैं? वास्तव में मनुष्य के चिंतन की यात्रा स्व से ब्रह्माण्ड तक फैली है। स्व से शुरू हुई यह यात्रा स्व के परिवार, कुल, बिरादरी, जाति, प्रदेश, देश दुनिया तक तो फैली है; पर यह यात्रा स्व की विशिष्ट स्थितियों व अनुभवों को छोड़ नही पाती। लिंग, धर्म, जात, कुल, संस्कृति और जगह विशेष (भूगोल) के अनुभव बहुत हद तक उसके स्व का निर्माण करते हैं और उसके स्व से प्रभावित भी होते हैं। यह सब इतना अनायास परपंरा से होता रहता है कि उपरी तौर पर देखने से पूरी तरह प्राकृतिक (नेचुरल)लगता है जबकि यह होता सामाजिक और राजनैतिक है।
इन कहानियों को पढ़ने के बाद पता चलता है कि दलित पुरुष लेखको की कहानियों में जातीय तिरस्कार, जातीय पहचान के अनुभव सबसे ज्यादा अभिव्यक्त हुए हैं। जाति की समस्या से विभिन्न स्तरों और तरीकों पर जूझने के कारण इनका स्कूली जीवन, कॉलेज और ऑफ़िस का माहौल तथा आस-पड़ौस के संबंध सभी विकृत हैं। जातीय दुर्व्यवहार के अंतर्गत ही सवर्णों द्वारा दलित स्त्री के यौन शोषण भी किया जाता है जिसे इन लेखकों ने कुछ हद तक अपनी कहानियों का विषय बनाया है इसमें ओमप्रककाश वाल्मीकि की जंगल की रानी, खानाबदोश, अजय नावरिया की इज्जत, विशेष उल्लेखनीय है। पर क्या दलित स्त्री के मुद्दे दलित पुरुष लेखकों को इतना नहीं खींचते कि दलित स्त्री उस लेखन के भरोसे रह सके? असल में दलित पुरुष भी अपनी बुनावट में पुरुष पहले है दलित बाद में। अर्थात उसकी लिगं संबंधी पहचान ज्यादा सघन और दृढ़ है, ज्यादा नेचुरल जैसी लगने वाली। यहाँ कोई कह सकता है कि लिंग की पहचान तो होती ही प्राकृतिक है। हाँ
वह है, पर इसी पहचान की वजह से पुरुष परिवार और समाज की धुरी होने, नेता या मुखिया होने की गारण्टी नहीं पा लेता। यह सब ऐतिहासिक विकासक्रम और परंपरा की देन है।
यह भी देखें – दलित स्त्रीवाद अंतरजातीय विवाह को सामाजिक बदलाव का अस्त्र मानता है -रजनी तिलक
कमाल की बात है कि दलित समाज के इतिहास में हुबहू ऐसी कोई परंपरा न होने के बावजूद भी सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर बखूबी पुरुषसत्तात्मकता देखने को मिलती है। ज्यों-ज्यों दलित परिवार जीविकोपार्जन के लिए सामुहिक श्रम (परिवार और बिरादरी के स्तर पर) को छोड़ कर पूँजीवादी व्यवस्था में अलग-अलग जगहों और संस्थानों में काम करने लगे। अपेक्षाकृत भिन्न शारीरिक श्रम वाले और काम की मानसिक संतुष्टि न दे सकने वाले इन कामों को जीविकार्जन के तौर पर अपनाने से उनके व्यवहार में पुरुषसत्तात्मकता का संचार होने लगा । इस परिवर्तन ने पहले परिवार के आर्थिक तंत्र को विकृत किया। फिर सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचे को (तोड़) बदल दिया। परिवर्तन की इस यात्रा में पहले पुरुष निकले। चाहे कारण सामाजिक और राजनैतिक थे, या वह युग ही परिवर्तन का ही युग था| पर पुरानी व्यवस्था को छोड़ कर पहले पुरुष बाहर आए और उन्होंने नए आर्थिक तंत्र में कदम रखा। जहाँ उनका काम, उनकी मेहनत अलग (परिवार की सामुहिक मेहनत से) दिखाई पड़ती थी और उसका मेहनताना सिर्फ़ उनके हाथ पर रखा जाता था जिसके स्वामी वे खुद थे। एक व्यक्ति के रूप में यह उनका (पुरुष) स्वतंत्र होना था पर भारतीय व्यवस्था में स्त्री इस तथाकथित स्वतंत्रता से वंचित रह गई। स्त्री जो घर का आधार थी पुराने तंत्र और व्यवस्था के साथ पीछे छूट गई। क्योंकि परिवार और बच्चों को छोड़ कर दूर जाना अपेक्षाकृत पुरुष के लिए आसान होता है दूसरा भारतीय पूँजीवादी व्यवस्था में स्त्रियाँ श्रमिक के तौर पर फिट नहीं होतीं थीं। यहाँ शुरूआती कारखानों और फ़ैक्टरियों को उनके लिए डिजाइन ही नहीं किया गया। धीरे-धीरे दलित परिवारों और समाजों में भी स्त्रियाँ अकेली और कम महत्वपूर्ण होती गईं और पुरुष शहर आकर अधिक महत्वपूर्ण और केन्द्रीय होते चले गए। बाकि उन्होंने अपेक्षाकृत पहले तथाकथित सभ्य हो चुके परिवारों और समाजों का अनुसरण भी किया।
