हलवा, कपड़े और सियासत



संदीप मील 


( संवादों
में गुंथी यह कहानी संदीप मील के कहन की एक अच्छी मिसाल है. यह कहानी बिना अतिरिक्त
शोर के स्त्रीवादी कथन के कारण बेमिसाल है. बल्कि काम के जेंडर डिविजन और घ्ररेलू
श्रम के राजनीतिक पाठ तथा पितृसत्ता के महीन रेशों से मुठभेड करती स्त्री को  स्त्री अध्ययन पाठ्यक्रमों में कहानी के माध्यम
से पढाने के लिए भी यह उपयुक्त कहानी है . आज मील का जन्मदिन है , उन्हें
मुबारकवाद  देते हुए पाठकों के लिए यह
पेशकश  )

‘‘अबकी बार, बेगम की सरकार।’’

‘‘रहने दो मियां, लगता है हलवा खाना है।’’

‘‘हलवे का सरकार से क्या ताल्लुक ?’’

‘‘सब जानते हैं कि आपको जब भी हलवे की तलब होती है तो
सारी सियासत मेरे

हवाले कर देते हो।’’

‘‘लेकिन अभी मुल्क को आपकी जरुरत है।’’

‘‘मुल्क हलवा थोड़े ही खाता है ?’’

‘‘देखिये, ये मजाक का वक्त नहीं है। आपको सरकार चलानी पड़ेगी।’’

‘‘आप मेरे कहने से रसोई चलाते हैं ?’’

‘‘अरे, रसोई और सरकार में बहुत फर्क होता है। सरकार चलाना
बड़े सब्र और

जहन का काम होता है ?’’

‘‘और रसोई बड़ी बेसब्री और जाहिलपन का काम होता है, यही ना ?’’

‘‘तुम्हारा गुस्सा भी बेगम…, सोचो, मैं सारा मुल्क तुम्हारे
हवाले कर

रहा हूं और तुम मुझ पर ही
खीज रही हो।’’

‘‘यह तो आप मर्दों की फितरत है कि वे घर और मुल्क को
अपनी अमानत मानते

हैं। अपनी मर्जी से किसी
के भी हवाले कर देंगे।’’

‘‘वाशिंग मशीन ठीक हुई ?’’

‘‘मुल्क के गंदे कपड़े भी धोने हैं क्या ? तभी शायद औरतों के हवाले
कर रहे हो।’’

‘‘तुम हर बात को उल्टी मत लिया करो।’’

‘‘तो बिना मैकेनिक मशीन ठीक कैसे होगी ? आप चार दिन से रोज जा रहे
हैं और

एक मैकेनिक नहीं मिला शहर
में ?’’

‘‘अरे, आजकल शादी-ब्याह का सीजन है ना। सब मैकेनिक व्यस्त
हैं।’’

‘‘जावेद की दुकान में अटेंडेंस रजीस्टर देखकर आये हो ?
’’
‘‘अब जावेद कहां से आ गया बीच में ?’’

‘‘रोज मैकेनिक के बहाने जावेद की दुकान पर ही ताश खेलकर
आ जाते हो। मुझे

सब पता है।’’

‘‘तुम्हारी कसम, दो महीने से ताश के हाथ भी नहीं लगाया।’’

‘‘आज तक किसी मर्द ने औरत की सच्ची कसम नहीं खायी होगी।
सच बात में तो

कसम की जरुरत ही कहां
होती है।’’

‘‘इसका मतलब सारे मर्द झूठ बोलते हैं ?’’

‘‘कम से कम औरतों के सामने तो….।’’

‘‘अब क्या किया जाये ?’’

‘‘मुल्क का, रसोई का, हवले का या फिर आपके

कपड़ों का।’’

‘‘अरे! मुझे तो याद ही नहीं रहा कि चार दिन से

कपड़े
भिगो रखे हैं।’’

‘‘और आपको इमराना की शादी तो याद होगी ?’’

‘‘यह लो! आज ही है इमराना की शादी। मेरे पास एक भी
कपड़ा नहीं बचा है।’’

‘‘एक दिन आप कह रहे थे कि आपको कहीं भी नंगे जाने में
शर्म नहीं आती।’’

‘‘तुम बड़ी बेरहम हो। एक तो मैं मुसिबत में हूं और ताने
भी मार रही हो!’’

‘‘आप सोच रहे होंगे कि मैं आपके कपड़े धो दूं ?’’

‘‘इसमें गलत क्या सोच रहा हूं ? मुझे कपड़े धोने आते ही
कहां हैं ?’’

‘‘जबकि आप सीखने की कोशिश तो लगातार करते रहे हैं।’’

‘‘जब आते ही नहीं तो कोशिश करने से क्या फायदा ?’’

‘‘मुझे भी तो सरकार चलानी नहीं आती, बेवजह की कोशिश क्यों
करुं ?’’

