पितृसत्तात्मक समाज का शिकार पुरुष तथा स्त्रीवादी मुक्ति अभियान

( सुधा अरोडा जितनी मह्त्वपूर्ण कथाकार हैं उतनी ही मह्त्वपूर्ण स्त्रीवादी विचारक . वे स्त्रीवादी मुद्दों के लिए जमीनी स्तर पर भी सक्रिय रहती हैं . यह आलेख उनके द्वारा संदीप मील के संपादन में ‘ बीच बहस में स्त्रीवाद’ नामक शीघ्र प्राकश्य पुस्तक के लिए लिखे गये लेख का हिस्सा है, दूसरा हिस्सा हम क्रमशः प्रकाशित करेंगे . पूरे लेख के लिए मील की किताब का इंतजार करना होगा .  )

सुधा अरोडा






ऐसा लगता है कि  पितृ सत्‍तात्‍मक
व्‍यवस्‍था और शोषण  के विविध रूपों का धारक पुरूष है और इसलिये हिंसा तथा प्रताडना का जिम्‍मेदार भी वही है । हकीकत यह है कि अगर हम कारणों की तह तक जायें तो   सारा असामंजस्‍य और असंतुलन हमारी सामाजिक व्‍यवस्‍था का है जिसके तहत पुरूष स्‍वयं भी उस सामाजिक व्‍यवस्‍था , परंपरागत सोच और रूढिग्रस्‍त संस्‍कारों का शि‍कार – विक्टिम ) है जो बचपन से उसकी शारीरिक संरचना में , उसके सिस्‍टम में इस कदर पैठ गया है कि वह चाहकर भी इससे छुटकारा नहीं पा सकता । पुरूष अपनी वर्चस्‍ववादी भूमिका से बाहर आकर सोच ही नहीं पाता और अन्‍तत:
अपने और अपने परिवार के लिये ऐसा त्रासद माहौल खडा कर देता है जो घ्‍वंस की ओर ही ले जाता है ।

  अक्‍सर हम सामाजिक रूप से प्रतिष्‍ठाप्राप्त कई पुरूषों के बारे में यह सुनते हैं कि जो व्‍यक्ति दूसरों के साथ इतना हंसमुख , जिंदादिल , यारबाश इंसान है , वह अपनी पत्‍नी के प्रति इतना क्रूर , निर्मम और असंवेदनशील कैसे हो सकता है । अगर वह पुरूष भी अपने को टटोले तो उसे खुद भी अपने व्‍यवहार पर संदेह होगा पर जिस तरह के आचरण और व्‍यवहार का वह बचपन से आदी हो चुका है , उसके तहत उसपता ही नहीं चलता कि दूसरों से हंसने बोलने वाला व्‍यक्ति अपनी पत्‍नी को एक इंसान का दर्जा भी क्‍यों नहीं दे पाता । यह पुरूष अपने घर से लिये गये संस्‍कार और परंपरागत ढांचे को इस तरह अपनी मांस-मज्‍जा का हिस्‍सा बना लेता है कि चाहते हुए भी उससे बाहर नहीं निकल पाता । दरअसल एक ओर वह खुद अपनी सामाजिक व्‍यवस्‍था और पुरूषवादी सोच का विक्टिम है , दूसरी ओर उसका अहंकार इतना दुर्दमनीय होता है कि अपने गलत आचरण को स्‍वीकार नहीं कर पाता । जो इस माहौल में रहते हुए भी अपने को थोडा सा बदलने की इच्‍छा रखते हैं  उनका परिवार तनावमुक्‍त स्थितियों में सामंजस्‍य बिठाकर रहता है और बच्‍चे एक स्‍वस्‍थ माहौल में बडे होते हैं । 
दोस्‍तोव्‍हस्‍की ने कहा था कि अन्‍तत: सुंदरता ही इस दुनिया को बचाएगी । उनके इस वक्‍तव्‍य का अर्थ स्त्रियों की कोमलता और संवेदना से था या नहीं , कहा नहीं जा सकता पर यह सच है कि स्त्रियां ही इस दुनिया को बदल सकती हैं , इसे ऩृशंसता और क्रूरता से बचाकर मानवीय संवेदना , प्रेम और रागात्‍मकता की ओर ले जा सकती हैं।