यही वजह है कि पिछले लगभग ३०-४० बरसों से लिखे जा रहे दलित साहित्य में परिवार और समाज की व्यवस्था बहुत कुछ वैसी ही नज़र आती है जैसी प्राय: तथाकथित मुख्य धारा के साहित्य में नज़र आती है। अर्थात् परिवार के केन्द्र में पुरुष है। एक तरह का विशेषाधिकार पुरुषों को प्राप्त है। जैसे जैसे ये परिवार गाँव से शहरों की ओर आते हैं पुरुष ज्यादा मजबूत होकर निकलता है। यह केवल पुरुष लेखकों के ही लेखन में नहीं बल्कि स्त्री लेखकों की कहानियों में भी यह देखने को मिलता है बस अंतर इस बात का है कि पुरुष लेखकों के लिए यह सब सहज है उसे इसमें किसी तरह की परेशानी नहीं नज़र आती, पर स्त्री लेखकों के यहाँ उस पर सवाल उठाए जाते हैं उसकी वजह से उनके (स्त्रियों) व्यक्तित्व के विकास में और समाज के विकास में जो दिक्कतें और बाधाएँ महसूस होती है उनका जिक्र किया जाता है। हांलाकि इसका कोई सटीक जवाब उनके पास भी नहीं है।
समाज और परिवार के इसी ढाँचे की वजह से प्राय: दलित लेखकों की कहानियों में दलित नायक समाज और परिवार के आमूल चूल परिवर्तन की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ही महसूस करता है। पढ़-लिख कर जब वह बाहर निकला तो स्वत; ही उसने अपने आप को अपने समाज और परिवार का नायक मान लिया। आदर्श के रूप में उसके सामने जो व्यवस्था थी या है उसमें पुरुष ही नेतृत्व करता है। वह ही मुख्य होता है वह ही निर्धारित करता है कि किस दिशा में आगे बढ़ना है। अब चाहे वह इस जिम्मेदारी को निभाना चाहे या न निभाना चाहे पर इसका दबाव जरूर उसे अपने कंधों पर महसूस होता है। प्राय: परिवारों के भीतर इसी कारण उसका झगड़ा और खींचतान चलती है। परिवार और समाज को बदलने की इस मुहीम में स्त्री कितना और किस तरह शामिल होनी चाहिए यह वह खुद निर्धारित करता है और जब ऐसा नहीं हो पाता
तो स्त्री-पुरुष के बीच संघर्ष होता है। पहली पीढ़ी के अधिकांश पुरुष लेखकों के लेखन में यह खींचतान साफ़ दिखाई देती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की प्रसिद्ध कहानी ‘घुसपैठिये’; कहानी का नायक राकेश बराबर इस तनाव से भी जूझता दिखाई देता है कि उसकी पत्नी इन्दु नहीं चाहती कि उसका पति इस जात बिरादरी के चक्कर में पड़े और जो सम्मान और इज्जत उन्होंने कमाई है उसे दाव पर लगा दिया जाए। इसी प्रकार सूरज बड़त्या की कहानी में ‘कामरेड का बक्सा’ में भी दलित नायक स्वयं इसी उधेड़बुन से जूझता पाता है। मुकेश मानस की कहानियों में भी पिता और बड़ा बेटा भी परिवार के इस बोझ और उसे पूरा न कर पाने की खीज, झल्लाहट से निरंतर टकराते हैं और इस सब में उनके गुस्से और खीज की शिकार स्त्री (पत्नी और माँ के रूप में) होती है। ‘बड़ा बेटा’ कहानी में रासबिहारी (नायक) ज्यों ही घर में कदम रखता है उसे अपनी साँस घुटती सी महसूस होती है। पिता जिन जिम्मेदारियों को निभाने में अक्षम हो गए अब उन्हें रासबिहारी
अपने कंधों पर महसूस करने लगा है। “उसका पिता जो छोटा-मोटा खराद करने वाले से एक ठेकेदार में तब्दील हो गया था, उसके चार नौकर भी थे जो उसके मातहत काम करते थे। चौरासी के दंगों के बाद उसका सब लुट गया क्योंकि जिनसे उसके ठेके बँधे थे वे सब सिक्ख थे और चौरासी के बाद वे सब या तो गाँव चले गए या गुनामानी के अँधेरे में खो गए।तब से वह लुट गया इसी गम में पीने लगा और एक अच्छे इंसान से शराबी, क्रूर, मतलबी, पत्नी और बच्चों को पीटने वाला वहशी बन गया।“ (उन्नीस सौ चौरासी पेज न.९७)
यहाँ भी आयें – चारपाई (रजनी दिसोदिया की कहानी)
इस प्रकार हम देखते हं कि दलित पुरुष कहानीकारों की कहानियों में जो परिवार हैं उनमें पुरुष केन्द्र में है। वह या तो बहुत जागरुक है समाज का नेतृत्व करना चाहता है और इसके लिए उसे प्राय: अपनी पत्नी से निराशा होती है क्योंकि वह उसका साथ नहीं देती। वास्तव में यह साथ उसे अपने साथ कंधे से कंधा मिलाकर बाहर की दुनिया में नहीं चाहिये वह चाहता है कि पत्नी चुपचाप घर और परिवार के प्रति जो पुरुष की भी जिम्मेदारियाँ हैं उन्हें उठा ले और उसे तथाकथित ज्यादा महत्वपूर्ण और ज्यादा जरूरी कामों के लिए मुक्त कर दें। दूसरे वे पुरुष हैं जो समाज से इतर परिवार के प्रति भी अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में असमर्थ होते हैं और इस बात को स्वीकार करने के बजाए वह परिवार और बच्चों को बोझ समझने लगते हैं। आये दिन घर में कलेश मार-पिटाई के दृश्य आम होते हैं। दोनों ही स्थितियों में स्त्री को वह अपनी साथी के रूप में नहीं एक अवरोधक के रूप में एक मातहत कर्मचारी के तौर पर देखते है। असल में यही वह पुरुषसत्तात्मक दृष्टि है जो उसे इस पूँजीवादी व्यवस्था के परिणामस्वरूप मिली है। यही वह पुरुषसत्तात्मक दृष्टि है जो उसने अपने सामने के तथाकथित आदर्श समाजों से सहज ही ग्रहण कर ली।
