नील नीले रंग के

प्रियंका सोनकर

 प्रियंका सोनकर  असिस्टेन्ट प्रोफेसर
दौलत राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय. priyankasonkar@yahoo.co.in

“भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात वैश्विक स्तर पर उसका एक मजबूत स्थान कहीं न कहीं यह आश्वस्त करता है कि हम प्रगति के प्रशस्त पथ पर अग्रसर हो रहे हैं . इसके पश्चात जब हम भारतीय स्त्री का आकलन करते हैं तो बहुत निराश नहीं होते. हालांकि यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि आनुपातिक तौर पर स्त्रियों की संख्या कम हुई है, बावजूद इसके पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री ने अपनी प्रभावपूर्ण उपस्थिति दर्ज करने में आंशिक सफलता प्राप्त की है . इसका श्रेय भारतीय संविधान को जाता है कि उसमें मनुष्य मात्र की अस्मिता की रक्षा करने का दायित्व-बोध निहित है.”——- हेमलता महिश्वर

दलितों के लेखन का जो स्रोत है वह उसका अपना समाज है, उसका अपना भोगा हुआ कटु यथार्थ है और इसी समाज की पूरी सच्चाई उनकी आत्मकथा, कहानियों, उपन्यासों और कविताओं में अभिव्यक्त हुई है. कवयित्री इस बात को सहज स्वीकार करती हैं – ‘मेरी बेचैनी किसी अनजान के कारण कभी नहीं हुई . मेरी व्याकुलता का कारण हमेशा चिर परिचित या अचिर-परिचित ही रहा है. समाज से परे किसी में इतनी ताकत नहीं कि वह मुझे बेकल कर सके.’ उस बेकरारी को नामालूम सा-करार देने के लिए मैं चल पड़ी हूं- नील, नीले रंग लेकर.’(नील, नीले रंग के)  40 कविताओं का यह काव्य संग्रह उस दलित और आदिवासी समाज की मार्मिक पीड़ा को उघाड़ता चलता है साथ ही उघाड़ता है एक कवयित्री का पूरा अन्तर्मन भी जिसमें पूरी की पूरी एक व्यवस्था के प्रति आक्रोश है, वह दलित-आदिवासी स्त्रियों के संघर्ष को भी याद करना नहीं भूलती हैं. नीले बादल,(काव्य-संग्रह, दक्षिण भारत में स्त्री-स्वतन्त्रता की मुखर अभिव्यक्ति) नीला आकाश (उपन्यास-सुशीला टाकभौरे) नीला सूरज इसके विस्तार में यदि हम ‘नील, नीले रंग के’- को देंखे तो हमें यह ज्ञात होगा कि यह नीला रंग कितनी ऊर्जा देता है दलित रचनाकार को.  नीला रंग दलितों के लिए उनकी चेतना है और यह चेतना बाबासाहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर ने दी है .

हेमलता महिश्वर उन दलित कवयित्रियों में प्रमुख हस्ताक्षर हैं जो अपने लेखन की प्रेरणा डॉ.भीमराव अंबेडकर से ग्रहण करती हैं. उन्होंने डॉ. अंबेडकर के 22 प्रतिज्ञासूत्र के तर्ज पर ही अपने जीवन में 22 प्रतिज्ञा सूत्र बनाये हैं जो अवतारवाद, ईश्वरवाद, ब्राह्मणवाद स्त्री-पुरूष असमानता के विरूद्ध एक महाख्यान रचते हैं. उनकी कविता में हम बुद्ध और डॉ.अंबेडकर का जो स्वरूप पाते हैं वह एक अलग और नया आकार ग्रहण करता हुआ नजर आता है. संग्रह के नाम पर ही नील नीले रंग की कविता का विस्तार देखिए:-

‘नीले रंग का मतलब
नहीं ज़ख्मों के निशान
या उससे उपजी उदासी
उठी उंगली
बाबासाहेब की है बताती
नीलों के अंतरिक्ष में
सूर्य एक रक्तबंबा्ळ्
लगा है धधकने
नीलों की गहराई का
नील गगन में हुआ विस्तार
सम्यक् मार्ग पर चलते
नील
अशोक चक्र में जा उभरे
स्वतन्त्र गणतन्त्र भारत की
तस्वीर लगी है पनपने’———-नील, नीले रंग के-2

