रजनी दिसोदिया
कहानी कार मुकेश मानस की कहानियों को पढ़ने के बाद स्त्री के पक्ष में स्थितियाँ चाहे बहुत बेहतर न हों पर यह उनकी ईमानदारी है कि वह अपनी कहानियों को सायास स्त्री विमर्श की कहानी नहीं बनाते। समाज में जो और जैसा उन्होंने देखा उनके संवेदनशील मन ने उसे ज्यों का त्यों रखने की कोशिश की। बिना यह देखे कि वे किसके विरोध और पक्ष में जा रही हैं। उनकी इस ईमानदारी के चलते उनकी कहानियाँ दलित समाज और परिवारों में स्त्री की सच्ची और प्रमाणिक तस्वीर पेश करती हैं। एक आम आदमी बिना दलित और सवर्ण हुए स्त्री को कैसे देखता है? उससे कैसे व्यवहार करता है? इस संदर्भ में सबसे पहले बात करें ‘धब्बे’ कहानी की। कहानी का नरेटर जो एक तरह से कहानी का प्रमुख पात्र भी है, वह महिलाओं के प्रति समाज की विशेष रूप से पुरुषों की सोच व दृष्टि से बेहद आहत और खीजा हुआ है। एक ओर वह स्वयं पत्रकार बनने के लिए संघर्ष कर रहा है दूसरी ओर अपने चारों ओर घटती इस तरह की घटनाओं से रोज दो चार होता है। पर सिवाय अपनी नपुंसक छटपटाहट और निष्क्रिय क्रोध के कुछ कर भी नहीं पाता। अपने कंधे की शाल को नंगे बदन घूमती उस भिखारिन के शरीर पर डालकर और मन ही मन औरत के इस नंगेपन के लिए समाज को लताड़ कर वह आगे बढ़ जाता है। ‘औरत का नंगापन समाज का कलंक है।‘ नौकरी की तलाश में पूरा दिन अलग-अलग जगह, अलग-अलग लोगों से मिलकर दिनभर भटकने के बाद जब वह शाम को वापस लौटा तो अपनी उम्र के आवारा लड़कों को उस भिखारिन के साथ जबरन मुँह काला करते देख वह आतंकित हो उठता है। इस भयानक सच पर यकीन न कर पाने के कारण वह अपना ही हाथ काट लेता है। उसके हाथ पर खून के वैसे ही धब्बे उभर आए जैसे उस भिखारिन की टांगों के बीच में दिखाई दे रहे थे।
एक अन्य कहानी ‘सूअर’ बहुत ही जबरदस्त ढंग से दृष्टा भाव से निरपेक्ष होकर लिखी कहानी। शहरों की दलित बस्तियों का जीवंत चित्रण, रात-बिरात आदमियों का औरतों को पीटना “साली कापर-टी निकाल मजा नहीं आता।…. तेरी माँ की… साली कुतिया। मुझे सिखायेगी। बता किस-किसके संग मुंह काला करेगी साली?” इतना ही नहीं कॉलेज में पढ़ने वाले नई उम्र के लड़कों का भी कोई बहुत बदला हुआ रवैया नहीं है। ‘आँख का कांटा’ और ‘केवल छूना चाहता था’ कॉलेज में पढ़ने वाले लड़कों की लड़कियों के बारे सोच और समझ को दर्शाती है। ‘आंख का कांटा’ की अखिला जो डरी -सहमी सकुचाई लड़कियों की जगह लड़कों से खुलकर मिलती है। अपने प्रेम और भावना का इजहार करती है। भरी बस में लड़कों से बात करना. खुलकर हँसना, खुश होकर लड़कों का हाथ पकड़ लेना , कॉलेज के फ़ंक्शन में गाना गाना ये सब उसकी खूबियाँ नहीं उसकी वे खामियाँ है जो शरीफ़ से शरीफ़- बदमाश से बदमाश लड़कों को रास नहीं आती। सब उसे अपनी तरह से तराशना और इस्तेमाल करना चाहते हैं। “वह बहुत खुलकर बात कर रही थी और मैं सकुचा सकुचा । बात-बात में वह मेरे बाजू या पीठ पर धौल जमा देती थी। मैं थोड़ा झेंप जाता। पूरे सफ़र में वह काफ़ी ‘बोल्ड’ बातें करती रही और मैं ‘हाँ-हूँ’ करता आया। बस में वह मुझसे सटकर खड़ी थी। उसकी इस हरकत से मुझे अपने भीतर एक थिरकन सी महसूस हो रही थी जिससे मेरी जुबान लड़खड़ा-सी रही थी।“ उस दिन बस में ही नायक कथावाचक को अखिला की आँखों में गहरी तीखी काँटे जैसी चीज नज़र आई। वह काँटे जैसी चीज क्या है वह सोचता रहा। कहानी के अंत में जाकर स्पष्ट होता है कि वह काँटे जैसी चीज वास्तव में उसी की आँखों में थी जो उसे तब नज़र अई जब अखिला की जिंदगी बर्बाद हो चुकी थी। असल में काँटा पुरुषों की आँखों में होता है जो औरत को अपने तरीके से डिजाइन करना चाहता है। और जब ऐसा नहीं हो पाता तो वे उसे रंडी की संज्ञा दे देते हैं।