प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास कर्मभूमि शायद बहुत से लोगों ने पढ़ा होगा। कथा नायक अमरकान्त और उसकी पत्नी सुखदा के बीच हमेशा तनातनी रहती है। अमरकान्त अपने आप को समाज के प्रति ज्यादा जिम्मेवार और समर्पित महसूस करता हुआ यह समझता है कि पत्नी को तो बस पैसे और गहनों से प्यार है, अपनी और अपने होने वाले बच्चे की ही चिन्ता है जबकि वह स्वयं तो देश और समाज का सारा भार अपने सिर पर उठाए है। और शुरुआत में यह सच भी नज़र आता है। पर आगे चलकर हम देखते हैं कि अपने आत्मसम्मान, परिवार और समाज के लिए जब निर्णय लेने का समय आता है, कुछ करने का समय आता है तब यही सुखदा जितनी तत्परता से, जितनी दृढ़ता से निर्णय लेती है उतनी तत्परता से तो स्वयं अमरकांत नहीं ले पाता। निर्णय के क्षणों में वह भटक जाता है। सुखदा अपनी जान तक को जोखिम में डाल कर लोगों के साथ जा खड़ी होती है। सुखदा में जितना पुरुषार्थ है उतना अमरकान्त में नहीं है। ठीक ऐसे ही धनिया के पुरुषार्थ के सामने होरी दब्बू और भीरु है। कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि ‘पुरुषार्थ’ शब्द से जिस भाव या गुण का बोध होता है वह सिर्फ़ पुरुषों की जागीर नहीं है। बेशक इस भाव व गुण के लिए जो शब्द बना उसमें पुरुष शब्द शामिल है। प्रेमचन्द भारतीय परंपरा के इस भाव को समझ गए थे कि नेतृत्व का गुण अलग-अलग परिस्थितियों में स्त्री और पुरुष किसी में भी हो सकता है, किसी में भी काम कर सकता है। दलित पुरुष लेखकों को भी अपने पुरुष नायकों को परिवार और समाज का अकेले ही नेतृत्व करने के अनिवार्य कार्यभार से मुक्त करना होगा। इसके लिए जरूरी यह भी है कि स्वयं इस अतिरिक्त दबाव से मुक्त हों। दूसरी जरूरी बात यह कि जैसा कि प्रेमचन्द ने भी ‘कर्मभूमि’ में बताया कि स्त्री और पुरुष के बीच जो अंतर्विरोध है उसका बड़ा कारण भी यह है कि पुरुष अपनी योजना में स्त्री को शामिल ही नहीं करता वह
स्वयं ही अपने भीतर यह मान कर चलता है कि स्त्री का, विशेष रूप से उसकी माँ, बहन और पत्नी का कार्य क्षेत्र केवल घर तक सीमित है और उसका क्षेत्र घर से बाहर का। फिर उन पर यह आरोप और खीज भी कि वे उसकी जिम्मेदारियाँ बँटवाती नहीं हैं। उसे अकेले ही सबकुछ झेलना पड़ता है। घर के भीतर के निर्णयों में भी वह स्त्री को स्वतंत्र नहीं रहने देता, वहाँ भी औरत उसकी इच्छाओं और आज्ञाओं को ढोने वाली होती है।
पुरुषसत्ता (ब्राह्मणवादी व्यवस्था भी) कैसे काम करती है , इसको समझने का एक और तरीका है। प्राय: जो काम समाज में ज्यादा महत्वपूर्ण समझे गए हैं, जिनके करने में गौरव, प्रशंसा और प्रशस्ति अधिक है उन्हें पुरुष स्वयं अपने हिस्से में रखना चाहता है। या रखता आया है। ठीक वैसे ही जैसे तथाकथित सवर्ण जातियाँ या कुलीन लोग ऐसे कामों को अपना कार्यक्षेत्र समझते आये हैं। देश, समाज और जाति के बारे में सोचना और काम करना ऐसे ही महत्वपूर्ण काम हैं। ‘रंगभूमि’ के राजा महेन्द्रकुमार सिंह को यही समस्या सूरदास चमार से है। निश्चित रूप से एक व्यक्ति सारे काम नहीं कर सकता। देश, समाज, जाति के हित में काम करने वालों को अपने निजी और परिवार की जिम्मेदारियों को दूसरे लोगों पर छोड़ना ही पड़ता है। सिद्धार्थ गौतम की पीछे छूट गई जिम्मेवारियों का निर्वाह यशोधरा ने किया। उसके कंधों की मजबूती मापकर ही सिद्धार्थ समाज हित में निकल पाए। आज बहुत सी स्रियाँ जो घर से बाहर निकल कर समाज में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्वपूर्ण