साहित्य में स्त्रियों की भागीदारी

जयश्री रॉय
( जय श्री राय हिन्दी कथा साहित्य में एक मह्त्वपूर्ण उपस्थिति हैं. साहित्य में स्त्रियों की भागीदारी

जयश्री राय

नामक यह आलेख इन्होंने  स्त्रीकाल , गुलबर्गा वि वि , गुलबर्गा और भारतीय भाषा परिषद केसंयुक्त तत्वावधान में मार्च में आयोजित सेमिनार में प्रस्तुत किया था. जयश्री से उनके मोबाइल न : 9822581137 पर संपर्क किया जा सकता है )

 
स्त्रीलेखन एक बहुत बड़ा विषय है। इसलिए कहानी
में विशेष रुचि रखने के कारण मैं कथा साहित्य, खास कर अपनी पीढ़ी की
कुछ कहानियों के हवाले से
ही अपनी बात कहूँगी।
साहित्य
में स्त्रि
यों की भागीदारी
और दावेदारी पर अपनी बात की शुरुआत मैं प्रख्यात स्त्रीवादी लेखिका
प्रभा खेतान के एक उद्धरण से करना चाहती हूँ, जिसे मैंने उनकी
पुस्तक ‘उपनिवेश में स्त्री’ से
लिया
है। वे कहती हैं –

ऐसा नहीं कि स्त्री-लेखन में अंतर्निहित खामोशी

पहचानी नहीं गई है। यह एक ऐसी खामोशी है जो स्त्री के लेखन
में शुरू से आखिर तक छायी रहती है। उसका बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। स्त्री का यह
अनकहा जगत उसकी अज्ञानता का सूचक नहीं। बल्कि मुझे तो
लगता है कि कुछ क्षेत्रों में वह जान-बूझकर खामोश रहती है। स्त्री भली-भांति जानती
है कि पितृसत्ता की दमनकारी शक्ति उसे कितनी छूट दे सकती है, कितनी नहीं। सदियों से उत्पीड़ित होती
हुई
स्त्री साहित्य-जगत में भी कुंठित है। वह पुरुषों की पैंतरेबाजी से आतंकित है, संपादक मण्डल की लाल स्याही के
सामने
असुरक्षा और हीनता के बोध से ग्रसित है। आज भी तो पुरुष संपादक और पुरुष आलोचक लेखिकाओं
से कहता है कि तुम यह लिख सकती हो और यह नहीं। उनका मसीहाई रवैया हर कहीं हावी है।“
प्रभा
खेतान की यह पुस्तक
ग्यारह वर्ष पूर्व यानी 2013 में
प्रकाशित हुई थी। यह लेख उससे कुछ और पहले ही लिखा गया हो। तेरह वर्ष के फासले के बाद
आज जब हम इन पंक्तियों के आलोक में स्त्री लेखन के वर्तमान स्वरूप को देखते हैं तो
लगता है परिदृश्य में बहुत कुछ बदला है। स्त्री अंतर्जगत के उस अनकहे
का कोई न कोई हिस्सा
आज हर रोज जाहिर हो रहा है। आज लेखिकायेँ
पुरुषों
की उन पैंतरेबाजियों को न सिर्फ पहचान रही हैं, बल्कि उसका एक रचनात्मक प्रतिपक्ष भी
रच रही हैं। हाँ, स्त्री
लेखन के इस नए तेवर को लेकर आलोचना
का रवैया आज भी बहुत सकारात्मक
नहीं
हो
पाया है। स्त्री आलोचकों की कमी और परिदृश्य में
मौजूद
कुछ
स्त्री
आलोचकों
का उसी पुरुषवादी दृष्टि से
अनुकूलित हो जाना इसकी बड़ी वजहें हैं। मौजूदा
हालात
में यदि हम प्रभा खेतान की बातों पर
गौर करें तो उसमें कहीं
न कहीं भविष्य के स्त्री लेखन का एजेंडा जरूर
दिखाई पड़ेगा, जिससे गुजरकर
आज के लेखन में स्त्रियों की भागीदारी और
दावेदारी दोनों को समझा जा सकता है।
मेरी
दृष्टि में साहित्य में स्त्रियों की भागीदारी

