( मुकेश मानस कवि, कथाकार और विचारक हैं , चर्चित पत्रिका मगहर का संपादन करते हैं और दिल्ली वि वि में हिन्दी के प्राध्यापक हैं. उनकी इन कविताओं में स्त्री के आत्मीय पुरुष की अभिव्यक्ति है , एक स्त्रीवादी पुरुष की . दीप्ति एम .ए की छात्रा हैं, निरंतर अपनी कविताओं में बेहतर होती जा रही हैं. हो सकता है इन कविताओं में एक स्त्रीमन की अनगढ अभिव्यक्ति मिले , लेकिन युवा स्त्री के मन की थाह जरूर है इनमें . मुकेश मानस और दीप्ति से क्रमशः 9873134564, 9412526563 पर संपर्क किया जा सकता है )
मुकेश मानस की कवितायें
उत्तराखंड
के एक खूबसूरत पहाड़ की तलहटी में
के एक खूबसूरत पहाड़ की तलहटी में
एक
होटल की तीसरी मंजिल पर
होटल की तीसरी मंजिल पर
आजकल
ठहरे हुए हैं हम
ठहरे हुए हैं हम
शाम का
समां है
समां है
हमारे
कमरे की बालकनी में
कमरे की बालकनी में
मेरी
बेटी और मैं बैठे हुए हैं
बेटी और मैं बैठे हुए हैं
और
निहार रहे हैं पहाड़ी शाम की खूबसूरती
निहार रहे हैं पहाड़ी शाम की खूबसूरती
एक
पहाड़ी औरत ले के जा रही है अपने सिर पर
पहाड़ी औरत ले के जा रही है अपने सिर पर
जंगल
से काटी गयी लकड़ी
से काटी गयी लकड़ी
सूरज
डूबता चला जाता है
डूबता चला जाता है
खुश
होके कहती है मेरी बेटी-“वडरफुल”
होके कहती है मेरी बेटी-“वडरफुल”
अचानक
एक खामोशी पसर जाती है अन्धेरे सी
एक खामोशी पसर जाती है अन्धेरे सी
फिर
किलक के कहती है वो मुझे
किलक के कहती है वो मुझे
पापा
सुनो तो ज़रा
सुनो तो ज़रा
एक
झरने की आवाज़ आ रही है
झरने की आवाज़ आ रही है
झरने
की आवाज़ सुनने की कोशिश में
की आवाज़ सुनने की कोशिश में
मुझे
सुनाई देती है पहाड़ पर
सुनाई देती है पहाड़ पर
एक बाघ
के गुर्राने की आवाज़
के गुर्राने की आवाज़
मैं उस
पहाड़ी औरत को जाते हुए देखता हूं
पहाड़ी औरत को जाते हुए देखता हूं
तो
ख्याल आता है मुझे
ख्याल आता है मुझे
कि
पहाड़ में बाघ अब भी बाकी हैं
पहाड़ में बाघ अब भी बाकी हैं
और
बाकी है उनकी आवाज़
बाकी है उनकी आवाज़
2013
2. बेटी
मेरी बेटी मुझे बुलाती है
मैं दौड़ के जाता हूँ
और मुझे अपने होने की खुशी होती
है
है
मुझे लगता है कि मैं किसी काम का
हूँ
हूँ
मेरी बेटी मुझे आदेश देती है
मैं उसके आदेश का पालन करता हूँ
मुझे लगता है मेरा जीवन सफल हो
गया
गया
2010
3. माँ
मैंने जब इस धरती पर पहला कदम
रक्खा
रक्खा
तब मौजूद थी एक स्त्री इस धरती
पर
पर
उसने मुझे मुझे चूमा, मुझे
दुलराया
दुलराया
अपने जीवन की किसी जरूरी धड़कन की
तरह
तरह
मुझे अपने दिल की गहराईयों में बसाया
ये मेरे जीवन का पहला स्पर्श था
पहली छुअन, पहला अपनापन
