फैंसी स्त्रीवादी आयोजनों में जाति मुद्दों की उपेक्षा

ज्योत्सना सिद्धार्थ / अनुवाद : रंजना बिष्ट 

( एक स्त्रीवादी आयोजन के बहाने ज्योतसना भारत में ठहर गये स्त्रीवादी आंदोलन और चिंतन की पड्ताल कर रही हैं. यह आलेख स्त्रीकाल के दलित स्त्रीवाद अंक़ में प्रकाशित हुआ था. )

आज की यथास्थिति हमें काटने को दौड़ती  है। स्त्रीवाद  में सवर्ण और उच्च वर्गीय  विशिष्टता बोध,  मुद्दों को लेकर उनका प्रपंच व गुमान वास्तव में चिंताजनक है। मैं यह  आलेख नहीं लिख पाती  यदि मैंने दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग नहीं लिया होता । मैं ‘जुबान’ का तहेदिल से शुक्रिया अदा करना चाहती हूं ,जिनके सौजन्य से आयोजित इस विचारोत्तेजक आयोजन ने  मुझे वर्तमान स्त्रीवादी राजनीति  और उसकी दिशा के  विषय में सोचने के लिए प्रेरित किया।यह कार्यक्रम ‘जुबान’ टॉकीज की एक विशिष्ट श्रृंखला का ही हिस्सा था।  यह कार्यक्रम कनॉट प्लेस में आयोजित किया गया। मेरे यहां उपस्थित होने की दो वजह थी। पहला ,मैं उस कार्टून को लेकर सवाल करना चाहती थी जो ,स्त्रीवादियों का मखौल उड़ाता हुआ नजर आ रहा था और एक गंभीर विषय को तुच्छ बना रहा था दूसरा , सिर्फ इसलिए कि यह जुबान का आयोजन था  और मैं जानना चाहती थी कि वहां क्या होने वाले था . मैं यह भी जानना चाहती थी कि क्यों स्त्रीवादियों ने सीमारेखा को लांघा, क्योंकि वहां कई वरिष्ठ स्त्रीवादी आन्दोलन कर्मी अपनी नई पीढ़ी की साथियों के साथ उपस्थित थीं .  किसी अंतिम निष्कर्ष की उम्मीद लेकर  तो मैं वैसे भी नहीं गई थी लेकिन मुझे बड़ी निराशा हुई कि मुझे वहां कोई विचरोतेज्जक उत्तर प्राप्त  नहीं हुए.

सबसे पहले मैं उस  कार्टून चित्र पर बात करना चाहूंगी, जिसमें स्त्री पुरूष दोनों नग्न अवस्था में बिस्तर पर हैं ,स्त्री पुरूष के ऊपर  बैठी है और पुरूष उसमें कोई रुचि न लेते हुए अखबार पढ़ रहा है। यह दर्शाया गया है कि स्त्री के भीतर दो विचार घुमड़ रहे हैं . एक तो वह  सोच रही है कि ‘मैं सबसे ऊपर हूं’। दूसरे वह प्रश्नाकुल है  ‘अब क्या’.  आखिर यह कार्टून क्या दर्शाना चाहता है? महिला उत्तेजित नजर आती है जबकि उसका साथी पुरूष निश्चिंत  अखबार पढ़ने में व्यस्त दिख रहा है।  यह चित्र स्त्रीवादी राजनीति के बारे में आखिर बताना क्या चाह रहा है ? कार्टून का एक पाठ यह हो सकता है कि महिला सिर्फ शीर्ष पर  रहना चाहती है, उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका परिणाम क्या होगा , यह किसी सूरत में स्त्रीवादी पाठ नहीं है .  दूसरा पाठ हो सकता है कि स्त्री ने शीर्ष को जीत लिया है  लिया है मगर उसे यह ज्ञात ही नहीं कि आगे क्या , यह मूर्खतापूर्ण लगता है। और अंततः यह पश्चिमी स्त्रीवाद के इतिहास के एक स्त्रीवादी आन्दोलन के महत्व को कम करता है , जिसमें महिलाएं अपने शरीर और अपने यौन आनंद पर अपना  हक़ जता रहा थीं , या अपनी पारंपरिक यौन भूमिका से अलग अपनी भूमिका क्लेम कर रही थीं , जिसका यह कार्टून मजाक उड़ा रहा है .

