जीवन और मृत्यु के बीच अस्तित्व की तलाश

रामजी यादव

( रामजी यादव यहां सुधा अरोडा की कहानियों से गुजरते हुए स्त्री की पीडा , उसके संघर्ष , पितृसत्ता का स्त्री के ऊपर वर्चस्व और उसके द्वारा पितृसत्ता से मुठभेड की पड्ताल कर रहे हैं .)

मेरे एक मित्र ने अपनी गरममिजाज और झगड़ालू बीवी को माफ करते
हुये अनेक बार अपनी सुकरतीयता का परिचय दिया है — ‘क्या करूँ यार
! रोज़-रोज़ की किचकिच से तंग आकर मैंने सोच लिया कि स्त्रियाँ वास्तव में एक ऐसे
ग्रह की जीव होती हैं जहां पुरुषों के बिलकुल विपरीत गुण पाये जाते हैं । “ क्या इस बात
में कुछ दम हो सकता है?
यह नृविज्ञान को चुनौती देने वाला सिद्धान्त बेशक एक मज़ाक हो
लेकिन इसमें छिपे सामाजिक मनोविज्ञान से मुंह मोड़ना बहुत आसान नहीं है बल्कि कोई
भी संवेदनशील व्यक्ति इससे विचलित ही हो सकता है । क्या स्त्रियाँ जिस ग्रह की जीव
हैं वह ठीक हमारे परिवेश के भीतर ही नहीं मौजूद है ? और वे
पुरुष-प्रभुत्व , पैतृक सम्पत्ति और उत्तराधिकार की दुनिया की एक वंचित और
गूंगी सदस्य हैं ? और वहाँ पुरुषों के इतने विपरीत गुण पाये जाते हैं कि न
सिर्फ वह अपना दोयम दर्जा स्वीकार कर लेती हैं बल्कि अपने मालिकों की खुशहाली के
लिए करवा चौथ , राखी , भैया दूज , जीवूत्पुत्रिका , छठ , हरितलिका तीज
से लेकर न जाने कितने उपक्रम करती हैं। आखिर यह क्या है ? वह अपने
उत्पीड़क की खुशहली की कामना क्यों करती है? इस प्रकार वह
क्यों  उसी व्यवस्था में क्रमशः घुलती जाती
है जो व्यवस्था उसे बहुत उपेक्षित , लाचार और एकाकी बनाती जाती है ?
सत्तर के दशक की सशक्त कथाकार सुधा अरोरा की कहानियों की
केंद्रीय धुरी एक ऐसी ही स्त्री है । अगर एक रैखिक विन्यास देखा जाय तो  उनकी कहानियाँ एक पढ़ी-लिखी स्त्री के पत्नी
बनने , घर  की अर्थव्यवस्था में योगदान के
लिए बाहर निकलने और बराबरी के अहसास को पाने , भागदौड़ और
थकान के बीच एक अपराधबोध और क्षोभ से धीरे-धीरे ग्रसित होने तथा पति-पुरुष की एक
अपरिहार्य इकाई में रूपांतरित होते जाने की रचनात्मक बयान हैं । लेकिन इन
स्थितियों से ऊपर होकर वे तब बड़ी अभिव्यक्तियाँ बन जाती हैं जब उनमें से एक ऐसा
चेहरा झाँकता है जो स्वयं अपने ही विखंडन को देखता है और यहीं से अपने लिए एक
भूमिका का चुनाव करता है । इस तौर से सुधा जी एक पारिवारिक इकाई के भीतर मौजूद
शक्ति-सम्बन्धों को उनके जटिल संरचनाओं के साथ बयान करती हैं ।
इन शक्ति सम्बन्धों का एक रूप “महानगर की
मैथिली” है तो एक रूप “रहोगी तुम वही” है । इन शक्ति सम्बन्धों का एक सिरा “
अन्नपूर्ण मण्डल की आखरी चिट्ठी” है तो दूसरा सत्ता संवाद” से जुड़ा है । इन शक्ति
सम्बन्धों की एक नियति “काला शुक्रवार” है
तो दूसरी “ताराबाई चॉल : कमरा न एक सौ पैंतीस” है । इन शक्ति-सम्बन्धों का
एक दृश्य “ करवाचौथी औरत में दिखता है दूसरा दृश्य “ डेजर्ट फोबिया उर्फ समुद्र
में रेगिस्तान” में दिखता है । लेकिन शादीशुदा स्त्रियों से बहुत पहले इन
शक्ति-सम्बन्धों का सबसे वीभत्स रूप कोख के भीतर या जन्म लेते ही मार दी जाने वाली
उन बेटियों के जीवन में देखा जा सकता है जिसे कथाकार सुधा अरोड़ा ने बहुत गहरी पीड़ा
और यंत्रणा के साथ देखा और लिखा है । इन कहानियों से गुजरना दरअसल एक ऐसी दुनिया
से गुजरना है जहां लिंग के आधार पर एक सतत वध-स्थल सक्रिय है और जहां स्त्री सतत
ज़िबह की जा रही है । ये कहानियाँ भारतीय सभ्यता के ज़िबह वेला को दिखाती हुई
कहानियां हैं और इन्हें सिर्फ कहानी की तरह नहीं पढ़ा जा सकता ।
इनमें एक स्त्री इस भौतिक दुनिया से इतनी बेगानी और अलग हो
चुकी है कि वह केचुए के साथ अपनी तुलना करती है और उसमें जीवन के प्रति स्पंदन
समाप्त हो चुका है । एक और स्त्री उत्पीड़न को इतना बर्दाश्त कर चुकी है कि जब उसका
उत्पीड़क पति मर जाता है तो वह उदास हो जाती है और उत्पीड़न बर्दाश्त करने की आदत से
बाहर नहीं निकल पाती तथा उस अनुभव को अपनी जांघ पर जलती हुई सिगरेट रखकर पाती है ।
इनमें एक ऐसी औरत है जो पति के कल्याण में करवाचौथ पर भूखी है और उसका महत्व उसकी
कुतिया फ्लॉपी से भी कम है , गोया कथाकार ने फ्लॉपी के समानांतर एक स्त्री की नागरिकता
को फ्लॉप होने का मेटाफर रचा हो और यह कहा हो कि घर , समाज या देश
के कल्याण से वाबस्तगी और उससे मनोवैज्ञानिक जुड़ाव किसी नागरिक को पीछे धकेलता है ।
इनमें एक ऐसी पत्नी है जो शहर में भड़के दंगे का लोमहर्षक अनुभव बांटना चाहती है
लेकिन उसके पति के पास फालतू समय नहीं है । यह औरत अपनी सामाजिक दृष्टि और अनुभव
के परिणाम के रूप में पति की डांट खाती है और गूंगी होने को विवश की जाती है ।
आखिर ऐसी स्त्रियाँ भारत के किस कोने में पाई जाती हैं ? आखिर वे इतनी
चुप क्यों रहने लगती हैं कि एक दिन अपनी भाषा ही भूल जाती हैं ? वे कौन सी
वजहें हैं जो उन्हें बेगानगी के एक ऐसे द्वीप में जाने को मजबूर कर रही हैं जहां
जीवन का हर सौन्दर्य मर गया है ? सुधाजी की कहानियाँ लगातार इन  प्रश्नों को उठाती हुई कहानियाँ हैं । वे इन
सवालों से इतनी वाबस्ता हैं कि लेखकीय निजता और बाहरी जीवन-जगत के बीच कोई फांक
नहीं रह जाती । यानि “ रुदाद मेरी रूदाद-ए-जहाँ मालूम होती है ! जो सुनता है उसी
की दास्ताँ मालूम होती है !!”
