प्रियंका सिंह की कविताएं (बर्फीले रिश्ते और अन्य)

प्रियंका सिंह

गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर.संपर्क: prisngh87@gmail.com

तल्ख शब्दों की टीस


काश तल्खी न होती उस दिन तुम्हारी आवाज़ में
उस आवाज़ से प्रेम की मुलायमियत की चाह थी
वह शब्दों की क्रूरता अंदर तक घायल कर गयी
वे शब्द एक जोरदार थप्पड़ की तरह झनझना गए और जैसे
हाथ न उठाकर भी हाथ उठाया तुमने
गुबार तिलमिलाया ठहरा बह चला
मन का कोना कोना भीगा
संतप्त हृदय बिलख रोया
और शायद उस दिन,हाँ शायद
हाथ न उठाकर  भी हाथ उठाया तुमने
वह शब्दो की चुभन अब तक चुभती है
जेहन को घायल कर रिसती है
मेरी उलझन न भांप सके
तुमसे दूर आज खुश हूं
क्योकि शब्दों का वह लहजा टीस देता है
जब तुमने,हाँ शायद जब तुमने
हाथ न उठाकर  भी हाथ उठाया था.

बर्फीले रिश्ते 

बर्फ की सिल्ली से सर्द पड़े हैं पैर
रिश्तों की गर्माहट की कर रहे दरख्वास्त
वो सोये हैं मुंह फेरकर
इस बात से बेखबर

काट ली रात हमने भी करवट बदल बदल
और मन ने ये सोच सोचकर
कहाँ गयी वह नरम हथेली
जो आंखों से आंसू ज़ब्त कर लेती थी
अब तो आसूं भी कपोलों पर सख्त हो सूख गए..

वक़्त सब तब्दील कर देता है
कर दिया उसने हमारी रिश्ते की
ऊष्मा को भी कुछ हल्का,खोखला और बेबुनियाद शायद …

भावों को खंगाला,छिटका,झटका
और जाना बूझा
जी रहे थे अब तक ख्वाब में
और जब जागे तो हकीकत से रूबरू हो गए..
कि
रिश्ते कब फ़ीके,बेरंगे और धुंधले हो गए

यदि ससुराल मायका हो जाता

मायका माने मां का
माँ जो करुणा,प्रेम,त्याग  की त्रिवेणी
जिसकी ममता में बह बीता बचपन

मां जिसकी स्निग्धता और सादगी ने
जीवन का वह पाठ पढ़ाया जो सिखलाता
मिलजुल कर रहना और करना प्रेम का वितरण

पिता की सीखो और नसीहतों को जीवन में उतार
मैं बनी दयालु,प्रसन्नचित्त ,अनुशासित,
उदार

बचपन की दहलीज को लांघ
हुआ यौवन में प्रवेश
चिर परिचिता लगे विचार मन
और तुमसे हुआ लगन
विवाहेतर

पहली होली ,पहली दीवाली और नववर्ष
सब बीतने लगे
मन का एक कोना भटकता रहा
बचपन की उन गलियारों में
हाँ माँ, तेरी गुझिया,दही बड़े और फारा में

क्या वह घर हमेशा मेरा नही रह सकता
क्या भइया की खिंचाई , मीठी नोक झोंक,बहन से लड़ाई ,तीज -त्योहार नही रह सकते  चिर
यह ऐसा यूटोपिया है जहां हम सब
करें बात और हँसे गुनगुनाती धूप में चाय के साथ

शायद नहीं
क्योंकि मैं ऐसे देश में जन्मी हूँ
जहां नर – नारी समान का नारा अवश्य लगता है
लेकिन लड़की को ही घर छोड़ पराये घर ‘एडजस्ट ‘करना होता है..
ससुराल ही अब तेरा घर है -सुनना पड़ता है

जब भी आती थी ज़िन्दगी के शाम में उदासी
अपने परिवार को देख लगता था
कुछ भी हों हालात हम सब हैं तो साथ
और पुनःहोता था उमंगों का स्पंदन

एक वह संबल भी दूर हो गया
माँ तेरा आँचल और पिता के स्नेह का अभाव गमगीन कर देता है

लड़के का जीवन वही सदा रहता है
उसको न अजनबी चेहरों से
समझौता करना पड़ता है

आखिरी पहर मन चिंतन करता है
अगर सास का दुलार ,ससुर का वात्सल्य, देवर ननद में भाई बहन सा पूर्णतःअपनत्व होता

अठारह या उससे बेसी सालों के रिश्तों को बदलने में तब दर्द कम होता ..

यदि ससुराल मायका हो जाता ।
यदि ससुराल मायका हो जाता…

यह लेख/विचार/रपट आपको कैसा लगा. नियमित संचालन के लिए लिंक  क्लिक कर आर्थिक सहयोग करें: 

                                             डोनेशन 

स्त्रीकाल का संचालन ‘द मार्जिनलाइज्ड’ , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 
अमेजन पर   सभी  किताबें  उपलब्ध हैं. फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं.

संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com 

 

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles