जब जरा गरदन झुका ली देख ली तस्वीरें यार

( निवेदिता पेशे से पत्रकार हैं. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय रहती हैं. हाल के दिनों में वाणी प्रकाशन
से एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’ के साथ इन्होंने अपनी साहित्यिक उपस्थिति भी दर्ज कराई है. इन दिनों अपने
छात्र और युवा दिनों के बहाने 8 वें और 9वें दशक

निवेदिता

के हलचल से भरे समय की साक्षी हो रही हैं. इस क्रम में इस तीसरे किश्त में प्रेम से स्वप्निल आखों में क्रांति के ख्वाब
बुनती लडकी की कथा दर्ज हुई है और दर्ज हुआ है 84 के भयपूर्ण माहौल में दोस्ती का रंग.
दो किश्तें मोहल्ला लाइव और निवेदिता के अपने वेब साइट खुलाआसमान पर  आ चुकी हैं. निवेदिता से 9835029152 पर या niveditashakeel@gamail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.

दरवाजे
पर दस्तक हुई

मैं अनमनी सी उठी। मुझे गुस्सा आ रहा था कि सुबह सुबह कौन आ धमका। नींद से जागना
पड़ा। दरवाजा खोला तो सामने एक नौजवान खड़ा था। मुझे देखकर बड़ी उदासी से मुस्कुराया।
गोया मेरी खाबीदा आंखों में तैरते नींद को देखकर मेरे जाग जाने का उसे दुख हो।
उसके बालों के अंदाज में उस जमाने के मषहूर हिरो राजेश खन्ना की हल्की सी झलक थी।
जिसने एक लम्हें के लिए मुझे बेचैन किया। मेरी आंखों में सवाल तैर आए। उसने पूछा
नीतिरंजन जी यहीं रहते हैं। तब तक पापा आ गये। उन्होंने गर्मजोशी  से कहा अन्दर आइये।
पापा
ने परिचय कराया

मेरी बड़ी बेटी है। फिर उनकी तरफ देखकर कहा ये डाक्टर हैं। इन्हीं के बारे में
तुम्हें बता रहा था। अंगोला से अभी अभी आए हैं। वो मुस्कुराए…..गहरे रंग पर
मोतियों जैसे दांत झिलमिलाने लगे। और सुबह के आसमान पर सुलगता सूरज। उसने गहरी
आंखों से मुझे  देखा , आप किस क्लास में पढ़ती हैं? जी अभी मैट्रिक का इन्तहान दिया
है।  वाकया 1980 का है। अंगोला अभी अभी आजाद हुआ था। देश की हालत खास्ता थी। कई देशों
के कम्युनिस्ट मुल्क उनकी मदद के लिए आगे आए। और दुनिया के कई हिस्सों से डाक्टरों
को अंगोला भेजा गया। जिस टीम के लीडर डा शकील बनाए गए थे। मैं ये किस्सा अपने पिता
से कई बार सुन चुकी थी। मुझे अच्छा लगा कि जब इस उम्र के लोग डाक्टर बनकर पैसा
कमाने में लगे रहते हैं कोई नौजवान अपना केरियर दांव पर लगा कर एक दूसरे देश की
सेवा में लगा है।
उस
मुलाकात ने मेरे दिल में
खलिश पैदा की पर हम फिर लंबे समय तक नहीं मिले । पर उसकी खूबसूरत
आवाज पीछा करती रही। सांवला रंग, चेहरे
पर ढ़ेर सारा नमक। पीएमसीएच से पढ़ाई खत्म करने के बाद कई सालों तक डा सेन के
शागिर्द रहे। अंग्रेजी और उर्दू की गहरी समझ। बातों का जादूगर। औरतें उसे अपना
महबूब बनाना पसंद करती थीं।
इस
बीच मेरा दाखिला

