डा0 अम्बेडकर और स्त्री अधिकार – सुजाता पारमिता

( आज
आधुनिक भारत के निर्माता डा बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर की जयंती है . बाबा
साहब स्त्री अधिकारों के लिए ठोस पहल लेते रहे . ‘स्त्रीकाल’ परिवार की ओर से उन्हें सादर नमन और उनकी जयंती पर प्रस्तुत है सुजाता पारमिता का लेख।! -संपादन मंडल)
                                                                                                                              

                                                               मैं नही जानता कि इस दुनिया का क्या होगा
                                                                     जब बेटियों का जन्म ही नहीं होगा
                                                                                                                 – डा0 अम्बेडकर

स्त्री सरोकारो के प्रति डा0 अम्बेडकर का सर्मपण किसी जुनून से कम नही था। 86 साल पहले 28 जुलाई 1928 के दिन उन्होने बम्बई विधान परिषद में स्त्रियों के लिये प्रसुति हितों से सम्बंधि एक महत्वपूर्ण बिल पेश किया जिसके समर्थन मे जोरदार वकालत करते हुये कहाँ कि यह देश के हित में है कि माँ को बच्चे के जन्म के दौरान आराम मिले। सरकारी और निजी क्षेत्रों के अंर्तगत आने वाले तमाम कारखाने खदाने या ऐसे सभी उपक्रम जहाँ भारी संख्या में स्त्रियाँ मजदूरी करती है जो खतरनाक है और जिसमें काम करना उनके लिये जानलेवा भी सिद्ध हो सकता है। यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे इस खर्च का वहन करे क्योंकि वे स्त्री श्रमिकों को तभी काम पर रखते है जब उन्हें इससे ज्यादा फायदा होता है। इस बिल का मुख्य आधार अन्य सुविधाओं के साथ ही महिला श्रमिकों के लिये वेतन समेत छुट्टीयों के प्रावधान का था। उन्होंने बरतानिया सरकार से इस बिल को केवल बम्बई विधान परिषद क्षेत्र तक ही सीमित न रखने बल्कि देश भर में लागू किये जाने की अपील की। जबकी भारतीय सामाजिक परम्परा में दलित और स्त्रियों को अपने श्रम की एवज किसी भी सहूलियत की उम्मीद करना भी अपराध माना जाता रहा ।

