देविना अक्षयवर
शाम के साढ़े छः बज रहे थे। आज कबीर आधा घंटा लेट था। घर पहुंचते ही उसने विद्या को हमेशा की तरह आवाज़ नहीं दी, ना ही रोज़ की तरह उसके लिए कोई मज़ेदार गाना गाया। पत्नी के माथे का एक हल्का चुम्बन लेकर वह चुपचाप वॉशरूम में घुस गया। बेड पर किताब पढ़ती हुई विद्या ने आवाज़ लगाई –
” कुछ बात बनी? ”
कबीर चंद सेकंडों तक कोई जवाब नहीं दे पाया, फिर अनमने ढंग से बोला –
” सेंसिटिविटी नाम की कोई चीज़ नहीं है इन लोगों में! आज मैंने अपने सीनियर अफ़सर से भी बात की। लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगी। कोई समझने को तैयार ही नहीं कि ऐसे नाज़ुक वक्त में मैं तुम्हें इस फ़्लैट से किसी दूसरी जगह शिफ़्ट कैसे करा पाऊंगा। अफ़सरों को जो फ़्लैट दे रहे हैं, वहां तक पहुंचने के लिए तुम्हें इस हालत में एक सौ दस सीढ़ियां चढ़नी होंगी! क्या ये कोई मज़ाक बात है?! ”
विद्या ने किताब बंद करके बगल में रख दी। कबीर की बात सुनकर उसके माथे पर कोई शिकन नहीं आयी, बल्कि उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान आ गई। वह अपने पेट को एक हाथ से पकड़े बेड से उतरी और सामने खड़ी हो खिड़की से बाहर देखने लगी। उसकी नज़र कुछ दूरी पर दिख रहे मंदिर के गेट पर लटके बोर्ड पर जाकर ठहर गई, जिसपर लिखा था – ‘मातृ देवो भव: । ‘…
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उसे याद आया, दो साल पहले 8 मार्च, यानी महिला दिवस पर उसे कबीर के दफ़्तर में ‘नारी सशक्तीकरण’ पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए आमंत्रित किया गया था। वहां जबकि ज़्यादातर लोगों ने देश का नाम रोशन करने वाली, कैप्टेन दुर्गा बैनर्जी, इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, अवनि चतुर्वेदी, पी. टी. उषा आदि का हवाला देते हुए नारी सशक्तीकरण के दावे किये थे, वहीं उसने घर के भूगोल में 24 घंटे घूमने वाली ‘ हाउस वाइफ ‘ के सशक्तीकरण की बात की थी। उसके वक्तव्य पर लोगों ने खूब तालियां बजाई थीं। तालियों की गड़गड़ाहट एक बार फिर उसके कानों में गूंजी। पर इस बार उसके मन को कोई संतोष नहीं पहुंचा। उसे लगा जैसे कि भीड़ से बुलंद आवाज़ में कोई कह रहा हो –
“महिला चाहे चांद को छूकर आए, या फिर समुंदर की गहराइयों को नापकर लौटे, उसका वजूद उसकी घरेलू भूमिका से ही तय होती है। ” विद्या ने धीरे से अपने गोलाकार पेट पर हाथ फेरा। उसकी उंगली उसकी नाभि पर पहुंचते ही वहीं रुक गई। उसने अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को खुद से जोड़ने वाले गर्भनाल को महसूस किया, उसकी नाभि वह धुरी थी जिससे उसके मातृत्व का सुखद एहसास जुड़ा था। उसने आंख मूंदकर और गहरे में जाकर महसूस किया, क्या उसका वजूद भी घर और मातृत्व के दायित्वों की धुरी पर ही टिका हुआ है, उसकी नाभि की ही तरह?…
तभी कबीर के सिसकने की आवाज़ आई। विद्या ने एक बेचैनी भरे स्वर में आवाज़ लगाई – “यू डोंट हैव टू फ़ील गिल्टी। आई अंडरस्टैंड… ।”
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चंद सेकेंड बाद कबीर बाहर आया। वह विद्या से नज़रें नहीं मिला पा रहा था। फिर भी विद्या उसकी लाल आंखों में उसकी मजबूरी देख पा रही थी। वह कबीर के सीने से लग गई। कबीर ने अपना हाथ उसके पेट पर फेरा, फिर से उसके आंसू बहने लगे। “यकीन नहीं होता कि ऐसे नाज़ुक मामले को उन्होंने इतने हल्के में कैसे ले लिया। कहते हैं,अपना केस हेड ऑफ़िस को फ़ॉरवर्ड करो। अगर कुछ हो पाता है तो ठीक है, नहीं तो…, आय एम रिएली सॉरी, रूल्स आर रूल्स!”