हांलाकि वहां काफी लोग आये थे और यह कार्टून बहुत सारे लोगों ने देखा मगर किसी ने भी आपत्ति  जाहिर नहीं की। टॉकीज शो की शुरूवात ही फेयर एण्ड लवली के विज्ञापन से हुई। जिसमें कि एक पुजारी मंदिर के भ्रम में अपनी काली बेटी को लेकर एक मार्डन ब्यूटी कंपनी में पहुंच जाता है . जैसे ही उन्हें पता चलता है कि वे गलत जगह खडे़ हैं वे बाहर जाने लगते है और उसी समय रिसेप्शेन पर बैठी महिला कहती है ‘‘ऐसी लड़कियों को सुन्दर बनाना है तो वेदो के जमाने में नहीं रह सकते’’ यह सुनकर पिता के हृदय को ठेस पहुंचती है और वह अपने घर जाकर अपना जड़ी बूटी से भरा हुआ बक्सा खोलता है, जिसमें से उसे एक ऐसा रासायन प्राप्त होता है जिससे वह अपनी बेटी को एक खूबसूरत परी बना देता है ( स्पष्ट है कि जो गोरी है , क्या आपने कभी काली परी देखी है?)

उनलोगों ने  चेहरों के रंग में निहित श्रेणीक्रम पर बात करना शुरू किया और अंततः इस स्थापना की ओर बढे की सबका अंतिम लक्ष्य है उजली चमड़ी हासिल करना .  क्या हम सभी लोग इस बात से पहले ही वाकिफ नहीं हैं कि भारत रेसिस्ट जातिवादी , लिंग व वर्ग आधारित असमानताओं वाला तथा   होमोफोबिक देश है। आखिर इस बात को लेकर हमें इतना आश्चर्य क्यों हुआ? फेयर एण्ड लवली के हास्यापद विज्ञापन पर आश्चर्य क्यों हुआ?
बात मात्र  विज्ञापन की नहीं है ,ऐसे विज्ञापन तो हम बचपन से देखते आये है? मुद्दे की बात तो यह है कि कब तक हम उन पुरानी लकीरों को पीटते रहेंगे, कब तक हम पुरानी पद्धतियों में उलझे रहेंगे !  क्या हमारे पास मुद्दों की कमी है , क्या हम  नहीं जानते कि हमें किस दिशा में जाना है?  मैं यह नहीं कह रही हूँ कि मीडिया की आलोचना करने की जरूरत नहीं है .जरूरी  है कि हमें एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए उन सभी  चीजों के प्रति ,जो टी.वी. में दिखाया जा रहा है , समाचार से लेकर सिनेमा तक ,  विज्ञापन से लेकर गाने तक कार्टून से लेकर  रियल्टी शो तक . हाशिये के समाज के संदर्भ में हम इसे नहीं देख रहे है।  इस प्रकार के फैंसी आयोजनों में कोई जाति के मुद्दे पर बात क्यों नहीं करता? क्यों असहज है जाति के बारे में बात करना, खास कर इस प्रकार के ग्लैमरस व अभिजातीय आयोजनों में ,जहां पर कोई भी जाति के मुद्दे पर दूर –दूर तक बात नहीं करना चाहता। ऐसा लगता है हम आज भी सपनों की दुनिया में जी रहें है ,जहां पर जाति को दरवाजे पर ही छोड़ दिया जाता है। खासकर एयर कन्डीसन मॉल, फेन्सी रेस्टोरेन्ट और अभिजातीय स्थलों पर चर्चा के दौरान।

