अपर्णा अनेकवर्णा की कवितायें



1. एक ठेठ/ढीठ औरत

सुबह से दिन कंधे पे है सवार
उम्मीदों की फेरहिस्त थामे
इसकी.. उसकी.. अपनी.. सबकी..
ज़रूरतें पूरी हो भी जाएँ..
उम्मीदें पूरी करना बड़ा भारी है..
जहाँ खड़ीं हूँ.. वहां से सब दिखतें हैं
दौडूँ जाऊँ.. नज़रें बचा के..
दो-एक बातें अपनी मनवाली भी.
कर आऊँ… बिना रोक-टोक..
पर वर्जनाएं कुंठा बन गयी हैं
बिना बुरा.. वीभत्स.. हार सोचे
किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँचती
ख़ुद को पुरज़ोर अंदाज़ में
सब ओर रखती हूँ
पर ऐसा करने में चालाकियां
दूसरों की नज़र आती हैं..
काटती हूँ उनको अपनी चालाकियों से…

जहाँ भांप ली जाती हूँ..
लोमड़ी करार दी जाती हूँ
जहाँ नहीं.. वहां बेचारी का मुंह बनाना
अब खूब आता है मुझको..
इस पूरी स्वांग-लीला से
घिन आती रहती है.. धीरे धीरे
पर चारा कुछ भी नहीं..
या तो बाग़ी घोषित हो जाऊँ
और अकेली झेलूँ रेंगती नज़रों..
टटोलते स्वरों को..
या ओढ़ लूँ औरतपन की चादर
और चैन की सांस लूँ अकेले..
और बेचारिगी पोत लूँ मुंह पर
जैसे ही कोई छेड़े उस छाते को…
मैं ऐसे ही एक ‘ढीठ’ औरत थोड़े हूँ..
मैं ऐसे ही एक ‘ठेठ’ औरत थोड़े हूँ…

2. बसंता की पुकार 
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रात भर बसंता बुरांस जंगलों में टेरती रही..
पुकारती रही… ‘काफल पूरे-पूर’
बेचैनी धीरे धीरे उदास हो जाती..
दूर जंगलों में सुना था अभी ही तो..
उसकी ‘चेली’ रुआंसी कह रही थी
‘काफल पाको.. मैं नी चाखो’..
ऐजा री………….

माँ-बेटी जंगलों में ‘रिंगाल’ टोकरी
लिए तोड़ती रहीं काफल भर दिन
भरी टोकरी लिए बैठी बेटी…
माँ लौट गयी.. जंगलों ने चारे का वादा किया था
दिन जब पश्चिम की ओर लपका..
बेटी को सोता पाया.. और ‘हाय रे!’
काफल कित्ते कम… क्या बेचूँगी भला..

क्लांत-क्रोध ने ठोकर मारी..
नन्ही देह पूर्ववत बेसुध..
भूखी नन्ही.. भूख की हदें पार कर गयी थी..
शाम की ठंडी हवा ने सूखे काफल ताज़ा किया
रिंगाल टोकरी फिर भर उठी…
भग्न ह्रदय कित्ती देर बजता.. बंद हुआ..

आज बसंता पाखी बन गयी दोनों.. ऐजा-चेली..
जाने वन के किस हिस्से में होती हैं
पुकार सुनाई देती हैं दोनों को.. दोनों की..
बस मिल ही नहीं पाती हैं..
*’ओ चेली कां छे तू… ऐजा ईजा कां नैह गे छे’
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नोट: * ओ बेटी कहाँ है तू, मेरे पास आजा तू कहाँ चली गयी.
बसंता पहाड़ का पक्षी है.. द ग्रेट हिमालयन बारबेट

3. तोहफा 

खर्च कर दीं मैंने सारी..
जितनी भी दी थीं
तुमने तसल्लियाँ..

इस बार आना..
तो कुछ और लिए आना

मुझे तुमसे और कोई भी
तोहफा नहीं चाहिए..

4. फर्क


हवा हमेशा
ऊंचे पेड़ों के
ऊपरी पत्तों, टहनियों, डालों
पर ही अटक सी जाती है
वैसी.. नीचे नहीं आती कभी..