जनसंख्या नियंत्रण बिल के रूप में डा0 अम्बेडकर ने एक बार फिर बम्बई विधान परिषद मे पी जे रोहम द्वारा नवम्बर 1938 को एक ऐतिहासिक बिल पारित करवाया जिसने मनु के सदियों से चले आ रहे दर्शन को ही ध्वस्त कर दिया जिसने स्त्री को उस गुलाम के रूप में जीने के लिये बाध्य किया था। जिसका अपनी ही देह और कोख पर अधिकार न हो। उसका जन्म स्त्री के रूप  में मात्र इसीलिये हुआ है कि वह पुरूष की सेवा करे, उसे तृप्त करे और बच्चे पैदा करने का साधन बनी रहे। यह सिद्धात सदियों से भारतीय स्त्रियों की भयानक स्थिति के लिए जिम्मेदार रहा जिससे आज भी संघर्ष जारी है। भारत के इतिहास में पहली बार इस बिल ने स्त्रियों को यह अधिकार दिया कि अनचाहे गर्भ से मुक्ति उसका अपना निर्णय होगा और उसकी देह और कोख पर उसका अपना अधिकार साथ ही उन्होंने सरकार से हर भारतीय स्त्री को अनचाहे गर्भ से मुक्ति उसकी मर्जी से और आसानी से मिले इसके लिए उसकी मदद की अपील भी की।
डा0 अम्बेडकर को वायसराय की काऊसिल में 20 जुलाई 1942 को बतौर श्रम सदस्य शामिल किया गया। अपने चार साल (1942-46) के कार्यकाल में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कानून बनाये। पुराने कानून में बदलाव किये। यह डा0 अम्बेडकर की ही देन है कि भारतीय श्रम कानून का वजूद न केवल बदला बल्कि वे कही मानवीय बने। महिला श्रमिकों के लिये विशेष सुविधाओं को लागू किया गया। कारखाने और खदानों में काम के घण्टों को घटा कर निर्धारित किया गया। स्त्री और पुरूष श्रमिकों के लिये समान वेतन के अधिकार का भी प्रावधान किया गया। छोटे बच्चों के लिये काम की जगह के आस-पास ही पालना घर बनाये गये। स्वस्थ्य और जीवन बीमे की शुरूआत की गयी, सामाजिक सुरक्षा अधिनियम का निमार्ण किया गया। आज  देशभर में जो कर्मचारी राज्य बीमा निगम के अस्पताल चलाये जा रहे हैं इस नीति को भी डा0 अम्बेडकर ने ही मूर्त रूप दिया था। डा0 अम्बेडकर का योगदान श्रम कानून के क्षेत्र में बहुत व्यापक और सराहनीय था। जबकि पूजीपति वर्ग द्वारा चलाये जा रहे कारखानों मे तो पीने के पानी की भी व्यवस्था नही थी जो डा0 अम्बेडकर के प्रयत्न से ही सम्भव हो पायी। पानी का अधिकार दलितों के लिये हमेशा ही सघर्ष का कारण रहा। डा0 अम्बेडकर भी इस दर्द के साथ ही जन्मे और जियें।
अप्रैल 1947 को डा0 अम्बेडकर ने हिन्दु कोड बिल का मसौदा तैयार कर संविधान सभा में रखा, जिस पर बहस होनी थी। यह बिल मुख्यतः हिन्दु संयुक्त या अविभाजित परिवार में सम्पती के अधिकार से सम्बंधित था। यह बिल स्त्रियों को स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता था। अगर उस वक्त पारित हो गया होता। इस बिल की विशेषता यह थी कि यह सिर्फ स्त्री अधिकारों पर ही आधारित था। इस बिल में स्त्रियों को अपनी मर्जी से विवाह और तलाक, पति से अलग रहने पर गुजारा भत्ता गोद लेने (बच्ची को भी गोद लिए जाने) और उनका संरक्षण का भी अधिकार दिया गया था। सम्पती के विभाजन होने पर घर की स्त्रियां जिसमें माँ, पत्नी और बेटी शामिल हैं। सभी का हिस्सा निर्धारित किया गया। इस क्रान्तिकारी बिल से उस वक्त तूफान आ गया जिस देश में स्त्री को कभी  इंसान होने का भी अधिकार न हो उसे एक साथ इतने सारे हक दिये जाने वाले थे लेकिन यह बिल फिजूल की प्रक्रिया से जूझते रहने के बाद अंततः ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। हालांकि इस बिल में सुझाई गयी चार शर्तों को उस वक्त किसी तरह पारित किया गया।
स्वतंत्र भारत मे डा0 अम्बेडकर को संविधान निमार्ण का काम दिया गया। जैसी कि उनसे उम्मीद थी उन्होंने जाति, धर्म और जिन्सीयत के सारे बन्धन तोड़कर सभी भारतीयों के लिये समता के अधिकार को प्राथमिकता दी। आज भारतीय संविधान अपने सभी नागरिकों को समान अधिकार की गारण्टी देता है। चाहे वह अम्बानी बन्धु हो या सड़क पर बैठे भीख मांग कर गुजारा करते या घरों के बर्तन माँजकर परिवार का पेट भरती लाखों जिन्दगियाँ। स्त्रियों के साथ किसी भी आधार पर भेदभाव को तो कानूनी जुर्म माना गया।
चार साल बाद कानून मंत्री के रूप में डा0 अम्बेडकर ने एक बार फिर हिन्दु कोड बिल को संसद में रखा लेकिन उनकी तमाम कोशिशें बेकार हो गयी जब यह बिल भारी मतों से पराजित हो गया। हिन्दु कोड बिल का पराजित होना डा0 अम्बेडकर के लिये उनकी व्यक्तिगत पराजय थी वे स्त्री अधिकारों के प्रति इतने संवेदनशील थे कि उन्होंने 27 नवम्बर 1951 के दिन कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। बाद में इस बिल को कई टुकड़ों में पारित किया लेकिन 2006 में बने घरेलू हिंसा कानून ने आखिर उनके सपने को पूरा किया।

