स्त्री रचनाधर्मिता के तीन स्वर

( इन तीन कवयित्रियों की कविताओं से गुजरना पीडा की एक समान भावभूमि से गुजरना तो है ही लेकिन अलग -अलग सामाजिक स्थितियां और इनके अपने संघर्ष इन कविताओं में स्पष्ट फर्क के साथ देखे जा सकते हैं.
हेमलता माहिश्वर

हेमलता माहिश्वर की कवितायें

उपस्थित / अनुपस्थित

1.
चिपकी रह जाती है
झाड़न में जितनी धूल
उतना सा भी
न रख पाईं वे
बचाकर
अपना मन
मनोंमन कई टन
झाड़कर
घर की धूल

2.फटर फटर
फ़टकतीं झाड़न
बस
चमकाती रहीं
घर का मन
झाड़न की तरह
होते रहे गंदले
उनके मन

3.
घर की
बेज़ान चीज़ों पर पड़ी
परतों को झाड़ते
धूल की
झड़ गये
खुद के
परागकण
एक चमक चढ़ती रही
एक उतरती रही

4.
घर में
अपनी उपस्थिति का
एहसास दिलाते
वे दुनिया से
अनुपस्थित हो गयीं

5.
सर्फ़ या सोडा मिलाकर
गर्म पानी में डूबाकर
फिर रगड़कर
ब्रश मारकर
निचोड़ दिया कटकटाकर
सूखाकर
कड़ी धूप में
फिर कर लिया है तैयार
स्त्री ने
झाड़न
दुबारा इस्तेमाल के लिए
अपना मन भी
यूँ ही धो पोंछ कर
फिर -फिर
रखती हैं
स्त्री
दुबारा धूल चढ़ाने के लिए

विद्रोह
धूप ही ओढ़कर
चल पड़ी हैं वे
कि अंबर होता रहा
तार तार
बार बार, हर बार

चांदनी उतार
अपने मन की
पहन लिए हैं
पत्थर के जूते
कि उग आये हैं
हाथों में बबूल
वाणी की वीणा
टूट गयी
मुखर स्वर कातर
बिखर गया है

है लगी गूंजने
भास्वर दहाड़
नासापुट में बसते हैं
अगिनपखी
कि फेफड़ों में
ज्वालामुखी
जठराग्नि लिए तेज़ाब
कानों में बजते हैं
नगाड़ों के थाप
मनोरमा, प्रियंका
दामिनी, गुड़िया
दर्द एक सा
दूर से दूर तक
दर्दों के टुकडों की चादर
ओढ़ रखी है इन जैसों ने
इस कोने से उस कोने तक

शीतल, सोनी
इरोम शर्मिला
चल पड़े हैं साथ
हो गई है
सुनहरी चांदनी
रक्ताभ धूप
अग्नि तेज़
और उठता
अपने भीतर
उष्ण तूफ़ान

कौशल पंवार की कवितायें 

कौशल पंवार
भंगी महिला


भंगी महिला सहती है
मैला ढोने का दंश
उठाती है मल से भरी टोकरी
घुटने से होती हुई
छाती के बल से
सिर तक पंहुचाती है
भंगी महिला ।
भंगी महिला के ऊपर
गिरता है
टप-टप-टप-टप मलमूत्र
कभी पल्लू से पौंछती
कभी पल्लू को खसकाती
कहीं ढल न जाए
कहीं अंट न जाए
इज्जत सरे बाजार
भंगी महिला
कुरडी पर पहुंचकर
थोडी देर रुकती है
ठहरती है उसकी नजर
सोचती है भंगी महिला
मैं, मलमूत्र से भी गयी गुजरी ?
अरे ! मलमूत्र तो धन्य है
जो कम से कम सिर पर तो है
और भंगी महिला
उठाती है मलमूत्र से भरा बोझा
और चल पडती है
तिलाजंलि देने
उस सभ्य कहे जाने वाले समाज को
धिक्कारती है
हुंकारती है इस व्यवस्था पर
सदियों की यातना का
हिसाब मांगती है
फेंक देना चाहती है
मलमूत्र से भरा बोझा
सभ्य (?) समाज के ऊपर
छीन लेना चाहती है
अपने हिस्से का खुला आसमान
ऐ ! व्यवस्था के ठेकेदारों
अब सम्भल जाओ
देखो, देखो ! वे आ रही है
भंगी महिलाएँ
हाथ में झाडू की जगह
कलम उठाये भंगी महिलएँ ।