नीले रंग की अभिव्यंजना जितने स्पष्ट और अद्भभूत  ढंग से हेमलता महिश्वर ने अपनी कविताओं में किया है वह बहुत ही काबिले तारीफ है. गहरी पीड़ा, उदासी, अपमान, अत्याचार और ज़ख्म से चोटिल हुए नीले रंग का जो अर्थ उनके मस्तिष्क में बना हुआ था, वह उनकी कविता नील, नीले रंग के क्रमशः पांच चरणों में अपना नया अर्थ खोलती नजर आती है. नीला रंग पीड़ा, अपमान, अत्याचार का नहीं वरन् नीला अंतरिक्ष, नील गगन, सम्यक् मार्ग और अशोक चक्र तक अपना विस्तार पाता है.
किस तरह से यह नीला रंग मानवता और मनुष्यता की बात करता है. नील, नीले रंग के-4 में इसको बहुत ही सरल और सहज ढंग से कवयित्री चित्रित करती है-
नील
नीले रंग के
पीपल से मिल गले
मनुष्यत्व की ओर बढ़ रहे थे.

डॉ.अंबेडकर ने समानता, स्वतन्त्रता और मानवता की बात की थी और यही मूलमंत्र दलित साहित्य और रचनाकारों के लिए भी है. मानवता की स्थापना और उसका प्रसार दलित लेखकों का लक्ष्य है.
अंधाधुन्ध विकास और भूमण्डलीकरण के दौर में आज आदिवासी एक पहेली बन गया है और उनका जीवन तो एक गहन पहेली.  इस पहेली को बड़ी तल्खी से कवयित्री ने अपनी कविता ‘पहेली’ में खोला है. आदिवासियों पर निरन्तर हो रहे शोषण, उनको माओवादी, नक्सली करार देना और विकास के नाम पर उनको जल, जंगल और जमीन से बेदखल करना यह पूंजीवादी सत्ता की चाल है. इस प्रकार देखें तो आदिवासियों का जीवन ही एक पहेली बन गया है.

‘सारे के सारों की सभ्यता से
जंगल अटा पड़ा था/इस सभ्यता को सहेजने
आगे आदिवासी/पीछे आदिवासी
यहां से जड़ उखाड़े /तो कहां जाकर
जड़ गाड़े आदिवासी
बूझो ! बूझो ! (पहेली, पेज नं.21)

‘स्वर्ग और स्त्री’ शीर्षक कविता स्त्री विमर्श की कविता है, जहां समाज में कवयित्री लैंगिक भेद-भाव के खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज कराती है वहीं वह स्वर्ग और इन्द्रलोक को भी नहीं छोड़ती. यह कविता समान कर्तव्य और समान जिम्मेदारियों का बोध कराते तो चलती है उससे भी अधिक यह एक ऐसे लोक पर करारा व्यंग्य भी है जहां धरालोक की तरह ही असमानता व्याप्त है. प्रश्न करती हुई यह कविता स्वर्ग में आसीन इन्द्र के दरबार में घोर विषमता का भी बोध कराती है.

इंद्र के दरबार में/बहुत सारी हैं
देवियां भी/देवताओं की तरह
पर क्या कोई है/अप्सर भी
अप्सराओं की तरह/चांपने को चरण
देवियों के ? (पेज नं.32)

उपस्थित/अनुपस्थित-1-5 शीर्षक श्रृंखला कविता में झाड़न और मन दोनों शब्द एक बिम्ब रचते हैं जो इनकी कविता के उपस्थित/अनुपस्थित-1,2, 3 और 5 की श्रृंखला में क्रमशः प्रयोग हुए हैं.  जहां झाड़न एक तरफ अपनी पूरी मौजूदगी के साथ उपस्थिति दर्ज कराता है वहीं स्त्री का मन पूरे जद्दोजहद के साथ भी उपस्थित नहीं हो पाता है. झाड़न और मन का अन्तर्सम्बन्ध भी इस कविता में प्रतिलक्षित होता है.