मगध महिला कॉलेज में हो गया। हम कॉलेज की नयी जिन्दगी में मशगूल थे। मेरे घर से
लगभग चार किलोमीटर कॉलेज होगा। हम चार लडकियां एक ही रिक्शा पर बैठ कर जाते। कॉलेज
के रास्ते में सड़क के दोनों किनारे पुरानी ईटों की उदास इमारतें थीं। जिनकी
मेहराबों के नीचे चाय और पान की दुकानें। हमारा रिक्शावाला उखड़ी हुई सांसों को
संभाले फूल सी लड़कियों का भार उठाए कुछ गुनगुनाता रहता। मेरी बहन जोना से अक्सर इस
बात पर लड़ाई होती की वह मेरी गोद में नहीं बैठेगी। मैं कहती कि तुम मेरा भार सह
नहीं पाओगी। रिक्शा का पैसा बचाने के चक्कर में हम एक दूसरे पर लदे-फदे कॉलेज
पहुंचते।
कॉलेज
में लड़कियों के जलवे थे।
महिला कॉलेज होने की वजह से वे खुद को ज्यादा आजाद महसूस करतीं।
मेरा मन खेल में खूब लगता। उन दिनों ऐसा कोई खेल नहीं था जो हम नहीं खेलते।
क्रिकेट का तो पागलपन सवार था। मैं तेज गेंद फेकती थी। बाधा दौड़ में हम छलांगे
लगाते। कॉलेज के ऐनुअल डे पर बाहरी लोगों को भी इजाजत थी। बी.एन कॉलेज से लड़के
रिश्तेदार के नाम पर पहुंच जाते। हिरणों की तरह छलांग लगाने वाली लड़कियों की सुडौल
पिंडलियों को घूर-घूर कर आंख सेंकते।  लड़कियां
इन सबों से बेखबर बेबजह हंसती रहती। हमारी एक दोस्त की बहन जिसे सब चंबल की रानी
कहते थे उनका कॉलेज में बड़ा धाक था। दोस्त की बड़ी बहन होने के नाते हमसब रैगिंग से
बच गए। चबंल की रानी का असली नाम बेबी था। बेबी दी मुंहफट और जबानदराज थीं। स्याह
बाल और मोती जैसे दांत थे। जब वो जोर से कहकहा लगाती तो उनके सफेद दांत चमक उठते।
उनसे मिलने कई लड़के आते। उनके इश्क के किस्से मशहूर थे। लड़कियां ईर्ष्या से
देखतीं। उनके बारे में कई रहस्य थे। जो रहस्य हमें खींचता। उस जमाने में वो जीन्स
और टॉप पहन कर आती। एक दिन बेबी दी ने रैगिंग के लिए कुछ बच्चियों को पकड़ा। कहा
तुम्हें इस लड़के से प्यार जताना होगा। वैसे ही जैसे प्रेमी करते हैं। उसको तो
पसीना छूट गया। कोई लड़का पकड़ा गया था कॉलेज के पास चक्कर लगाते। बेबी दी ने उसे
पकड़ लिया। वह सिटपिटा गया । उसने सपनों में भी नहीं सोचा होगा कि लड़़कियां इस कदर परेशान
कर सकती हैं। बेबी दी ने कहा चलो शुरु हो जाओ। लड़की बेचारी रुआंसी हो गयी। आंखों
से आंसू छलक पड़े। बेबी दी खिखिलाकर हंस पड़ी। चलो बख्श दिया।
जाने
ऐसी कितनी कहानियां हैं
। पर उसका मुकम्मिल विस्तार मुश्किल
है। शायद हमसबों के भीतर कहानियां पड़ी रहती हैं। हमारे जीवन के रेशे रेशे
में। पर बयान करना खतरे से खाली नहीं है। वह भी जब आप आपने जीवन अनुभवों को लिख
रहे हों। मशहूर अफसाना निगार इस्मत कहतीं हैं जग बीती और आप बीती बाल बराबर का
फर्क है। जगबीती अगर अपने आप पर बीती महसूस न हों तो वह इन्सान ही क्या है।
 कॉलेज में जाते ही मैंने एआईएसएफ का गठन
किया। उनदिनों एआईएसएफ का जिम्मा उषा दी पर था। उषा दी पेशे से डाक्टर हैं।
कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता कॉमरेड एच के व्यास की बेटी । खूबसूरत और जहीन।
पहली बैठक उनके साथ हुई। दूसरी बैठक एआईएसएफ के दफ्तर में हुई।
जब
मैं पहुंची तो करीब 10 बज रहे थे। बैठक की अध्यक्ष्ता शकील
कर रहे थे। मुझे देखते ही कहा आईए कॉमरेड। मैं मुस्कुराई।  यह हमारी दूसरी मुलाकात थी। दुबारा उन्हें देख
अच्छा लगा। बैठक में संगठन के विस्तार की योजना बनी । अलग अलग जिम्मेदारियां सौपी
गयी। एक साथी ने कहा कि हमलोग छात्रों के बीच काम करते हैं इसलिए किसी खास पार्टी
के इशारे पर काम क्यों करें? उसकी
बात सुनकर कई साथी उत्तेजित हो गए। कुछ लोगों ने कहा ये बीजेपी का एजेंन्ट है। किसी
ने कहा कांग्रेसी है।  कॉमरेड शकील ने
हस्तक्षेप किया। इतनी बचकानी हरकत की उम्मीद नहीं हैं आपसबों से । किसी ने सवाल
उठाया है तो जबाव दें। इस तरह उत्तेजित होना सही नहीं है। तबतक उस बंदें पर काफी
हमला हो चुका था। उसने चिल्लाकर कहा कॉमरेड ये जो आपके साथी हैं मैं दावा करता हूं
कि इनमें से 80 फीसदी ऐसे लोग हैं जो कम्युनिज्म का
मतलब नहीं समझते। इनमें से तो कुछ लोग तबलीगी जमात वाले भी हैं। उन्होंने कहा
बेहतर होगा आप सब शांत हो जाएं। कौन सच्चा कम्युनिस्ट है कौन झूठा इसका फैसला वक्त
करेगा। हम फिजूल बातों में वक्त गवां रहे हैं। मैं मानता हूं कि हर क्रांति के
अंदर अगली क्रांति के बीज होते हैं। हमारी कोशिश है कि उसके लिए जमीन तैयार हो।
क्रांतिकारियों
के बारे में बचपन से