कामों में अपनी सफ़लता सिद्ध कर रही हैं तो वह तभी संभव है जब उनके घर में पीछे छूट गईं जिम्मेवारियों को कोई और पूरा कर रहा है। चाहे वे घर-घर काम करने वाली धरेलू नौकरानियाँ ही क्यों हों। ऐसे लोगों को अपने सहयोगी के रूप में देखना, उनका सम्मान करना, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना क्या जरूरी नहीं? ऐसे ही पुरुष स्त्रियों को अपने सहयोगी साथी के रूप में देखे तो क्या ज्यादा सही तरीका नहीं है? अक्सर इस कृतज्ञता, सम्मान और विश्वास के अभाव में स्त्री, घर व परिवार के तमाम कामों को करते हुए भी उनसे वह संतोष नहीं पाती है जो कोई भी श्रम और दिमागी काम को करते हुए प्राय: किसी भी व्यक्ति को पाना चाहिए। उसे बेगार करने की सी अनुभूति होती है जिसके कारण वह हमेशा
झल्लाई हुई पुरुष को कोसती है। वह उसे गलत सिद्ध करने की कोशिश करती है। पितृसत्ता को समझ पाने के अभाव में वह पुरुष मात्र की विरोधी हो जाती है। वह भी तथाकथित पुरुष हो जाना चाहती है। पुरुष भी पुरुरसत्ता के कारण ही जबरन यह मानने को मजबूर है कि वह श्रेष्ठ है, सारी जिम्मेदारी उसी की है।वह ही धुरी है और स्त्री उसके आधीन है। उसे स्त्री को पालना है उसकी रक्षा करनी है। उसका भरण पोषण करना है।
अब बात करते हैं उन कहानियों की जो सीधे-सीधे स्त्री विमर्श की कहानियाँ हैं। यह सही है कि पुरुष लेखकों की कहानियों में औरतों के मुद्दे और केन्द्रीय स्त्री पात्र प्राय: कम ही होते हैं पर ऐसा भी नहीं है कि वे नहीं ही होते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जिनावार’, ‘खानाबदोश’ और ‘जंगल की रानी’ तीनों ही कहानियाँ स्त्री केन्द्रित कहानियाँ हैं। ‘जिनावर’ कहानी में कहानी का केन्द्रीय पात्र बेशक दलित पुरुष है पर वह स्त्रियों के सम्मान, उनकी इज्जत के प्रति बहुत समर्पित है। कहानी का नायक जगेसर, ठाकुर परिवार का बँधुआ मजदूर है। उन्हीं के यहाँ खाता है उन्हीं के यहाँ रहता है। परिवार की बहु-बेटियों को उनके ससुराल और मायके छोड़ने और लेने जाता है। बहुत विश्वास का आदमी है वह। एक दिन परिवार की बहु को उसके मायके छोड़ कर आते समय वह बहुत परेशान है क्योंकि उसे खटका लग रहा है कि बहु बहुत उदास है, परिवार का कोई सदस्य उसे बाहर तक छोड़ने भी नहीं आया । रास्ते में उसे धीरे-धीरे पता चलता है कि यह ठाकुर खानदान कितना कमीना है। बड़े ठाकुर साहब अपनी ही बहु से यौन संबंध बनान चाहते है। बहु के मना करने पर उसे घर से निकाल दिया गया है। बहु के मायके में भी पिता के न होने पर मामा लोगों ने ही उसका पालन पोषण किया और साथ ही उसका यौन शोषण भी। वह घिन्ना उठता है कि ये लोग इंसान हैं या जिनावर।
असल में यह कहानी एक उद्देश्यपूर्ण कहानी है, और उद्देश्य यह सिद्ध करना है कि ठाकुर लोग अपनी स्त्रियों, अपने खानदान और परिवार की स्त्रियों के प्रति भी कितने क्रूर और लंपट होते है। और दलित पुरुष कितने भले और चरित्रवान। अपने पहले दौर कि कहानियों में दलित कहानियाँ ब्राह्मणों और ठाकुरों को सीधे-सीधे टारगेट करके लिखी गईं थीं। उन्हें विलेन के रूप में तथा दलित पुरुषों को नायक के रूप में चित्रित किया जाता था। बहुत बार और बहुत हद तक यह चित्रण ठीक और समाज का सच्चा चित्रण ही होता था पर कई बार अति उत्साह में अतिरंजना पूर्ण चित्रण और वर्णन भी होता था। जैसे यह ‘जिनावर’ कहानी बेहद कमजोर कहानी है। किसी सुनी सुनाई या मनगढंत घटना पर तब तक मजबूत कहानी नहीं हो सकती जब तक अनुभव का कोई सच्चा स्रोत न हो। यह कहानी सीधे-सीधे ठाकुरों को जानवर और दलित पुरुरष को महान सिद्ध करने के उद्देश्य से लिखी गई है। उद्देश्यपूर्ण कहानियाँ प्राय: अच्छी कहानियाँ नहीं होती। दूसरी कहानी ‘जंगल की रानी’ भी लगभग ऐसी ही कहानी है पर फिर भी पहली कहानी से काफ़ी बेहतर बन पड़ी है। आदिवासी समाज की नवयुवती को फाँसने के लिए एक हुए राजनेता, पुलिस और क्षेत्रिय प्रशासन के लोग और उनकी करतूत का पर्दा फाश करता नायक जो स्वयं दलित समाज से है। कहानी में अगर कुछ जीवंत बन पड़ा है तो उस आदिवासी युवती का जुझारूपन। उसका दुर्दमनीय साहस। पर अंत में वह मारी जाती है और लेखक टिप्पणी करता है- ‘जंगल की रानी अपराजेय थी।‘