बस/चमकाती रहीं/घर का मन
झाड़न की तरह/गंदले होते रहे /उनके मन ” (पेज नं.35)
स्त्री मन की यह कविता अपनी श्रृंखला में स्त्रियों के मनोमन को महसूस कराती और साथ ही घर में उनके हाड़-तोड़ मेहनत और कर्म की उपस्थिति तथा उनके मन की अनुपस्थिति का गहरा यथार्थ प्रस्तुत करती है.

घर में
अपनी उपस्थिति का/एहसास दिलाते
वे दुनिया से/अनुपस्थित हो गईं (उपस्थित/अनुपस्थित-4)
पराया धन या अपना घर न होने से स्त्री पीड़ित है । स्त्री का स्वयं का कोई घर नहीं है । बचपन से उसे पिता के घर में कहा जाता है कि तुझे अपने पति के घर जाना है, परायेपन का बोध बार-बार कराया जाता है और पति के घर उसको ताने पर ताना कि पता नहीं किस घर से आयी है .यह जो पीड़ा है स्त्री की, उससे वह स्वयं को कहीं का भी नहीं पाती .
ओ पगली
लड़कियां हवा/ धूप/ मिट्टी होती हैं
उनका कोई घर नहीं होता .’

रमणिका गुप्ता इस संदर्भ में लिखती हैं कि ‘यानी जिसका कोई अपना घर नहीं वह औरत होती है ।’ (हाशिए उलांघती स्त्री, युद्धरत आम आदमी, विशेषांक, 2011, पेज नं.12)
विद्रोह कविता दलित-आदिवासी स्त्रियों के साथ हुए अत्याचार और अन्याय की कहानी कहती है . दलित और आदिवासी स्त्रियों को समाज में चौतरफा शोषण का शिकार होना पड़ता है. कभी यौन शोषण, कभी डायन के नाम पर हर पल उनका उत्पीड़न जारी है, फिर भी वे अपने प्रति हो रहे अत्याचार के विरूध उठ खड़ी हो रही हैं. हम मथुरा और भंवरीदेवी को नहीं भूल सकते. वे अब कर्मठ, पहले से ज्यादा जुझारू और संघर्षशाली हो गयी हैं और उनकी पीड़ा एक विद्रोह में बदल गयी है.

“मनोरमा, प्रियंका/ दामिनी, गुड़िया
तलाश में इनकी/ दूर से दूर तक
ओढ़े चादर /एक दर्द की
सोनी सोढ़ी, शीतल साठे /इरोम शर्मिला
चल पड़े हैं साथ /कि उग आई है भीतर
सुनहरी चांदनी
रक्ताभ धूप
अग्नि तेज
और
उत्ताल रहा /उष्ण तूफान.”

बाबासाहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर ने शिक्षा को शेरनी का दूध कहा था कि जो इसे पी लेगा वह गुर्राए बिना नहीं रह सकता अर्थात अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ा होगा. आज आजाद भारत में जब स्त्रियां शिक्षा हासिल कर अपने अधिकारों की मांग करने लगी हैं तो मनुवादी और ब्राह्मणवादी तथा कठमुल्लेपन से ग्रसित ताकतें उनको हर संभव परास्त करने में लगे हुए हैं. सवाल शीर्षक कविता में ऐसे लोगों से सवाल है कि भारत को लोकतान्त्रिक देश बने कितने साल गुजर गये किन्तु स्त्रियों की शिक्षा पर अभी भी मनुवादी ताकतें कभी बन्दूक तो कभी मल जैसे घातक हथियार लेकर तैनात हैं जो सामाजिक स्वतन्त्रता नहीं लाना चाहते देश में.

‘क्या इतना खतरनाक होता है
शिक्षा नामक शेरनी का दूध
पहले सावित्री को
विभूषित किया
मल विष्ठा से
और आज
सलामी दी/ मलाला को
बंदूक की गोलियों से
कागजी लोकतन्त्र के पैरोकार/
राजनीतिक स्वतन्त्रता के अभिलाषी
लगने न देंगे
सामाजिक स्वतन्त्रता का अर्थ.’