किस्से सुनते आयी थी। कई किताबें पढ़ी। पर जो सामने था वह उन सबों से कितना मिलता
था। मैं देख रही थी उसकी आंखों में जिसमें लावा दहक रहा था।  बैठक के बाद उन्होंने पुछा क्या आपको घर छोड़
दूं। हम स्कूटर के पीछे बैठ गए। मैंने पीछे बैठे हुए पूछा आपको नहीं लगता कि
समाजावाद का फलसफा और उसे जमीन पर उतारने के फलसफे में बहुत फर्क है? हां इससे इनकार कहा है। पर क्या सारी
बातें मेरी पीठ के पीछे ही कर लेंगी की हम इतमिनान से बैठ कर भी बातें कर सकते
हैं। वैसे मैं मानता हूं कि किसी भी दार्शनिक विचार को जमीन पर लाने के लिए काम
करना होगा। पूरी ताकत और निष्ठा से।  घर के
पास स्कूटर रुका तो मैंने कहा मेरी मां खाना बहुत उम्दा पकाती हैं। आप खा कर जाएं
। नहीं किसी और दिन ये कह कर उसने विदा लिया। दूसरे दिन सबेरे सबेरे हमारे घर
पहुंचे । कॉमरेड अमरजीत कौर पटना आ रही थीं उन्हें लेने जाना है। आपको हमारे साथ
जाना होगा। हमने पापा से पुछा जा सकते हैं? पापा
ने कहा जाओ। राजेन्द्र नगर से स्टेशन का रास्ता लंबा है। सड़क के किनारे इमारतें
बेरंगी और धूल से भरी थीं। वहीं कचहरियां,वही
डाकबंगले,वही रेलवे स्टेशनों के कोलतार से लिपे
वेटिंगरुम ।
वहां
जाकर पता चला कि कॉमरेड अमरजीत नहीं आयी। यह तय हुआ कि कहीं चाय पी जाय। उन्होंने
कहा कि मेरे घर चलते हैं वहीं आपको चाय पिलाता हूं। मेरे दिल की घड़कने तेज हो गयी।
पर मना नहीं कर सकी। ताला खोल कर हम सीधे उनके बरामदे में खड़े थे। सड़क पर मुक्कमल

सन्नाटा था। उसने रेडियो खोल दिया। रेडियो पर लता के गीत गूंज रहे थे। चाय की दो
प्यालिया। गर्म भांप और उसकी मादक हंसी। उसने बहुत धीरे से कहा आपकी आंखें बहुत सुन्दर
है और इस बहाने मेरी आंखों में उतर गया। पहली बार महसूस किया कि मेरे भीतर एक
खूबसूरत औरत है। उसके हाथ मेरे स्याह और धने बालों पर फिसल रहे थे। मेरी आंखें
पिघल रही थी। उस दिन जब मैं वापस आयी तो देर तक जागती रहीं 
बाहर
धूप छिटकी हुई थी।