का मतलब सिर्फ लिखते रहना और दावेदारी का मतलब उस लिखे पर किसी की अनुकूल टिप्पणी
के लिए किसी संपादक-समीक्षक से गुहार लगाना भर नहीं है। बल्कि मेरे लिए स्त्री
की रचनात्मक भागीदारी का मतलब अपने उन उपेक्षित और
अनकहे सच को मुख्यधारा में प्रकट कर खुद के लिए सम्मान और बराबरी का एक ऐसा दर्जा
हासिल करना है जहां स्त्रियों को एक दोयम दर्जे का लिंग नहीं बल्कि एक मनुष्य का
दर्जा
प्राप्त हो। मीरा,
महादेवी से लेकर कृष्णा सोबती,
मन्नू भण्डारी,
उषा प्रियंवदा,
मृदुला गर्ग,
ममता कालिया,
चित्रा मुद्गल,
रमणिका गुप्ता, नासिरा
शर्मा, प्रभा खेतान, अर्चना वर्मा, मैत्रेयी पुष्पा, गीतांजली श्री और जया जादवानी तक हिन्दी
में स्त्री रचानाकारों की एक लंबी शृंखला है
जिनका लेखन साहित्य में स्त्रियों की भागीदारी को इन्हीं अर्थों में स्वीकार किए
जाने की मजबूत दावेदारी पेश करता रहा
है। मित्रो, महक, शकुन, रीता, मनु, राधिका और सारंग
जैसे चरित्रों को रच कर हमारी अग्रज लेखिकाओं ने स्त्री मन की उन्हीं अभिलाषाओं और
कामनाओं को अभिव्यक्त किया है जो अपने हिस्से की धूप, हवा, आकाश और जमीन जाने कबसे तलाश रही  हैं।
मुझे
यह कहते हुये यह खुशी हो रही है
कि स्त्री कथाकारों की ताज़ा पीढ़ी
भागीदारी और दावेदारी की उस यात्रा को लगातार आगे बढ़ा रही है। हिन्दी साहित्य, खासकर कथा साहित्य में स्त्रियों की इस
रचनात्मक
भागीदारी
को समझने के लिए मैं इसी पीढ़ी की कुछ कहानियों की
तरफ बढ़ूँ उसके पूर्व स्त्री लेखन के उद्देश्य और निहितार्थों पर भी दो-एक बातें
कहना चाहती हूँ। आज का  स्त्री लेखन स्त्री
विमर्श के नाम पर बहुप्रचारित कई तरह के मिथकों का
खंडन ही नहीं करता बल्कि अतीत के कई धुंधलकों को भी साफ करता है। आज स्त्री
लेखन का मतलब पुरुष विरोध नहीं है। बल्कि स्त्री विमर्श बहुत हद तक मित्र-पुरुषों
की एक ऐसी खोज यात्रा है जिसके तहत अर्द्धनारीश्वर पुरुषों की शिनाख्त कर समाज और सभ्यता
की विकास यात्रा को एक संतुलित विस्तार दिया जाये। हमारे समय की स्त्री-कथाकारों
की कहानियों में स्त्री-मन
की अनकही
संवेदनाओं की उपस्थिती के समानान्तर वैसे पुरुषों को पहचानने की कोशिश भी स्पष्ट
तौर पर देखी जा सकती है। स्वयं के अस्तित्व को आवश्यक प्रतिष्ठा प्रदान करते हुये
सकारात्मक बदलावों के वाहक पुरुषों के पहचानने के इस जतन को
सृष्टि
में निहित स्त्री तत्वों
को सहेजने-संभाल
ने की
प्रक्रिया
के रूप में भी देखा जाना चाहिए।
 