और किसी दूसरे शरीर की पहली मादक
गन्ध
गन्ध
रोम–रोम तक घटित होने वाल पहला
प्यार था यह
प्यार था यह
उसके बाद जीवन भर
मैं कहां कहां नहीं गया
क्या-क्या नहीं किया मैंने
जाने किस-किस से प्यार किया
और किस किस से नफ़रत की
अब ये मुझे याद भी नहीं
मगर जीवन भर उसकी बांहें मिली
मुझे संभालती, दुलराती हुई
उसकी सदिच्छाएं मिलीं
अन्धेरों में रौशनी की तरह प्रेरित
करतीं
करतीं
अपार स्निग्ध प्यार मिला
कि मैं औरों को प्यार करने के
काबिल बना रहूँ
काबिल बना रहूँ
करूणा मिली जिसने मुझे भीतर से इन्सान
बनाए रखा
बनाए रखा
जब कभी मैं नहीं रहूँगा इस धरा
पर
पर
तब भी रहेगी वो स्त्री
बना रहेगा उसका स्पर्श, उसकी गंध
बनी रहेगी उसकी विराटता
चलता रहेगा संसार उसके इशारों पर
जब मैं नहीं रहूँगा
तब भी रहेगी वो स्त्री इस धरती
पर
पर
2010,
मां के परिनिर्वाण पर
मां के परिनिर्वाण पर
4. कमोडिटी
प्रिय पूनम पांडे
मुझे तुम्हारी घोषणा सुनकार बहुत
खुशी हुई
खुशी हुई
धन्य है तुम्हारा वो देश
जिसके लिए तुम कहीं भी कपड़े उतार
सकती हो
सकती हो
धन्य हैं तुम्हारे वो माता–पिता
जिन्हें तुम्हारे नंगा होने पर
गर्व है
गर्व है
धन्य हैं तुम्हारे वो मित्र और
सहचर
सहचर
जो तुम्हारी घोषणा सुनकर प्रसन्न
हैं
हैं
धन्य है तुम्हारा स्त्री होना
कि तुमने स्त्रीपन की नई मिसाल
दी है
दी है
चिढ़ने दो अगर चिढ़तीं हैं तुमसे
बछेन्द्री पाल, मेधा पाटकर,
अरुणा राय
अरुणा राय
ईरोम शर्मिला, भंवरीबाई वगैरह
वगैरह
वगैरह
पागला गई हैं ये औरतें जो चिढ़तीं
हैं तुमसे
हैं तुमसे
मगर यकीन मानो पूनम पांडे
मैं तुम्हारी घोषणा सुनकर बहुत
खुश हूँ
खुश हूँ
इसलिए नहीं कि मैं दलित हूँ और
तुम ब्राह्मण हूँ
तुम ब्राह्मण हूँ
इसलिए नहीं कि मेरे मन में ब्राह्मणों
के लिए नफ़रत भरी है
के लिए नफ़रत भरी है
और उनकी लड़कियों के नंगे होने पर
मैं खुश हूँ
मैं खुश हूँ
यकीन मानो पूनम पांडे
मैं तुम्हारी घोषणा सुनकर
बहुत खुश हूँ
बहुत खुश हूँ
इसलिए नहीं कि मैं एक पुरुष हूँ
और तुम एक स्त्री
और तुम एक स्त्री
और हर स्त्री को नग्न देखना
पुरूष की आदिम प्रवृत्ति है
पुरूष की आदिम प्रवृत्ति है
यकीन मानो प्रिय पूनम पांडे
मैं तुम्हारी घोषणा सुनकर बहुत
खुश हूँ
खुश हूँ
खुश हूँ कि जिसे मैं अपना देश
कहता हूँ
कहता हूँ
तुम उस देश की नागरिक नहीं हो
खुश हूँ कि जिसे मैं नई पीढ़ी
कहता हूँ
कहता हूँ
तुम उस पीढ़ी की सद्स्य नहीं हो
खुश हूँ कि तुम आधुनिक स्त्री तो
कतई नहीं हो
कतई नहीं हो
तुम तो किसी बाज़ार की एक कमोडिटी
हो
हो
सिर्फ़ एक बिकाऊ माल
खरीदी और बेची जाने वाली कोई
वस्तु हो
वस्तु हो