खिड़की के बाहर सुर्ख फूलों वाले घने दरखत को छूती हवा मेरे गालों को सहला गयी। मैं
नींद में डूब गयी । जब जागी तो बाहर सूरज डूब रहा था। दरख्तों के झुरमट में सूरज
का सुनहरा रंग इस कदर दिल फरेब था जैसे आकाश ने समेट लिया हो उसे अपने आगोश में।
पलंग पर चित पड़ी वह सोच रही थी कि आखिर क्या बात है इस आदमी में कि वह खींचती चली
जा रही है। उसे देखते ही उसके गाल सुर्ख क्यों हो जाते हैं। बैठे-बैठे उसका दिल
चाहता कि वह उसके चौड़े सीने पर सर रख कर सो जाए। घंटों  बे-वजह आयने के पास बैठी रहती। उसका बदन आहिस्ते
आहिस्ते सुलगता रहता।  कोई मेरे दिल से
पुछे तेरे तीरे नीमकश को यह खलिश कहां से होती जो जिगर के पार होता।

मेरा
दिल भर आया।
ये
क्या हो रहा है मुझे। हमने सोचा था कि अब प्रेम कभी नहीं होगा। पिछला धांव इतना
गहरा था कि दिल ही दिल में कसम खायी थी कि अब किसी से दिल नहीं लगायेंगे। किस्मत
की सितमगिरी देखिए कि दिल हमेशा ही लगा रहा।
तुलसी दास ने लिखा है नौजवान औरतें शोले के लौ की मानिंद होती है। इस लौ
में जो जले वो खाक। मैं खुद को सावधान कर रही थी। निवेदिता खुद को संभालो।  इस लौ में किसी और को जलने मत दो।
शकील
मूल रुप से

असरगंज के रहने वाले हैं। हालांकि उनकी मरहूम फूफू कहती थीं कि हमलोग बाराबंकी के
हैं। उनके पूर्वज वालिद अलीषाह के दरबार में थे। उनकी जिम्मेदारी राजा के शस्त्र
भंडार की देख -रेख करना था। बाद में अंग्रजों ने उन्हें गिरफ्तार किया और बंगाल के
मटियाबुर्ज के पास उन्हें रखा गया। कहते है उसी दौर में षकील के पूर्वज उनके पीछे
पीछे मुर्शिदाबाद आए। उन्होंने भी अंग्रजों के खिलाफ जंग लड़ी। बाद में
छिपते-छिपाते मुंगेर आए। जहां उन्होंने चमड़े का व्यापार शुरु किया। आज भी शकील का
गांव चमड़ा गोदाम के नाम से जाना जाता है। ये दिलचस्प इतिहास मुझे और करीब ले आया.
दूसरे
दिन हम फिर मिले

राजेन्द्र नगर रोड न0 11 में उसका घर था। दो कमरे का घर। काफी
साफ और सुन्दर। कमरे में ज्यादा सामान नहीं था। बाहर के कमरे में चार कुर्सिया जो
सफेद तार से बुना हुवा था। कुछ किताबें। और टैपरिकार्डर। उसने कहा जबरदस्त भूख लगी
है। कुछ खायेंगी आप? मेरे जबाव का इंतजार किए बगेर दो अंडे
का ऑमलेट बनाया और ब्रेड सेकें। मक्खन की गहरी परत लगाकर हमें खाने दिया। उनदिनों
मेरे लिए अंड़ा खाना बड़ी बात थी। हमारा बड़ा परिवार था। अमूमन अंड़ा आता नहीं आता तो
पूरा सफाया हो जाता। मुझे लगा इससे लजीज खाना हो ही नहीं सकता। मैंने सरसरी नजर
पूरे कमरे में डाली। बाहर बरामदे के नीचे लगे फूलों को देखती रही। हवा के झोके ने
जोर से दरवाजा बंद कर दिया। मैं चौकी । उसने कहा रहने दीजिए मैं बंद करता हूं।
दरवाजा बंद किया और सिगरेट सुलगा कर कुर्सी मेरे नजदीक खींच लिया।
उसने
बड़ी बेबाकी से पूछा