भागीदारी
की यह लड़ाई किसी
पत्रिका विशेष के कुछ पन्नों  पर अपने लिखे की उपस्थिति  सुनिश्चित करने की लड़ाई नहीं, बल्कि सत्ता और संपत्ति में अपनी जायज
भागीदारी की दावेदारी भी है। परंपरा से प्रतिपक्षी रहे पुरुषों का आवश्यक कायांतरण
कर मानवता की विकास यात्रा में स्त्री-पुरुष
दोनों
की सहभागिता को सुनिश्चित करना इतना आसान नहीं है। इसके लिए स्त्रियों
को
बाहर से ज्यादा अपने भीतर से लड़ना और जूझना होता है। जनवरी-फरवरी 2000 में
प्रकाशित हंस के विशेषांक ‘अतीत
होती सदी और स्त्री का भविष्य’
जिसका विशेष सम्पादन अर्चना जी ने किया था, के संपादकीय में वे कहती हैं –
व्यवस्था
के देने से जितना दिया
जा सकता
था इस औरत ने ले-लेने की अपनी हिम्मत के चलते उससे कहीं ज्यादा लिया। दिया जा
सकाता था, दिया गया- शिक्षा का अधिकार, व्यवसाय के अवसर, आर्थिक आत्मनिर्भरता, संपत्ति में साझेदारी और सत्ता की संभाव्य
भागीदारी।
उन्हें अपनी हिम्मत से लेना होता है। उसे लेकर यह
स्त्री विशिष्ट हुई,
पर किससे विद्रोह और किससे
स्वाधीनता?
सबसे पहले अपने ही अंदर बैठी,
पितृसत्तात्मक समाज के निर्णयों,
मूल्यों-मर्यादाओं में ढली और आस्थाओं में पगी
उस औरत से जो अपनी निर्भयता को अंकुशित, निर्णय
को संचालित और अभिव्यक्ति को ग्रस्त करती है। खतरे का निशान दिखाकर सावधान करती
है।“
मुझे
खुशी है कि आज
लेखिकाएं
अपनी कहानियों और कथा-चरित्रों के माध्यम से परंपरा से अपने
भीतर खींच दी गई लक्ष्मण रेखाओं को नकार कर
अपने मानवोचित अधिकारों की आचार संहिताएँ खुद लिख रही हैं। दया के प्रतिदान की
उम्मीद में रिरियाते रहने के मुकाबले
अपना
हिस्सा खुद अपने बूते ले-लेने की उनकी
हिम्मत का ही यह नतीजा है, जिसकी  तरफ चौदह वर्ष पूर्व
अर्चना जी ने इशारा किया था। भागीदारी की दावेदारी की इस पूरी प्रक्रिया को मैं स्त्रियों
को देवी या दासी बना देने की साजिश का प्रतिरोध करते हुये उनके मनुष्य होने की स्वीकार्यता
और पुरुषों के भीतर के स्त्री तत्व को पुनर्जीवित करने के संयुक्त उपक्रम के रूप में
देखती हूँ। यही कारण है कि स्त्री विमर्श का यह आधुनिक
स्वरूप
और अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा दोनों ही मुझे समानधर्मी
लगते हैं। लेकिन इस सपने का साकार
होना
इतना आसान भी नहीं। इस नवनिर्माण के पीछे इच्छाशक्ति, संकल्प, प्रतिरोध, चुनौती और
अतिक्रमण
की
समवेत
सहभागिता होती है, जिन्हें
आज
की कहानियों में बखूबी देखा और पहचाना जा सकता है। उदाहरण के तौर
पर मैं
यहाँ अपने समकालीन स्त्री कथाकारों की तीन
बहुचर्चित
और महत्वपूर्ण कहानियों
का जिक्र करना चाहती हूँ। ये कहानियाँ हैं नीलाक्षी सिंह की
टेक
बे त टेक न त गो

जो उन
के पहले संग्रह में
प्रतियोगी नाम से संकलित है
, कविता की उलटबांसी और किरन सिंह की कथा सावित्री सत्यवान
की

बात सबसे पहले
टेक
बेट टेक न त गो

की। इस कहानी में दुलारी
जिस तरह जिलेबी
और
कचरी के
अस्तित्व को
बचाने के बहाने खुद को यानी एक स्त्री
को बचाने की लड़ाई लड़ती है वह उल्लेखनीय है।
एक ऐसे
समाज में जहां आर्थिक निर्णय हमेशा से
पुरुष
लेते रहे हैं
,
एक स्त्री का अपने पति के साथ मिलकर दुकान चलाना भी एक हद
तक
प्रगतिशील बात हो सकती थी, लेकिन दुलारी तथाकथित
प्रगतिशीलता की
खोल में छिपी पितृसत्ता को पहचानती है।
तभी तो वह
 छक्क
प्रसाद एंड संस के मु
काबले
दुलारी जलेबी सेंटर खोलकर पितृसत्ता को चुनौती
देते हुये छ
क्क्न
प्रसाद द्वारा निष्का
सित
जले
बी-कचरी को बचाने के
बहाने अपने भीतर की स्त्री को बचाने का
संघर्ष
करती है। यहाँ इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि दुलारी का पति छ
क्क
प्रसाद भले उसका प्रतियोगी हो
, लेकिन जीत के नए
उपकरण तलाशता उसका बेटा मिंटू
अस्मिता संघर्ष
में उसके साथ है।
मिंटू
भी पुरुष है लेकिन वह अपने पिता से इन
अर्थों में
 भिन्न है कि वह अपनी माँ
के अस्मिता-बोध
को पहचानता है। साथी पुरुष की यही पहचान समकालीन स्त्री विमर्श का नया चेहरा है जो
पुरुष को
हर सूरत में
खल नहीं साबित करता।
 