देह के बाज़ार में एक विज्ञापन हो
तुम कोई देश नहीं हो
तुम कोई धर्म नहीं हो
तुम कोई जाति नहीं हो
तुम कोई लिंग नहीं हो
2011
माडल पूनम पांडे की यह
घोषणा सुनकर कि अगर टीम इंडिया जीतती है तो वह इस खुशी में कहीं भी नंगी हो सकती
है।
उसे गर्व है कि वह नई पीढ़ी की है। उसके नंगा होने में उसके मां-बाप को कोई
आपत्ति नहीं है।
घोषणा सुनकर कि अगर टीम इंडिया जीतती है तो वह इस खुशी में कहीं भी नंगी हो सकती
है।
उसे गर्व है कि वह नई पीढ़ी की है। उसके नंगा होने में उसके मां-बाप को कोई
आपत्ति नहीं है।
5. नई भाषा
जिस
भाषा में बातचीत करते हैं हम
भाषा में बातचीत करते हैं हम
वह नाकाफ़ी है
हमारे उन भावों के लिए
जिन्हें हम व्यक्त करके भी
व्यक्त नहीं कर पाते
इसलिए हमें चाहिए एक नई भाषा
बेहद सहज और सरल भाषा
ठीक उस प्यार की तरह
जो हमारे भीतर महक उठता है
एक दूसरे के लिए
कभी-कभी
2011
दीप्ति की कवितायें
अपाहिज नहीं हूँ
चल सकती हूँ
पर जंजीरों से जकडी हूँ ,
आँसू भी गिरते हैं
पर जंजीरे नहीं पिघलतीं
मजबूती से बंधी हुयी वो
और मजबूत होती जाती है ,
युग युगान्तर से बंधी
इन जंजीरों को तोडने की
प्रक्रिया अब शुरू हो गयी
है ।
है ।
2. मुक्ति की आकांक्षा को
त्याग
त्याग
मुट्ठी भर भर गेहूँ
चाकी में पिसती – चलाती
अनुभवों को बटोरती
टेनिये में भरती जाती हूँ
चाकी के चारों ओर
कुछ दरदरा गेहूँ ,
बचा रह जाता है
निढाल सा पडा है
अपने आपमें मग्न
दुनिया की चाकी में
बार – बार
पिसने का अनुभव
लेना चहता है ,
तभी इतनी बार पिसकर भी
बचा रह जाता है
वो दरदरा गेहूँ ।
3.
राजपथ पर चलती मैं अकेली
धूप से बचती
छतरी ओढे चली जा रही हूँ
धूप की तेज़ किरणें
छतरी को पार कर
मुझे जला रही हैं
और मैं सुकडती चली जा रही
हूँ ,
हूँ ,
वहीं पास से लोगों का हूजूम
निकल रहा है
निकल रहा है
लोग नारे लगा रहे हैं ,
बलात्कार के दोषियों को
फाँसी दो ,
फाँसी दो ,
बडे-बडे पोस्टर लटकाये , बडे बेनर उठाये
चले जा रहे हैं ,
उनमें कुछ परेशान हैं
देश की व्यवस्था को लेकर
और कुछ भीड में पीछे चल ,
भीड बढा रहे हैं ,
वो फोन में अश्लील चित्र /
फिल्में देख रहे
फिल्में देख रहे
और मुस्कुरा रहे हैं ,
साथ में नारी हक में नारे
लगा रहे है ,
लगा रहे है ,
वो आज फिल्में देख मुस्कुरा
रहे हैं
रहे हैं
कल बलात्कार कर
खिलखिलायेगें
खिलखिलायेगें
अपनी मर्दनगी पर इठलायेगे ,
ये देख
मैं वहीं किनारे सडक पर बैठ
गयी
गयी
और सोचने लगी
कि कल फिर क्या ये
किसी भीड का हिस्सा बन
नारे लगायेगें
बलात्कारियों को फाँसी दो !
या फिर किसी और हूजूम में
इकट्ठे हों
हिंदुस्तान जिन्दाबाद के नारे लगायेगें ।