ओमप्रकाश वाल्मीकि की‘खानाबदोश’ कहानी भी इसी दिशा की ओर है। ईंट बनाने के भट्टों पर अधिकाँशतया निम्न जातियों के लोग बँधुआ मजदूरों की तरह काम करते हैं। भट्टों के मालिक वहाँ काम करने वाली स्त्रियों का यौन शोषण भी करते हैं। खानाबदोश कहानी ईंट भट्टे पर काम करने वाले ऐसे ही दलित दम्पति की कहानी है। वहाँ मानो और सुखिया दोनों देखते हैं कि महंगें कपड़ों, मुफ़्त की सुविधाओं के लालच में औरतें व्यभिचार के लिए तैयार भी हो जाती हैं। उनके पति नामर्द से अपने आप को दारू के नशे में डुबो लेते हैं। जब भट्टे के मालिक सूबेसिंह की ओर से ‘मानों’ पर दाँव फेंका जाता है तो मानों और सुखिया वहाँ से पलायन करना मंजूर करते हैं पर अपनी इज्जत से समझौता नहीं करते। पर कहानी इतनी सीधी नहीं है। उसमें जबरदस्त घुमाव है इस घुमाव के कारण कहानी दिलचस्प बन जाती है पर साथ कुछ सवाल छोड़ जाती है जिसे लेखक ने तो अनदेखा कर दिया पर पाठक के जहन में वे उठते ही हैं। कहानी में जब मानों को
सूबेसिंह के द्वारा उसके कमरे में आने का आदेश मिलता है तो लेखक लिखता है- “मानो ने सुकिया की ओर देखा। उसकी आँखों में भय से उत्पन्न कातरता थी। सुकिया भी इस बुलावे पर हड़बड़ा गया था। वह जानता था, मछली को फ़ँसाने के लिए जाल फेंका जा रहा है। गुस्से और आक्रोश से उसकी नसें खिंचने लगीं थी।“ वहाँ मानो और सुकिया के साथ जयदेव नाम का एक और मजदूर है जो काफ़ी दिनों से उनके साथ काम कर रहा है। उसके साथ उसका परिवार नहीं है इसलिए ठेकेदार ने उसे मानो और सुकिया के साथ लगा दिया है। तीनों मिल कर ईंट थापने, बनाने का काम करते हैं। जो समूह जितनी ईंटे बनाता है उसी के आधार पर उनको पैसा मिलता है। जयदेव अपेक्षाकृत जवान है मेहनत से काम करता है इसलिए मानो और सुकिया से अच्छी ट्युनिंग बन गई है। जब भट्टे के मालिक ने मानो को बुलवाया तो मानो और सुकिया की घबराहट देख कर उनकी स्थति को भांप कर जयदेव ने खुद सूबेसिंह के पास जाना उचित समझा। _ “तुम यहीं ठहरो…मैं देखता हूँ। चलो चाचा।“ बदले में सूबेसिंह की तरफ़ से उसे खूब पीटा जाता है, बल्कि अधमरा कर दिया
जाता है। वह उन दोनों को अपना ही समझता था इसलिए मानो और सुकिया को बचाने के लिए वह खामखाह सूबेसिंह से दुश्मनी मोल लेता है। यहाँ तक तो पाठक को सब ठीक समझ में आ रहा है पर अचानक यह जयदेव न जाने किस प्रेरणा से ब्राह्मण करार कर दिया जाता है और वह उस अधमरी अवस्था में भी मानो के हाथ का बना खाना खाने के लिए तैयार नहीं होता। उस रात जयदेव के लिए रोटी बनाकर ले जाती मानो को अचानक से सुकिया कहता है कि “बामण तेरे हाथ की रोट्टी खावेगा… अकल मारी गई तेरी,” मानो का तो पता नहीं पर पाठक एकदम चौंक जाता है। अरे यह एकदम क्या हुआ। इसके बाद तो जयदेव सच में ब्राह्मण बन जाता है बल्कि उसके इस बदले व्यवहार की वजह से उन्हें वह भट्टा छोड़ने को
मजबूर होना पड़ता है। जयदेव को लगता है कि वह खामखाह इन चमारों के चक्कर में अपना नुकसान क्यों करे। इनके पचड़े में क्यों पड़े। माना वह नहीं जानता था कि इनका साथ देने का परिणाम उसके लिए इतना भयंकर होगा। पर ऐसा तो वह उन्हीं की जात बिरादरी का होते हुए भी सोच सकता था इसके लिए उसका ब्राह्मण होना कोई जरूरी तो नहीं था। मानो की उसके प्रति जो इतनी आत्मीयता है उसे वह जिस तरह तार तार करता है वह बहुत कष्टप्रद है। यह बात पाठक के गले नहीं उतरती कि जयदेव का ब्राह्ंण होना क्यों जरूरी था। कहीं न कहीं यह उसी मुहीम का हिस्सा है जिसके तहत शरुआती कहानियाँ लिखी गईं जिसमें खल पात्र को किसी ऊँची जाति से होना जरूरी है। पर यहाँ जयदेव का ब्राह्मण होना अखरता है। कहानी में उसे जबरदस्ती ब्राह्मण बनाया गया है। इस तथ्य के साथ कहानी न्याय नहीं कर पाती। जयदेव पर जबरन ब्राह्मणत्व थोपा गया है शायद कोई और सत्य छिपाने के लिए। कहीं इसलिए तो नहीं कि मानो की रक्षा के लिए सुकिया नहीं जयदेव खड़ा होता है। यह सुकिया के तथाकथित पुरुषार्थ को चुनौती तो नहीं?