कितना खोखला सा लगने लगा है सब कुछ। किसी स्त्री के मां बनने की बात सुनकर तो लोग खुश होते हैं, इससे घर – परिवार आबाद होता है, पुश्तें आगे बढ़ती हैं। सबसे बड़ी बात ,विवाह और परिवार जैसी संस्थाएं और मज़बूत होती हैं! पर उस स्त्री के आराम के लिए, उसके स्वास्थ्य और आत्मनिर्भर रहने के लिए कितना कुछ किया जाता है? सब ढकोसले हैं!
विद्या ने उसे बेड पर बिठाया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि कबीर को कैसे संभाले। उसे अपने ही लिखे अन
गिनत लेखों की याद आई जिनमें उसने हमेशा स्त्री की स्वतंत्रता के बहुआयामी पक्षों को रेखांकित किया था। एक स्त्री गर्भवती होने पर भी क्या उतनी ही सशक्त हो सकती है, जितनी कि वह पहले थी? कहते हैं कि मां बनने वाली स्त्री के अंदर अदम्य शक्ति और साहस का संचार होता है। तो क्या ये खुद से होता है या फिर उसके लिए उसे उचित अवसर दिए जाते हैं? पर वह कुछ नहीं बोली। सिर्फ़ कबीर बोलता गया –
“कोई फायदा नहीं है महिलाओं को सशक्त करने के लिए लंबे – चौड़े भाषण देने का, मोटी- मोटी किताबें लिखने का। जबकि ज़मीनी हकीकत यह है कि हम घिसी- पिटी कुछ पुराने गाइड लाइनों के सामने बौने हो जाते हैं। लकीर के फ़कीर हैं हम सब! ”
उसके सर पर हाथ फेरने से ज़्यादा विद्या और कुछ न कर सकी। उसने कबीर के लिए चाय बनाने की सोची, क्या पता उसे थोड़ा आराम मिल जाए। वह किचन की तरफ गई।
पतीले में चाय और दूध को एक साथ उबलते देख वह मन ही मन सोचने लगी। इसमें दूध कितना है और चाय की पत्ती कितनी, चाय के प्याले से कैसे पता चलेगा? दोनों तो उबल- उबलकर इकमेक हो जाते हैं, पर कथनी और करनी में तो कितना अंतर होता है, वह तो साफ़ तौर पर पता चल जाता है! कन्फ्यूजन की कोई गुंजाइश ही नहीं होती! उबलते चाय के ऊपर बन रहे बुलबुले को देखकर उसे लगा मानो हर एक बुलबुला उसका मुंह चिढ़ा रहा हो –
“और करो पीएच.डी., और देखो वर्किंग वुमन बनने के सपने! और दावा करो कि मैं परिवार और जॉब दोनों संभाल सकती हूं!…”
वह एक बार फिर मुस्कुराई। उसने नीचे अपने पैरों की तरफ देखा। दो छोटे छोटे पैर दो जानों का भार संभाल रहे हैं! फिर उसे याद आया, कुछ दिनों बाद पेट का आकार और बढ़ेगा। कुछ दिनों बाद वह मां बनने के कगार पर होगी, कुछ दिनों बाद… उसे अपने पैर नहीं दिखाई देंगे। जब पैर ही दिखने बंद हो जाएंगे तो फिर सीढ़ी कैसे दिखेगी? और एक सौ दस सीढ़ियां चढ़ते- चढ़ते अगर 50 वीं सीढ़ी पर उसे बाथरूम जाने की जल्दी हुई तो? उसे चक्कर आ गया तो? वह लुढ़ककर गिर जाए तो? वह सहम गई। ” जॉब करने की बात अब मत सोचो विद्या, अब तुम मां बनने वाली हो!” उसने खुद को ही कहा।
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काफ़ी देर तक दोनों के बीच एक अजीब सा मौन पसरा रहा। हालाँकि कबीर और विद्या साथ मिलकर रात्रि भोजन तैयार कर रहे थे, लेकिन दोनों अपने-अपने ख्यालों में खोए हुए, अपनी कमज़ोरियों, आशंकाओं और असंतोष से जूझ रहे थे। टेबल पर खाने की दो थालियां परोसने के बाद हर रोज़ की तरह विद्या ने टी. वी. ऑन की। पर कबीर के लिए जैसे भोजन की थाली भी अदृश्य थी और एंकर की आवाज़ भी अनसुनी। एक गहरी सांस लेकर विद्या बोली –
“इतने परेशान क्यों हो रहे हो? बात सिर्फ़ इस फ़्लैट के न रहने की है न? कोई बात नहीं, हम अपने पैसे लगाकर एक दूसरे फ़्लैट में रह सकते हैं, इसी तरह। क्या हम इतने काबिल नहीं?”