 
स्त्री
अस्मिता
,
पहचान और उसके
निर्णय लेने की स्वतन्त्रता को कविता ‘उलटबांसी’ में एक दूसरे धरातल पर उठाती
हैं, जहां घर परिवार में उपेक्षा का दंश
झेलती एक विधवा  मां अपने विवाह का निर्णय
लेती है। पूरे परिवार के मुखर विरोध के बीच बेटी का अपनी मां का निर्णय में साथ देना
स्त्री-स्त्री के बीच विनिर्मित जिस रसायन की बात करता है, उसकी जड़ें कहीं
न कहीं स्त्री होने के साझे दर्द और उस दर्द के मिल बांट लेने की सहज
आकांक्षा से उपजी है। एक स्त्री का यह निर्णय इतना आसान नहीं होता, संकल्प और निर्णय के इस हिम्मत के लिए
उसे खुद,
परिवार और समाज के तिहरे मोर्चों पर लड़ना होता है।
इन दोनों कहानियों के मुक़ाबले
‘कथा सावित्री सत्यवान की’ की नायिका का सच अलग है। सम्बन्धों को पुनर्जीवित
करने की लालसा में उन्हें पुनर्परिभाषित
करने की जो छटपटाट आज स्त्री मन के भीतर चल रही है, उसकी अनुगूंजें
इस कहानी में साफ सुनी जा सकती हैं, जहाँ एक स्त्री अपने पति की ज़िंदगी बचाने
के लिए खुद की प्रतिष्ठा तक को दांव पर लगा देती है। शोहरत
और प्रतिष्ठा की सहज कामना से भरी
एक नवोदित लेखिका के जीवन में किसी
संपादक
का
लार टपकाते हुये उसका गॉड फादर बन बैठना कोई नई बात नहीं है। इस प्रक्रिया
में
लेखिकाओं
को
जाने  किन-किन अंधेरी सुरंगों से गुजरना
होता है। लेकिन इस कहानी
में जिस तरह इन अंधेरी सुरंगों में प्रवेश कर चुकी एक लेखिका इसका
अपने पक्ष में इस्तेमाल करती हुई अपने बीमार पति
के ऑपरेशन का खर्च जुटाती है,
वह इस कहानी को एक ऐसे
धरातल पर ले जाता है, जिसे देखने के हम आदी नहीं रहे हैं।
अलग-अलग
धरातल और भावभूमि पर
खड़ी ये स्त्रियाँ अलग हो कर भी एक
दूसरे से अलग कहाँ हैं?
एक नई दुनिया के निर्माण का जो सपना इनकी
आंखों में पल रहा है,
वह सिर्फ इनका नहीं, पूरी स्त्री जाति
का सपना है। प्रसंगवश मैं अपनी
कहानी
‘औरत जो नदी है’ की दामिनी और ‘पिंजरा’ की सुजा
को याद करना चाहती हूँ जिन्हें रचते हुये न जाने किस अथाह पीड़ा से गुजरना
पड़ा था मुझे। जाहिर है मेरे या अन्य साथी
रचनाकारों
के लिए पितृसत्ता की बिसात को पलट
कर
रख देने की क्षमता रखने वाले ऐसे साहसी चरित्रों को
गढ़ना इतना आसान नहीं होता। अपने भीतर और बाहर खड़ी
कर
दी
गई परंपरा,
शिष्टाचार और मर्यादा की तथाकथित दीवारों को लांघने के संकल्प के
साथ जारी इस यात्रा में अपनी अग्रज लेखिकाओं द्वारा देखे गए स्वप्न भी शामिल
हैं। समकालीन लेखन में इन स्त्रियों
की ये मजबूत उपस्थितियाँ स्त्री अधिकारों की स्थापना
के साथ-साथ पुरुषों के विकास-यात्रा की भी दास्तान
हैं।
स्त्रियों को सिर्फ मादा होने तक सीमित कर दिये
जाने की साजिश के विरुद्ध उन्हें मनुष्य
रूप
में प्रतिष्ठित करने का जो बीड़ा रचना ने उठाया हुआ है, आलोचना को भी उसके मर्म तक पहुँचने की
जरूरत है।

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