हेमलता महिश्वर भारतीय संविधान को अपने लेखन और जीवन का मूल-मंत्र मानती हैं. इसीलिए जो लोग भारतीय संविधान के साथ छेड़-छाड़ (संशोधन) करना चाहते हैं तो वह उन सभी भारतीयों को सावधान करती हैं जो बाबासाहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर के लिखित भारतीय संविधान में अपना विश्वास रखते हैं. क्योंकि वह ऐसे लोगों को कतई भारतीय नहीं मानती जिन्हें संविधान में विश्वास नहीं है. परिवर्तन शीर्षक कविता में हेमलता महिश्वर याज्ञवल्क्य जैसे पुरूषों को यह याद दिलाना चाहती हैं कि यदि तुमने वैदिक काल में गार्गी को चुप करा दिया था तो तुम भी यह जान लो कि हम औरतें भी थेरियों के उदात्त इतिहास के बारे में तुम्हें बोध करा देना चाहती हैं.

‘हम औरतें
अब तुम्हें दिलाती हैं याद/भूल जाते हो तुम
बार-बार/इस देश में है थेरियों का
उदात्त इतिहास ।—-(पेज नं.70-71)
‘मैं कौन’ शीर्षक कविता में कवयित्री ऐसे पुरूष-समाज को आगाह करना चाहती हैं जो स्त्री को मात्र एक देह मानते हैं उससे परे कुछ भी नहीं, न उनकी संवेदना और न ही उनकी भावना. सबसे अधिक उन्हें एक मनुष्य भी नहीं मानना, मात्र एक देह.
‘मैं न थी/ न हूं/ बस/ देह थी
और है/ मेरे आंसू/ कब दिखाई पड़े/ तुम्हें.

दलित साहित्य बदलाव का साहित्य है बदलाव एक सकारात्मक अर्थ में जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवर्तन की बात हो. सभी को सामाजिक न्याय मिले. उन्हें लगता है कि यदि इंसान की मानसिकता में बदलाव लाया जाय तब बहुत कुछ संभव है.इसी समाजिक न्याय के लिए कवयित्री अपनी कविता बदलाव में लिखती हैं कि-

‘करारी सी झाड़ू लेकर/ खोंपचे से तुम्हारा
बजबजाता दिमाग निकालकर
दूसरा दिमाग रख देना चाहती हूं.’ (पेज नं.81)

स्त्री की भी अपनी भाषा होती है स्त्री भाषा के सन्दर्भ में डॉ. के. वनजा लिखती हैं.“ स्त्री भाषा में रोष, आक्रोश एवं प्रतिरोध की आवाज इसलिए आती है कि उसने जीवन में बहुत कठोर संदर्भों का सामना किया है. इसलिए तद्जन्य साहस, शक्ति एवं ओजगुण उसमें आ जाते हैं. जो जीवन में शांति एवं सुख अनुभव करते हैं, उनकी भाषा में चिनगारियां नहीं होतीं. स्त्री बोलती है तो पहचानना चाहिए उसका जीवन कष्टकंटकों से भरा है. इसलिए आत्मान्वेषण का घनत्व एवं रोष उसमें सहजात होंगे.’ (युद्धरत आम आदमी, विशेषांक, पेज नं.28)