स्थितियों में परिवर्तन तभी आयेगा जब भारतीय परिवारों में पुरूष की मानसिकता बदलेगी और इसे बदलने  में सबसे बडी जिम्‍मेदारी एक औरत की ही है । वह जब बेटे को बेटी से उंचा दर्जा देती है , बेटे को घर के काम में हाथ बंटाने को नहीं कहती , अपनी बेटी के लिये अलग मानदंड बनाती है और बहू के लिये अलग , विषमता के बीज वह तभी बो देती है । एक मां और सास के रूप में वह दोहरे मापदंड न अपनाये । वह क्‍यों चाहती है कि उसका दामाद तो उसकी बेटी के इर्द गिर्द घूमता रहे , उसकी बेटी के नाज-नखरे उठाये , उसे हथेलियों पर रखे पर उसका बेटा अगर यही सब करे तो वह उलाहना देती है कि वह तो अपनी बीवी का गुलाम हो गया है। एक औरत स्‍वयं अपनी सास से प्रताडना सहती है पर स्‍वयं सास के ओहदे पर आसीन होते ही वह अपनी शोषक सास का प्रतिरूप बन जाती है । भाभी बनकर अपनी ननद की प्रताडना सहती है पर खुद ननद बनकर अपनी भाभी के पक्ष में खडे होकर भाई की ज्‍यादतियों का विरोध नहीं करती । जब तक औरतों में एक व़हद स्‍तर पर बहनापे की भावना नहीं जगेगी , भारत की सामाजिक संरचना में किसी परिवर्तन की संभावना नहीं हैं ।
एक मां को चाहिये कि बचपन से ही अपने बेटे को एक स्‍त्री का सम्‍मान करने के संस्‍कार दे । उसके घर के काम को कमतर करके न आंका जाये । बेटों में शुरू से ही ऐसे संस्‍कार हों कि बेटे अपने को अपनी बहनों से श्रेष्‍ठ न समझें , अपनी सहपाठिनी या मित्र लडकियों को अपने से कमजोर न समझे , लैंगिक आधार पर काम का बंटवारा न हो । आज पुरूष के समकक्ष अगर स्त्रियां भी घर के लिये आर्थिक सहयोग दे रही हैं तो रसोई और बच्‍चे सिर्फ स्‍त्री की जिम्‍मेदारी क्‍यों हों । जब तक बराबरी की भावना पति पत्‍नी में नहीं पनपती, परिवार नाम की इकाई के ढांचे का ध्‍वस्‍त होना तो निश्चित है ।
आखिर रास्ता क्या है
पुरूष का वर्चस्‍व स्‍थापित करने वाली सामाजिक संरचना जब तक नहीं बदलती , तक तक स्त्रियों को अपने और अपने परिवार को बचाये रखने के लिये कुछ सकारात्‍मक कदम तो उठाने ही होंगे ।
भावात्मक लगाव अपनी जगह है और इसका संबंध एक औरत की शारीरिक संरचना से है । मानसिक यातना से निबटने के लिए भी एक औरत को अपनी रणनीति तय करनी होगी । इसे सिर्फ एक पति के स्वभाव या उसके परिवेश और संस्कारगत माहौल को जिम्मेदार ठहराकर उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता । संवादहीनता की कुंठाओं की पहचान भी ज़रूरी है । जबतक पहचान ही नहीं होगी , समस्या का निदान संभव ही नहीं है ।

जिस तरह आक्रामकता के खिलाफ एक आम औरत को यह बताकर तैयार किया जाता है कि वह पहली ही बार हिंसा के लिए उठे हुए हाथ को रोके । ढीला सा प्रतिकार करना प्रकारांतर से उसे बढ़ावा देना ही है । यह बढ़ावा देकर वह अपना पूरा जीवन एक जल्लाद के हाथों सौंप देती है और अपने शरीर में ज़रा भी ताकत रहने तक पिटती ही रहती है । उसी तरह उपेक्षा , संवादहीनता या चुप्पी भी एक तरह की हिंसा ही है जिसे मैं चुप्पी की हिंसा या सायलेंट वायलेंस का नाम दे रही हूं  और इसे भी कन्फ्रंट या कॉर्नर करने – सामना करने या घेरने की ज़रूरत है । एक पुरुष बरसों अपना खाली समय क्रॉसवर्ड करने या सूडोको के खाली चौकोर भरने या क्रिकेट के चौके-छक्के निहारते हुए काट देता है और अपने परिवार में मां-बीवी-बच्चों से संवाद कायम करने की या तो ज़रूरत महसूस नहीं करता या हिटलरनुमा व्यवहार करता है तो निस्संदेह उसके आत्मकेंद्रित और निरंकुश स्वभाव को सामान्य व्यवहार की संज्ञा नहीं दी जानी चाहिए । इस व्यवहार को बढ़ावा तभी मिलता है जब इसे नज़रअंदाज़ किया जाता है या इस पर सवाल नहीं उठाया जाता या अपने आप को बदलने की कोशिश की जाती है । अपने आप को बदलने से तात्‍कालीन संकट को टाला जा सकता है पर वह कोई हल नहीं है । मुठभेड करना बहुत जरूरी है । हो सकता है कि सवाल उठाये जाने पर भी बदलाव न आये पर दबी हुई कुंठायें एक दिन अचानक विस्‍फोट से बाहर आयें , इससे बेहतर है कि उसे स्‍वस्‍थ संवाद द्वारा सतह पर लाने की एक ईमानदार कोशिश दोनों ओर से की जाये ।

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ISSN 2394-093X
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