सवाल उठता है कि दास्तानों का यह यकसां होना क्या है ? क्या हर
क्षेत्र में आसमान छूने की ललक के साथ अपनी ज़िंदगी को संघर्ष में झोंक देने वाली
स्त्रियों और इन्दिरा नुई , चंदा कोचर या शिखा शर्मा जैसी कारपोरेट-चेहरों तथा
उच्चवर्गीय सुविधाओं का उपभोग करती महिलाओं की दास्तां एक हैं ? एक
मध्यवर्गीय कर्मचारी या एक अभिनेत्री या खिलाड़ी की दास्तां एक हैं? असंगठित
क्षेत्र की श्रमिक महिलाओं और घरेलू महिलाओं की ज़िंदगी की दास्तां एक हैं ? क्या नई
आर्थिक नीति और उदारीकरण की राह आनेवाली संपन्नता ने स्त्री के जीवन में दिखाई
देनेवाली भौतिक विविधता के पीछे कोई ऐसा सत्य या यथार्थ छिपा रखा है जो अंततः सभी
स्त्रियों की दास्तान एक बना दे रहा है ? क्या सुधा अरोड़ा की कहानियाँ सामाजिक
संस्तरों का निषेध करते हुये स्त्री-जीवन का रेटोरिक कथानक रचती हैं ? क्या समय ने
उनकी प्रासंगिकता को धुंधला कर दिया है ? इन सारे सवालों के जवाब केवल इस बात से
मिलते हैं कि आधुनिकता के सम्पूर्ण इतिहास को उस सामाजिक दृष्टि से परखा जाय जहां
मुख्य कारक लिंग न हो या जहां दो मनुष्यों को ऐसी किसी योग्यता या कसौटी  पर न कसा जाय जो जैविक हों ।
सुधाजी अपने पूरे कथा संसार में जिस बात को केंद्रीय मुद्दे
के रूप में उठाती है वह वस्तुतः वही मुद्दा है जो एल एच मॉर्गन और एंगेल्स उठाते
हैं । जो बीसवीं शताब्दी में क्लारा जेटकिन , सीमोन द बोउआ
या जर्मेन ग्रीयर उठाती हैं । भारतीय संदर्भों में जिस मुद्दे को थेरियों ने बुद्ध
के समय उठाया । गार्गी , मैत्रेयी , अपाला अथवा घोषा जैसी स्त्रियों ने जिस
मुद्दे को उठाया और जो व्यक्ति के मिथक में दब गए । लेकिन सुधाजी ने उन सवालों को
एक ऐसा कथा-वितान दे दिया कि वे मुद्दे सुख-सुविधा की पपड़ी के नीचे छिप गए हरे
घावों की तरफ बराबर संकेत करते हैं । यह मुद्दा दरअसल स्त्री की गुलामी के उस कारण
की शिनाख्त है जो लिंग से शुरू होती है और उसकी शक्ति को कमजोर करती हुई संपत्ति से
उसकी बेदखली तक जाती है और राज्य में उसकी भूमिका और निर्णयों को शून्य कर देती है
। सारी कहानी निर्णय क्षमता और प्राधिकार के समाप्त हो जाने की ही कहानी है और
इसीलिए स्त्रियाँ राज्य में सहानुभूति की पात्र हैं । बराबरी की नहीं । इसीलिए घर
तक सहानुभूति दिखाने के नियम हैं लेकिन निर्णयों का सीमा-क्षेत्र अभी बहुत छोटा है
। एक कथाकार के रूप में सुधाजी इस सीमा-क्षेत्र को बार-बार देखती हैं और यही वह
बात है जहां दस्तानों का यकसां होना शुरू हो जाता है । यही वह जगह है जहां से यह
बात सिर उठाने लगती है कि स्त्री-जीवन का पर्सनल एक बहुत बड़ा पोलिटिकल है ।
जैसे मजदूर अपनी बेची गयी श्रम-शक्ति से अपने एक दिन के काम
से अपने दूसरे दिन की गुलामी भी पैदा करता है और इस प्रकार एक जीवन के काम से
दूसरे जीवन की गुलामी पैदा करता है । यही गुलामी एक ऐसे राज्य को मजबूत करती है जो
उसकी अनेकों पीढ़ियों को गुलाम बना लेता है और इस प्रकार एक दिन ऐसा भी आता है कि
वे पीढ़ियाँ गुलामी को ही चरम-सत्य मान लेती हैं और आजादी को एक भयानक खतरे के तौर
पर महसूस करते, देखते हुये कभी लड़ नहीं पातीं। क्या ठीक इसी तरह अपनी
लैंगिक विशेषताओं के कारण स्त्री भी अपनी गुलामी पैदा कर लेती है और यह प्रथा एक
पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इतनी सघनता से चली चलती है कि एक दिन आज़ादी उसे खतरनाक लगने