कवि



कवि
तुम्हारे पास
कुछ है नहीं ?
जिसकी तुम कल्पना कर सको ।
नहीं दिखती तुम्हें,
मां, बहने, चाची, ताई,
जो भोर में जग जाती है
तुम्हारी दुनियां संवारने के लिए ।

कवि
तुम्हारे पास वह सुगन्ध नहीं ।
जिसकी महक का तुम
आस्वादन कर सको
क्योंकि नहीं सुहाती तुम्हे
वह गटर की बिलबिलाती गंदगी
जो समा लेती है अपने गरल में
उस रामदास को
जो अभी
बिल्कुल अभी
उठकर गया था
तुम्हारे पास
तुम्हारे अन्धेरों को
उजाले में बदलने के लिए ।
कवि
तुम्हारे पास वह दृष्टी भी नहीं
जो अन्धेरे को अन्धेरा कह सके ।

क्योंकि तुम्हारी नजर तो
रही है शंकुतला के नख–शिख पर
हर कालखण्ड़ में

स्त्री को सिर्फ निहारा है तुमने
इनका दर्द नहीं देखा तुमने

नहीं दिखी तुम्हें
जो अभी-अभी
बिल्कुल अभी
मल भरा टोकरा उठाकर
ले गयी है
तुम्हारे घर से !

प्रज्ञा
पांडेय की कवितायें

प्रज्ञा पांडेय
पहले मनुष्य हूँ  
सिर्फ स्त्री  हूँ  मैं’
यह जो परिभाषा उकेरी
कागजों में तुमने
अभिमान में सरपट अपनी अंगुलियाँ दौडाते
कभी भोज पत्र पर लिखा तो
कभी स्क्रीन  पर ।
लिखने के पहले क्या सोचा
तुम्हारा लिखा मैं क्या कभी न पढूंगी .
तुमने बना दी
मेरी तमाम असहमतियों से  नियमावलि
मुझे माँ  बहन  सखी
कहा
पत्नी और अपनी प्रेयसी
अपनी नज़रों से बार बार मुझे परखा
और लिख दिया जो भी
कभी मुझसे पूछा खुद के बारे में
क्या ख़याल रखती हूँ मैं।
मैं तो भूल ही गयी अपना होना।
मुझे एक बार फिर  वही जाना होगा
जहाँ से तुमने भोजपत्रों पर  मुझे उकेरना शुरू किया
तुम्हारे सारे अक्षर मिटाकर मैं फिर से लिखूंगी
खुद को याद कर कर।  याद आता है कि
पहले मनुष्य हूँ  उसके बाद हूँ मैं  स्त्री
वह भी   अपनी  .
 समय के
प्रवाह की
सबसे ज़रूरी  लहरें
अगली बार तुम स्त्री बनकर जन्म लेना।
तब समझ पाओगे

स्त्री की देह में एक जो  गर्भाशय  है वह उसका मान  उसकी थाती है .
हर जोर जुल्म से वह बचाना चाहती है उसे .क्योंकि उसमें वह रचती है   समय के प्रवाह की सबसे ज़रूरी  लहरें। जाने-अनजाने उस के लहू में उस  दायित्व की अस्मिता बहती है।

 जब भी स्त्री सौपती हैं स्वयं को पुरुष को ,अपनी गरिमामय सम्पूर्णता में
अपने मान से लबरेज वह सिर्फ देह नहीं सौपती प्रेम में .
वह सौंप देती है अपनी थाती , धरती को बसाने का स्वप्न .
उसके साथी के लहू में गर्भ की
अस्मित-उष्णता का प्रवाह नहीं
प्रकृति ने पथिक को वह भार  सौपा नहीं।
वह तो चलता रहता  है  नए प्रेम की खोज में
अपनी  नयी दुनिया के उत्स की खोज में ।
स्त्री ब्रम्हांड  को बसाने का स्वप्न लिए गाती है गीत
मिलन के, बिछोह के
बसाव के, उजाड़ के ।

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ISSN 2394-093X
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