आपको नहीं लगता हम दोस्ती से आगे निकल आए हैं। मैं कुछ कह नहीं पायी । वह निहारता
रहा। धीरे से मेरे हाथों को थाम लिया। हम खामोश थे। कुछ बह रहा था हमारे भीतर।
गर्म लहू सा। दरवाजे से छनकर शाम की पीली धूप जमीन पर चमक रही थी। कुछ देर चुप्पी
रही। यह अच्छा ही था। मेरी उखड़ी सांसें वापस आ गयी। उसने बहुत शांत और गंभीर आवाज
में कहा आप मुझे अच्छी लगती हैं। सामने पूरी शाम पड़ी थी। लाल घधकती हुई और शायद
रात का एक दुकड़ा भी। वह देखता रहा। मैं तपती रही। हमारी चुप्पी मुहब्बत की गवाह
थी। मैं भीगा भीगा मन लिए लौट आयी।
 दूसरे दिन हमारा रिहर्सल था। जहां हम
रिहसर्ल करते थे वह एक पुराना मकान था। जिसके सामने बड़ा सा लॉन था। जहां बेतरतीब
घांस उगे हुए थे। उस वक्त हल्की हल्की बारिश हो रही थी। हवा में जंगली घासों की
खषबू थी। अंदर से मध्यम सुर में गाने की आवाज आ रही थी। भीतर गयी तो दिलीप
हरामुनियम पर बैठा हुआ था। बाहर बादल तैर रहे थे। उसने तान छेड़ा। पंखी राजा रे
पंखी राजा मीठा बोल। मैं पास बैठ गयी। तुम गाते हो तो लगता है कहीं दूर पहाड़ों पर
आबषार गिर रहा है। वह हंसने लगा। अच्छा तुम भी साथ दो। अरे ऐसे नहीं सुर में। सुर
रहेगा तब सो सुर में गाउंगी। नहीं तुम गा सकती हो। तभी तनु भैया ने कहा जरा तुमलोग
इघर आओ। तनवीर अखतर को हमलोग तनु भैया बुलाते थे। उनदिनों इप्टा के सचिव थे। हम
वहां पहंचे तो देखा सब लोग रेडियो घ्यान से सुन रहे हैं। सबके चेहरे पर हवाईयां
उड़ी हुई थीं। क्या हुआ क्या सुन रहे हैं? ईशारे
से उन्होंने चुप रहने को कहा।
रेडियों
पर गंभीर आवाज गूंजी।
देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हालत नाजुक है। हमसब सकते में
आ गए। मेरी आंखें डबडबा गयी ये क्या हुआ? तनु
भैया ने कहा हमलोगों को इस स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। पटना सिटी में सिखों
पर खतरा है। एआईएसएफ के साथियों को भी खबर दी गयी। तय हुआ कि कल सुबह 6 बजे इप्टा ऑफिस में जमा होना है। फिर
वहीं से पटना सिटी चलेंगे।
उनदिनों
हमलोग गदर्नी बाग में
रहते थे। घर पहुंचे तो मायूसी छायी थी। कुछ पता नहीं चल रहा था कि
आखिर क्या हुआ। पापा लगातार रेडियो पर कान लगाए हुए थे। हमारे घर में टेलिविजन
नहीं था। मेरे चेहरे पर मायूसी देख कर उन्होंने कहा तुम सो जाओ। सब ठीक हो जायेगा।
पर मेरी आंखों में नींद नहीं थी। ये सोच कर सिहर गयी की अगर इंदिरा गांधी नहीं बची
तो इस देश का क्या होगा? सारी रात बेचैनी में कटी। घड़ी देखा तो
अभी 4 ही बजे थे। सूरज निकला नहीं था। आसमान
पर गहरे बादल थे। फिर भी मैं उठ कर तैयार हो गयी। घर से निकल ही रही थी कि पापा ने
कहा कहां जा रही हो? शहर में कर्फ्यू लग गया है। उन्होंने
अखबार मेरी तरफ बढ़ा दिया। अखबार के पहले पन्ने पर इंदिरा गांधी की हत्या की खबर
थी।
मां
रो रही थी। पापा के चिंतित थे।
मां ने कहा नहीं जाना है। मैंने डबडबाती आंखों से कहा मां जाने दो।
जाने वाला तो चला गया पर कहर उनपर टूटेगा जो मासूम हैं। हम जल्दी आ जायेंगे।  यह कहते हुए तेजी से निकल गए। आसमान पर से बादल
छंट गए थे। जगह जगह पर पुलिस गश्त कर रही थी। हम घर से निकलकर चौराहे तक पंहुचे ही
थे। पुलिस के जवानों ने रोक लिया। आपको मालूम नहीं कफ्यू लगा है शहर में। जी हम घर
जा रहे हैं। उसने कहा जल्दी निकलिए। मैं आगे बढ़ी स्टेशन की ओर। दुकाने लुट रही थी।
माथे पर पगड़ी बांधे एक सरदार घबराया हुआ आया,मेरी
दुकानें लूट रही हैं मदद करो भाई। मेरा दिल घबराने लगा। पता नहीं क्या होगा। पर
वापस भी नहीं जा सकती थी। फिर ख्याल आया कि सब तो आये होंगे। डरने से काम नहीं
चलेगा।
रिक्शावाला
बोला दीदी स्टेशन