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दलित स्री की प्रति अपनी संवेदना और बराबरी के आग्रह के चलते कैलाश वानखेड़े दलित पुरुष लेखकों के बीच एक उम्मीद के रूप में उभरते हैं। उनकी कहानियों में दलित स्त्री छवि को बहुत ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया जाता है। मुकेश की कहानियों में दलित समाज का अति निम्न वर्ग है तो कैलाश वानखेडे की कहनियों में दलित समाज का अपेक्षाकृत पढ़ा लिखा और जागरुक वर्ग चित्रित हुआ है। उनकी कहानी ‘तुम लोग’ में “तुम लोग” का गहरा तीखा कटाक्ष केवल पुरुष पर नहीं पड़ता उसमें स्त्री भी बराबर की भागी दार है। यह पति-पत्नी के समवेत संघर्ष की कहानी है। यहाँ गरीबी, मुफ़लिसी और जातीय अपमान से झल्लाया पुरुष पत्नी को निशाना नही बनाता। गाँव छोड़ जब दलितों ने शहरों में शरण ली तो छोटे, अधेंरे और सीलन से भरे उन इलाकों में उन्हें जगह मिली जहाँ यूँ ही गलियों और सड़कों पर पानी भरा रहता है और बरसात के मौसम का तो क्या ही कहना। कहानी के पति-पत्नी एक ऐसे ही इलाके में रहते हैं। बरसात का मौसम है सब्जियों के दाम चार गुना बढ़ गए हैं। पत्नी रत्नप्रभा घासलेट की एक-एक बूँद को भी गिनकर खर्च करती है। दूध की एक-एक बूँद अन्न का एक -एक दाना वह ईमान की तरह बचाती है उस पत्नी पर नायक कैसे झल्ला सकता है। उस गरीबी और अवमानना के वे दोनों इक्ट्ठे शिकार हैं केवल पुरुष नहीं। कहानी शूरू ही वहाँ से होती है कि चूल्हा जलाने के प्रयास में रत्नप्रभा घासलेट का इस्तेमाल करती है क्योंकि बरसात में गीली लकड़ियाँ जलने को तैयार ही नहीं। इस प्रयास में निश्चित गिनती से एक बूँद ज्यादा गिर जाती है जिसका अफ़सोस रत्नप्रभा पर निराशा की तरह छा जाता है। पति सब्जी खरीदने निकला तो है पर जानता है कि सब्जी वाला भी उसकी औकात जानता है। पति सरेआम सब्जी वाले और वहाँ खड़े ग्राहकों के सामने अपमानित होने से बचना भी चाहता है पर पत्नी के भीतर सुखी जिन्दगी के बुझते सपनों को जगाने हेतु जाना भी चाहता है। “….जाने की जल्दी नहीं , जल्दी पहुँचना नहीं चाहता हूँ । चाहता हूँ कि जब सब्जी की दुकानों की जगह पहुँच जाऊँ , तब वहाँ सब्जीवाले न हों। वे जा चुके हों अपने अपने घर, और तब कहूँगा घर आकर कि आज नहीं था कोई सब्जीवला। भला इतनी न थमने वाली बारिश में कैसे आ सकती है सब्जी? तब शेर बन जाऊँगा और बिना रुके तमाम अपमान, पीड़ा और भय को निकाल दूँगा शब्दों से, जो पड़ेंगे हंटर की तरह घरवाली पर तो… तो? हंटर और रत्नप्रभा शब्द जेहन में पड़ते ही उतर गया चेहरा मेरा। कितना सहती है फिर भी कुछ नहीं कहती है, वह मर चुकी हो जैसे और टूट चुका हूँ मैं। क्या कहेँगे हम एक-दूसरे से? नहीं कहूँगा मैं उससे ऐसे शब्द जो जिस भावना के साथ अभी-अभी उतर थे मेरे दिमाग में। शब्दों की मार कितनी खतरनाक होती है— यह वही जान सकता है जिसने सही हो शब्दों से प्रताड़ना। जिसके झुलस गये हों शब्दों की आग से तमाम सपने।“