वास्तव में जाति, वर्ग व लिंग आधारित भेदभाव का पता न केवल उन कपड़ों से चलता है जिन्हें हम पहनते हैं, बल्कि उन कपड़ों से भी जो हम  नहीं पहनते है, न सिर्फ उस शबदावली से , जो हम बोलते हैं बल्कि उससे भी, जो हम नहीं बोलते हैं , और उस  भोजन से भी जो हम एक  जातिविशेष से होने के कारण नहीं खाते हैं। यह अच्छा लगता है कि हम कुछ अलग दिखे, भाषा भी अलग हो और एक आदर्श संसार हो, जहाँ जाति का कोई अस्तित्व ही नहीं हो । हम तमाम उन मुद्दों जैसे गरीबी, विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र, इतिहास से लेकर भुगोल तक पर बात करते हैं। मगर जाति व वर्ग विशेष के अधिकार की बात क्यों नहीं होती? आखिर हम बार बार जाति की जटिलता  पर बातचीत करने में असफल क्यों हो जाते है? इससे तो साफ तौर पर  भारत में व्याप्त जाति की व्यवस्था के सन्दर्भ में हमारी पोजीशन जाहिर होती है . जाति जब हमें कई तरीके से प्रभावित करता है, तो फिर इसको मिटाने का दायित्व सिर्फ हाशिये के लोगों का ही दायित्व क्यों मान लिया जाता है ? अंततः  आज जरूरत इस बात की है कि हमारे समाज में पीढ़ियों से चली आ रही इस बीमारी, जिसके कारण समाज भ्रष्ट हो गया है, को मिटाने के लिए दोनों ओर से प्रयास होना चाहिए।मुझे लगता है   कि साधन सम्पन्न शिक्षित व राजनीतिक लोग जबतक जाति, वर्ग व लिंग आधारित असमानता के मुद्दों को जब तक प्राथमिकता नहीं देंगे तब तक ऐसा होना संभव नहीं है .

जुबान की स्त्रीवादी अवधारणा व कार्य काफी समस्याप्रद है, जहां पर शरीर व सेक्स पर बात करना एक ग्लैमर है, इसकी बारीकियों को  जाने बिना  कि इसका  दूसरे तमाम चीजों से कितना गहरा रिश्ता है जैसे जातीय भेदभाव, बेघर होना, हिंसा, गरीबी व तनावपूर्ण माहौल । जुबान सिर्फ दिल्ली के उच्च वर्ग व जाति के ही लोगों की बात करता है, यह वाकई एक शर्मनाक बात है एक स्त्रीवादी प्रेस के लिए।जुबान एक बहुत पुराना स्त्रीवादी  प्रकाशन है। यहां से स्त्री मुद्दों पर  केन्द्रित कई लोकप्रिय पुस्तके छप चुकी हैं और अब भी प्रकाशित हो रही है। यह एक आधार व प्लेटफार्म है ,जो देश-विदेश की बौद्धिक जमात में खासा  लोकप्रिय है। यह एक ऐसा प्रकाशन है, जिसे लोग पसंद करते है और जिसके  प्रकाशनों से निरंतर संपर्क  में रहते हैं .यह वाकई एक चिंताजनक स्थिति है कि इस तरह का स्त्रीवादी प्रकाशन जिसकी एक बहुत बडी पाठक संख्या है, वह भी जाति, वर्ग व लैंगिक भेदभाव जैसे मुद्दों पर बात करने से कतराते हैं।

अनीता रॉय  व गौतम भान की प्रस्तुति सबके लिए  बहुत ही सतही  व अरूचिकर है, साधन संपन्न  पश्चिमी दिल्ली के रहवासियों को छोड़कर .  वैसे तो अनीता रॉय को उनके काम के लिए ,उनके आत्मविश्वास के लिए,  शब्दों के चयन और सम्पूर्ण प्रस्तुति  के लिए दस में से दस अंक मिलने चाहिए। मगर मैं स्वयं को उस मजाक से जोड़ नहीं पाई .   किसी के चरम आनंद  के बारे में , बिस्तर पर पसंदीदा पोजीशन के बारे में, या बिस्तर में किसी की पसंद के बारे में बात करना काफी अभिजात्य मसला है  .  मैं यह बात उन तमाम महिलाओं के सन्दर्भ से कह रहीं हूं , जहाँ से मैं आती हूँ ,जिनकी पसंद या नापसंद ,सेक्स के मामले में ,कोई मायने नहीं रखती, जिनके लिए काम का अधिक बोझ, लगातार दबाव, व चिन्ता के बीच सेक्स करना भी एक अलग दवाब ही है। चरम आनंद जैसी कोई वास्तिविकता नहीं है. बहुत सारी दलित महिलाओं से यह पूछा ही नहीं जाता कि वे संतुष्ट है या नहीं। वे सेक्स के दौरान बिस्तर पर ठन्डी पड़ जाती हैं और खत्म होने का इन्तजार करती है, उच्च जाति के पुरुष और दलित पुरुष भी   उन्हें लगातार एक सेक्स मशीन की तरह इस्तेमाल करते हैं । यह बात एकदम साफ है कि एक मशीन कभी यह नहीं कह सकती कि उसका कैसे उपयोग किया जाए। दलित पुरूष बहुत बुरे न सहीं मगर वे भी बिस्तर पर उतने ही असंवेदनशील होते हैं जितने कि अन्य पुरूष।.