लगती है ? राज्य के सबसे छोटे समूह परिवार में स्त्री की स्थिति इस खतरे के निशान के
ऊपर-नीचे ही है , इसे सुधा जी रोज़मर्रा के व्यवहारों के माध्यम से दर्ज़ करती
हैं । उनकी कहानियाँ इस तरह एक ऐसे सांस्कृतिक टकराव को चिन्हित करती हैं जहां एक
समूह के दो बुनियादी घटक दो विरोधी व्यवहारों , प्राधिकारों
और भूमिकाओं में हैं । यह सांस्कृतिक टकराव लिंग का है , जिसके कारण
स्त्रियाँ किसी और ग्रह से आई हुई लगती हैं ।
राज्य ने दोनों के लिए दो मानदंड तय किए हैं । इसका सबसे अच्छा उदाहरण उनकी
कहानी “सत्ता-संवाद” पेश करती है । पति अगर कमासूत हो तो सत्ता की चाबी ज़ाहिरन उसी
के हाथ में होगी लेकिन नकारा भी हो तो घर का दरवाजा उसके लिए बंद नहीं हो सकता ।
वह केवल पुरुष होने के कारण ही इतना विशेषाधिकार रखता है कि सामने रखी थाली को
बेस्वाद बताकर मुंह बनाकर उठ सकता है । उसके मानस में यह बात नहीं आती कि बेस्वाद
खाना भी एक संघर्ष और परिश्रम का नतीजा है बल्कि उसके मानस में यह बात सदियों से
धर दी गई है कि स्वाद पर उसका अधिकार है और उसे स्वाद ही चाहिए । उसकी पत्नी का
कर्तव्य है कि उसे स्वाद उपलब्ध कराये । भले उसमें उसे अपना खून मिलना पड़े या
स्वयं को बेच देना पड़े । वह पत्नी की उस बेजारी और अलगाव को कभी नहीं महसूस करता
कि इसी स्वाद को बनाए रखने की कोशिश में उसके लिए कला , साहित्य , कविता या और
कोई भी गतिविधि बेमायने हो चुकी है । यह शायद प्रारम्भिक गतिविधि है जहां से चीजें
खुलना शुरू होती हैं । यहीं से एक करवाचौथी औरत जन्म लेती है । यहीं से केवल बाहर
का शुक्रवार काला नहीं होने लगता बल्कि घर के भीतर भी एक कालिमा पैठ जाती है ।
यहीं से “नमक” जैसी कहानियाँ जन्म लेती हैं और यहीं से एक स्त्री के
सारे उपक्रमों और उद्यमों का एक ही कोम्प्लीमेंट मिलता है – “ रहोगी तुम वही” । वास्तव
में सुधा अरोड़ा की कहानियों ने अपनी अंतर्वस्तु में परिवार और रोज़मर्रा को इतना बड़ा
वितान दिया है कि उनकी सारी कहानियाँ मिलकर एक महाकाव्य बनाती हैं और इस महाकाव्य
में राज्य की संरचना और उसके द्वारा तय मानदंडों के परिणाम रेशा-रेशा दिखाई पड़ता
है । इस परिणाम के एक छोर पर भ्रूण से बाहर निकलती लड़कियों की हत्या है तो दूसरे
छोर पर आत्महत्या का चुनाव करती अन्नपूर्णा मण्डल है । एक छोर पर तीसरी बेटी के
प्रति ठंडे और बेजान शब्द हैं तो दूसरे छोर पर ताराबाइ है । कहा जा सकता है कि
सुधा अरोड़ा की कहानियों  में मौजूद
स्त्रियाँ किसी एक दौर या एक भूगोल की स्त्रियाँ नहीं हैं । वे इतिहास के वर्तमान
से सुदूर अतीत के दरवाजों तक जाती हुई स्त्रियाँ हैं । उनके कंधों पर वे सारे बोझ
रखे हुए हैं जिसकी कोई जरूरत नहीं है । जो आज़ादी और लोकतन्त्र के आगे खड़ी एक
अभेद्य दीवार हैं । लेकिन सुधाजी इस दीवार को तोड़ने की एक अनवरत कोशिश करती दिखाई
देती हैं । वे राज्य और उसके विशेषाधिकार क़ानूनों का सतत निषेध करती हैं और कहानी
का सूत्र वहाँ तक ले जाकर छोडती हैं जहां इस राज्य को खुली चुनौती दी जाने और उसे
तोड़ने की ज़रूरत साफ-साफ महसूस की जा सकती है । अमूमन सहनशीलता के आवरण में लिपटे
एक सतत विरोध को इन कहानियों में आसानी से देखा जा सकता है । बेशक यह विरोध
अन्नपूर्ण मण्डल किसी और रूप में करती हो और काला शुक्रवार की नायिका किसी और रूप