कैलाश वानखेड़े के यहाँ दलित पुरुष जो ऑफ़िस में, आस-पड़ौस में जिस जातीय अपमान और तिरस्कार को झेलता है। वहाँ हमेशा खुद को पीछे धकेले जाते, अपनी काबलियत को कुचले जाते देखता है। और घर में ठीक ऐसा ही व्यवहार पुरुष को स्त्री के प्रति करते देखता है तो उसे समझ आता है कि ब्राह्मणवादी सोच और पितृसत्ता एक ही तरीके से काम करती है। दोनों वास्तव में एक ही है। पितृसत्ता को पोषित करके आप ब्राहमणवाद का मुकाबला नहीं कर सकते। ‘कितने बुश कित्ते मनु’ कहानी में पिता की पुरुषसत्तात्मक सोच और व्यवहार, ऑफ़िस के बड़े बाबू शर्मा जी की तरह का है। शर्मा मानता है कि “धरम रसातल में चला गया। जिनकी औकात हमारे समाने खड़े रहने की नहीं थी वे कुर्सियाँ तोड़ रहे हैं।“ ठीक इसी तरह का व्यवहार नायक के पिता का अपनी पत्नी और बेटे की पत्नी के प्रति है। बड़ी होती बच्ची के सामने तू-तड़ाक से बात करते पिता को जब पत्नी टोक देती है तो पिता का जवाब कुछ ऐसा ही होता है।“ तू सिखायेगी कैसे बोलना ?” लेखक लिखता है “पिता में दफ़्तर के शर्मा बाबू का रूपातंरण कब हो गया पता नहीं चला। पिता जिन्होंने ताउम्र कोई काम नहीं किया, जो माँ की तनख्वाह पर ऐश करते रहे… वो पिता जिनका होना न होना बराबर था… वो पिता जिनसे कोई उम्मीद हम भाई-बहनों और माँ को नहीं थी… वो पिता हमसे हमारी जिदंगी छीनना चाहते हैं।…” यही पिता जो पत्नी की कमाई पर निर्भर थे उसी पत्नी को वे हमेशा कमतर, बेअक्ल, बेककूफ़ और गधी ही कहते-समझते रहे थे।
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दलित स्त्री के मुद्दों पर संवेदनशीलता को लेकर ‘उसका आना’ कहानी पर चर्चा जरूर की जानी चाहिए। कहानीकार ने एक कस्बाई मानसिकता में स्त्री और दलित स्त्री के प्रति लोगों की संकीर्ण सोच को बखूबी उजागर किया है। कथानायक प्रकाश एक साइकिल की दुकान पर काम करता है। कविता पढ़ने का शौक रखता है। उसने अखबार में एक स्त्री की स्थिति को बयाँ करती बहुत ही सुन्दर कविता पढ़ी। कविता पढ़कर वह बहुत प्रभावित हुआ। साथ ही वह कवयित्री के प्रति आभार और सम्मान से भर उठा उसने सोचा कि क्यों न उस लेखिका से मिलकर उसका धन्यवाद व्यक्त किया जाए क्योंकि कविता ठीक उसी के विचारों को व्यक्त किये दे रही थी। पर इसके बाद की उधेड़बुन में पूरी कस्बाई मानसिकता उभर कर आती है। कि एक स्त्री चाहे वह किसी भी उम्र की हो और किसी भी समाज की हो, उसका परिवार किसी पुरुष प्रसंशक को नहीं झेल पाएगा? क्या पता वह लेखिका अपने परिवार से छिप छिपाकर कविता लिखती और छपवाती हो। जब उसके परिवार को पता चलेगा तो वह परिवार उसके इस कार्य को सम्मान से देखेगा या…. । अगर सम्मान से देखने वाला परिवार होता तो वह छिप कर लिखती ही क्यों। लेखक बताना चाहता है कि अभी भी कस्बाई मानसिकता में औरत का कविता लिखना, मतलब अपने मन का, अपनी समझ का, अपनी इच्छा का इजहार करना है, जो कि पुरुषसत्तात्मक समाज को मंजूर नहीं। कहानी की वह कवयित्री वास्तव में वहीं आसपास की है। और उसके ससुर के हाथ वह अखबार लग भी जाता है। अखबार में उस कविता के ठीक पीछे एक और खबर है जिसमें एक आदिवाली लड़की के सरेआम किसी कॉलेज में घुसकर चोरी करते पकड़े जाने की खबर है। उस छुटभैय्ये नेता टाईप ससुर ने वह अखबार लिया ही उस आदिवाली लड़की की खबर पर चटखारे