पी जाते हैं हवा को.. सोख लेते हैं..
ऊंचे पेड़.. घने पेड़…
आपस में ही बाँट लेते हैं..
नीचे ठिगने पेड़ों.. झाड़ियों के हिस्से का
बचखुच भी हजम कर जाती हैं..
ऊंचे पेड़ों की ही निचली पत्तियां…

सब सामान्य होने में.. सर्वमान्य होने में..
जाने कितना वक़्त लगे…
इंतज़ार की आदत है ठिगने पेड़ों को
धैर्य भी अब सीख लिया है उन्होंने…
अब पता है उन्हें भी
कि हवा भी..
‘हैव’ और ‘हैव नॉट’ का फर्क करती है..

5. बरामदे में धूप

धूप का चौरस सा टुकड़ा
बरामदे का सफ़र करता है
अचार की बरनियों की फ़ौज
लगातार पीछा करती हैं
कभी कभी सीले जूते भी
मुंह बाए… गरमाये..
उबासियाँ लेते हैं…

अपने गीले पैरों की छाप को
वाष्पित होते देखती हूँ
गर्माहट..
तलवों तक सरक आयी है
बिछुवे का सफ़ेद नग तड़प कर
इन्द्रधनुषीय हो उठा है

बीते क्षणों के रज-कण
उपराते.. गहराते…
मुझे नृत्यरत दीखते हैं..
जैसे उस अचानक मिले
मंच पर अंतिम श्वास से पहले का
कोई विदा-उत्सव मना रहे हों

इसी तरह तो जीवन भी
एक रंगमंच का मोहताज
पलों के पीछे पलों का क्रम
सब अपनी भूमिका से बंधे
उन दीप्त रज-कणों की भांति
अपना स्वांग पूरा कर विदा होते हैं

जीवन भी तो
समय के पगचिन्हों को
वाष्पित होते देखना ही तो है
रोज़ की दिनचर्या भी खूब है
उस नज़र से देखो तो..
दर्शन ही दर्शन नज़र आता है…

6. स्वप्न-संदेसे

स्वप्नों के संदेसे
रोज़ मिले थे मुझे
‘आँचल में आ गिरा था एक
सुनहला पका आम
मीठी खुश्बुओं से भीना हुआ’

‘लाल-हरे-सुनहले-रुपहले
रंगीन कई सारे सर्प..
ढेरों-ढेर..
पुचकार रही थी उन्हें
वो पालतू से-चमकती आँखों वाले..
स्नेह से लिपट रहे थे’

‘लाल शुभ चुनरी
उड़ आयी थी कहीं से..
भेजी थी मेरे लिए
किन्ही ऊंचाइयों ने..
हवाओं ने संभालकर
शीश पर धर दिया था मेरे’

‘राज-हंसों का जोड़ा देखा था..
मछलियों से पटा सरोवर..
धान के ढेर पर
खेलता दुधमुंहा शिशु भी’

और तब तुम आयीं थीं
आँचल में मेरे.. मेरी बच्ची
कैसे मान लूं मैं अनचाहा तुम्हें
क्यूँ न करूँ स्वागत तुम्हारा..

महामाया के भांति श्वेत ऐरावत
नहीं आया था तो क्या हुआ??
तुम्हारे आने के कितने ही शुभ संकेत..
मुझे, स्वयं प्रकृति दे गयी थी. ~ अनेकवर्णा
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(इस कविता को वर्ल्ड डॉटर्स डे, २०१३ में ‘गरज’ (पंजाब) द्वारा आयोजित काव्य प्रतियोगिता में द्धितीय पुरस्कार मिला था. ‘गरज’ कन्या भ्रूण संरक्षण और बालिकाओं के किये कार्यरत समाजसेवी संस्थान है)

अपर्णा अनेकवर्णा

अपर्णा अनेकवर्णा ने  लेखन पिछले वर्ष आरम्भ किया है है और इनकी कवितायेँ काव्य संकलन ‘गुलमोहर’ में तथा ‘कथादेश’ (मई, २०१४ अंक) के ‘आभासी संसार से’ स्तम्भ में प्रकाशित हो चुकी हैं. ईमेल: aparnaanekvarna@gmail.com