अजय नावरिया की कहानियों में स्त्रियों के मुद्दे काफ़ी शिद्दत से जगह बनाते हैं। वे स्त्रियों के सवालों पर बहुत सजग होकर विचार करते हैं। और यहीं गलती हो जाती है क्योंकि इस अतिरिक्त सजगता में उनके भीतर का पुरुष गलती कर बैठता है। ‘इज्जत’ एक ऐसी ही कहानी है। दलित स्त्री का यौन शोषण सवर्णों द्वारा होता है, यह एक ऐसा स्वीकृत समाजिक सत्य है जिसे दलितों ने भी ऐसे घोट कर पी लिया है कि जैसे अगर ऐसा न हो तब कोई असामान्य स्थिति है या फिर कोई षडयंत्र। यह कहानी भी एक उद्देश्य पूर्ण कहानी है। जिसमें लेखक सायास यह कहना चाहता है कि सवर्णों द्वारा दलित स्त्री का शोषण तो होता ही रहेगा जरूरत इस बात की है कि अब दलित स्त्री शर्म से मुँह छिपाकर बैठने या लाज से डूब मरने की बजाय उसके खिलाफ़ आवाज उठाये। निश्चित ही यह एक प्रगतिशील समझ है। पर शायद अतिरिक्त उत्साह में कहानी के
भीतर कहानीकार का सारा प्रयास, एक बहुत ही मजबूत, बहुत सजग दलित स्त्री का पहले बलात्कार तो हो, इस पर खर्च होता दिखाई देता है। उस नायिका के बच निकलने के सारे रास्ते सायास बंद कर दिये जाते हैं। ऐसा लगता है कि गाँव के दबंगों से ज्यादा कहानीकार खुद यह चाहता है कि उस स्त्री का पहले बलात्कार तो हो तभी न उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने का मौका मिलेगा।। और अनायास ही कहानी जो कहना चाहती है उसके बजाए वह कह जाती है जिसका शायद चेतन रूप से लेखक को भी पता नहीं। यह कहानी दलित स्त्री की हिम्मत तोड़ने वाली कहानी है। लेखक का सारा प्रयास बलात्कार के होने में है उसके बाद की मजबूत लड़ाई में नहीं।
अजय नावरिया की अभी पिछले ही साल कथादेश के दलित विशेषांक में छपी ‘आवरण ‘कहानी में भी ऐसी ही चूक हो जाती है। कहानी अपने साथ बहुत सारे आयामों को लेकर चलती है। बहुत सारे आवरण हैं जिन्हें उतार फेंकना है पर शीर्षक की सार्थकता सबसे ज्यादा तब मुखर होती है जब कहानी का प्रौढ़ नायक, पत्नी से अलग होने के बाद, कई महिला मित्रों के साथ संबंध बना चुकने के बाद, अंतत: अपने मनोनुकूल जीवन साथी पा जाता है। खुद पर पूरी तरह मर मिटने को तैयार इस नायिका के साथ पहली बार यौन संबंध बनाते समय वह उसे अपने वस्त्र खुद उतारने को कहता है। “पहली बार तुम खुद उतारो ये आवरण” नायक द्वारा नायिका को कहा गया यह संवाद बहुत विशेष होकर उभरता है। कहानी का शीर्षक यहाँ आकर सार्थकता प्राप्त करता है। आखिर वे कौन से आवरण हैं जिनके उतारे जाने की बात यहाँ पर कही गई है? निश्चित ही वे केवल वस्त्र ही तो नहीं हैं। आखिर लेखक क्या कहना चाहता है? असल में घाट-घाट का पानी पी चुके नायक की यह अतिरिक्त चतुराई है जिसमें वह स्त्री से बाद में उलाहना देने के इस अधिकार को भी छीन लेना चाहता है कि वह कह सके कि उसके साथ ज्यादती हुई। “अब ये तुम्हारी भी मर्जी हुई रम्या”
दूसरा इसी कहानी में उसी समय संबंध बना चुकने के बाद कहानी की नायिका खून से सनी चादर को इस गर्व से दिखाती और उठाती है कि “आप पहले पुरुष हैं जिसे मैंने इतना नजदीक आने दिया।“ यहाँ न जाने किस मंशा से लेखक स्त्री के संपूर्ण होने के मायने में उसके अक्षत योनि होने को तमगे की तरह रखता है। वह अपने बारे में तो स्वीकार करता है कि “… पिछले चार महीने से, जब से तुम आई, मेरी जिन्दगी में कोई और नहीं है।“ पर आगे बढ़कर यह नहीं कह पाता कि अगर तुम्हारी जिन्दगी में मैं इस कदर पहला पुरुष नहीं भी होता तो मुझे कोई फ़रक नहीं पड़ता। यह इसलिए भी जरूरी था क्योंकि इस कहानी में लेखक इस बात की वकालत करता है कि स्त्री पुरुष दोस्त के रूप में एक दूसरे के साथ घूमने जा सकते हैं, संबंध बना सकते हैं। स्त्री-पुरुष के लिए विवाहपूर्व संबंध बनाने की वकालत करते समय यह कहाँ संभव है कि स्त्री अपने इच्छित संबंध तक पहुचने तक अक्षत यौवना रह सके। वास्तव में इसी कहानी में नायक रम्या (नायिका )से
