एक ऐसा इतिहास कि जो लिखा न गया किताबों में

फारूक शाह


मिजाज से फकीर और विचार से दार्शनिक फारूक शाह हिंदी और गुजराती के  कवि और आलोचक हैं .  ये   विशेष तौर पर हाशिये के लेखन ( दलित , दलित स्त्री और स्त्री लेखन ) , तथा मध्यकालीन निर्गुण -सूफी -जोगी साहित्य के प्रति समर्पित हैं ,  शोधरत हैं, और भारतीय भाषाओं में हो रहे  हाशिये के लेखन तथा संत साहित्य को   हिंदी में तथा गुजराती में प्रस्तुत करते रहे हैं .
लेखन और सम्पादन : ‘वही’ (कविता और लोकसंस्कृति की गुजराती पत्रिका) के संपादक. हिन्दी पत्रिका ‘वंचित जनता’ के साहित्य विभाग के संपादक.  *कविता संग्रह : ‘नकशानी एक रेखा’ (कविता संग्रह) *संपादन ‘सुण शबद कहे जो संत-फ़कीर’ (गुज. संत-सूफी-जोगी शबद) ‘कोयल आंबलियामां रमती’ (बेटी विषयक लोकगीत) ‘पाये पाये मानब मुक्तिर खोज’ ( अनुवाद और संपादन : दलित-शोषित बांग्ला साहित्य) ‘विश्वे व्यापवानी आकांक्षाए ऊभेली…’ (अनुवाद और संपादन : भारतीय भाषाओं से दलित स्त्री लेखन) ‘चित्त नवुं चन्द्रमा पण नवो’ (लल द्यद की कश्मीरी कविताओं का अनुवाद) ‘सोई सरवर ढूंढि लहे…’ (बाबा फरीद के पंजाबी सलोक के अनुवाद) .
स्त्रीकाल के पाठकों के लिए दलित स्त्री के बारे में इनकी तीन कवितायें . फारूक शाह  से farook_shah@gmail.com  पर सम्पर्क किया जा सकता है.

1. उत्पत्ति विचार 

पहले कुछ भी नहीं था
बाद में विश्व का सर्जन हुआ
हरेक जीव को जीने का अधिकार प्रकृति ने दिया
बाद में कई युग बीत गए
कहते है कि वानर से बन गया मानव
मानव जंगली था
फिर सभ्य हुआ
पहले हिंसक था
फिर रचनात्मक बना
बाद में उस रचनात्मकता के शास्त्र बने
शास्त्रों को प्रचारित करने वाला पुरोहित अस्तित्व में आया
उसने मानव को दो हिस्सों मेँ बाँट दिया
नर और नारी
नर का राज रहा
नारी ने नौकरी की

बाद में नर को भी बाँटा गया
जाति में
नर के साथ नारी भी जाति में बँट गई
फिर उच्च और नीच की श्रेणियाँ कायम हुई
फिर नारी जो नौकर थी और उच्च या नीच जाति थी
उसमें उच्च उच्च रही
नीच नीच रही
दोनों में सींचा गया
आपस के भेदभाव का संस्कार
फिर उनके रक्त निचोड़ने की पद्धतियाँ
बनाई गई
नीच के हिस्से जाति आई, बाहर की मजदूरी आई
और कई सारी दिक्कतें
देह को लेकर चारों ओर से आ घमकी
रक्त निचोड़ा गया सभी का

बाद में एक लम्बा समय-खण्ड गुज़र गया
तभी आशा का प्रकाश फैलाने वाले
कुछ लोग आये
उन्होंने कुछ रक्त विहीन देहों के दिलों में
आशा की ज्योत प्रज्वलित की
बाद में उन रक्त विहीन देहों के तल से
पैदा हो गई आग
फुफकारती तेज तर्रार आग
उस आग से उन्होंने पहले तो जलाया
अपने दिमाग में जमे हुए दु:खों को
फिर सूखी हुई रक्त-नलिकाओं में भर दिया
आग से उत्पन्न तेजपुंज
बाद में जलाया अपने आसपास उगाई गई
कंटीली झाड़ियों को
बाद में वे सब
जो कुछ भी जीवन के विरोध में हैं उसको जलाने के लिए
कटिबद्ध होकर जूझ रही हैं

2.  शायद अब

शायद अब समय आ गया है
हीनताओं की आपाधापी से
गरीबी की लाचारी से
जाति के धिक्कार से
गिद्धों के बीच फँसी गोरैया जैसी हालत से
इन्सान होने की शंकाओं से
और औरत होने के दंशों से
शायद अब तू बाहर आ सके

तेरे आसपास मंडराते आये हैं अविरत
अगणित सांप
अपनी जीभ लपकारते
विष टपकता मुँह डुलाते
डरावनी चेष्टाएँ करते