होकर नहीं जाते हैं वहां फसादी हैं। दंगाईयों ने दो होटलों में आग लगा दी। कई
मिठाई की दुकानें लूट ली। आगे बढ़ी तो देखा जिसे जो लूटने का मौका मिल रहा है लूट
रहे हैं। कोई चार पांच सौ लोग जमा हो गए। उनलोगों ने कहा कि स्टेशन पर कई सरदारों
की दुकानें हैं चलो उसे लूटते हैं।  पहली
बार मैं देख रही थी आदमी को जानवर में बदलते हुए। नफरत,व गुस्से से मैं कांपने लगी। अपनी बेचारगी
पर तरस आया। किसी तरह गली-गली करते हुए मुझे लंगर टोली तक ले आया। उससे आगे जाने
के सारे रास्ते बंद कर दिए गए थे। इप्टा ऑफिस तक हम नहीं पहुच पाए। किसी तरह अजय
भवन पहुंचे ।
 वहां मुझे देखते ही सहजा दा परेशान हो गए।
सहजा दा का पूरा नाम सहजानंद राय है। अब हमारे बीच नहीं है। पर पूरी जिन्दगी
कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े रहे। उन्होंने पुछा तुम किस तरह आयी। मैंने उन्हें
बताया तो प्यार से मेरे सर पर चपत लगायी। पगली! इस तरह आते हैं, कहीं कुछ हो जाता तो! मैंने कहा दादा
साथियों से संपर्क किस तरह होगा। क्या करना है? उन्होंने
कहा अभी इस माहौल में कुछ नहीं किया जा सकता। कर्फ्यू हटने तक इंतजार करना होगा।
मेरी समस्या थी कि अब घर किस तरह लौटें। पड़ोस में फोन किया। पापा नहीं थे। मां ने
कहा भाई को भेजते हैं। प्रियरंजन किसी साथी का मोपेड लेकर बड़ी मुश्किल  से पहुंचा। हम घर के लिए निकले। सड़कों पर गहरा
सन्नटा था। जगह जगह पुलिस गश्त कर रही थी। हमलोग
घर पहंचे तो शाम हो चुकी थी। मां बेचैनी से बरामदे में टहल रही थी।
कर्फ्यू
लंबा खिंचता चला गया

देश के दूसरे हिस्से से हिंसा की खबर आने लगी थी। स्कूल के दिनों में मेरी गहरी
दोस्त थी हरजीत कौर। सुना कि उसका परिवार पंजाब शिफ्ट कर रहा है। मुझे धक्का लगा।
मैं हरजीत से मिलने गयी। वह रो रही थी। मेरा दिल बैठ गया। उसने डबडबायी आंखों से
देखा। फिर धीरे-धीर अपनी मुरझाई उंगलियों से मेरे गाल सहलाने लगी। समय कैसे अचानक
पाट पलट देता है। दुःख बहता रहता है। इस दंगें में कितने लोगों ने अपना सबकुछ
खोया। मैंने अपनी दोस्त खोया। जिन्होंने उस त्रासदी को महसूस नहीं किया है वे नहीं
जानते कि अपनी जगह से उजड़ना क्या होता है?
मुझे
याद नही हम कब तक एक दूसरे के हाथों में हाथ लिए बैठे रहे। मैं उसका रोना सुन रही
थी। आंसुओं के बवंडर के बीच  उसने मेरा
चेहरा हाथों में भर कर कहा जब हम याद आये तो इसे देख लेना। ……आज भी उसका दिया
कड़ा मेरी अलमारी में दमकता रहता है। सहसा वर्षो पुराने दबे हुए आंसू उमड़ते चले आए।
झरती हुई बुंदों के बीच हरजीत का भीगा चमकता चेहरा सामने है। मैंने देखा चमकीली
धूप दरख्तों के पीछे छुप गयी। आज मन खाली-खली सा है। खाली आकाश
,सूखी नदी,हवा कुछ भी नहीं… वह तो मेरे भीतर है।
जब जरा गरदन झुका ली देख ली तस्वीरें यार।
जारी……

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ISSN 2394-093X
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