कहता है कि जीवन साथी के रूप में “जीवन भर हम अपने ‘आत्म’ के उस अंश को ही तलाशते रहते हैं , जिसके साथ होने पर हमें अपना ही होना लगे, तुम मेरे लिए मेरा वही सेल्फ़ हो।“ (पेज न. ८२) रम्या तक पहुँचने की यात्रा में दीपांकर एक ब्याहता पत्नी के अलावा कितनी ही और महिला मित्रों के साथ संबंध बना चुके थे पर यदि ऐसा ही रम्या के साथ होता तो क्या रम्या का अक्षत योनि होना संभव था।और जब ऐसा संभव नहीं है तो रम्या की सफ़ेद चादर का लाल होना क्यों जरूरी बन पड़ा। यहाँ लेखक के भीतर का पुरुष सक्रिय होकर यह सब लिखवा रहा है। यहाँ तक कि अपने जीवन साथी को अपने ही आत्म के अंश के रूप में देखने की यह आत्मस्वीकारोक्ति भी कुछ यूं देखी जा सकती है। एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी को अपने से भिन्न व्यक्तित्व के रूप में, अपने से भिन्न विचार और मान्यताओं के साथ, अपने से भिन्न रुचियों और आदतों के साथ न देख पाने, न सह पाने की जिद के रूप में भी देखा जा सकता है।
वास्तव में अपने आपको प्रमुख, केन्द्र में और धुरी मानने का यह आग्रह ही पुरुष में पुरुषसत्तात्मकता के रूप में जाना जाता है। अजय नावरिया जी की कहानियों के पुरुष में यह आग्रह लगातार बना रहता है। उसे अकेला चलना मंजूर है पर साथी के लिए अपनी चाल कुछ धीमी करना, अपना रास्ता कुछ बदलना मंजूर नहीं। पुरुष और स्त्री के चिंतन में यही मूलभूत अंतर है। स्त्री अपने यात्रा में अकेली नहीं होती वह अपने संबंधों के साथ होती है। संबंध वही रचती है और बहुत बार अपनी यात्रा अपने संबंधों के हिसाब से बदलती और संशोधित भी करती है। स्त्री के लिए उसके संबंध महत्वूर्ण हैं पुरुष के लिए उसका अहम् (सेल्फ़)। अपनी ही एक दूसरी कहानी “निर्वासन” में अजय नावरिया जी ने पुरुष (दलित) के भीतर की इस प्रवृति को पकड़ा और बखूबी उसे उजागर भी किया है। “कभी-कभी वे (कथानायक के पिता) वहाँ से नीचे उतरते और हमें पढ़ाते, हमें घुमाने भी ले जाते। कभी-कभी बाहर खाना भी खिलाते, माँ भी साथ होती पर बात वे सबसे ज्यादा हम दोनों भाइयों से करते, माँ से भी बातें करते पर कुछ देर बाद ही चिढ़ जाते, ‘यू डोंट हैव कॉमन सेंस’ माँ से झल्लाकर वे कहते ‘तुम एकदम गधी हो।‘ माँ यह सुनकर मुस्कुरा देती तो मुझे गुस्सा आ जाता। यह सब घूमना-विरना, हंसना, बोलना उनकी अपनी सहूलियत के हिसाब से था। हमें तो सिर्फ़ अनुसरण करना होता। वे हमारे पिता थे, हम उनकी ‘प्रजा’… प्रजापति थे वे या फिर एक उदार ‘डान’ की तरह थे।“(यस सर पेज न.१५२) कहानी का नायक जब तक बच्चा है तब तक उसे माँ के प्रति पिता के इस बर्ताव पर गुस्सा आता है और माँ पर भी कि वह इसे अपना अपमान क्यों नहीं समझती। पर बड़ा होने पर और स्वयं पिता की ही भूमिका में आने पर उसे पिता में दोष नज़र आना बंद हो गया बल्कि फिर सारी कमियाँ माँ में ही नज़राने लगीं। माँ को गुलामी पसंद आ गई थी। माँ को खाने के अलावा कुछ भी काम ठीक से करना नहीं आता था। खाना भी जब चार लोगों का बनाना होता तो वह आठ लगों का बना देती जो बाद में फेंका जाता। “खाना बनाने का ही एक ऐसा काम था जिसमे माँ सबसे कम गलती करती थी। बाकी हर काम वह कई-कई बार गलत करती और पिता से फटकार खाती, जैसे-जैसे हम बड़े हुए हमने यह सच्चाई भी जानी। पापा का यह दुख भी समझ में आने लगा और माँ की विवशता भी, शायद एक आरोपित, अनमेल और अनिच्छित रिश्ता था पिता के लिए… और माँ के लिए तो कोई विकल्प ही नहीं था और मुश्किल यह थी कि दोनों को इस रिश्ते से निजात मिलना लगभग नामुमकिन था। वे दोनों विवाह के अटूट पाश में थे मृत्यु ही इस अटूट की काट थी।“(पेज न. १५३)
यहाँ भी आयें – रजनी दिसोदिया की आलोचना पुस्तक का लोकार्पण