तेरे आसपास अज्ञान का अभिशाप
अपने तीक्ष्ण दाँत भींचता
क्षत-विक्षत करता आया है
सदियों से

तेरे आसपास शोषण के
प्रताड़ित करने के
सरंजामों का ढेर
करता आया है समाज
हमेशा से

तू बच्ची से बूढ़ी होती चली आ रही है
एक कृतक गढ़े हुए मिथक जैसी
तू सदा हीन ख्याल की तरह
सोची और समझी गई
तेरा अस्तित्व, तेरा आत्मबोध
तेरा अपना मनोजगत
अभी तक अनुपस्थित रहता आया है
इस पृथ्वी पर

फिर भी तू एक भ्रमणा हमेशा पालती रही
अपने भीतर कि तू कुछ है
तुझे पता ही न चला कि
तेरे होने का, तेरे मन का
तू जिसे अपना जीवन मानती हो उसका
तू जिन्हें अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ समझती आई हो उन सब का
उपयोग होता आया है
तेरे अस्तित्व के विरुद्ध
तुझे थी – न थी करने वाला वातावरण रचने के लिए
उन सब बातों का इस्तेमाल होता आया है

तू हरेक युग में हर जगह थी
और तू होते हुए भी कहीं भी नहीं थी
ऐसा इसलिए लगता रहा कि
हकीकत में तुझे अवकाश में खड़ी की गई
बात की तरह प्रस्तुत करने की प्रथा
हमेशा से चली आई है

शायद अब समय आ गया है
तेरे बारे में जो भ्रांतियों की परम्पराएँ
सदियों से चलाई जा रही हैं
उन सब भ्रांतियों के परदें फाड़कर
बाहर आने का
शायद अब समय आ गया है
अपने होने का सत्य
अपने भीतर ही ढ़ूंढ़कर
अपने कण्ठ से
उसे व्यक्त करने का
तेरा सत्य तुझे व्यक्त करना चाहिए
क्योंकि दुनिया अभी तक उससे बेखबर है
तू इतना तो कर सकेगी न ?
इतनी कृपा करने का साहस तो तू जुटा ही सकती है

3.  निर्तिहास

एक इतिहास को लिए
अपने चहरे की उलझनों में
सफ़र करती रही
दलित शोषित समुदाय की स्त्री

एक ऐसा इतिहास
कि जो कभी
लिखा न गया किताबों में
जिसने भी कोशिश की
उसे लिखने की
उसके हाथों को काट दिया
क्रूर ठेकेदारों ने
जिसने भी प्रयत्न किया
उसके उच्चारण का
पाशविक दुकानदारों ने उसका
गला घोंट दिया
जिसने भी चेष्टा की उस इतिहास की ओर
संकेत करने की
तहस-नहस कर दिया रक्तपिपासु दरिंदों ने
उसके वजूद को

और इतिहास कोई रुकी हुई नदी जैसा नहीं होता
या तो कोई कोने में पड़ी
चेतनहीन चीज जैसा
हकीकत में वह होता है
दीमक के आदमखोर गिरोह जैसा
और होता है उन प्रचण्ड मस्तकधारी
डरावने प्रेतों की
युगों युगों तक फैली कतारों जैसा
जो अभिशाप उगलते रहते हैं

ये दीमक, ये प्रेत
दलित शोषित स्त्री के चेहरे की त्वचा में
सिमटने की जिद धरे न जाने क्यों आज तक
चले आये होंगे बेशर्मी से ?

स्त्री आखिर तो स्त्री होती है
उसके अंदर शक्ति होती है प्राकृतिक रूप से
उसे भूखी रखने से या उसके चेहरे से
अभिव्यक्त होने मथती भावनाओं को नोंचते रहने से
या उसके हाथ-पैर को शोषते रहने से
या तो उसके अंदर शक्ति के अभाव का वहम डालने का
षड़यंत्र चला-चलाकर
कब तक शक्ति को दबाया जा सकता है ?

कुदरत प्रतीक्षा रत है
ममता में डूबी माताएं
भीगी पलकें बिछाए राह देख रही हैं
बचपन की उजाड़ डगर पर छोटे-छोटे पाँव भरते
बेगुनाह बच्चे
आश भरे नयनों से घूर रहे हैं पालने-पोषने वाली को

गुज़री हुई और आने वाली पीढ़ियों की चेतना
बेचैन हो तड़प रही है
कोई उपाय के लिए
दबाई गई शक्ति जागृत हो सकती है
होनी ही चाहिए
जागृत होकर अणु-अणु से प्रबल प्राण विस्तारती
उखाड़ के फेंक देंगी
कीड़ें-मकोड़ों जैसे दीमक और प्रेतों को
पृथ्वी को इतिहास विहीन बना देंगी
अपनी ममता का समुद्र बहाकर
नए सिरे से वह निर्माण करेंगी इस विश्व में ऐसा जीवन
जैसा कि होना चाहिए