आशा, संघर्ष और अपनी अस्मिता से जगाए शब्द व्यक्तिगत सुख-दुःखों का गणित न होकर विशाल जन-समुदाय की अभिव्यक्ति के रूप में प्रतिध्वनित होने लगते हैं. इसीलिए दलित स्त्रियों का साहित्यिक बयान मानवता की पुकार के रूप में गूंजने लगा है. क्रांति और समाज परिवर्तन का बिगुल और मशाल लेकर जब कोई रचनाकार समूची कौम को ललकारता है, तब खदबदाती बेचैनी निश्चित रूप से ही अपनी दिशा पाती है. हेमलता महिश्वर की भाषा बहुत ही सरल और संयमित है. कविता कहने की जो अभिव्यक्ति है वह वास्तव में मनुष्य में बेचैनी तो पैदा करेगी अपने समाज में व्याप्त असमानता और शोषण के प्रति साथ ही उसके बदलाव के लिए संघर्षरत भी होगी.इक्कीसवीं सदी भूमण्डलीकरण, वैश्वीकरण और कहें तो ग्रामीकरण की सदी है । सम्पूर्ण दुनिया एक गांव में बदलती जा रही है लेकिन गांव से निकाल दिये गये समाज का एक तबका विश्व से जुड़ने की आस लगाए है । आज भी महज वही परिदृश्य है जो सदियों पहले था । ‘आज भी गांवो के दूसरे छोर पर अछूतों की बस्ती हाथ बांधे, पिघलती आंखों से, रूधे कंठ से, गूंगे की तरह अपने मालिकों के आदेशों का पालन करने के लिए विवश है ।’ आज से बहुत पहले डॉ.अंबेडकर ने ‘शूद्र पहले कौन थे’ नामक पुस्तक में लिखा है, ‘किसी को सजा देनी हो तो उसे अछूत घोषित कर गांव में भेज दीजिए ।’…केवल इस एक वाक्य में अर्द्ध सदी पहले लिखे उद्गार आज भी ज्यों के त्यों ही हैं  ।’ (डॉ.दामोदर खड़से, अन्यथा, जून 2008, पेज नं.65)

विकास के नाम पर देखें तो भारत डिजिटल इण्डिया बनने जा रहा है वहीं दूसरी ओर रोहित वेमुला, डेल्टा मेघवाल, अखलाक, दादरी, फरीदाबाद और भी बहुत से जगहों पर दलितों की नृंशसीय हत्या हो रही है.  बिहार में दलितों की झोपड़ियां जला दी गयीं. एक तरफ जब दलित साहित्य लिखा जाता है तो कहा जाता है कि यह घृणा का, आक्रोश का और प्रतिक्रियावादी साहित्य है इसके नकारने की बात तक होती है और दूसरे तरफ आप देखेंगे कि आक्रोश और घृणा किसके द्वारा समाज में फैलायी जा रही है.  इसको समझने की आवश्यकता है । दलित साहित्य बुद्ध से मानवता, करूणा और अंहिसा का दर्शन ग्रहण करता है और यही उसकी रचना का प्रेरणा बिन्दू है । वह सामाजिक न्याय की बात करता है न कि समाज को तोड़ने की. दलित कवियों ने और कवयित्रियों ने समाज में व्याप्त विषमता को लेकर अपनी प्रतिकिया अभिव्यक्त की है. हेमलता महिश्वर का काव्य-संग्रह ‘नील, नीले रंग के’ सामाजिक असमानता के खिलाफ संघर्षरत नजर तो आता ही है साथ ही समाज के हर वर्ग, दलित, शोषित, आदिवासी और स्त्री सबकी पीड़ा को भी रेखांकित करता चलता है.उनकी कविता में बुद्ध, नीला रंग, बदलाव, परिवर्तन, स्वर्ग और स्त्री तथा फंदे ये शब्द एक प्रतीक के रूप में आये हैं. अन्त में डॉ.दामोदर खड़से के शब्दों में ‘‘दलित कविता से दलित दुनिया की एक संस्कृति ने जन्म लिया है.दलित स्त्रियों द्वारा लिखी जा रही अभिव्यक्तियां जहा दमन, शोषण और अपमान-तिरस्कारों की प्रतिध्वनियां हैं, वहीं उनके अपने सपनों, आचार-विचार, ध्येय-आकांक्षा, जीना-मरना और सुख-दुखों का दस्तावेज भी हैं.’

यह आलेख भारतीय भाषा केंद्र, जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय,  में महात्मा फुले जयंती, 2016,  के अवसर पर प्रो. रामचन्द्र के द्वारा आयोजित कार्यक्रम में पढ़ा गया था.

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ISSN 2394-093X
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