पढ़ लिख कर अपने परिवार और अपनी जाति का उद्धार करने गाँव से शहर पहुँचे पहली पीढ़ी के दलित पुरुष की सबसे बड़ी समस्या उसके अपने ही घर में थी उसकी पत्नी। यह पत्नी या तो बेपढ़ी-लिखी थी या कम पढ़ी लिखी। घरेलू उपचारक के तौर पर ही काम करने वाली। वह बाहर जाकर कमाकर नहीं लाती थी इसलिए पुरुष की इच्छा और आज्ञा मानने को मजबूर होती भी थी और समझी भी जाती थी। इस पीढ़ी के पुरुष की चेतना में परिवार का मुखिया वही था। घर परिवार की सारी जिम्मेदारी उसकी की थी, घर की इज्जत उसके सिर पर थी। गाँव से भिन्न सामाजिक और सामुदायिक ढाँचे में उसे अपने लिये जगह बनानी थी। यहाँ जाति भिन्न और ज्यादा जटिल रूप में उसके सामने थी। क्योकि घर से बाहर वह ही निकल रहा था इसलिए उसे ही जाति को इस बदले हुए रूप में ज्यादा झेलना पड़ता था। ऐसें उसने अपने जैसे पुरुषों का समूह बनाया और उनके साथ हो लिया। और धीरे-धीरे वह अपने घर, परिवार, और पत्नी सभी से कटने लगा। घर में वह अकेला हो गया। उसकी चेतना से स्त्री के अनुभव निकल गए। स्त्री, समाज और परिवार के जरूरी सदस्य रूप में, देश-दुनिया समाज और जाति के बारे में क्या सोचती है? क्या समझ रखती है ? उसके अनुभव कैसे है? यह सब उसके लिए जरूरी नहीं रहा। इस सब के प्रति वह लापरवाह हो गया। जब वह घर से बाहर जाती ही नहीं तो उसके अनुभवों का क्या महत्व।
स्त्री स्वभावत: श्रमशील और सर्जक है, पीड़ा और अभाव में भी वह सृजनशील बनी रहती है इसलिए उसके व्यवहार में तल्खी और तुर्शी अपेक्षाकृत कम रहती है। इसके परिणाम स्वरूप पुरुष यह मान बैठता है कि दलित स्त्री के लिए जाति कोई समस्या नहीं या समस्या को समस्या के रूप में समझ पाने की अक्ल उसके पास नहीं। उल्टा इस पहली पीढ़ी के दलित पुरुष ने स्त्री के नैसर्गिक स्वाभाव को समझ पाने के अभाव में यह मानना शुरू कर दिया कि दलित स्त्री ने सवर्ण पुरुषों के साथ कोई गठजोड़ बना लिया है। या उनके घरों की ये स्त्रियाँ ही हैं जिनके कारण सवर्ण पुरुष उन्हें सरेआम नीचा दिखा सकते हैं। ऐसे में उनकी यही समझ बनी कि अपने घरों और परिवारों की स्त्रियों को घरों के बाहर न निकलने दिया जाए। उन पर भी वैसा ही कठोर नियंत्रण हो जैसा सवर्ण स्त्री पर प्राय: देखा जाता है। वे ये देख और समझ पाने में असमर्थ रहे कि गाँव से शहर की इस यात्रा में स्त्री से न केवल उसका ससुराल, मायका, कुनबा छूटा बल्कि उसकी समझ को निखारने वाले, उसके अनुभवों को गहराई देने वाले, उसके आत्मविश्वास को दृढ़ करने वाले तमाम परंपरागत पेशे, हुनर, उसकी सारी सामाजिकता, सारी सामूहिकता उससे छीन ली गई। उसे रंग रस हीन बना कर बेसहारा बना दिया गया। जैनेन्द्र की कहानी ‘पत्नी’ और अज्ञेय की ‘रोज’ पढ़कर अस्सी और नब्बे के दशक की दलित स्त्री ( जो अपने पढ़े -लिखे सरकारी नौकरी पाए पति के साथ शहर चली आई थी) की मन:स्थति का कुछ कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। डा. धर्मवीर की पीढ़ी के बहुत से दलित लेखकों और पुरुषों के यहाँ पत्नी को लेकर बनी समस्या को इस तरह देखा और समझा जा सकता है। डा अजय नावरिया जी की कहानियों में भी पुरुषों की स्त्री दृष्टि इस प्रभाव से मुक्त नहीं है।
आगे भी जारी ….
साहित्यकार,आलोचक
मिरांडा हाउस मे हिन्दी की प्राध्यापिका हैं
संपर्क : ई -मेल : rajni.disodia@gmail.com
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह ‘द मार्जिनलाइज्ड’ नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. ‘द मार्जिनलाइज्ड’ मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
लिंक पर जाकर सहयोग करें : डोनेशन/ सदस्यता
‘द मार्जिनलाइज्ड’ के प्रकशन विभाग द्वारा प्रकाशित किताबें ऑनलाइन खरीदें : फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं. ई बुक: दलित स्त्रीवाद
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com