भारत सरकार के अपराधिक आकड़ों  (2001-2005 के औसत आंकडों) पर नजर डाले तो, प्रतिदिन दलितो के साथ होने वाले अत्याचार के 27 मामले सामने आते हैं। हर सप्ताह 13 दलित मौत के घाट उतार दिए जाते है। हर सप्ताह 6 दलितो के घर जलाकर उन पर कब्जा कर लिया जाता है। सप्ताह में छः दलित अगवा कर लिए जाते है। एक दिन में तीन दलित महिलाओं का बलात्कार होता है। ग्यारह दलित रोजाना हिंसा के शिकार होते है। उनके साथ मारपीट की जाती है। हर 18 मिनट के अन्तराल में एक दलित के साथ अपराध होता है। यह बात जानकर मैं बेहद असहज व असहाय महसूस करती  हूं कि एक ओर देश के किसी कोने में एक दलित महिला का बलात्कार हो रहा होगा  ,जहाँ दूसरी ओर हमलोग चरम आनंद की  बात कर रहे  हैं .

एक काली चमड़ी वाली दलित महिला होने के नाते मुझे कुछ चुटकुले बडे़ अटपटे लगते हैं और कुछ आपत्ति जनक भी। एक ऐसा मजाक, जो पश्चिमी दिल्ली के लोगों पर केन्द्रित है। उदाहरण के लिए एक स्टीरियोटाइप , जो दक्षिणी दिल्ली को दिल्ली  के दूसरे हिस्से की तुलना में ऊँचा और अभिजात्य बना देता है , मगर मुझे इस बात से आपत्ति है. क -शहर के अन्य हिस्सों को दक्षिण दिल्ली की अपेक्षा कमतर आंकना  कोई हास्यबोध नहीं पैदा करता है . ब -मुझे यह बहुत अजीब लगता है कि लोग वैसे स्टीरियोटाइप में हास्यबोध पा लेते हैं , जो  जातीय व वर्गीय पूर्वग्रह को जन्म देते हैं . शहरी जीवन व उसके  तथाकथित स्त्रीवाद की सबसे बड़ी त्रासदी है  जाति, वर्ग व लैंगिक असमानता को लेकर उसके पूर्वग्रहों की  बेशर्मी व बेहयायी।

यह बड़ा ही आसान व सुविधाजनक है कि हम अपनी पारम्परिकता  व रूढ़ीवादिता के जाल में फंसे रहे। हमें जरूरत है निरंतर आत्मनिरिक्षण की। हमारी राजनीतिक सजगता जरूरी है , अनुभवजन्य सक्रियता  और  एक मजबूत सैद्धान्तिक जमीन के साथ  । जुबान की राजनीति में इन दोनो का  अभाव है। हवा में की गयी राजनीति, जिसकी न कोई सक्रियता की जमीन है और न सिद्धान्त ,मुद्दों को लेकर भ्रम पैदा करने का काम करती है और जिसकी परिणति  उच्चवर्गीय , उच्च जातीय परिहास में होती है . अतिथि ने सबका आभार व्यक्त किया वहां आने और हंसने के लिए . आखिरकार कार्यक्रम सभी की हंसी के साथ खत्म हुआ। क्या हम अपने आप पर या दूसरों पर हंस रहे हैं ,मैं घर जाते वक्त यह सोचती रही कि जुबान के इस कार्यक्रम में परिचर्चा व सवाल-जवाब के लिए कोई जगह ही नहीं थी।

ज्योत्सना सिद्धार्थ

लेखिका  दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी  है
इनसे jyotsna.nirvana@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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ISSN 2394-093X
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