लेने के लिए है। पर उसके ठीक पीछे अपने ही घर की बहु की कविता छपी देखकर वह भौंचक रह जाता है। उसे लगता है कि उसकी बहु (कविता लिखने और उसके अखबार में छपने के कारण) उस आदिवाली लड़की के स्तर पर आ गई है। जैसे चटखारे लेने के लिए वह उस आदिवासी लड़की की खबर पढ़ना चाहता था उसी भाव से लोग उसकी बहु के बारे में सोच रहे होंगें। उसे यह बिल्कुल नागवार गुजरता है कि उसकी बहु ऐसा कोई काम करती है जिससे कोई गैर मर्द उसके बारे में सोच पाता है। अपने ख्यालों में भी उसे ला सके। यह पुरुषसत्तात्मक सोच ही है जो अपने घरों और परिवारों की स्त्रियों को तो घर में कैद रखना चाहती है कि कहीं कोई बाहरी आदमी उनके बारे में सोच न सके, उनके नाम छपे अखबार को अपनी जेब में रख न सके। और वे खुद दूसरों विशेष रूप से दलित स्त्रियों के बारे में जैसे हो सके अपनी पहुँच बना सकें।अखबार में खबर के माध्यम से ही उनकी देह का स्वाद ले सकें।
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सूरज बड़त्या दलित स्त्री को लेकर पढ़े लिखे खूब जागरुक अंबेडकर वादी पुरुष को ही आलोचना के दायरे में लेकर आते हैं। ‘कामरेड़ का बक्सा’ के पिता बेटी नीलू को खूब प्यार करते हैं। पिता का अपनी मासूम बच्ची के प्रति वात्सल्य का वह चित्रण दलित साहित्य के लिए बहुत उम्मीद भरा और स्वागतयोग्य है । पर यही बेटी जब ‘गुफ़ाएँ’ नामक कहानी में जवान होकर अपनी मर्जी से चमार वर की जगह जाटव लड़के से शादी करना चाहती है तो पिता के लिए यह उसी तरह नाक का सवाल बन जाता है जैसे सवर्ण पिता के लिए बन जाता है जब बेटी किसी दलित से शादी करने को कहती है| यद्यपि सूरज बड़त्या ने इस सोच समझ और मानसिकता को बहुत ही जीवंतता के साथ चित्रित किया है। ‘गुफ़ाएँ’ की अपूर्वा अपनी पसंद के लड़के राजन से इसलिए शादी नहीं कर पाती क्योंकि राजन जाटव है। और वह खुद चमार। इस जातीय उपसमूह को उसके पिता और मामा अपने से नीचा मानते हैं। जहाँ से लड़की ली तो जा सकती है पर दी नहीं जा सकती। सूरज बड़त्या की कहानियों में पहली पीढ़ी ने जो यात्रा तय की उसे खारिज नहीं किया गया है। पर उस यात्रा में जो कुछ सवाल पीछे छूट गए उन सवालों के प्रति पाठकों को सचेत किया गया है। वरना ऐसा नहीं है कि अपूर्वा के पिता कोई सामंती मानसिकता के पुरुष हैं जो अपना निरंकुश शासन चलाते हैं। पिछली पीढ़ी के उसके पिता तो जब कभी माँ को झिड़क भी देते थे तो उसका उन्हें अपराध बोध भी होता था, उसके लिए वे घर-भर को घुमाने ले जाते जिससे उस अपराधबोध से निजात पा सकें। पर खुद अपूर्वा की पीढ़ी के अमन ( उसके पति)का क्या? वह तो उसी की पीढ़ी का है वह सभ्य, शिक्षित और विचारों से वांपमथी अमन कह सकता है – “ मैंने शादी घरवालों के दबाव में की है, मुझसे ज्यादा उम्मीद मत रखना।“ यही अमन अपने विवाह पूर्व के प्रेम को अपूर्वा के सामने स्वीकार कर सकता है पर विवाह पूर्व अपूर्वा के राजन के प्रति प्रेम को स्वीकार नहीं पाता। “मुझे तो कई बार ऐसा लगता है कि तुम अब भी अपने उस… जाकर मिलती हो…।“ लेखक ने तथाकथित अंबेडकरवादी पिता के गलत निर्णय को सही करने के लिए अपूर्वा को राजन तक पहुँचाने का रास्ता खोला तो है पर पता नहीं राजन, अमन से गुजर कर आने वाली अपूर्वा को वैसे ही खुले मन से स्वीकार कर पाएगा जैसे वह उसे शादी के पूर्व चाहता था?