‘‘अब कपड़ों में भी सरकार को ले आयी। इमराना की शादी
में जाना तो मुश्किल

लग रहा है शायद।’’

‘‘मुझे तो नामुमकिन-सा भी लग रहा है शायद।’’

‘‘नामुमकिन क्यों ? मैं जरूर जाऊंगा, नये कपड़े खरीद लूंगा।’’

‘‘आपको खरीददारी बहुत पसंद है, एक सैट मेरे लिये भी खरीद
लीजिये।’’

‘‘हां बेगम, तुम्हारे लिये भी खरीद लेंगे। पैसा दो।’’

‘‘आप अपने लिये खरीदें उसमें से ही कुछ पैसा बचाकर मेरे
लिये खरीद लीजिये।’’

‘‘मेरे पास पैसा कहां है ?’’

‘‘तो फिर आप कपड़े कैसे खरीदेंगे ?’’

‘‘पैसा तो तुम ही दोगी।’’

‘‘मेरे पास भी पैसा नहीं है।’’

‘‘तुम्हें कल रौशनी सिलाई के पैसे देकर गई थी ना !’’

‘‘उसका तो तेल और आटा ले आयी। आपको भी तो तनख्वाह मिली
है परसों।’’

‘‘तुम तो जानती हो बेगम मेरे कितने झंझट हैं। सारी जेब
खाली हो गई।’’

‘‘आप एक पैसा भी कभी घर पर नहीं लाते हो। जुए का शौक भी
पाल लिया क्या ?’’

‘‘तौबा…तौबा….। जुआ तो हमारे खानदान में आजतक किसी
ने नहीं खेला।’’

‘‘आपका खानदान बड़ा इज्जतदार है। वैसे आजकल आपकी कुल
तनख्वाह क्या है ?’’

‘‘ऐसे पूछ रही हो जैसे तुम्हें मालूम ही न हो। पूरे दस
हजार मिल रहे हैं।’’

‘‘मुझे लगता है कि आपके खानदान में सबसे ज्यादा कमा रहे
हो ?’’

‘‘बिल्कुल दुरुस्त फरमाया तुमने। इस पर तुम्हें फख्र
होना चाहिये।’’

‘‘इसी फर्क से तो दुबली हुई जा रही हूं।’’

‘‘मतलब ?’’

‘‘यही कि दस हजार कमाने वाले के पास कपड़े खरीदने के
पैसे भी नहीं हैं।’’

‘‘मजाक मत करो। पैसे दो, कपड़े खरीदने हैं।’’

‘‘मैं सोच रही हूं…..।’’

‘‘बहुत ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं है। केवल हजार रुपये
दे दो।’’

‘‘यह नहीं सोच रही हूं। सिलाई बंद करने की सोच रही हूं।’’

‘‘फिर घर कैसे चलेगा ?’’

‘‘आप दस हजार जो कमाते हैं ना!’’

‘‘मेरे दस हजार तो मुझे भी कम पड़ रहे हैं। सिलाई बंद
करने से तो सब चैपट

हो जायेगा।’’

‘‘एक रस्ता और भी है ?’’

‘‘क्या ?’’

‘‘आप भी सिलाई सीख लीजिये। कम कमायेंगे लेकिन आपके दस
हजार से ंज्यादा
बरकत हो जायेगी।’’

‘‘कान खोल के सुन लो बेगम, अभी इतने बूरे दिन नहीं
आये हैं।’’

‘‘इससे भी बूरे आने वाले हैं। मेरे सिलाई बंद करते ही।’’

‘‘सुबह-सुबह यह झंझट क्यों कर रही हो ?’’

‘‘आपने ही तो शुरु किया है।’’

‘‘लेकिन इमराना की शादी में तो जाना ही चाहिये ना ?’’

‘‘जाना तो चाहिये। आप पुराने कपड़े पहनकर क्यों नहीं
चले जाते ?’’

‘‘शादी में पुराने कपड़े कैसे पहनकर जाया जा सकता है
भला। मेरी भी कुछ इज्जत है।’’

‘‘यह बात तो सही है। आपकी इज्जत तो बहुत है लेकिन कपड़े
नहीं हैं।’’

‘‘एक उपाय है मेरे पास।’’

‘‘हम भी सुनें तो जरा।’’

‘‘मैं हलवा बनाने की कोशिश
करता हूं और आप कपड़े धो दीजिये।’’


‘‘यह बिल्कुल सही है। आप जल्दी से हलवा बनाईये, मैं कपड़े धोकर आती हूं।’’


‘‘ठीक है फिर।’’


‘‘जानाब, आप सच में हलवा बहुत अच्छा बनाते हैं।’’


‘‘बेगम, आप से ही सीखा है। आप कपड़े बहुत जल्दी धोते हैं।’’


‘‘मजा आ गया।’’


‘‘बेगम, कपड़े कितनी देर में सूखते हैं ?’’


‘‘धोने के दो घंटे बाद।’’


‘‘यानी कि बारह बजे तक सूख जायेंगे।’’


‘‘हां, अगर आपने अभी धो दिये तो। वैसे मैंने मेरे भी साथ
भिगो दिये हैं।’’

संदीप मील


( संदीप मील युवा कथाकार हैं और स्त्रीकाल के वेब एडिशन के
संपादक मंडल के सद्स्य भी इनसे 09636036561
पर संपर्क किया जा सकता है )