में । यह विरोध प्रायः उनकी कहानियों में एकालाप के रूप फूट पड़ता है ।
शायद इसीलिए उनकी अधिकतर उम्दा कहानियाँ एकालाप हैं । और इस
प्रविधि से उन्होने कहानियों को एक खास ऊंचाई देते हुये उस मुकाम पर पंहुंचाया है
जहां एकालाप भी एक घरेलू महाभारत की तरह जीवंत हो उठता है । जैसा कोई ठहरा हुआ
दृश्य चल पड़ा हो और हर रंग मुखर हो उठा हो । शायद ही एकलाप के भीतर अनेक पात्रों
के हू-ब-हू मौजूद रहने की इतनी शानदार कहानियाँ इतनी अधिक संख्या में औरों के पास
हों ! ‘सात सौ का कोट’ ऐसी ही एक अविस्मरणीय कहानी है जो एक साथ कई पीढ़ियों , वर्गों और
प्रवृत्तियों को इतने कम स्पेस में इतनी बारीकी से प्रक्षेपित कर देती है जितने
में बहुधा रचनाकार भूमिका ही बना पाते हैं । शब्दों और स्लेंग्स का धारदार प्रयोग
और विनम्रता तथा निरीहता में छिपी क्रूरता और रक्तपायी व्यावहारिकता को परत-दर-परत
उधेड़ना सुधाजी के उस रचनात्मक कौशल का सबूत है जो कालांतर में उन्होने मानव-मन के
भीतर पैठी उस सत्ता-संरचना की तसदीक में लगाया जो वस्तुतः लिंग-भेद को भी एक
वर्ग-संस्तरण की तरह देखती और उसपर काबिज रहती है । ज़ाहिर है शैली सुधाजी के कथा-कैनवास
का वह रंग है जो मूल चित्र को अतिरिक्त उभार प्रदान करती है।
लेकिन सुधा अरोड़ा की कहानियाँ अपनी शैली के अतिरिक्त इसलिए
भी जानी जाती हैं कि वे संवादों के परस्पर आदान-प्रदान के बिना भी दूसरे पक्ष के
संवाद का बहुत गहरा आभास पैदा करती हैं । इसके साथ ही सहज स्थितियों को क्रमश बहुत
जटिल वितान तक ले जाती हैं । यह जटिल वितान वस्तुतः उस सामाजिक और सांस्कृतिक
संरचना का ताना-बाना है जिसमें पुरुष लदा हुआ दिखता है और स्त्री ढोती हुई । और
बोझ से दबी हुई स्त्री इतनी अकेली और अलग-थलग है कि वह सारे संवाद स्वयं कर रही है
। बाहर का देखा और भीतर का भोगा हुआ किसी के साथ बांटना या तो बेमानी है या असंभव
होता जा रहा है । कुछ तो है !
सुधाजी की कहानियाँ समाज के बीमार होने की शिनाख्त करते हुए
राज्य और सत्ता-संरचना के उन मूल घटकों की ओर संकेत करती हैं जो स्त्री की कोख पर
कब्जा करते हैं और उसे एक उजरती मजदूर के रूप में सबसे निचले पायदान पर ला देते
हैं । ये कहानियाँ कहीं न कहीं उस सत्ता के निरंकुश होने की तसदीक करती हैं जो
आर्थिक संस्तरों की विभिन्नता के बावजूद स्त्री के लिए बराबरी को एक दूर का ढ़ोल
बना देती है । यह सत्ता केवल अतीत से वर्तमान तक नहीं आई है बल्कि उसके लगातार
भविष्य बनने का भी आधार है और इस दृष्टि से सुधा जी की कहानियाँ सदियों के यथार्थ
की कहानियाँ तो हैं ही सुदूर भविष्य की भी कहानियाँ हैं । इनका कालखंड बहुत
विस्तृत है । ये कहानियाँ इसी पृथ्वी पर स्त्रियों के लिए रच दिये गए दूसरे ग्रह
से मनुष्यों के राज्य के नियमों को सरासर गलत करार देती कहानियाँ हैं । और सबसे
बढ़कर उस राज्य को ही बुनियादी खतरा बताने वाली कहानियाँ हैं जिसके नियम स्त्री के
लिए मानवीय नहीं लैंगिक आधार पर बनाए गए हैं । ये कहानियाँ वस्तुतः उन संघर्षों की
पूर्वपीठिका हैं जो स्त्रियों की मुक्ति के लिए बहुत लंबे समय तक जारी रहनेवाला है
रामजी यादव
रामजी यादव मह्त्वपूर्ण कथाकार , आलोचक एवम फिल्मकार हैं . इनसे इनके मोबाइल न 09699894413 पर संपर्क किया जा सकता है .

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ISSN 2394-093X
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