इस प्रकार हम देखते हैं कि दलित पुरुषों की कहानियों में दलित स्त्री को कितना और किस रूप में जगह मिली है। सामान्यतया: पहली पीढ़ी के लेखकों ने घर की स्त्रियों को एक बोझ के रूप में देखा तो बाद की पीढ़ी के दलित पुरुषों ने चुनौती के रूप में। इसके बीच उसे सहयोगी और साथी के रूप में देखने वाले लेखक भी रहे हैं। पर क्या इसके बाद यह मान लिया जाए कि दलित स्त्री के मुद्दों और उसके प्रश्नों को उठाने और दिखाने में पुरुष लेखक कामयाब हैं? पाँच लेखकों की लगभग पचास कहानियाँ पढ़ने के बाद कुछ आठ-दस कहानियाँ ऐसी कहानियाँ निकलती हैं जिन्हें सीधे-सीधे दलित स्त्री के मुद्दों पर केन्द्रित कहा जा सकता है। दलित पुरुषों के लिए दलित स्त्री का सबसे बड़ा मुद्दा उसका यौन शोषण है जो केवल सवर्णों द्वारा ही होता है। जब स्वयं दलित पुरुषों के द्वारा दलित स्त्री का यौन शोषण होता है। उसके श्रम की अनदेखी होती है तो उसके प्रति दलित पुरुषों का स्वर प्राय: मौन रहता है। शिक्षा और नौकरी के मुद्दे पर तो दलित पुरुष की संवेदना फिर भी पहुँचती है पर स्त्री के अपनी मर्जी और समझ से विवाह के अधिकार तक, विवाह के बाद घर और परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने में पुरुषों का साथ पाने के अधिकार तक अभी दलित पुरुषों की कहानियों को पहुँचना है। कैलाश वानखेड़े और सूरज बड़त्या इस दृष्टि से बेशक एक उम्मीद जगाते हैं। पर यहाँ अजय नावरिया की कहानी ’अनचाहा’ का जिक्र करना जरूरी है। क्योंकि यह कहानी स्त्री के अपनी कोख़ पर अधिकार को ही खारिज करती है। यह कहानी उस अजन्में बच्चे की ओर से कही गई है जो गर्भ में भी अभी मात्र डेढ़-दो महीने का है। जिसे उसकी कामकाजी माँ ने अपने दूसरे मात्र एक-डेढ़ वर्ष के बच्चे के कारण अबॉर्ट कराने का निश्चय किया है। इस कामकाजी माँ को अपने पहले बच्चे को पालने में ही पति का बहुत सहयोग नहीं मिल रहा, उसके खिलाफ़ पूरी कहानी ऐसे गढ़ी गई है कि जैसे वह कितनी असंवेदनशील है और कितना अमानवीय कृत्य करने जा रही है। पूरी कहानी में कहीं कोई तर्क ओर प्वाइंट लेखक नहीं दे पाता कि जिसमें वह स्त्री दोषी ठहराई जा सके, फिर भी पूरी कहानी कोरी भावुकता और थोथी संवेदना पर बुनी गई है। कहानी में पुरुष अंडा खाता है। उसके लिए वह किसी की हत्या नहीं है। उसके वह नॉनवेज नहीं है पर स्त्री को जबरन यह मानने को मजबूर किया गया है कि अंडे में जान है। इसलिए वह अंडा नहीं खाती। इस तथ्य पर लेखक अपना तर्क जुटाता है कि फिर क्यों अपने गर्भ के बच्चे को गिराने का निर्णय कर रही है। पर इतना विज्ञान तो कानून भी जानता है कि कितने महिने के गर्भ को गिराना वैध करार किया जा सकता है।
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इस प्रकार अभी ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जिन्हें पूरी संवेदनशीलता से कहानियों में उतारना बाकी है। स्त्री के प्रेम और गरिमापूर्ण व्यवहार पाने का अधिकार, दोस्त बनाने और दोस्ती निभाने का अधिकार, जिंदगी को अपनी क्षमताओं के हिसाब से सँवारने और तराशने का अधिकार, अपने आप को अपनी खूबियों और खामियों सहित स्वीकारे जाने का अधिकार दलित स्त्री के ऐसे कितने ही मुद्दे हैं जो संवेदनशील पुरुष लेखकों की बाट जोह रहे हैं।
साहित्यकार,आलोचक
मिरांडा हाउस मे हिन्दी की प्राध्यापिका हैं
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