डा0 अम्बेडकर महिलाओं और दलितों की शिक्षा, प्रगति और जागरूकता के लिये जीवन भर संघर्ष करते रहे। उनके सभी सामाजिक आन्दोलनों में दलित स्त्रियाँ भारी संख्या में शामिल रही। चाहे वह पानी के सवाल पर महाड सत्याग्रह हो या मंदिर प्रवेश के लिये काला राम सत्याग्रह या 1942 में नागपुर मे आयोजित किया गया दलित महिला अधिवेशन जहाँ 25000 दलित महिला उपस्थित रही। इसी अधिवेशन में आठ महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये गये। जिसमें से एक भारतीय स्त्रियों के लिये तलाक का अधिकार शामिल था।
दलित स्त्रियों की स्थिति से संघर्ष डा0 अम्बेडकर के लिए एक महायुद्ध था जिससे वे एक योद्धा की तरह लड़े। उनका संघर्ष देश के उस तबके के लिए था जो सम्मान और न्याय के लिए सदियों से संघर्ष कर रहा था। डा0 अम्बेडकर को दलित और स्त्रियों के लिए हर उस स्थिति से लड़ना था जो उनके हालात के लिए जिम्मेदार थी। उन्होने समय-समय पर ऐसे कई आन्दोलन किए जिसने हिन्दु धर्म की जड़ें हिला दी। 25 दिसम्बर 1927 के दिन उन्होने महाड (महाराष्ट्र) में मनुस्मृति को जला दिया। वह हिन्दु धार्मिक-संविधान जो दलितों और स्त्रियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार था। उस वक्त यह ऐसा शाक-ट्रीटमेंट साबित हुआ जिससे हिन्दु धर्म की जड़ें हिल गई। भारतीय समाज को सोचने पर बाध्य कर दिया कि धर्म से भी विद्रोह किया जा सकता है। धर्म पत्थर पर लिखा फरमान नहीं है जिसे बदला नहीं जा सकता।
दलितों और स्त्रियों के लिए धार्मिक बेडि़यां टूटी, अन्ध विश्वास के उद्योग को भारी धक्का पहुँचा, शिक्षा और जागरूकता की शुरूवात हुई।
डा0 अम्बेडकर जानते थे कि वे जिस वर्ग के लिए संघर्ष कर रहे हैं वह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनैतिक सभी रूप में कमजोर है। उस स्थिति से लड़ना और जीतना कोई आसान काम नहीं। यह चौतरफा लडाई थी जिसमें एक ओर ताकतवर हिन्दु धर्म रक्षक भी थे। इस धर्म युद्ध की लम्बी चली लडाई में डा0 अम्बेडकर ने कई आंदोलन किए। मंदिर प्रवेश के मुद्दे पर उन्होने 1927-30 के बीच दलितों के साथ नासिक के काला राम मंदिर, पूने के पर्वती और अमरावती के अम्बादेवी मंदिर में प्रवेश किया जहाँ हिंसा का भी सामना करना पड़ा।
डा0 अम्बेडकर के लिये हिन्दुधर्म से टक्कर बेमानी थी लेकिन दलितों के स्वाभीमान के लिये यह जरूरी थ। 1929 मे येऊला के अधिवेशन मे यह प्रस्ताव पारित किया गया कि दलितों को हिन्दुधर्म में अत्याचार सहते रहने कि कोई आवश्यकता नही वे चाहे तो किसी भी धर्म में प्रवेश कर सकते है इसी के बाद 12 माहरो (दलित) ने हिन्दुधर्म त्यागकर इस्लाम को अपना लिया। इस घटना से हिन्दु पडि़तों के होश उड़ गये।
डा0 अम्बेडकर ने अपने अन्तिम दिनों तक अपने आन्दोलन को जिन्दा रखा। अपनी मृत्यु से महज दो महीने पहले उन्होने हिन्दु धर्म त्याग कर 14 अक्टूबर 1956 मे नागपुर की दीक्षा भूमि में लगभग 4 लाख दलितों के साथ बौद्ध धर्म को स्वीकार कर दिया। जिसे आज तक दुनिया का सबसे बडा धर्म परिवर्तन माना जाता है। बौद्ध धर्म में प्रवेश की प्रक्रिया आज भी भारत में जारी है।
स्वंतत्रता के 68 सालों बाद भारत मे सवर्ण स्त्रियों कि दशा में काफी बदलाव आया है लेकिन दलित स्त्रियाँ आज भी लगभग उसी स्थिति में है। आधुनिक स्त्रीवादी आन्दोलन भारत में 70 के दशक में आया लेकिन उसका नेतृत्व केवल सवर्ण महिलाओं के ही पास है जो उनके इर्द-गिर्द घूमता है। कुछ एक दलित स्त्रियों के मुद्दे जरूर इस आन्दोलन द्वारा भी लड़े गये जिसका फायदा उन्ही को पहुँचा जो नेतृत्व कर रहे थे उनको नही जो शोषण का शिकार हुये।
भारत में स्त्रियों के अधिकार और सम्मान के लिये सबसे ज्यादा फुले दम्पति और डा0 अम्बेडकर ने ही संघर्ष किया लेकिन महाराष्ट्र के स्त्रीवादी आन्दोलन को छोड़कर शेष भारत में तो उनका नाम भी किसी स्त्रीवादी आन्दोलन में नही लिया जाता। यह ब्राह्मणवादी मानसिकता जहाँ स्त्रीवादी आन्दोलन को सीमित कर रही वही दलित स्त्रीवादी आन्दोलन का विस्तार कर रही है। दलित स्त्रीवादी आन्दोलन का इतिहास हजारों साल पुराना है उन्हें लड़ना आता है इस अलगाववादी सोच से अततः किसका नुकसान होगा यह जाहिर बात है।
(साभार जनसत्ता।)