अपनी असहमति जताते हुए कबीर सर हिलाते हुए बोला –
“बात पैसों की नहीं है विद्या। हम आर्थिक रूप से इतने काबिल हैं कि अपनी मर्ज़ी वाली जगह पर रह सकें, पर क्या इससे समस्या का हल निकल आएगा ? क्या हमारे मन में उठने वाले सवालों का जवाब मिल जाएगा ? आज हम हैं, कल कोई और होगा। क्या इस मुद्दे पर इस तरह उनका निष्क्रिय होना वाज़िब है? अगर एक महिला और उसके होने वाले बच्चे की सुरक्षा, उसकी सेहत, उसकी आत्मनिर्भरता जैसे अहम मुद्दों को ये सरकारी लोग संजीदगी से नहीं ले सकते तो किस मामले के प्रति अपनी संवेदनशीलता दिखाएंगे? देश के सामाजिक और आर्थिक विकास में पुरुषों के समान स्त्रियों की भागीदारी की बात करते थकते नहीं ये लोग, पर क्या इसके लिए स्त्रियों को समान अवसर और माहौल दे पा रहे हैं? आखिर किस मातृत्व सुख की बात करता है यह समाज?!” विद्या सोच में पड़ गयी – ‘एक छोटी सी लगने वाली बात के पीछे कितनी गहरी चिंता है’… उसे कबीर को अपना जीवन साथी चुनने के फैसले पर नाज़ हुआ। थोड़ी देर कबीर का ध्यान बंटाने के लिए उसने टी. वी. का वॉल्यूम तेज़ किया।
स्क्रीन पर एक दूसरी दुनिया की तस्वीरें दिखाई जा रही थीं। देश भर में महामारी के प्रकोप और उसके चलते तालाबंदी की परिणतियों को झेलते लाखों लोग कतारों में चलते हुए जा रहे हैं। किसी के कन्धों पर उसकी पूरी गृहस्थी लदी है, किसी के रिक्शे पर उसका पूरा परिवार, कोई महिला प्रसव वेदना से अभी निजात भी नहीं पायी थी कि गाँव के लिए वह मीलों की पैदल यात्रा पर फिर से निकल गयी है। कोई अपने 6 महीने के बच्चे को गत्ते के डब्बे और चार पहियों की सवारी में खिंच ले जा रहा है। किसी का शिशु भूख, प्यास और लू से दम तोड़ चुका है, फिर भी माँ उसे सीने से लगाए अपने तेज़ कदम बढ़ाए जा रही है… । क्या कुछ नहीं था उस दस मिनट के वीडियो में! विद्या ने नज़र अपने पलते बच्चे की तरफ झुका दी और कहा –
“हम दोनों की परेशानी का कारण एक उम्मीद है, जो हम व्यवस्था से कर रहे हैं। जो हमारे लिए फ़िलहाल एक बुनियादी ज़रुरत है, हो सकता है कुछ लोग इसे आराम की संज्ञा दे रहे होंगे। पर सड़क पर दिन-रात बदहवासी में अपने घर को चले जा रहे ये लोग, इन्हें क्या पता कि ‘आराम’ जैसा कोई शब्द भी होता है! जिनको बुनियादी ज़रूरतें भी नहीं मिलतीं, वे क्या कभी किसी से उम्मीद भी बाँध सकते हैं? ऐसे वक्त में इन लाखों असहाय लोगों की तकलीफ़ के आगे हमारी तकलीफ़ नगण्य नहीं हो जाती? कबीर के पास विद्या को देने के लिए शब्दों में कोई जवाब नहीं था, वह अपनी कुर्सी से उठकर विद्या के करीब आया और उसके दोनों हाथों को चूम लिया। उसकी कमर से सिर टिकाए विद्या ने सिर्फ़ इतना कहा –
” आज के बाद हम फ़्लैट को लेकर कोई बात नहीं करेंगे”
रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। पलंग पर लेटे- लेटे विद्या को न जाने कब नींद आ गयी थी, पर कबीर की नज़रें एकटक कमरे की छत पर टिकी रहीं। वह एक नयी सुबह के इंतज़ार में एक लम्बी रात काट रहा था।…
कुछ दिनों बाद कबीर ऑफ़िस से घर लौटा तो उसके हाथ में एक चिट्ठी थी। उसने बिना कुछ बोले विद्या को चिट्ठी पकड़ा दी। विद्या ने उसमें लिखीं चंद लाइनें पढ़ीं – कबीर के ऑफ़िस से आर्डर आया था, अगले नौ महीनों तक उनको फ़्लैट से शिफ़्ट नहीं करनी पड़ेगी। दोनों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा और मुस्कुरा दिए।
सहायक प्रोफ़ेसर
सेंट बीड्स कॉलेज, शिमला
हिमाचल प्रदेश
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